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आए और नियम भंग करने के अपराध में अपना नाम स्वयं लिखाया। उनका मानना था कि प्रत्येक व्यक्ति को स्वयं ही अपना न्यायाधीश बनना चाहिए, तभी समाज प्रगति करेगा ।
हमें राज्य के कायदे पापभीरूता पूर्वक पालने चाहिए, आज तो व्यापारी कायदे के पीछे फायदे ढूंढने में लगा हुआ है। जब तक इन्सान का हृदय परिवर्तन न हों, तब तक बाह्य कानूनों से क्या फायदा हो सकता है ?
राज्य के कानूनों के पालन के साथ साथ व्यक्ति को समाजविरोधी कार्यो को त्याज्य, घृणास्पद मानकर चलना चाहिए। आज अपने यहां तो कोई ऐसी व्यवस्था ही नहीं है, व्यक्ति स्वछंदता पूर्वक व्यवहार करता है ।
एक काल ऐसा था जब इन्सान, स्वयं की, सभ्य समाज की तथा पवित्र लोगों की मर्यादा रखता था । न करने योग्य कार्य सभ्य व्यक्ति कैसे कर सकता है ? ऐसी मान्यता थी, आज तो स्वतंत्रता के नाम पर स्वच्छंदता का जीवन में प्रवेश हो गया है। पापभीरू व्यक्ति को समाज के श्रेयस्कर नियमों का कठोरता पूर्वक पालन करना चाहिए ।
पापभीरू व्यक्ति की तीसरी दृष्टि, धर्म के प्रति उसकी समझदारी है। धर्म का दीपक चारों ओर प्रकाश फैलाता है, वह जानता है कि धार्मिक व्यक्ति को पाप करने की जरूरत ही नहीं है, कहते हैं कि, “धर्मो रक्षति रक्षितः ।" यदि इन्सान धर्म की रक्षा करेगा तो धर्म उसकी रक्षा करेगा। परंतु आज तो इन्सान धर्म को निष्फल कर रहा है, फिर जीवन का आधार क्या होगा ? किसकी शरण में जाएगा। धर्मवृक्ष को तोड़कर इन्सान शांति कहाँ से प्राप्त करेगा ? अतः कहा गया है कि " धर्मो हन्ति हन्तः । " मरा हुआ धर्म इन्सान को मारता है, जीवन की प्रत्येक क्रियाओ में जीवित धर्म ही हमें जीने की प्रेरणा देता है।
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