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४२ अभी से करनी होगी, यानी कि पुण्यरूपी लक्ष्मी का उपार्जन इस जन्म में ही हो सकता है। मराठी में दान को 'देव' कहते है, यानि की जिसके मन में देव बसे हों, उसे ही दान देने का विचार आता है। जिसको लेने और लूटने की इच्छा रहती है, उसमें देवत्व का अंश कहाँ ? अनादि काल से लेने का काम किया है, अब देने का वक्त आया है।
शक्ति होते हुए भी दान न देना अपराध है, हमारे पीछे, कोई यह नहीं कहे कि, "बेचारा सब कुछ छोड़कर गया।" बल्कि कहना चाहिए कि, "सब कुछ अच्छे कामों में खर्च कर गया।" लोकप्रियता के लिए यह भी एक अनिवार्य गुण है कि सच्ची बात पर क्रोध न आए, अपितु इससे प्रसन्न होना चाहिए। अपने जीवन उत्थान के लिए महापुरूष हम को हितोपदेश देते है, वो तो निस्वार्थ भाव से कहते है वे हमारी आत्मा की सच्ची पहचान करवाते हैं। अकिंचन तथा कीर्तिलोभी न हों ऐसे महापुरूष तो दर्पण के समान हैं, जो हमें अपना सच्चा स्वरूप दिखाते हैं।
जिसे विश्व में लोकप्रिय होना है, उसे किस प्रकार का त्याग और किसका स्वीकार करना है, उस बारे में हमारी बात चल रही है। व्यक्ति जब तक बुरी आदतें, दुर्गुण छोड़ेगा नहीं, तब तक उसके जीवन में सद्गुणों का अविभाव नहीं हो सकता। हमारा जीवन दुर्गुणो तथा सद्गुणों का मिश्रण है, सद्गुण तो अंदर है ही, परंतु दुर्गुणो का आवरण चढ़ जाने से उन सद्गुणों का दर्शन नहीं हो पाता।
जिसके पास दान, ज्ञान, वक्तृत्व आदि शक्तियां है, इन शक्तियों का कल्याणभाव से उपयोग करना चाहिए, अपनी शक्तियों का गोपन करना भी पाप है। कार्य से ही नया ज्ञान, बोध प्राप्त होता है, शक्तियों का विकास होता है। जीवन में गुरूता ग्रंथि या लघुता ग्रंथि का होना दोनों ही गलत है।
कई बार इन्सान काम करने से पहले ही असफलता के भय से डरता है, इससे काम में अवरोध पैदा होता है। हमें याद रखना चाहिए कि थोडे बहुत प्रमाण में मूलभूत शक्तियां तो हमारे भीतर मौजूद हैं ही। इन्सान यदि
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