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________________ १५४ पुराने समय में गुरुकुल हुआ करते थे, गुरुचरणों में बैठकर, शिष्य ज्ञान प्राप्त करते, जिससे जीवन में पूर्णता, परिपक्वता आती थी। गुरु परीक्षा लेते, कि शिष्य में ज्ञान कितना उतरा है? यह रीति थी, ज्ञानवृद्ध गुरुओं से जीवन का ज्ञान प्राप्त करने की। ऐसे ज्ञानवृद्ध यम, नियम के साधक होते हैं। आँख, नाक, कान सबका स्वभाव विषयों के प्रति लालायित होने का है, परंतु वे इन्द्रियों पर संयम रखते हैं। यह सब जीवन में आता है, तब से उम्र की गिनती गिनी जाती है। उस शेठ के जीवन में पिछले दस वर्षों से ही तप, श्रुत, एकाग्रता, विवेक, ज्ञान, चारित्र्य आदि गुण आंशिक रूप से प्रगट हुए थे। - राजा का दूसरा प्रश्न था, "कितनी पूंजी है?" शेठ लखपति थे, परंतु उन्होंने चालीस हजार की कहा, क्यों कि उतना पैसा ही सद्कार्यो में खर्च किया था। इकट्ठा करके छोड़ जाने वाले तो असंख्य लोग होते हैं परंतु अपने हाथों, प्रेम से सत्कार्यो में व्यय करने वाले विरले ही होते हैं। जो करो भावपूर्वक करो, फूल पूजा हृदय का भाव है, उसके ढेर लगाने की जरूरत नहीं। एक फूल चढाओ परंतु भाव से, अर्पणता के आह्लाद से तो काफी है। पाँच कोडी के ही फूल थे, किन्तु भगवान को चढ़ाते हुए कुमारपाल की आँखो से हर्ष के आंसू आए थे। व्यय किया हुआ, खरा पैसा वही है, जिसके व्यय के बाद आनंद आए। बीज अच्छा होगा तो फसल अच्छी होगी। जब भी दो प्रसन्नतापूर्वक दो। आज तक हमने चींटी की भांति, बिल में इकट्ठा ही किया है, और पाप करके दुर्गति को पहुंचे हैं। हम जानते हैं कि इकट्ठा किया हुआ यहीं रह जाएगा फिर भी क्या हमें अब भी चींटी जैसा जीवन ही जीना है? राजाने शेठ से तीसरा प्रश्न पूछा था, “बेटे कितने?" माँ बाप को अंतिम समय जो शांति दे, सेवा करे, कान में भगवान का नाम सुनाए, शांति से विदा करे, वही सच्चे पुत्र कहलाने योग्य हैं। श्वान भी अन्न, दूध के लिए मालिक के पीछे घूमता है, इसी प्रकार Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001809
Book TitleDharma Jivan ka Utkarsh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorChitrabhanu
PublisherDivine Knowledge Society
Publication Year2007
Total Pages208
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Sermon
File Size11 MB
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