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________________ १७ हम बहुत कुछ अच्छा-बुरा सुनते है। परंतु उसका निर्णय अपने विवेक द्वारा करना चाहिए । एक ही दवा, एक के लिए जहर का काम करती है, तो दूसरे के लिए अमृत बन सकती है। जो कुछ भी सुनें, पढ़ें उसे गंभीरतापूर्वक, विवेक पूर्ण एवं उपयुक्त शब्दों के माध्यम से प्रकट करना चाहिए । वाणी और दृष्टि की गंभीरता के साथ साथ, हृदय सागर जैसा विशाल होना चाहिए। हमारे कहे हुए शब्द कई बार लौटकर हमारे ही पास आ जाते हैं। किसी के लिए अभिप्राय देने से पहले हम यह सोचें कि यदि यह बात उनके कानों तक गई, तो वे क्या सोचेंगे। सोच विचार कर बोलना मनुष्य का प्रथम कर्तव्य है। बिना सोचे बोलने से कई बार क्लेश पैदा होते हैं। कौनसी बात, किस संदर्भ में कह रहे हैं, इसका ध्यान होना चाहिए। अक्सर हम पुत्रवधू के लिए कहते हैं, "यह बड़े घर की है।' इसके दो अर्थ हो सकते हैं,याने कि अच्छे खानदान की है, सद्गुणी है। दूसरा अर्थ यह भी हो सकता है कि यह कामचोर है, काम नहीं करती। समझदारी पूर्वक बोलने से हम नाहक के क्लेश, झगडों से बच सकते हैं। बात चाहें कैसी भी क्यों न हों? हमें उसे अच्छे शब्दों में भली भांती सोचकर, कहनी चाहिए, जिससे किसी प्रकार का नुकसान न हों, किसी को दुःख न पहुंचे। जानते हुए भी, सत्य होते हुए भी, सब कुछ कहना जरूरी नहीं, हाँ झूठ नहीं बोलना, यह ज्यादा जरूरी है। सत्य को भी विवेक पूर्वक प्रगट करना चाहिए। पुराने समय में राजा के पास ऐसे गुरू, महापुरूष होते थे, जो उन्हें सच्ची राह दिखाते थे। जबसे राजाओं ने ऐसे गुरूओं का पथप्रदर्शन लेना छोडा है, कितने ही पशुता की पराकाष्टा तक पहुंचे और अपना पतन किया है। ऐसा ही एक प्रसंग एक नवाब का है। विदेशी पार्लियामेन्ट का एक सभासद भारतीय राज्य पद्धति का परिचय पाने यहां आया था, वह नवाब के दरबार में गया, नवाब ज्यादा बुद्धिशाली नहीं था, हाँ उसका दुभाषिया बड़ा कुशल था। अब भारत की आबरू रखने का काम दुभाषिये का था। नवाब पूछता है "तुम्हारे राजा कितनी रानीयां Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001809
Book TitleDharma Jivan ka Utkarsh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorChitrabhanu
PublisherDivine Knowledge Society
Publication Year2007
Total Pages208
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Sermon
File Size11 MB
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