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पापभीकता
- धर्म रत्न प्रकरण का छट्ठा सोपान है- पापभीरूता, निर्भय बनो साथसाथ डरो भी, ये दो विरोधात्मक भाव इसमें भरे हुए हैं। निर्भय बनने का अर्थ निर्लज्ज बनना नहीं है, न्याय मार्ग का त्याग, सदाचार का त्याग यह तो अंत में धर्म का त्याग ही हो जाता है। हमें अपने पापों का डर रखना है, बुरे कार्य करने का विचार आते ही आत्मा में स्पंदन का जागरण होना चाहिए। कई प्रलोभन मिलेंगे, मगर नहीं “यह मैं नही कर सकता।" अंदर से आवाज आनी चाहिए। और जो सत्य है, उसका निर्भय बनकर साथ देना चाहिए। यह आध्यात्मिक उन्नति के लिए आवश्यक सद्गुण है। ऐसे पापभीरू व्यक्ति का एक उदाहरण देखते हैं।
एक बार एक आदमी रास्ते में भीख मांग रहा था, सामने से दूसरा आदमी आया उसने उसे भूखा जानकर चने कुरमुरे दिए और चला गया।
जैसे ही उसने चने ममरे खाने की शुरूआत की उसके हाथ में एक स्वर्ण खण्ड आ गया। वह प्रसन्न हो गया, क्यों कि वह गरीबी से पीडित था।
दूसरे ही क्षण उसे विचार आया, "उसने तो चने कुरमुरे दिए है, सोना नहीं, उस पर मेरा अधिकार कैसे हो सकता है।" उसके मन में युद्ध चल रहा है, मन कहता है ‘रखले' आत्मा कहती है 'नहीं', क्यों कि वह पापभीरू था। मानवमात्र में दो प्रकार के मन होते है- एक जाग्रत, दूसरा अजाग्रत। जाग्रत मन गलत काम के सामने विरोध करता है, जब कि अजाग्रत मन कहता
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