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________________ १६२ महान उपकार है, जिनकी सहायता से हमारा उत्कर्ष हुआ है। गुरु कौन? जो पाँच इन्द्रियों पर संयम रखते हैं, ब्रह्मचर्य की नौ (वाड) मर्यादाओं का पालन करते हों। पंच महाव्रत धारी हों, पंचाचार का पालन करने में समर्थ हों, पंच समिति, तीन गुप्ति के पालक हों, इन छत्तीस गुणों के धारक हों, वैही सच्चे गुरु कहलाने योग्य हैं। __ प्रभु महावीरने गुरु की ऐसी व्याख्या इसलिए की, कि साधक सच्चे गुरु को पाकर अपना जीवन सार्थक कर सके। जो वस्तु कीमती होती है, उसकी नकल बहुत जल्दी होती है। हीरे, मोती तथा सोने की नकल खूब होती है, वैसे ही गुरुपद भी मूल्यवान है। यह स्थान प्राप्त करने के लिए, कोई विश्वविद्यालय की परीक्षा नहीं देनी पडती, अत: इसके लिए भी प्रतिस्पर्धा होती है। कुछ स्थानों पर तो कपडे, वेश परिवर्तन करके, नाम बदलकर, एकआध स्वार्थी साथी खोजकर गुरू बनकर बैठ जाते हैं। इसीलिए हमें यहां सावधान किया जाता है कि जैसे सोने को कसौटी पर परख कर खरीदा जाता है, वैसे ही गुरु को भी उपरोक्त गुणों की कसौटी पर परख लेना चाहिए। जो इन गुणों पर खरे होंगे वे ही हमारे जीवन के तारणहार, पथप्रदर्शक बन सकते हैं। गुरु का उपकार अनन्त है, हमें अज्ञानरूपी अंधकार से ज्ञानरूपी प्रकाश की राह बताकर, निस्वार्थ भाव से वात्सल्य की वर्षा करते हैं, सदुपदेश द्वारा हमारा जीवन उज्जवल बनाते हैं। गुरु का जीवन वृक्ष तथा नदी जैसा है। वृक्ष के पास जो आता है वृक्ष उसे फल देता है, छाया देता है, नदी सबको पानी देती है, सबकी प्यास बुझाती है। इनके यहां कोई भेदभाव नहीं, चाहें स्त्री हों, पुरुष हों, हरिजन हों या ब्राह्मण हों। ___ गुरू तथा ज्ञानियों का काम हमें, हमारी आत्मा को शान्ति देना है। उपाध्याय यशोविजयजी ने फरमाया है कि, "तुझे विषाद के कुंए से बाहर निकाला, सम्यक्त्व प्रदान किया, ऐसे गुरु का ऋण, उनके उपकार का बदला, Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001809
Book TitleDharma Jivan ka Utkarsh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorChitrabhanu
PublisherDivine Knowledge Society
Publication Year2007
Total Pages208
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Sermon
File Size11 MB
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