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________________ ११० कर रहा है। उसने केवल गुरू के शब्द पकड़े थे, मर्म नहीं जाना था। आज हम केवल शब्दों को पकड़ते हैं, अर्थ पर ध्यान नहीं देते। यही कारण है कि जो महापुरुष विश्व में शांति, समाधान का साम्राज्य स्थापित करने आए थे हमने उनके नाम पर आज अनेक पंथ सम्प्रदाय आदि के झगड़े पैदा कर लिए हैं। एक कहावत है, "भाषा ने शुं वलगे भूर, जे रणमां जीते ते शूर।" इसका भावार्थ हैं शब्दों को नहीं भाषा के भाव को पहचानो। यहां माध्यस्थ भाव चाहिए। एक काव्य पंक्ति लो, "राम तारा राज्य मां दीवा नथी अंधारू छे।" इसका एक व्यक्ति अर्थ करता है दीपक नहीं है, यानि राज्य में अंधेरा है, तो राम उसे निकाल देता है। परंतु “राम तेरे राज्य में दीपक नहीं है, इसलिए अंधेरा है, ऐसा समझे तो भाव बदल जाएंगे।" हमें तो भाषा के विराम और विचार का ख्याल करते रहना है, नहीं तो अनेक बार धर्मसूत्रों का पठन करने पर भी अर्थ न समझें तो जीवन में प्रकाश नहीं आ सकता। इसिलिए कहा गया है कि, शब्दों को ग्रहण करने के साथ उसकी उपासना करो, उसके दर्शन करो, भाव में एकाकार हुए बिना मधुरता नहीं प्रगटेगी। शिष्य ने तीन मंत्रो का गलत उपयोग किया तो अंत में बुरा हाल हुआ। खाकर बीमार पड़ा, सोकर प्रमादी बना। कारण? उसमें माध्यस्थपूर्ण सच्चा ज्ञान, विज्ञान, चेतना प्रगट नहीं हुए थे। एक बार उसे अपना प्रज्ञ गुरुबन्धु मिला, उसने जाना कि इसने तो कोरे शब्दों को पकड़ा है, कंठस्थ किए हैं मंत्रों को, पर भाव भूला है। प्रज्ञ शिष्य ने उसे मंत्रो का सच्चा भाव बताया - मीठा खाना यानि एक वक्त खाना, तप करके खाना, सच्ची भूख लगे तब खाना। तप के पारणे में सूखी रोटी भी मीठी बन जाती है। चीन का एक तत्त्वचिंतक अमेरिकी डॉक्टरों की परिषद में गया। डॉक्टरों ने पूछा, “आपके वहाँ के डॉक्टर कैसे हैं? अपना अनुभव बताईये।" तत्त्वचिंतक ने कह। “हाँ एक बार मैं बिमार पड़ा, डॉक्टर बुलाया, Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001809
Book TitleDharma Jivan ka Utkarsh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorChitrabhanu
PublisherDivine Knowledge Society
Publication Year2007
Total Pages208
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Sermon
File Size11 MB
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