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________________ १५ . द्वार खुल जाते हैं, और हमें अपने सच्चे स्वरूप की पहचान हो जाती है। फिर हम इन्द्रियों के गुलाम नहीं रहते और फिर लगने लगता है कि अपार भवसागर में आत्म तत्त्व की पहचान कराने वाला यह मनुष्य जन्म तो अति दुर्लभ है। जिस तरह गरीब इन्सान हीरे पन्ने नहीं खरीद सकता, वैसे ही गुणविहीन व्यक्ति धर्मरूपी रत्न की प्राप्ति नहीं कर सकता। जिंस आत्मा के पास गुणों की समृद्धि, विवेक का खजाना और पुण्य का कोष होगा, वही धर्म रूपी रत्न को पहचान सकेगा। इस प्रकाशमय तत्त्व की खोज करने के लिए बुद्धि, गुण तथा पुण्योदय आवश्यक है। कहते हैं की चिंतामणि रत्न सब रत्नों में कीमती है, इसके रहते, दूसरे रत्नों की कोई कीमत नहीं। मानवजीवन में भी धर्मरूपी रत्न का स्थान अमूल्य चिंतामणि रत्न जैसा ही है। विश्व में सामान्य वस्तु प्राप्ति के लिए भी, इच्छा तथा संकल्प बल जरूरी है, तो फिर अचिंत्य चिंतामणि रत्न की प्राप्ति हेतु केवल इच्छा से काम नहीं चलेगा, दृढ़ संकल्प होना जरूरी है। दुनिया में कुछ भी अप्राप्य नहीं है, यदि इच्छा तथा संकल्प बल दृढ़ हों तो, जो चाहो मिल सकता है। जितनी इच्छाशक्ति प्रबल उतनी ही सफलता अधिक, आत्मा सर्व शक्तिमान है, वह चाहे तो तीर्थंकर भी बन सकती है। पर इसके लिए पात्रता चाहिए, गडरिये को चिंतामणि रत्न मिला था, पर उसका मूल्य उसने नहीं जाना तथा कौंए को उड़ाने के लिए फेंक दिया। ऐसा भी एक वर्ग है, लोगों का दूसरा वर्ग जयदेव जैसा है, जो अपना सर्वस्व त्याग कर आराधना करता है और धर्म रत्न को प्राप्त करता है। हमें गड़रिये जैसा नहीं, जयदेव जैसा बनकर अपने जीवन में आराधना, साधना कर के धर्म रत्न को प्राप्त करके धन्यतापूर्वक, मानवजन्म सार्थक करना है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001809
Book TitleDharma Jivan ka Utkarsh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorChitrabhanu
PublisherDivine Knowledge Society
Publication Year2007
Total Pages208
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Sermon
File Size11 MB
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