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तो परिणाम भयंकर आता है, कई स्त्रिया आत्महत्या तक कर लेती हैं। और कई जगह पर बहुएँ भी सास को पीड़ा पहुंचाती हैं। फिर उन्हें जिन्दगी जीने योग्य नहीं लगती। ऐसी सभी स्त्रियां धार्मिक होने का दंभ करती हैं।
शब्दों में शक्ति है, शब्दों को तोल-मोल कर बोलना चाहिए। किसी को कहने के लिए कोमल शब्दों का प्रयोग करना चाहिए। गांधीजी को जब बहुत क्रोध आता, तब वो सिर्फ इतना ही बोलते "दुनिया पागल और पाजी हो गई है।" ऐसे शब्द बोलने चाहिए कि थोड़े से शब्दो में भाव व्यक्त हो जाए।
पुराने समय में व्यक्ति जब गुनाह करता था, तब उसे सिर्फ हक्कार, मक्कार, धिक्कार, कहना ही उसकी सजा थी, शब्दों की कैसी महिमा थी? आज तो कठोर से कठोर शब्द सुनकर भी लोगों को शर्म महसूस नहीं होती।
हम भाषा समिति वचन गुप्ति की बात करते हैं। वचन गुप्ति यानि विचारों, वचनों को म्यान में रखना। जैसे कि धनुष से निकला तीर वापस नहीं आता, वैसे ही बोले हुए शब्द वापस नहीं आते, इसलिए अनुपयुक्त शब्द नहीं बोलने चाहिए। बोलने में कम से कम शब्दों का प्रयोग करना चाहिए, अधिक तथा अनुचित शब्द बोलकर कभी पछताना भी पडता है।
हमारे शब्द सुखद, आनंददायी होने चाहिए, अहिंसक विचार, अहिंसक वाणी, अहिंसक प्रवृत्ति द्वारा ही विश्व में शान्ति स्थापित हो सकती है। कई लोग तो धर्मस्थानों, मंदिरो तथा मूर्ति के पास भी बैठने को योग्य स्थान न मिले तो क्रोधित हो जाते हैं, ऐसे लोग घर में कितना गुस्सा करते होंगे?
इन्सान को प्रवृत्ति तो करनी ही पडती है, पर वह कैसी होनी चाहिए? मनुष्य किन प्रवृत्तियों में प्रवृत्त रहकर भी कर्मबन्ध नहीं करता है इसे ध्यान में रखने की आवश्यक्ता है। महापुरूषों ने कहा है कि जो ध्यानपूर्वक, करूणापूर्वक चलता है एवं बोलता है, वह सब क्रियायें करते हुए भी पाप बंघ नहीं करता।
कुछ लोग खाते समय भी बोलते ही रहते हैं, एडवर्ड की बात है, खाते समय बहुत बोलता था, परंतु दूसरा कोई बीच में बोले तो गुस्सा हो
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