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२९ हम देह धारी हैं, देह के साथ उसकी जरूरते भी होती है, पर उनपर मर्यादा रखना ही विवेक है।
पहले के लोग श्रमण एवं ब्राह्मण "मांगना और मरना' समान गिनते थे, त्यागियों का काम था, भौतिक वस्तुओं के प्रति उपेक्षा भाव तथा रागियो का काम था त्यागियों की सेवा करना। आज तो साधु मांगते है, तब धनिक लोग समझते हैं कि पैसे से साधु भी खरीदे जा सकते हैं। पर हमें यह नहीं भूलना चाहिए की जिन्हें खरीद सकते है, वे सच्चे त्यागी नहीं है, लोभी हैं, दंभी है। सच्चे साधु को खरीदने के लिए व्यक्ति में सच्ची साधुता होनी चाहिए।
महान विद्वान “कणाद" जैसों का ध्यान रखना. उस काल के राजाओं का काम था। राजा ने स्वर्णमुद्राओं से भरा थाल उनके सामने रखा, पर कणाद तो अपने सर्जन में मस्त थे, उन्होने उन स्वर्णमुद्राओं पर एक नजर भी नहीं डाली। जब तक इन्सान अपने कार्य में आत्म विलोपन नहीं करे, तब तक उस काम में प्राण नहीं फूंक सकता, नही उसका सच्चा आनंद प्राप्त कर सकता है।
प्रेम के साथ-साथ अर्पण और सेवा का भाव भी होना चाहिए, माता अपने बालक को दूध के साथ-साथ प्यार भी पिलाती है, जब कि आया केवल दूध पिलाती है। जब बालक को ऐसा मातृ प्यार नहीं मिलता तब उसका मानस विकृत हो जाता है। प्यार के अभाव में उसके मन में पलने वाली वितृष्णा समय पाकर और तेजोदीप्त हो उठती है। फिर उसका हर कार्य हर सोच नकार को बढ़ावा देने वाला होता है।
हमें अपना प्रत्येक क्षण, ध्येयपूर्वक जीना चाहिए, जो लोग ऐसे आदर्श को सामने रखकर जीते हैं, उन्हें जीवन में नीरसता कभी नहीं सताती।
कणाद ने स्वर्णमुद्राओं के थाल को ठुकराया तब राजा ने रत्नों का थाल हाजिर किया, परंतु कणाद तो संतोष के स्वामी थे, इन रत्नों से भला उन्हें क्या आनंद मिल सकता था? उनकी प्रसन्नता तो प्रेम और सेवा में थी।
भौतिक वस्तुओं का आकर्षण तो साधु को भी मन से भिखारी बना
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