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११७ में चले जाते हैं। थोडा सा बचा हुआ समय दूसरों के दोष देखने में तथा अपना रोना रोने में खत्म कर देते है तो फिर अपनी आत्मा का क्या?
दूसरों की बातें, न याद रखने योग्य बातों को याद रखने में इतना समय गवायेंगे तो आत्मा को कब याद करेंगे? इसे सुधारने का यह भी एक उपाय है कि हम गुणानुरागी बनें। जहाँ, जहाँ गुणवानों के गुण देखें, हम भी उन गुणों की प्राप्ति हेतु प्रयत्न करें। जिस प्रकार भ्रमर सुगन्ध युक्त पराग की खोज में विचरता है उसी प्रकार हमें भी गुणों रूपी गौचरी करनी चाहिए, ताकि फालतू बातें हमारे दिमाग में आए ही नहीं।
इस के लिए न केवल गुणों के प्रशंसक बल्कि गुणों के प्रति राग भी हृदय में होना चाहिए। जिसके प्रति राग हों, जैसे कि पिता की दाढ़ी खींचने पर भी बच्चे पर प्यार आता है, वैसे ही गुणानुरागी बनने के लिए हमारा पूर्ण प्रयत्न होना चाहिए।
व्यापारी व्यापार के लिए बाजार में दौडते हैं, हमें भी इसी तरह व्यक्ति तथा दुनिया का राग छोड़कर सद्गुण प्राप्ति के लिए गुणवानों के पीछे दौड़ना चाहिए। उनसे जितने सद्गुण प्राप्त हो सकें उतने लूटने चाहिए, अपना जीवन भंडार भरना चाहिए। हीरे की चमक उसके भीतर ही होती है, मोती में भी उसका पानी रहता है। ठीक वैसे ही हमें भी गुणवानों के अंदर बसे हुए गुणों के दर्शन करके, उनके जैसी महानता अपने भीतर भी प्रगट करनी चाहिए।
काशी में संस्कृत का अभ्यास करके दो पंडित एक गाँव से आए, एक ने न्याय का, दूसरे ने व्याकरण का अभ्यास किया था। एक शेठ ने उन्हें खाने का न्यौता दिया। व्याकरण का पंडित समझता है "न्याय पढ़ने वाले रीछ जैसे होते हैं।" न्याय शास्त्री समझता है "व्याकरण पढने वाले पिशाच जैसे होते हैं।" दोनों को एक दूसरे की विद्या के प्रति सम्मान नहीं था, दोनों पढ़कर पंडित बने, मगर एक दूसरे की दृष्टि को समझने का प्रयत्न नहीं किया। दोनों एक दूसरे के पूरक, प्रशंसक बने होते तो गुणों की प्राप्ति हुई होती, दोनों के जीवन में, परंतु वहाँ गुणानुरागी दृष्टि का अभाव था।
समाज में अलग अलग क्षेत्रों में लोगों के अलग अलग काम के क्षेत्र हैं। नाई, धोबी, दर्जी, सुनार सबका समाज में समान स्थान है, सभी समाज
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