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आत्मा तो वास्तविकता के दर्शन से ही खुश होती है, भ्रमर का गुंजन तब तक बंद नहीं होता, जब तक वह पराग का रसपान नहीं कर लेता। इसी प्रकार जब तक वास्तविक, गुणों का दर्शन न हों, आत्मा प्रसन्न नहीं होती। अपने स्वजनों को देखकर आह्लाद, रोमांच तभी होता है, जब वास्तविक स्नेह हों। ___हमारा मन वास्तविकता की राह छोडकर कृत्रिमता में ही लगा रहता है। हम पूरे समय दूसरों का विचार, ध्यान करते हैं, अपना ध्यान नहीं करते, जब कि करना चाहिए अपनी अत्मा का ही ध्यान। प्रत्येक कार्य प्रत्येक प्रवृत्ति करो, परंतु हर बार अपने मन से पूछो कि इससे मेरा मन या आत्मा प्रसन्न हुई है? यदि नहीं हुई तो क्यों नहीं हुई? अपनी भूल खोजकर भविष्य में ध्यान रखना ही हमारा कर्तव्य है। केवल व्याख्यान सुनना ही पर्याप्त नहीं, सुनकर विचार करना चाहिए की क्या मिला? कौन सी नयी दृष्टि प्राप्त हुई ? कौन सा दोष दूर हुआ? किस सद्गुणों को पोषण मिला? ऐसा प्रयत्न करते रहने से ही मन इसमें तल्लीन होगा और आत्मा वास्तविकता की तरफ मुड़ेगी।
संगीत हमारी आत्मा को आह्लादित करता है, स्तवन गाते समय उसमें मन तन्मय हो जाना चाहिए, यदि गाएं तो ऐसा गाएं कि अपना तथा दूसरों का मन आह्लादित हो उठे। ऐसी दृष्टि जागृत हुए बिना सत्य का दर्शन नहीं हो सकता। ___इन्सान सब कुछ छोड सकता है, माया नहीं छोड सकता। साधु, कंचन, कामिनी को छोड़ देते है, परंतु कीर्ति की भूख नहीं छोड़ सकता। व्यक्ति अपने आप को, अपने कार्य को पहचान ले, तभी भवसागर से तैर सकता है। जो गलत को गलत नहीं समझता, अपनी भूलों को नहीं देख सकता, उसके समान दुनिया में हतभागी और कोई नहीं है।
कुसुमपुर नामक नगर में दो साधु एक मकान में रहने आए, एक त्यागी थे, परंतु थे आडंबरी, दूसरा शिथिल, सरल पर गुणवान। मकान मालिक सरल साधु के पास आए, तब उसने उस आडंबरी साधु की प्रशंसा की, गुणगान
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