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________________ “नमन नमन में फेर है, बहुत नमे नादान'' इसका अर्थ है, इन्सान अपना स्वार्थ सिद्ध करने के लिए भी नमन करता है, पर ऐसे लोग मतलब निकल जाने पर धोखा भी दे सकते है, इन से सावधान रहना चाहिए। लेखक ने ऐसे महापुरूष को नमन किया है जो गुणों के भण्डार हैं। हजारों वर्ष पूर्व पावापुरी - राजगृही में विचरण की हुई इस चेतना द्वारा यह धरा पवित्र बनी, यह रजकण भी धन्य है। यह दिव्य चेतना आज भी योग्य जीवों को क्षणभर में युगो का दर्शन एवं जीवन की अनुभूति कराने की क्षमता रखती है। ऐसी महान विभूति जिन्होंने काल प्रवाह से पार पा लिया है, उन्हें लेखक नमन करते हैं। इस नमन में आत्मिक भाव है, आत्मिक खजाने के सच्चे स्वामी है महावीरस्वामी और यह ग्रंथ आत्मिक खजाने से भरपूर है। ..प्रभु महावीर के पास क्या कुछ नहीं था? धन, वैभव, बंधु, बहन, पुत्री, पत्नी सर्वस्व तो था, परंतु उन्हें तो अमृत तत्त्व की प्यास जगी थी, जो इन नश्वर वस्तुओं से कैसे बुझ सकती थी भला? यह तृषा भौतिक वस्तुओं से न बुझने वाली, आत्मिक शांति की परमपद की तृषा है। घोर उपसर्गों को सहन करके, साढे बारह वर्ष तक अडिग साधना करके प्रभु वीरने धर्म रत्न, शाश्वत प्रेम, मैत्री का खजाना प्राप्त किया। अवधूत योगी आनंदधनजी ने भी कहा है “मैं जो पाना चाहता हुं, वह जीवन अमृत है, विष के कटोरे पी चुका, अब आत्मिक तृषा बुझाने के लिए ज्ञानरूपी अमृत के प्याले पीने है। जिन्होंने पी लिया, उन्हें फिर कोई प्यास लगी ही नहीं, वे आनंदधन को प्राप्त हो गये। जो पीया वो जीया और जो जी गया वह फिर भला मरण को कैसे प्राप्त हो सकता है ! इस जीवन अमृत को कबीर ने पीया, महावीर ने पीया, बुद्ध ने पीया। जीना है तो पीना ही होगा। हम सब के अंदर भी आनंदधनरूपी चेतना सुषुप्त पडी है, उसे जगाना Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001809
Book TitleDharma Jivan ka Utkarsh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorChitrabhanu
PublisherDivine Knowledge Society
Publication Year2007
Total Pages208
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Sermon
File Size11 MB
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