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पिता कितना धनवान है, उसे क्या पत्ता? ऐसी ही करूणाजनक स्थिति मानव की है, जो सांसारिक सुखों की प्राप्ति हेतु अपना सर्वाधिक बहुमूल्य धन आत्मधन लुटा रहा है।
इसीलिए ज्ञानियों ने फरमाया है कि, “है मानव तू अपनी संपत्ति को पहचान । राग, द्वेष तथा अहंकार के जाल से मुक्त जो होता है, वही सच्चे आत्मिक सुख की प्राप्ति कर सकता है, ऐसे विषय कषाय मुक्त साधक का सुख चक्रवर्ती राजा के सुख से भी बढ़कर होता है। आखिर तो आत्मलीनता की दशा का जो सुख है उसका अंशमात्र सुख भी भौतिक पदार्थों में नहीं मिल सकता।"
__भौतिक सुखों के जंजाल से बाहर निकल कर, राग द्वेष रूपी कीडे से मुक्त बनकर, लोकव्यवहार से जो व्यक्ति अलिप्त रहता है, उसे ही आत्मा
और परमात्मा के मिलन की अनुभूति होती है। प्रभु स्मरण में मानव अपने अहम् को विलय करके अपने शुद्ध स्वभाव को देखता है, तब उसे नैसर्गिक सुख की अनुभूति होती है। जिस सुख के पीछे हम दौड़ रहे है, वह तो मात्र सुखाभास है। आप जिसे खुशी कहते हैं वह तो दुःख के बीच में आता थोडा अंतराल है।
धर्म चिंतन में दिव्य आनंद भरा पडा है, इससे आत्म प्रकाश बाहर आता है, यह ऐसा अमूल्य तत्त्व है, जिसके पठन, चिंतन, मनन से कभी थकान नहीं लगती।
__ चंदन को जैसे जैसे घिसते हैं, अधिक सुगंध देता है, वैसे ही जीव जब आत्मतत्त्व-धर्मतत्त्व में लीन होता है, जीवन सौरभ महक उठती है, क्यों कि आत्मा की बात स्व-रस की बात है।
अपने प्रियजनों, स्वजनों की मृत्यु के पश्चात उनके अपने ही लोग उन्हें चिता में जलाते तो हैं, किन्तु यह ध्यान रखते हुए की कहीं उनके अपने ही हाथ जल न जाएं। यह मानव जीवन की कैसी विडम्बना?
जिन स्वजनों के शरीर की हमें इतनी चिंता थी उन्हें ही चिन्गारी
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