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__ बहुत लोग कहते हैं कि, “क्या करें, न चाहते हुए भी क्रोध आ जाता है।" मैं उनसे पूछता हूं कि दुकान पर कोई ग्राहक आता है, वह तुमसे कहता है कि, "तुम झूठ बोल रहे हो।" तुम जानते हो कि यह ग्राहक अच्छा नफा करवाएगा, तब तुम उस पर गुस्सा करते हो? या फिर मीठा मीठा बोलकर लाभ ले लेते हो? अब गुस्सा कहाँ गया?
परंतु ऐसा लक्ष्य क्या आत्मा के लिए रहता है ? यदि आत्मा का विचार करें तो संयम स्वाभाविक बन जाता है। जीवन में नया वेग आता है। लक्ष्यविहिन जीवन के गुण भी दुर्गुण बन जाते हैं लक्ष्य हों तो ही व्यक्ति शिखर पर चढ़ सकता है। फिर तो जीवन ऐसा नीतिमय बन जाता है, कि हम अनीति कर ही नहीं सकते। लक्ष्यपूर्ण जीवन के गुण ही हमारी आध्यात्मिक उन्नति के सोपान बन सकते हैं।
यह मनुष्य जीवन अति मूल्यवान है, इसके बाद हम स्वर्ग, नर्क या पशु पक्षी, मानव कोई भी भव प्राप्त कर सकते हैं। सब दरवाजे खुले हैं, हमारा लक्ष्य हमें ढूंढना हैं।
हमें हमारी आत्मा से पूछना चाहिए, “हे आत्म-बनजारे, तुम्हें कौन से नगर की तलाश है ?' नरभव नगर सुहाना है, मुंबई नगरी जैसा, इसमें दोनों ही संभावनाए हैं, ऊपर उठने की तथा नीचे गिरने की। तूं जैसा चाहे उसके योग्य कार्य कर। ..
हमारे सामने तीन प्रश्न हैं, "तूं कहाँ से आया है? क्या साथ लाया था? तु कहाँ जाएगा?" यह प्रश्न हमें अपनी अंतर आत्मा से पूछने हैं, धीरे धीरे विचार करना है, तो ध्येय स्पष्ट होगा। मोक्ष ही हमारा लक्ष्य है, ज्ञान, दर्शन, चारित्र इसकी प्राप्ति के साधन है। इन साधनों की प्राप्ति के लिए हमें योग्यता प्राप्त करनी है, और यह योग्यता हमें इन इक्कीस गुणों के धारण करने से प्राप्त होगी।
___ इन गुणों की प्राप्ति से, हमारे भीतर प्रकाश प्रगट करके, हम स्व में मुक्ति का अनुभव करें, यही मंगल भावना।
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