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________________ ४७ समष्टि की भक्ति में मुक्ति जब व्यक्ति में कृतज्ञता गुण का विकास होता है, तब वह परहित में मग्न हो जाता है। ‘परहितनिरतः' गुण उसकी प्रकृतिरूप बन जाता है, जैसे खाना पीना सोना प्रकृति है, वैसे ही सद्गुण हमारी प्रकृति बन जानी चाहिए। ऐसा व्यक्ति दूसरों का भला किए बिना रह ही नहीं सकता, यदि किसी का भला न हो सके तो, उसके मुंह पर शून्यता, उदासी छा जाती है, कि उसका वह दिन निष्फल गया। जिस कार्य को करने से हमारा मुँह नीचा हो जाए, ऐसा कार्य करना ही क्यों चाहिए? यदि जीवन में जरूरतें कम कर दी जाएं तो ऐसी स्थिति का सर्जन नहीं होगा। बढती हुई जरूरतें ही हमें वस्तुओं का गुलाम बनाती है। यदि स्वतंत्र जीवन जीना है, तो जरूरतें कम किजिए। किसी के प्रति तिरस्कार की भावना न रखें, किसी की गुलामी न स्वीकार करें तो मृत्यु शैय्या पर भी हम शांति का अनुभव कर सकते हैं। मुक्ति तो भक्ति की दासी है,भक्ति गुण जीवन में आ गया तो मुक्ति तो उसके पीछे दौडकर आएगी। सिर्फ अपने लिए ही नहीं, सबके हित के लिए जीना, इसी में जीवन की सार्थकता है। १७४ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001809
Book TitleDharma Jivan ka Utkarsh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorChitrabhanu
PublisherDivine Knowledge Society
Publication Year2007
Total Pages208
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Sermon
File Size11 MB
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