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________________ ३२ सद्गुणों की उपासना दाष दृष्टि हमारा कुस्वभाव है, कोई वस्तु ढलान की तरफ बहती है, उसमें कोई नवीनता नहीं है, ऊंचाईयों पर चढ़ना ही मुश्किल है। दुनिया में आदमी को अधम बनाने वाली तो दोषदृष्टि ही है, जब कि गुणदृष्टि जीवन को उन्नत बनाती है। हम जानते हैं कि गाँव का कचरा उठाने वाला व्यक्ति भी, कचरे को अपने घर में न रखकर कहीं पर डालता ही है। फिर हम, लोगों की दोषरूपी गंदगी को अपने भीतर बटोर कर क्यों जीते हैं ? जिसमें ऐसी वृत्ति होती है, वह व्यक्ति, ऐसी बातें जहां चलती हों वहां पहुंच ही जाता है, दोष ढूंढने के लिए। इसीलिए महापुरूष हमें गुणानुरागी बनने का उपदेश देते हैं, प्रत्येक घर में बगीचे नहीं होते, वैसे ही सर्वत्र सद्गुण भी नहीं होते। एक जगह कहा है कि "निंदा न करजो पारकी, न रहवाय तो करजो आपकी।" दूसरों की निन्दा से अच्छा है, अपने दोषों की निन्दा करना, इससे हमारा कुछ भला होगा। धोबी तो पैसे लेकर दूसरों के गन्दे कपड़े धोता है, परंतु हम तो बिना पैसे लिए, अपनी जीभ मैली करते हैं, दूसरों के दोष बोलकर। हमें अपने को सुधारना है तो निरर्थक बातें न करके हमेशा अच्छी, भली बातें, काम की बातें करनी चाहिए। ११९ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001809
Book TitleDharma Jivan ka Utkarsh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorChitrabhanu
PublisherDivine Knowledge Society
Publication Year2007
Total Pages208
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Sermon
File Size11 MB
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