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कृतज्ञता
मनुष्य जीवन सद्गुणों के विकास का सुंदर धाम है। जिस तरह भौतिक जीवन को स्वस्थ रखने के लिए आहार पानी की आवश्यकता होती है, वैसे ही आत्मा की दृष्टि हेतु सद्गुणों की जरूरत होती है।
जीवन का हर दिन मंगल दिन है, हर घडी सुंदर पर्व है। हर दिन को आराधनामय बनाना चाहिए। मन पवित्र, शांत, निर्मल रहे तो प्राप्त ज्ञान की धारा से, जीवन महोत्सव बन सकता है।
हमें कृतघ्न नहीं कृतज्ञ बनना है। किसी के किए हुए छोटे से छोटे कार्य, उपकार को याद करके प्रतिदान चुकाना चाहिए। इसका आदर्श पाठ हमें धरती माता सिखाती है, एक दाने को वह अनंत गुणा करके हमें वापस देती है। परंतु मानव ही एक ऐसा प्राणी है, जो जितना दो, खा जाता है, इन्सान की ऐसी स्वार्थ वृत्ति बन गई है कि सब मैं ले लूं और मेरा लेने वालों का बुरा हो।
कुदरत ने हमें पाँच इन्द्रियां बक्शी हैं, इन पंच भूतों का हमें ऋणी होना चाहिए, परंतु उनका बदला चुकाने के लिए, हम क्या करते हैं ? सच्चा कृतज्ञ तो वही है जो दूसरों के उपकारों का बदला चुकाने के लिए मौके का इंतजार करे।
हमारे उपर पंचभूतों का, माता-पिता, गुरुजनों का तथा समाज का
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