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________________ भौतिक और नश्वर सुख को ही सत्य मान बैठा है, यही कारण है कि इन्सान हमेशां अपने से उपर वाले धनवानों की और दृष्टि रखता है, दूसरों के सुखों को अपनी कल्पना के मोतीयों में पिरोकर दु:खी होता है। "हाय!' उसके पास इतना, मेरे पास तो कुछ भी नहीं। जीवन सुखमय बनाना है या दुखमय, यह व्यक्ति के अपने हाथों में है। वस्तु में सुख या दुख नहीं है, सुख-दुख उसकी कल्पना, मन और दृष्टि में है। एक वस्तु सुख देती है, दूसरी दुख देती है, कल तक मित्र प्रिय लगता था, आज अप्रिय लगता है, इस परिवर्तन का आधार हमारे भाव है, और भाव हर पल बदलते रहते हैं। __फूल के सौंदर्य को देखकर आँखो में हर्ष के आंसू आ जाते हैं, जब ' मन प्रसन्न होता है। कभी मन विषाद से भर जाता है, वस्तु तो वही है, हमारे भाव भिन्न हैं कभी हम कहते हैं “मैं मूड़ में नहीं हूं।" यानि की मन में विषाद है वह व्यवस्थित नहीं है। अंदर का तंत्र बराबर नहीं हो तो घडी के काँटे कैसे व्यवस्थित होंगे? ठीक वैसे ही चित्त प्रसन्न होगा तो ही मन में शांति होगी। जीवन में सुख-दुःख का सत्कार करो, संयोग वियोग होंगे, दोनो समय मन को समभाव में रखो। इस दुनिया में कौन ऐसा है? जिसके जीवन में केवल सुख है? आम के मधुर रस के साथ करेले की कड़वाहट हों तो आम रस अधिक स्वादिष्ट लगता है। अधिकतम सुख में भी इन्सान अभिमानी बन सकता है और अधिकतम दुखों में भी वह हार जाता है, अत: दोनो का समन्वय करके जीवन जीने का प्रयास करना चाहिए। सच्चा आनंद देने वाला तत्त्व तो उसकी आत्मा में ही समाया हुआ है। __ महान तत्त्वचिंतक टॉलस्टॉय ने कहा है कि दुख तो उस ताप के सदृश है जो आम को पकाकर उसमें मीठा रस भरता है। गर्मी से आम का खट्टा रस मीठा बनता है, इसी प्रकार सुख की उपयोगिता समझने के लिए दु:ख चाहिए। जीवन रूपी आम के खट्टे रस को मीठा करने के लिए दुख रूपी Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001809
Book TitleDharma Jivan ka Utkarsh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorChitrabhanu
PublisherDivine Knowledge Society
Publication Year2007
Total Pages208
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Sermon
File Size11 MB
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