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________________ स्वार्थ से मन दंभी व कपटी बन जाता है। एक इन्सान पीतल के कड़े पर सोने का गिलेट करा के उसे सोना कहकर बेचने जाता है, तो दूसरा मटके में पानी के उपर घी डालता है और तैरते हुए घी व पानी से भरे घड़े को घी का घड़ा ही बताता है, ऐसा यह संसार है। .. ऐसा असत्यमय जीवन जीने वाले का, जब समाज में आगे आने का मन करता है, तब वह भक्त बनकर, महा सत्यनारायण पूजा या शांतिस्नात्र । पूजन पढ़वाता है। फिर मोहमयी नगरी में बसे हुए, साधु के पास जाता है। जो व्यक्ति जीवन की गहराईयो में उतरता नहीं, जिसकी समालोचना, अवलोकन तथा दृष्टिबिन्दु आछे हैं, जो गहराई तक नहीं जाता वह जीवन के सच्चे रहस्यों को नहीं पहचान पाता। मोती प्राप्त करने के लिए सागर तल तक डुबकी जो लगाता है, वही मोती प्राप्त करता है। गंभीर व्यक्ति जीवन के सच्चे मूल्यों का पालन करता है और अगंभीर व्यक्ति धन के लिए सत्य ही क्या? अपने आप को भी बेचने के लिए, तैयार हो जाता है। हम बाहर से कुछ और हैं, अंदर से कुछ और, अच्छा है कि हमारे भीतर के फोटोग्राफ नहीं निकल सकते, कि हम कैसे हैं? ऐसी खोज हुई नहीं, इसी में जगत का श्रेय है। धर्म बोलने की नहीं आचरण में लाने की चीज है। केवल धर्म का बाह्य आडम्बर तारक नहीं बन सकता। जब मृत्यु नजदीक आती है तब केवल आश्वासन रूप धर्म ही एक मात्र तत्त्व है। महान योगीराज आनंदधनजी की भक्ति में यह तत्त्व था, भगवान के गीत गाते गाते उनकी आँखो से अश्रुधारा बहती थी, श्रोताजन भी भक्ति में तल्लीन हो जाते थे। हम भी जब तक धर्म में अपने अस्तित्त्व को भूलकर नीर और क्षीर की भांति एकमेक नहीं हो जाते, जीवन का सच्चा दर्शन नहीं पा सकते। आनंदधनजी विश्व को भूलकर भक्ति में मग्न थे, इसीलिए उनके गीतो में आत्मा के दर्शन होते हैं। व्यक्ति जब अपने कार्य में मग्न हो जाता है तब उसका कार्य ही गीत बन जाता है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001809
Book TitleDharma Jivan ka Utkarsh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorChitrabhanu
PublisherDivine Knowledge Society
Publication Year2007
Total Pages208
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Sermon
File Size11 MB
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