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१०३ गरीबों पर दया-द्रव्य दया। अधर्मीयों के प्रति दया-भाव दया। परंतु इन्सान स्वयं क्रोध, मान, माया, लोभ में फंसकर गलत राह पर जाता है और अपने पर दया आए तो वह है स्व-दया। हमें दूसरों पर दया आती है, क्या अपने पर कभी दया आती है, कि हमारी आत्मा का क्या होगा? हमें पहले अपने दोषों पर दया करनी चाहिए, फिर दूसरों के प्रति सच्ची दया प्रगट होगी। चंडकौशिक भगवान को डंसने आया, तब भगवान को उसके क्रोध पर दया आई, यह है पर-दया।
___ इन्सान अपने आसपास पाप की दीवार चुनकर स्वयं ही अंदर कैद हो रहा है। यदि स्वदया बराबर समझ में आ जाएगी तो भाव दया समझते देर नहीं लगेगी। जिस प्रकार हम अपने बेटे की गलतियों से दु:खी होते हुए भी उसका पक्ष लेकर आने वाले व्यक्ति के सम्मुख हम उसकी गलतियों, उसके दोषों पर आवरण डालने का प्रयत्न करते हैं, उसी प्रकार अन्य जनों के दोषों को भी उजागर न करके उसे ढंकने का प्रयत्न करना चाहिए। बल्कि उन दोषों के दुष्परिणामों से अवगत कराकर उन्हें सुधारने का प्रयत्न करना चाहिए। दूसरों को सुधारने के लिए माँ जैसे बनो, सौत जैसे नहीं। इससे हमारा स्तर नीचे गिरता है। दूसरों को सुधारने के लिए अंदर की उदारता अत्यंत आवश्यक है। __अधिकतर लोग धार्मिक होने का दंभ करते हैं, सचमुच धार्मिक बनना है तो धर्म रूपी सागरमें डुबकी मारकर, दर्शन, ज्ञान,चारित्र रूपी रत्नों की प्राप्ति हेतु प्रयत्न करना चाहिए। अनेक जन्मों के बाद ऐसी अनुकूलताएं प्राप्त होती हैं, उसमें यह पुरूषार्थ करने योग्य है। हम तो थोड़ा सा तप, त्याग करके मोक्ष की टिकट कटवाना चाहते है, परंतु कुदरत का कानून है, "जैसी करनी वैसी पार उतरनी।" कुदरत के वहाँ रिश्वत नहीं चलती। परिणाम, आचरण, भाव के अनुसार कर्मबंध होता है। __यह दर्शन हमें यह सिखाता है कि, भक्ति की ओर यदि प्रयाण करना है तो जीवन की गहराईयों तक जाना पड़ेगा। दुनिया के प्रति दया तो सामान्य दया है, वात्सल्य भाव से भरकर किसी को उसकी भूल बताकर भाव दस
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