SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 132
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ २९ माध्यस्थ आज हम ग्यारहवें गुण पर विचार करेंगे, धर्म के सच्चे स्वरूप का वर्णन कौन कर सकता है ? जिसमें माध्यस्थ और सौम्यदृष्टि हों। इसका अर्थ है जिसके मन के द्वार सदा खुले हों, जिसे किसी भी, धर्म प्रति पूर्वाग्रह या दुराग्रह न हों, सत्य के नये प्रभात का स्वागत करने के लिए जो सदा तैयार हों। माध्यस्थ भाव के साथ सौम्य प्रकृति होनी चाहिए, ऐसा व्यक्ति ही उलझनों को शांति से सुलझा सकता है, सौम्यता न हों तो द्वेष आ सकता है। किसी बात का पक्षपात भी नहीं होना चाहिए, तो ही धर्म जैसी अतिविशिष्ट बात का विचार किया जा सकता है। अतिराग भी नहीं, तिरस्कार भी नहीं, जीवन की सामान्य बातों के लिए मन, बुद्धि की स्वस्थता अनिवार्य है। सत्य का दर्शन करना है तो, बुद्धि माध्यस्थ भाववाली और दृष्टि द्वेष रहित होनी चाहिए। गुरू के पास दो शिष्य गये, गुरू ने सबको तीन बातें कहीं - लोकप्रिय बनना, मीठा खाना और सुख से सोना। एक शिष्य प्रज्ञ था उसने अपना रास्ता पा लिया। दूसरा सौम्य दृष्टि हीन था, उसने गुरू के वचनों को पकड़ लिया। मंत्रतंत्र तथा वैद्यकीय कार्य शुरू किया और लोकप्रिय होने लगा। भिक्षा में रोटी के बदले गुलाबजामुन, मैसुर, मिठाईयां लाने लगा, रात में आठ बजे से सुबह आठ बजे तक सोने लगा। वह समझता था गुरू के वचनों का पालन १०९ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001809
Book TitleDharma Jivan ka Utkarsh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorChitrabhanu
PublisherDivine Knowledge Society
Publication Year2007
Total Pages208
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Sermon
File Size11 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy