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________________ है। अत : शरीर के प्रति भी लापरवाही नहीं बरतनी चाहिए, नहीं तो फिर पछताना पडता है। तप, जिंदगीरूपी यंत्र में तेल सिंचन का काम करता है, उपवास, मन तथा शरीर को स्वस्थ रखने का साधन है। नेचरोपैथी (प्राकृतिक चिकित्सा)ने भी यह सिद्ध कर दिया है, कि उपवास कई रोगो को मिटाने में औषधि का काम करता हैं। धर्म आराधना में स्थिरासन भी अत्यंत जरूरी है। यह शक्ति हमें तभी प्राप्त हो सकती है जब माया के प्रलोभनो में भी हम अडिग रहें। सशक्त शरीर के साथ दृढ मन, तथा अंगो की परिपूर्णता के साथ मन की पूर्णता प्राप्त करने का प्रयत्न करना चाहिए । बीमार शरीर, बीमार मन, स्वयं को परेशान तो करता ही है, दूसरों पर भी बोझरूप बनता है। धार्मिक व्यक्ति को एक और बात याद रखनी है, कि आत्मा शरीर से भिन्न है, परंतु जब तक यह शरीर में है, तब तक शरीर इसका रथ है, इन्द्रियां अश्व हैं, मन सारथी और आत्मा रथी है। इन्द्रियों को अंकुश में रखकर ही हम मोक्षरूपी ध्येय तक का सफर तय कर सकते हैं, इससे विपरीत यदि इन्द्रियरूपी अश्व बेलगाम हुआ तो पथ से भटकने के साथ-साथ दुर्गति भी हो सकती है। हमें आँखे प्रभु के निर्मल दर्शन करने के लिए मिली हैं, आँखो का स्वभाव देखना है, वह देखे, मगर मन पर उसकी छाप नहीं पडने देनी चाहिए। इसका विवेक हमें ही रखना है। धर्मी होने का मतलब यह नहीं कि, आँख बंद करके चलना या सुंदरता का दुश्मन हो जाना। धर्मी व्यक्ति तो सदा खुश रहता है, जहाँ से भी निर्दोष आनंद मिलता है, उसका आस्वाद लेता है। इन्सान को भी बालक की भांति निर्दोषता में जीना चाहिए, बालक रेत में खेलता है, उसी की मिठाई परोसता है, और आनंद मनाता है। मानवीय भोग भी धूल की मिठाई जैसे हैं, धूल से बनाया हुआ महल तोड कर, बालक खुश होता है। तथा भोगों में आसक्त मनुष्य घर टूटने पर रोने बैठता है, Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001809
Book TitleDharma Jivan ka Utkarsh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorChitrabhanu
PublisherDivine Knowledge Society
Publication Year2007
Total Pages208
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Sermon
File Size11 MB
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