SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 90
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ६७ भी परमात्मा स्वरूप ही है परंतु कर्मों तथा वासना तले दबी हुई है। पापभीरू मन धीरे-धीरे कर्मों तथा पापों से मुक्त होकर परमात्मा के पूर्ण प्रकाश को प्राप्त करता है । उस भिखारी के मन में सोने के लिए उसके भीतर जो क्लेश जन्मा था, उसी का नाम, श्रेयस तथा प्रेयस का विवेक है। अपने मन को धोकर जो साफ करता है, वह श्रेयस का अभिनंदन करता है, परंतु आज तो अधिकतर लोग प्रेयस के ही रसिक हैं । चौकीदार रात भर आवाज करता रहता है, इसी तरह हमें भी अपने मन को प्रतिपल सचेत रखना है, इसके लिए शास्त्रों का सदैव पठन, चिंतन, मनन आवश्यक है। पापभीरूता का मतलब है हि हमें पाप नहीं करने चाहिए, और हो जाए तो अंदर उसका दुख होना चाहिए। जैसे बिस्तर में पिन या कंकड़ हो तो चुभते हैं, ऐसी ही बेचैनी पाप करते वक्त होनी चाहिए । “ऐसा नहीं कर सकता” यह आवाज स्वाभाविकता से ही आनी चाहिए, प्रतिपल मन जागरूक रखना चाहिए । यह कब संभव हो सकता है ? बाहर से धार्मिक कहलाने वाले कईं लोग हो सकते है, परंतु अपने मन का अंतर्निरीक्षण करना बहुत कठिन है । जीवन की अधिकतर क्रियाओं को वश में किया जा सकता है, सिवाय मन के। मन को वश करना अत्यंत कठिन है, जब तक यह वश नहीं होता, कुछ भी प्राप्त करना मुश्किल है। दो पाँच बार व्याख्यान सुनने से कुछ नहीं. हो सकता, अंतर में डुबकी लगाकर मन का संशोधन करना चाहिए, इसके लिए जन्मभर साधना की जरूरत है। हम सुनते है न, “जैसी करनी वैसी भरनी" यह कुदरत का नियम है, स्वयं महावीर प्रभु की आत्मा को भी एक भव में नर्क में जाना पड़ा था । कर्मसत्ता के सामने किसी की पेशकश नहीं चलती, वहाँ तो केवल आत्मा की करणी ही सहायक बनती है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001809
Book TitleDharma Jivan ka Utkarsh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorChitrabhanu
PublisherDivine Knowledge Society
Publication Year2007
Total Pages208
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Sermon
File Size11 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy