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दया के दो लोत
दया के दो पहलू हैं, द्रव्य दया और भाव दया। किसी को चोट लगी हों, कोई गरीब हों, अंधा हों और मदद मांगे, हम सहायता करें, तो वह द्रव्य दया है। जिनके पास आत्म धर्म नामक धन नहीं है वह धन हीनों से भी अधिक दरिद्र है। जिस प्रकार धन न होने से कोई दरिद्र या निर्धन कहलाता है उसी प्रकार धर्म विहिन व्यक्ति भी धर्म रूपी धन से निर्धन है। भले ही उसके पास भौतिक धन का अखूट भण्डार क्यों न हो।
"जब बाहर की आँख खुलती है तो जहान दिखता है, जब भीतर की आँख खुलती है तो भगवान दिखता है।"
निर्धन को पैसे नहीं मिले तो वह शायद कम पाप करेगा, परंतु अधार्मिक के पास दृष्टि सही नहीं होगी तो वह अधिक पाप करेगा। धनिक यदि पाप करता है तो उसे रोकने वाला कोई नहीं, जब की मध्यम वर्गीय इन्सान निन्दा, टीका से डरकर मर्यादा में रहेगा। करोडपति-शराब पीए, परस्त्रीगमन करे, उसे कहने की हिम्मत कौन करेगा? क्यों कि लोग पैसे वालों की गल्तियां माफ कर देते हैं, इस तरह पैसे से पाप की छूट मिल जाती है।
दया के कई प्रकार हैं, लूले लंगडे पर दया करने की अपेक्षा, जिनके जीवन पापों से भरे हैं, उन पर दया करना ज्यादा जरूरी है। दु:ख में से आदमी उबरकर उपर उठ सकता है, परंतु धन के कारण व्यक्ति के नीचे फिसलने के अवसर अधिक हैं, जैसे कि सीढ़ियां उतरते समय फिसलने का,
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