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________________ ८२ जीवन और मृत्यु तो दो सीढ़ियां हैं और मोक्ष उसका धवल शिखर। धर्मी, परोपकारी व्यक्ति को “ग्राह्य वाक्य' कहते हैं, उसका वचन निकलने से पहले ही लोग उसे स्वीकार कर लेते हैं। परंतु ऐसा कब संभव होता है? जब हमने लोगों के लिए कुछ किया हो तो। दूसरों की उपेक्षा करके, हम अपेक्षा कैसे रख सकते है? कभी हम शिकायत करते हैं कि “उसने मेरा काम नहीं किया। उसके पहले हमें यह देखना चाहिए कि क्या हमने उसके लिए कभी कुछ किया है?" आज बालक और माँ बाप, शेठ और नोकर, सास-बहू, मंत्री और प्रजा, सब एक दूसरों से यही प्रश्न पूछते हैं “तुमने हमारे लिए क्या किया?" चुनाव के समय वोट हासिल करके, क्या नेता वापस मुँह दिखाते है ? परंतु फिर भी यह अपेक्षा तो रखते ही हैं कि प्रजा हम जैसा कहें वैसा करे, हमें ही मत दे वगैराह। मात्र भाषण देना ही तो सेवा नहीं है न। पालीताणा में आगम मंदिर का काम चल रहा था, उस समय की बात है। आगम संशोधन का काम पूज्य आचार्य श्री आनंदसागरसुरिजी महाराज अविरत कर रहे थे। वो इतना परिश्रम कर रहे थे कि उन्हें देखकर दूसरों को थकान लग जाए। एक दिन मैंने पूछा “महाराजश्री आप इतना कष्ट क्यों उठा रहे हैं ?" उन्होंने प्रत्युत्तर में कहा "इसमें कोई कष्ट नहीं है, बल्कि स्वाध्याय की मौज है, इस समय तो प्रत्येक पल को ज्ञान से भरना है, अधिक समय ही कहाँ है?" ऐसे समर्थ ज्ञानी गुरू भी यदि कोई साधु बिमार हों तो, उन्हें शाता पूछने के लिए काम को छोड़कर चले जाते थे, उनकी सुश्रूषा करने। ज्ञान के साथ सुश्रुषा तथा श्रम करना भी ज्ञानियों को सीखना चाहिए। विक्टर ह्युगो का एक प्रसंग आता है, वह एक सामान्य पादरी था, रास्ते में एक बार एक फोड़े वाले आदमी को देखा, वह पीड़ा से कराह रहा था। पादरी वहाँ रूके उसकी मदद की, अपना काम छोडकर। कई लोग चले जा रहे थे, किसी ने मदद नहीं की, परंतु सबने मन ही मन यह अवश्य Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001809
Book TitleDharma Jivan ka Utkarsh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorChitrabhanu
PublisherDivine Knowledge Society
Publication Year2007
Total Pages208
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Sermon
File Size11 MB
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