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"मन में ज्ञान ज्यादा भरो और पेट में अन्न कम भरो।" यदि मन में अच्छे विचार होंगे तो वाणी में, वृत्ति में भी सुन्दरता ही होगी।
कुछ लोग ऐसे होते हैं, जो बीती बातों को याद करके मन ही मन दुखी होते हैं। सच बात तो यह है कि बातें रोचक न हों तो, उन पर काल रूपी धूल डालकर उन्हें भूल जाना चाहिए। घाव को बार बार कुरेदने से फिर से ताजा हो जाता है, इसी तरह अनैच्छिक, अनपेक्षित प्रसंगो को भूलना ही बेहतर है। बिना कारण हमेशां जो लोग रोना रोते रहते हैं, उनकी आत्मा पर ज्ञानियों के अमृतवचन भी कुछ असर नहीं कर सकते।
जीवन क्षमा गुण से ओत-प्रोत होना चाहिए। अगर कुत्ता आकर हमारा मुँह चाटता है, तो क्या हम वापस उसका मुँह चाटते हैं ? "जैसे को वैसा" कहकर? नहीं। हम कुत्ते को माफ कर सकते हैं तो इन्सान को क्यों नहीं? अपना धर्म बुरे के साथ बुरा होना नहीं सिखाता।
मुर्ख इन्सान से भला हम क्या आशा रख सकते हैं? उसके पास कुछ है ही नहीं, तो क्या देगा! उसके प्रति तो करूणा भाव रखना चाहिए।
कोई बड़ा व्यक्ति छोटी छोटी बातों से परेशान हो जाता है, कोई टीका करता है तो वह दुखी हो जाता है। उसे तो सोचना चाहिए कि सामने वाले व्यक्ति ने मुझे अपनी गल्ती सुधारने का अवसर दिया है, तो मुझे उसको धन्यवाद देना चाहिए। “यदि मैं खराब हूं ही नहीं तो फिर चिंता क्यों करूं।" ऐसी छोटी २ बातों से मन को तंग नहीं बनाना चाहिए। इसके लिए गंभीरता जरूरी है, इसके आने से दो गुण खिलेंगे, सूक्ष्मबुद्धि तथा क्षमा देने की शक्ति।
एक व्यक्ति ने एक बार प्रतिज्ञा ली की वह साधु की सेवा करके ही खाना खाएगा। एक दिन उसे ऐसा कोई साधु नहीं मिला, जिसकी वो सेवा कर सके। मन ही मन वह बड़बड़ाने लगा "भगवान आज कोई साधु बिमार नहीं पड़ा, जिसकी मैं सेवा कर सकू।" उसकी प्रतिज्ञा तो अच्छी थी पर उसमें बुद्धि की सूक्ष्मता नहीं थी, इसलिए अपनी प्रतिज्ञा पूरी करने के लिए साधु की बिमारी की इच्छा की। ऐसे इन्सान में गंभीरता न होने से वह कभी कभी अच्छाई की जगह बुराई कर बैठता है। सूक्ष्म बुद्धि धर्म का प्रथम सोपान है।
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