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________________ ५६ सर्जन इन्सान ने ही किया है, यही ईश्वरवाद है। हम अक्सर कहते हैं "जैसी भगवान की मर्जी।" ___ व्यवहार में ही देखिए न! शादी की पत्रिका में लिखते हैं, “हमने हमारे भाई के बेटे की शादी तय की है।" ऐसा लिखकर श्रेय लेता है और मृत्युपत्र में लिखता है, “जैसी ईश्वर की इच्छा।" इस तरह मंगल होता है, तो अपना पुरूषार्थ और बुरा, अपमंगल हों तो भगवान जिम्मेदार। यहाँ एक बात याद आती है। एक सुंदर बगीचा था, बरसात आयी, बाग खिल उठा। कोई चिंतक वहाँ आया, माली से पूछा, “ये लताऐं, वाटिका, फल-फूल अत्यंत सुंदर है, यह बाग किसने बनाया? फौरन माली बोला- मैंने।" उसने ऐसा नहीं कहा कि मेघकृपा से सूर्यकिरणों से यह फला-फूला है। उसी समय एक गाय वहाँ आई, माली ने उसे जोर से लकडी मारी, गाय मर गई। माली को राजा के सामने पेश किया गया। राजाने पूछा, “अरे! इस गाय को तुमने मार दिया?" माली ने कहा, "नहीं मालिक। क्या लकडी से गाय मरती है भला? लकडी तो सिर्फ निमित्त मात्र है, मारने वाला तो भगवान है।" हमारे जीवन में "अहम्' सर्वोच्च स्थानों पर प्रतिष्ठित है। जो स्थान जितना ऊँचा वहां अहम् भी उतना ही ऊँचा। धर्म, समाजसेवा, राष्ट्रसेवा, प्रत्येक जगह अहम् के ही दर्शन होते है, परिणाम यह आता है कि अहम् के अतिरेक से इन्सान एक दिन गुब्बारे की भांति फूट जाता है। इस अहंकार से मानव अपने भीतर दिन प्रतिदिन छोटा होता जा रहा है। इस अहम् से छुटकारा कैसे मिले? इसके लिए हमें विनम्रता गुण अपनाना चाहिए। चौदह साल पुरानी बात है, एक व्यापारी थे, उन्होंने व्रत लिया कि कमाई का एक निश्चित भाग स्वयं रखेंगे, दूसरा हिस्सा उनके लोगों के बीच बाँट देंगे। उनकी मृत्यु होने पर उनके नौकर-चाकर उनके बेटों से भी ज्यादा रो रहे थे। दरवाजे पर बैठने वाला पठान बोला “मेरे सगे बाप की मृत्यु का जितना मुझे दुःख नहीं हुआ, इतना आज हुआ है।'' इतना कहकर वह फूट फूटकर रोने लगा। इसका कारण था शेठ की उदारता, उन्होंने सबको खूब दिया था। इस व्यापारी शेठ की खूब इज्जत थी, सबके झगड़े निष्पक्ष Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001809
Book TitleDharma Jivan ka Utkarsh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorChitrabhanu
PublisherDivine Knowledge Society
Publication Year2007
Total Pages208
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Sermon
File Size11 MB
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