Book Title: Bhagvati Sutram Part 03
Author(s): Sudharmaswami, 
Publisher: Hiralal Hansraj
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Page #1 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir कम II ) : DIWIKINImmam: MINIMINAI KUSH ID Camily TOINImanitionII: TIMINI HI NDI - IN EAT नमः अनन्तलब्धिनिधानाय भगवते इन्द्रभूतये । निःशेषनिर्ग्रन्थागमामरसरिहिमाचलभगवठ्ठीसुधर्मस्वामीमत्रितं गूर्जरभाषानुवादयुतं श्रीमद्भगवतीसत्रम् . (व्याख्याप्रज्ञप्तिः) (तृतीयो भागः) प्रकाशक:-जामनगरवास्तव्यपंडित 'हीरालाल हंसराज' इत्यस्य 'श्री जैनभास्करोदय प्रेस' इति मुद्रणालये मेनेजर बालचंद्र हीरालाल इत्येतेन मुद्रितम् विक्रमसंवत्-१९९४ । पण्यं रुप्यकत्रयम् सने-१९३८ ३-०-० MITHAI) : [ITT o mail - TINIMINIMIRSITIES MEANI-IMI RI ne MMImmmmmi [ INITY - INT TI TY : TIMI TIWARA For Private and Personal Use Only Page #2 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org For Private and Personal Use Only Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir Page #3 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir व्याख्याप्रज्ञप्ति ॥५७३॥ AIS ॥ अहम् ॥ श्रीमद्गणधरवरसुधर्मखामिप्रणीता। व्याख्याप्रज्ञप्तिः। श्रीभगवतीसूत्रम् भाग-३. SAGA5 ता८ शतके उद्देशः१ ५७३॥ ASE (मूल मूत्र अने तेना गुजराती भाषान्तर सहित ) (शतक ८.) उद्देशक १. पोग्गल १ आसीविस २ रुक्ख ३ किरिय ४ आजीव ५ फासुग ६ मदते ७। पडिणीय ८ बंध ९ आराहणा य १० दस अट्ठमंमि सए ।। ५७ ।। | उद्देश संग्रह-]१ पुद्गल, २ आशीविष, वृक्ष, ४ क्रिया, ५ आजीव, ६ प्रासुक, ७ अदत्त, ८ प्रत्यनीक, ९ बन्ध अने १० आरधना-ए संबंधे दश उद्देशको आठमां शतकमां छे. ॥ ५७॥ - -% 5 For Private and Personal Use Only Page #4 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra व्याख्याप्रज्ञप्तिः ॥५७४ ॥ www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir [ १ पुद्गलना परिणाम विषे प्रथम उद्देशक छे, २ आशीविषादि संबंधे बीजो उद्देशक छे, ३ वृक्षादि विषे त्रीजो उद्देशक छे, ४ कायिकीआदि क्रिया विषे चोथो उद्देशक छे, ५ आजीवक विषे पांचमो उद्देशक छे, ६ प्रासुकदानादि विषे छट्टो उद्देशक छे, ७ अदत्तादान विषे सातमो उद्देशक छे, ८ प्रत्यनीक ( गुर्वादिना विद्वेषी ) विषे आठमो उद्देशक छे, ९ प्रयोगबन्धादिने विषे नवमो उद्देशक छे, अने १० आराधना इत्यादिने विषे दशमो उद्देशक छे. ] रायगिहे जाव एवं वयासी कहविहा णं भंते ! पोग्गला पन्नत्ता ?, गोयमा ! तिविहा पोग्गला पन्नत्ता, तंजहा - पओगपरिणया मीससापरिणया वीससापरिणया । (सूत्रं ३०८ ] ॥ [] राजगृह नगरमा यावत् [ गौतम ए प्रमाणे बोल्या - हे भगवन् ! केटला प्रकारना पुद्गलो कथा के ? [अ०] हे गौतम! त्रण प्रकारना पुद्गलो कथा छे. ते आ प्रमाणे- १ प्रयोगपरिणत ( प्रयोग एटले जीवना व्यापारथी शरीरादिरूपे परिणाम पामेला), २ मिश्रपरिणत ( मिश्र - प्रयोग अने स्वभाव बनना संबन्ध थी परिणाम पामेला), अने ३ विस्रसापरिणत ( विस्रसास्वभाव - थी परिणमेला . ) ॥ ३०८ ॥ पओगपरिणया णं भंते ! पोग्गला कइविहा पन्नत्ता ?, गोयमा ! पंचविहा पन्नत्ता, तंजहा- एगिंदियपओगपरिणया बेदियओगपरिणया जाब पंचिदियपओगपरिणया । एगिंदियपओगपरिणया णं भंते! पोग्गला कहविहा पन्नत्ता?, गोयमा ! पंचविहा, पं०, तंजहा - पुढविक्काइयएगिंदियपयोगपरिणया जाव वणस्सइकाइयएगिंदियपयोगपरिणया । पुढविक्काइयएगिंदियपओगपरिणया णं भंते! पोग्गला कहविहा पन्नत्ता ?, गोयमा ! For Private and Personal Use Only ८ शतके उद्देशः १ ॥५७४ ॥ Page #5 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir व्याख्याप्रज्ञप्तिः ॥५७५॥ AMAKA शतके उद्देशः१ ॥५७५॥ FASHIKA4 दुविहा पन्नत्ता, तंजहा-सुहमपुढविकाइयएगिदियपओगपरिणया य बादरपुढविक्काइयएगिदियपयोगपरिणया य, आउक्काइयएगिदियपओगपरिणया एवं चेव, एवं दुपयओ भेदो जाव वणस्सइकाइया य । बेइंदियपयोगपरिणयाणं पुच्छा, गोयमा ! अणेगविहा पन्नत्ता, तंजहा-,एवं तेइंदियचउरिंदियपओगपरिणयावि । पंचिदियपयोगपरिणयाणं पुच्छा, गोयमा ! चउपविहा पन्नत्ता, तंजहा-नेरहयपंचिंदियपयोगपरिणया तिरिक्ख०, एवं मणुस्स० देवपंचिंदिय०, नेरइयपचिंदियपओग० पुच्छा, गोयमा ! सत्तविहा पन्नत्ता, तंजहा-रयणप्पभापुढवि| नेरइयपयोगपरिणयावि जाव अहेसत्तमपुढविनेरइयपंचिंदियपयोगपरिणयावि, [प्र.] हे भगवन् ! प्रयोगपरिणत पुद्गलो केटला प्रकारना कह्या छ ? [उ०] हे गौतम ! पांच प्रकारना कह्या छे; ते आ प्रमाणे | एकेन्द्रियप्रयोगपरिणत ( एकेन्द्रिय जीवना व्यापारवडे परिणाम पामेला ), बेइन्द्रियप्रयोगपरिणत, यावत् पंचेन्द्रियप्रयोगपरिणत | पुद्गलो. [म०] हे भगवन् ! एकेन्द्रियप्रयोगपरिणत पुद्गलो केटला प्रकारना कह्या छे? [उ०] हे गौतम ! पांच प्रकारना कह्या छ. | ते आ प्रमाणे-पृथिवीकायिकएकेन्द्रियप्रयोगपरिणत पुद्गलो, यावत् वनस्पतिकायिकएकेन्द्रियप्रयोगपरिणत पुद्गलो. [प्र०] हे | भगवन् ! पृथिवीकायिकएकेन्द्रियप्रयोगपरिणत पुद्गली केटला प्रकारना कह्या छ ? [उ०] हे गौतम! बे प्रकारना कह्या छे, ते आ प्रमाणे-मूक्ष्मपृथिवीकायिकएकेन्द्रियप्रयोगपरिणत पुद्गलो, अने बादरपृथिवीकायिकएकेन्द्रियप्रयोगपरिणत पुद्गलो, ए प्रमाणे अकायिकएकेन्द्रियप्रयोगपरिणत पुद्गलो (बे प्रकारे) जाणवा, ए प्रमाणे यावत् वनस्पतिकायिकप्रयोगपरिणत पुद्गलो पण बे प्रकारना जाणवा. [प्र०] हे भगवन् ! बेइन्द्रियप्रयोगपरिणत पुद्गलो केटला प्रकारना छे ? [उ०] हे गौतम! ते अनेक प्रकारना SHASARAI For Private and Personal Use Only Page #6 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir P व्याख्याप्रज्ञप्तिः ॥५७६॥ ८ शतके उद्देशः१ ॥५७६॥ SHARE कह्या छे. ए प्रमाणे तेइन्द्रिय अने चउरिन्द्रियप्रयोगपरिणत पुद्गलो पण जाणवा. [म०] हे भगवन् ! पंचेन्द्रियप्रयोगपरिणत पुद्गलो का केटला प्रकारना कह्या छ ? [उ०] हे गौतम ! ते चार प्रकारना कह्या छे. ते आ प्रमाणे-नारकपंचेन्द्रियप्रयोगपरिणत, तियचपंचे|न्द्रियप्रयोगपरिणत, ए प्रमाणे मनुष्यपंचेन्द्रियप्रयोगपरिणत अने देवपंचेन्द्रियप्रयोगपरिणत. [प्र०] हे भगवन् ! नैरयिकपंचेन्द्रिय प्रयोगपरिणत पुद्गलो केटला प्रकारना कह्या छे ? [उ०] हे गौतम ! नैरयिकपंचेन्द्रियप्रयोगपरिणत पुद्गलो सात प्रकारना कह्या छे; | ते आ प्रमाणे-रत्नप्रभापृथिवीनैरयिकपंचेन्द्रियप्रयोगपरिणत, अने यावत् नीचे सप्तमनरकपृथिवीनरयिकप्रयोगपरिणत पुद्गलो. तिरिक्खजाणियपंचिंदियपओगपरिणयाणं पुच्छा,गोयमा ! तिविहा पन्नता, तंजहा-जलचरपंचिंदियतिरिक्खजोणिय० थलचरतिरिक्खजाणियपंचिंदिय०,खहचरतिरिक्खपंचिंदिय०,जलयरतिरिक्खजोणियपओगपुच्छा, | गोयमा!दुविहा पन्नत्ता,तंजहा-समुच्छिमजलयर गन्भवतियजलयर०,थलयरतिरिक्ख० पुच्छा,गोयमा! दुविहा पन्नत्ता, तंजहा-च उप्पयथलयर परिसप्पथलयर०, चउप्पयथलयर० पुच्छा, गोयमा! दुविहा पन्नत्ता, तंजहासंमुच्छिमचउप्पयथलयर० गम्भवतियचउप्पयथलयर०, एवं एएणं अभिलावेणं परिसप्पा दुविहा पन्नत्ता, तंजहा-उरपरिसप्पा य भुयपरिसप्पा य, उरपरिसप्पा दुविहा पन्नत्ता, तंजहा-समुच्छिमा य गन्भवतिया य, एवं भुयपरिसप्पावि, एवं खहयरावि । [प्र०] हे भगवन् ! तिर्यंचयोनिकपंचेन्द्रियप्रयोगपरिणत पुद्गलो केटला प्रकारना कह्या छ ? [उ०] हे गौतम ! तियंचयोनिकपंचेन्द्रियप्रयोगपरिणत पुद्गलो त्रण प्रकारना कह्या छे, ते आ प्रमाणे-जलचरतियंचयोनिकपंचेन्द्रियप्रयोगपरिणत, स्थलचरति A-AAAAAA For Private and Personal Use Only Page #7 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir व्याच्या प्रज्ञप्ति ॥५७७॥ बायंचयोनिकपंचेन्द्रियप्रयोगपरिणत अने खेचरतियंचयोनिकपंचेन्द्रिप्रयोगपरिणत पुद्गलो. प्र. हे भगवन् ! जलचरतियंचयोनिक पंचेन्द्रियप्रयोगपरिणत पुद्गलो केटला प्रकारना कह्या छ ? [उ०] हे गौतम ! जलचरतियचयोनिकपंचेन्द्रियप्रयोगपरिणत पुद्गलो ८ शतके वे प्रकारना कह्या छे; ते आ प्रमाणे-संमूर्छिमजलचरतिर्यचपंचेन्द्रियप्रयोगपरिणत अने गर्भजजलचरतिर्यंचपंचेन्द्रियप्रयोगपरिणत. उद्देशः१ H०] हे भगवन् ! स्थलचरतियंचयोनिकप्रयोगपरिणत पुद्गलो केटला प्रकारना कह्या है ? [उ०] हे गौतम! स्थलचरतियचयोनि- १५७७॥ | कपंचेन्द्रियप्रयोगपरिणत पुद्गलो वे प्रकारना कद्या छे ते आ प्रमाणे-चतुष्पदस्थलचरपंचेन्द्रियप्रयोगपरिणत अने परिसर्पस्थलचरतियंचपंचेन्द्रियप्रयोगपरिणत. [प्र०] हे भगवन् ! चतुष्पदस्थलचरतियंचयोनिकपंचेन्द्रियप्रयोगपरिणत पुद्गलो केटला प्रकारना कहा छ ? [उ०] हे गौतम! चतुप्पदस्थलचरतियचयोपंचेन्द्रियप्रयोगपरिणत पुद्गलो बे प्रकारना कह्या छे ते आ प्रमाणे-संमूछिमचतुष्पदस्थलचरतियंचपंचेन्द्रियायोगपरिणत अने गर्भजचतुष्पदस्थलचरतियचयंवेन्द्रियप्रयोगपरिणत. ए प्रमाणे ए अभिलाप (पाठ) | वडे परिसॉ वे प्रकारना कह्या छ-उरपरिसर्प अने भुजपरिसर्पो. उरपरिसपों वे प्रकारना कह्या डे-संमृछिम अने गर्भज. ए प्रमाणे भुजपरिमो अने से चरो ( पक्षीओ) पण वे प्रकारना कह्या छे. मगुस्सपंचिंदियपयोगच्छा, गोयमा ! दुविहा पन्नत्ता, जहा-समुच्छिममणुस्म० गम्भवतियमणुस्स। । देवपंचिंदियपयोगपुच्छा,गोयमा! चउव्विहा पन्नत्ता,तंजहा-भवणवासिदेवपंचिंदियपयोग एवंजाब वेमागिया। भवणवासिदेवपंचिंदियपुच्छा, गोयमा ! दसविहा पन्नत्ता, तंजहा-असुरकुमारा जाब थणियकुमारा,एवं गएण: अभिलावेणं अट्टविहा वाणमंतरा पिसाया जावगंधवा,जोइसिया पचविहा पन्नत्ता,तंजहा-चंदविमाणजोतिसिय RAKAR For Private and Personal Use Only Page #8 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir व्याख्याप्रज्ञप्तिः ॥५७८॥ 6429414344-45 जाव ताराविमाणजोतिसियदेव० वेमाणिया दुविहा पन्नत्ता, तंजहा-कापोववन्नग० कप्पातीतगवेमाणिय०, कप्पोवगा दुवालसविहा पण्णत्ता, तंजहा-सोहम्मकप्पोवग० जाव अच्चुयकप्पोवगवेमाणिया । कप्पातीत०, ८ शतके गो० दुविहा पण्णत्ता, तंजहा-गेवेज्जकप्पातीतवे० अणुत्तरोववाइयकप्पातीतवे०, गेवेज्जकप्पातीतगा नवविहा| उद्देशः१ पण्णत्ता, तंजहा-हेट्टिम २ गेवेजगकप्पातीतगवे. जाव उवरिमरगेविज़गकप्पातीय। ॥५७८॥ [प्र०] हे भगवन् ! मनुष्यपंचेन्द्रियप्रयोगपरिणत पुद्गलो केटला प्रकारना कद्या छ ? [उ०] हे गौतम ! मनुष्यपंचेन्द्रियप्र-13 योगपरिणत पुद्गलो बे प्रकारना कह्या छे. ते आ प्रमाणे-संमूर्छिममनुष्यप्रयोगपरिणत अने गर्भजमनुष्यपंचन्द्रियप्रयोगपरिणत. [प्र.] हे भगवन् ! देवपंचेन्द्रियप्रयोगपरिणत पुद्गलो केटला प्रकारना कह्या छ ? [उ०] हे गौतम ! देवपंचेन्द्रियप्रयोगपरिणत है पुद्गलो चार प्रकारना कया छे, ते आ प्रमाणे-भवनवासिदेवपंचेन्द्रियप्रयोगपरिणत, अने यावत् वैमानिकदेवपंचेन्द्रियप्रयोगपरिणत पुद्गलो. [प्र०] हे भगवन् ! भवनवासिदेवपंचेन्द्रियप्रयोगपरिणत पुद्गलो केटला प्रकारना कह्या छ ? [उ०] हे गौतम ! दश प्रकारना कद्या छे. ते आ प्रमाणे--असुरकुमारप्रयोगपरिणत, यावत् स्तनितकुमारप्रयोगपरिणत. ए प्रमाणे ए अभिलापवडे आठ प्रकारना वानव्यंतरो, पिशाचो यावत् गान्धवा कहेवा, ज्योतिषिको पांच प्रकारना कद्या छे ते आ प्रमाणे-चन्द्रविमानज्योतिषिकदेव, यावत ताराविमानज्योतिषिकदेव. वैमानिक देवो वे प्रकारना कबा छे ते आ प्रमाणे-कल्पोपपन्नकवैमानिकदेव अने| कल्पातीतवैमानिक देव. कल्पोपपत्रकवैमानिक बार प्रकारना कया छे; सौधर्मकल्पोपनक,यावत् अच्युतकल्पोपन्नक. कल्पातीतवैमानिको | हे गौतम ! चे प्रकारे कला छे; ते आ प्रमाणे-अवेयककल्पातीतवैमानिक देव अने अनुत्तरौपपातिककल्पातीत वैमानिक देव. अवेय-हा For Private and Personal Use Only Page #9 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ८ शतके | उद्देशः१ १॥५७९॥ ककल्पातीत वैमानिक देवो नव प्रकारे कद्या छे; ते आ प्रमाणे-अधस्तन अधस्तन (नीचेनी त्रिकमां नीचे रहेला) अवेयककल्पातीत व्याख्या भावमानिक देवो, यावत् उपर उपर (उपरनी त्रिकमा उपरना) वेयक कल्पातीत देवो. प्रज्ञप्तिः ४ अणुत्तरोववाइयकप्पातीतगवेमाणियदेवपंचिंदियपयोगपरिणया ण भंते ! पोग्गला कइविहा पण्णत्ता ?, गोयमा ! पंचविहा पण्णत्ता, तंजहा-विजयअणुत्तरोववाइय. जाव परिण जाव मम्वट्ठसिद्धअणुत्तरोववाइमायदेवपाँचदिय जाव परिणया ॥ सुहमपुढविकाइयएगिदियपयोगपरिणया णं भंते ! पोग्गला कइविहा |पण्णत्ता ?, गोयमा! दुविहा पण्णत्ता, [ केई अपज्जत्तगं पढम भणंति पच्छा पज्जत्तगं, ] पज्जत्तग| सहुमपुढविकाइय जाव परिणया य अपजत्तसुहुमपुढविकाइय जाव परिणया य, बादरपुढचिकाइयएगिंदिय. जाव वणस्सइकाइया, एकका दुविहा पोग्गला-सुहुमा य बादरा य, पजत्तगा अपजत्तगा य भाणियव्वा । बेइंदियपयोगपरिणया णं पुच्छा, गोयमा! दुविहा पन्नत्ता, तंजहा-पजत्तगदियपयोगपरिणया | य अपज्जत्तग जाब परिणया य, एवं तेइंदियावि, एवं चउरिंदियावि। रयणप्पभापुढविनेरइय० पुच्छा, | | गोयमा ! दुविहा पन्नत्ता, तंजहा-पजत्तगरयणप्पभापुढवि जाव परिणया य अपजत्त गजावपरिणया काय, एवं जाव अहेसत्तमा । | [प्र०] अनुत्तरोपपातिककल्पातीतवैमानिकदेवपंचेन्दियप्रयोगपरिणत पुद्गलो केटला प्रकारना कह्या छ ? [उ०] हे गौतम ! पांच प्रकारना कह्या छे, ते आ प्रमाणे-विजयअनुत्तरोपपातिकदेवप्रयोगपरिणत, यावत् सर्वार्थसिद्धअनुत्तरोपपातिकदेवपंचेन्द्रियप्रयो ARAK For Private and Personal Use Only Page #10 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandi व्याख्याप्रज्ञप्तिः ॥५८०॥ | गपरिणत (दं. १.) प्र०) हे भगवन् ! सूक्ष्मपृथिवीकायिकएकेन्द्रियप्रयोगपरिणत पुद्गलो केटला प्रकारना कद्या छ ? [उ०] हे | गोतम ! बे प्रकारना कह्या ३ ते आ प्रमाणे-पर्याप्तसूक्ष्मपृथिवीकायिकएकेन्द्रियप्रयोगपरिणत अने अपर्याप्तसूक्ष्मपृथिवीकायिकएक 81८ शतके न्द्रियप्रयोगपरिणत. आ स्थले (बीजी वाचनामा) कोइ अपर्याप्तने प्रथम कहे छे. अने पछी पर्याप्त ने कहे छे. ए प्रमाणे वादरपृथिवी- उद्देशः१ कायिकए केन्द्रिय यावत् बनस्पतिकायिक कहेवा. ते बधा बबे प्रकारे हे-मूक्ष्म अने बादर, तथा पर्याप्त अने अपर्याप्त. [प्र०] हे । ५८०॥ भगवन् ! बेइन्द्रियप्रयोगपरिणत पुद्गलो केटला प्रकारना कह्या छ ? [उ०] हे गौतम! वे प्रकारना कद्या हे ते आ प्रमाणे-15 पर्याप्त बेइन्द्रियप्रयोगपरिणत अने अपर्याप्तवेइन्द्रियप्रयोगपरिणत. ए प्रमाणे त्रीइन्द्रियो अने चउरिन्द्रियो पण जाणवा. [प्र०] हे 14 भगवन् ! रत्नप्रभापृथिवीनरयिकप्रयोगपरिणत पुद्गलो केटला प्रकारना कह्या ? [उ०] हे गौतम ! वे प्रकारना कया है; ने आ प्रमाणे-पर्याप्तरत्नप्रभापृथिवीनरयिकप्रयोगपरिणत अने अपर्याप्तरत्नप्रभापृथिवीनरयियप्रयोगपरिणत. ए प्रमाणे यावत् नीचे | सातमी नरकपृथ्वी मुधी जाणवू. समुच्छिमजलयरतिरिक्खपुच्छा, गोयमा! दुविहा पन्नत्ता, तंजहा-पजत्तग० अपज्जत्तग०, एवं गम्भयकंतियावि, समुच्छिमचउप्पयथलयरा, एवं चेव गम्भवतिया य, एवं जाव संमुच्छिमखहयरगन्भवतिया य एकके पजत्तगा य अपजत्तगा य भाणियब्वा । समुच्छिममणुस्मपंचिंदियपुच्छा,गोयमा! एगविहा पन्नत्ता, अपज्जत्तगा। | चेव । गमवतियमणुस्सपंचिंदियपुन्छा, गोयमा ! दुविहा पन्नत्ता,तंजहा-पजत्तगगम्भकंतियावि अपजत्तगगम्भवतियावि । असुरकुमारभवणवासिदेवाणं पुच्छा, गोयमा! दुविहा पन्नत्ता, तंजहा--पजत्तगअसुर० * % + - % 4 य- % - - पट क For Private and Personal Use Only Page #11 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir 4%A व्याख्याप्रज्ञप्ति ॥५८१॥ ८ शतके उद्देशः१ 11५८१॥ 4 - ॐ वाणं पुच्छा, गोयमा दुविहा पन्नत्ता, तंजहा-पज्जत्तगअसुरकुमार अपज्जत्तगअसुर०, एवं जाव थणियकुमारा पज्जत्तगा अपज्जत्तगा य, एवं एएणं अभिलावेणं दुयएणं भेदेणं पिसाया य जाव गंधब्वा, चंदा जाव ताराविमाणा०, सोहम्मकप्पोवगा जाव अच्चुओ, हिडिमहिडिमगेविज्जगकप्पातीय जाव उवरिमउवरिमगेविज०, विजयअणुत्तरो. जाव अपराजिय० [प्र०] हे भगवन् ! संमृद्धिमजलचरतियचयोनिकप्रयोगपरिणत पुद्गलो केटला प्रकारना कह्या छ ? [उ०] हे गौतम! बे प्रकारना कह्या छे; ते आ प्रमाणे-पर्याप्तसंमूछिमजलचरप्रयोगपरिणत अने अपर्याप्तप्रयोगपरिणत. ए प्रमाणे गर्भज जलचरो पण जाणवा. ए प्रमाणे संमूर्छिम तथा गर्भज चतुष्पदस्थलचर जीवो जाणवा, ए प्रमाणे यावत् संमृर्छिम तथा गर्भज खेचरो पण जाणवा; ते दरेकना पर्याप्त अने अपर्याप्त बे भेदो कहेवा. [प्र०] हे भगवन् ! संमूर्छिममनुष्यपंचेन्द्रियप्रयोगपरिणत पुद्गलो केटला प्रकारना कद्या छ ? [उ०] हे गौतम ! ते एक प्रकारना कया छे, ते आ प्रमाणे-अपर्याप्तसंमूर्छिममनुष्यपंचेन्द्रियप्रयोगपरिणत. [प्र०] हे भगवन् ! गर्भजमनुष्यपंचेन्द्रियप्रयोगपरिणत पद्गलो केटला प्रकारना कह्या छ ? [उ०] हे गौतम ! वे प्रकारना कह्या हे, ते आ प्रमाणे-पर्याप्तगर्भजप्रयोगपरिणत अने अपर्याप्तगर्भजप्रयोगपरिणत. [प्र०] हे भगवन् ! असुरकुमारभवनवासिदेवप्रयोगपरिणत | पुद्गलो केटला प्रकारना कया छे ? [उ०] हे गौतम! वे प्रकारना कह्या छे ते आ प्रमाणे--पर्याप्तअसुरकुमारप्रयोगपरिणत अने अपर्याप्तअमुरकुमारप्रयोगपरिणत; ए प्रमाणे यावत् स्तनितकुमारो पर्याप्त अने अपर्याप्त जाणवा. ए प्रमाणे ए अभिलापवडे बे भेदो पिशाचो यावत् गांधर्वांना जाणवा. तेमज चन्द्रो यावत् ताराविमानो. सौधर्मकल्पोपपन्नक, यावत् अच्युत कल्पोपपन्नक, * * * For Private and Personal Use Only Page #12 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir भ्याख्याप्रज्ञप्तिः *- ॥५८२॥ +% तथा नीचे नीचेनी अवेयक कल्पातीत यावत् उपर उपरना अवेयकयल्पातीतदेवप्रयोगपरिणत, विजयअनुत्तरौपपातिक, यावत् अपराजितअनुत्तरौपपातिक. ४८ शतके सव्वट्ठसिद्धकप्पातीयपुच्छा, गोयमा ! दुविहा पन्नत्ता, तंजहा-पजत्तसव्वट्ठसिद्धअणुत्तरो० अपज उद्देशः१ त्तगसव्वट्ठ जाव परिणयावि, २ दंडगा ॥ जे अपज्जत्ता सुहुमपुढवीकाइयएगिदियपयोगपरिणया ते ॥५८२॥ ओरालियतेयाकम्मगसरीरप्पयोगपरिणया, जे पजत्ता सुहुम जाव परिणया ते ओरालियतेयाकम्मगसरीरप्पयोगपरिणया, एवं जाव चउरिंदिया पज्जत्ता, नवरं जे पज्जत्तबादरवाउकाइयरागिदियपयोगपरिणया ते ओरालियवेउब्वियतेयाकम्मसरीर जाव परिणता, सेसं तं चेव, जे अपज्जत्तरयणप्पभापुढविनेरइयपंचिंदियपयोगपरिणया ते वेउब्बियतेयाकम्मसरीरप्पयोगपरिणया, एवं पज्जत्तयावि, एवं जाव अहे. सत्तमा । जे अपज्जत्तगसमुच्छिमजलयरजावपरिणया ते ओरालियतेयाकम्मासरीर जाव परिणया एवं पजत्तगावि, गब्भवतिया अपज्जत्तया एवं चेव, पज्जत्तयाणं एवं चेव, नवरं सरीरगाणि चत्तारि जहा बादरवाउकाइयाणं पज्जत्तगाणं, एवं जहा जलचरेसु चत्तारि आलावगा भणिया एवं चउप्पयउरपरिसप्पभुयपरिसप्पखयरेसुवि चत्तारि आलावगा भाणियव्वा । जे संमुच्छिममणुस्सपंचिंदियपयोगपरिणया ते ओरालियते-15 याकम्मासरीर जाव परिणया, एवं गन्भवतियावि अपज्जत्तगावि, पजत्तगावि एवं चेव, नवरं सरीरगाणि पंच भाणियब्वाणि, जे अपज्जत्ता असुरकुमारभवणवासि जहा नेरइया तहेव, एवं पज्जत्तगावि, एवं दुय % बाबEALA For Private and Personal Use Only Page #13 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ८ शतके उद्देशः१ 11५८३॥ एणं भेदेणं जाव थणियकुमारा, एवं पिसाया जाव गंधवा, चंदा जाव ताराविमाणा, सोहम्मो कप्पो जाव व्याख्या- अच्चुओ, हेट्ठिम २गेवेन्जजावउवरिम २गेवेज०, विजयअणुत्तरोववाइए जाव सव्वट्ठसिद्धअणु०, एक्ककणं दुयओ प्रज्ञप्ति | भेदो भाणियब्वा जाव जे पजत्ता सव्वट्ठसिद्धअणुत्तरोववाइया जाव परिणया ते वेउव्वियतेयाकम्मासरी॥५८३॥ दारपयोगपरिणया, दडगा ३ ॥ [प्र०] हे भगवन् ! सर्वार्थसिद्धअनुत्तरौपपातिककल्पातीतदेवप्रयोगपरिणत पुद्गलो केटला प्रकारना कह्या छ ? [उ०] हे *गौतम ! ते वे प्रकारना कह्या छे; ते आ प्रमाणे-पर्याप्त सर्वार्थसिद्धअनुत्तरौपपातिक; यावत् अपर्याप्तसर्वार्थसिद्धप्रयोगपरिणत. ए [प्रमाणे ४ वे दंडको जाणवा. ] जे पुद्गलो अपर्याप्तसूक्ष्मपृथिवीकायएकेन्द्रियप्रयोगपरिणत छे ते औदारिक, तेजश अने कार्मणशरीरप्रयोगपपरिणत छ; अने जे पुद्गलो पर्याप्तसूक्ष्मपृथिवीकायएकेन्द्रियप्रयोगपरिणत छे ते औदारिक, तैजश अने कार्मणशरीरप्रयोगपरिणत छे. ॐाए प्रमाणे यावत् चउरिन्द्रिय पर्याप्ता जाणवा, परन्तु विशेष ए छे के जे पुद्गलो पर्याप्तवादरवायुकायिकएकेन्द्रियप्रयोगपरिणत के |ते औदारिक, वैक्रिय, तैजस अने कार्मणशरीरपयोगपरिणत छे, बाकीनुं सर्व पूर्वे कद्या प्रमाणे जाणवू. जे पुद्गलो अपर्याप्तरत्नप्रभा पृथिवीनारकपंचेन्द्रियप्रयोगपरिणत छे ते वैक्रिय, तैजस अने कार्मणशरीरप्रयोगपरिणत छे. ए प्रमाणे पर्याप्तनारको पण जाणवा. ए | प्रमाणे यावत् सप्तम पृथिवी मुधी जाणवं. जे पुद्गलो अपर्याप्तसंमूछिमजलचरप्रयोगपरिणत छे ते औदारिक, तंजस, अने कार्मण शरीर यावत् परिणत छे. ए प्रमाणे पर्याप्ता [ संमूछिम जलचर ] पण जाणवा. गर्भजअपर्याप्त अने गर्भजपर्याप्त पण एमज जाणवा. परन्तु विशेष ए छे के पर्याप्तबादरवायुकायिकनी पेठे तेओने चार शरीर होय छे. ए प्रमागे जेम जलचरोमा चार आलापक कहेला RRCHANAK-44-4.4 For Private and Personal Use Only Page #14 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatrth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir व्याख्याप्रज्ञप्तिः ।।५८४॥ How छे तेम चतुष्पद, उरपरिसर्प, भुनपरिसर्प अने खेचरोमां पण चार आलापक कहेवा, जे पुद्गलो संमूर्छिममनुष्यपंचेन्द्रियप्रयोगपरिणत छे, ते औदारिक, तैजस अने कार्मणशरीरप्रयोगपरिणत हे ए प्रमाणे गर्भज अपर्याप्ता जाणवा, पर्याप्ता पण एमज जाणवा. परन्तु ८ शतके विशेष ए के तेओने पांच शरीर कहेवा. जेम नैरयिको संबन्धे कडं, तेम अपर्याप्त असुरकुमारभवनवासि देवो संबंन्धे पण जाणवू, है उद्देशः १ तेम पर्याप्ता संबन्धे पण जाणवू ए प्रकारे ए बे भेदवडे यावत् स्तनितकुमारो पण जाणवा. ए प्रमाणे पिशाचो अने यावत् गांवों ॥५८४॥ जाणवा. चंद्रो यावत् तारा विमानो, सौधर्मकल्प यावत् अच्युतकल्प, नीचेनी त्रिकमां नीचेना ग्रैवेयक यावत् उपरनी त्रिकमां | उपरना ग्रैवेयक अने विजयअनुत्तरौपपातिक यावत् सर्वाथसिद्ध. अनुत्तरौपपातिकना प्रत्येके वबे भेद कहेवा; यावत् जे पुद्गलो अपर्यात सर्वार्थसिद्धअनुत्तरौपपातिक यावत् [पर्याप्त सर्वार्थसिद्ध अनुत्तरौपपातिक] प्रयोगपरिणत छे, ते वैक्रिय, तैजस अने कार्मण-2 शरीरप्रयोगपरिणत छे. ए प्रमाणे त्रण दंडक कह्या. जे अपजत्ता सुहुमपुढविकाइयएगिंदियपयोगपरिणता ते फासिंदियपयोगपरिणया, जे पजत्ता सुहुमपुढविकाइया एवं चेव, जे अपज्जत्ता बादरपुढविक्काइया एवं चेव, एवं पजत्तगावि, एवं चउक्कएणं भेदेणं जाव वणस्सइकाइया, जे अपज्जत्ता बेइंदियपयोगपरिणया ते जिभिदियफासिंदियपयोगपरिणया, जे पजत्ता बेइंदिया एवं चेव, एवं जाव चउरिंदिया, नवरं एकेक इंदियं वड्ढेयव्वं जाव अपजत्ता रयणप्पभापुढविनेरइयपंचिंदियपयोगपरिणया ते सोइंदियचक्खिदियघाणिदियजिभिदियफासिंदियपयोगपरिणया एवं पज्जत्तगावि, एवं सब्वे भाणियब्वा, तिरिक्खजोणियमणुस्सदेवा जाव जे KATHA For Private and Personal use only Page #15 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir व्याख्याप्रज्ञप्तिः ॥५८५॥ HA-% MAHARASHTRite पज्जत्ता सब्वट्ठसिद्धअणुत्तरोववाइय जाव परिणया ते सौइंदियचक्खिदिय जाव परिणया ४ ॥ जे पुद्गलो अपर्याप्तसूक्ष्मपृथिवीकायिकएकेन्द्रियप्रयोगपरिणत छे ते स्पर्शेन्द्रियप्रयोगपरिणत छ, जे पुद्गलो पर्याप्तसूक्ष्मपृथि P८ शतके वीकायिकएकेन्द्रियप्रयोगपरिणत छे ते ए प्रमाणे [स्पर्शेन्द्रियप्रयोगपरिणत छे. जे पुद्गलो अपर्याप्तबादरपृथिवीकायिकप्रयोगपरिणत | उद्देशः१ | छे ते पण एज प्रकारे छे. जे पुद्गलो पर्याप्तबादरपृथिवीकायिकप्रयोगपरिणत छे ते पण एवाज छे. ए प्रमाणे चार भेदो यावद् | ।।५८५॥ वनस्पतिकायिकोना जाणवा. जे पुद्गलो अपर्याप्तबेइन्द्रियप्रयोगपरिणत छे ते जिह्वाइन्द्रिय अने स्पर्शेन्द्रियप्रयोगपरिणत छे. जे पर्याप्तबेडन्द्रियप्रयोगपरिणत छे ते ए प्रमाणे जाणवा. ए प्रकारे यावत् चउरिन्द्रिय जीवो जाणवा; परन्तु एक एक इन्द्रिय वधारवी [अथात् त्रीइन्द्रियजीवोने स्पर्शेन्द्रिय, रसेन्द्रिय अने घाणेन्द्रिय कहेवी, अने चउरिन्द्रियजीवोने एक चक्षुरिन्द्रिय वधारवी. ] | यावत् जे पुद्गलो अपर्याप्तरत्नप्रभापृथिवीनारकपंचेन्द्रियप्रयोगपरिणत छे ते श्रोत्रेन्द्रिय, चक्षुरिन्द्रिय, घाणेन्द्रिय, जिढेन्द्रिय अने स्पर्शेन्द्रियप्रयोगपरिणत छे. ए प्रमाणे पर्याप्तनारकप्रयोगपरिणत पुद्गलो पण जाणवा. सर्व तिर्यंचयोनिको, मनुष्यो अने | देवो पण ए प्रकारे कहेवा. यावत् जे पुद्गलो पर्याप्त सर्वार्थसिद्धअनुत्तरौपपातिकदेवप्रयोगपरिणत छे ते श्रोत्रेन्द्रिय चक्षुरिन्द्रिय 3 इत्यादि यावत् परिणत . [ दं. ४] जे अपज्जत्ता सुहमपुढविकाइयएगिदियओरालियतेयकम्मासरीरप्पयोगपरिणया तेफासिंदियपयोगपरिणया जे पज्जत्ता सुहुम० एवं चेव बादर०, अपज्जत्ता एवं चेव,एवं पजत्तगावि,एवं एएण अभिलावेणं जस्स जईदियाणि सरीराणि य ताणि भाणियबाणि, जाव जे य पज्जत्ता सम्वट्ठसिद्ध अणुत्तरोववाइय जाव देवचिदियवेउब्बियतेया AA-541 For Private and Personal Use Only Page #16 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandit प्रज्ञप्तिः ॥५८६॥ ८ शतके उद्देशः१ ॥५८६॥ + कम्मासरीरपयोगपरिणया ते साइंदियचक्खिदिय जाव फासिदियपयोगपरिणया ५॥ मा जे पुद्गलो अपर्याप्तसूक्ष्मपृथिवीकायिकएकेन्द्रिय औदारिक, तैजस अने कार्मणशरीरप्रयोगपरिणत के ते स्पर्शेन्द्रियप्रयोगपरिणत छे. जे पुद्गलो पर्याप्तसूक्ष्मपृथिवीकायिकप्रयोगपरिणत छे ते ए प्रमाणे [स्पर्शेन्द्रियप्रयोगपरिणत ] . अपर्याप्तवादरपृथिवीकायिक अने पर्याप्तबादरपृथिवीकायिक पण ए प्रमाणे जाणवा. ए प्रकारे ए अमिलाप ( पाठ) वडे जेने जेटली इन्द्रियो अने शरीरो होय तेने तेटला कहेवां. यावत् जे पुद्गलो पर्याप्तसर्वार्थसिद्धअनुत्तरौपपातिकदेवपञ्चेन्द्रिय वैक्रिय, तैजस अने कार्मणशरीरप्रयोगपरिणत छे ते श्रोत्रेन्द्रिय, चक्षुरिन्द्रिय यावत् स्पर्शेन्द्रियप्रयोगप रणत . [दं५] | जे अपज्जत्ता सुहमपुढविकाइयएगिदियपयोगपरिणया ते वन्नओ कालवनपरिणयावि नीललोहिय हालिह० सुकिल्लगंधओ सुन्भिगंधपरिणयावि दुन्भिगंधपरिणयावि, रसओ तित्तरसपरिणयावि कडुयरसपरिणयावि | कसायरसप० अंबिलरसप० महुररसप०,फासओ कवखडफासपरि० जाव लुक्खफासपरि०,संठाणओ परिमंडलसंठाणपरिणयावि व तंस. चउरंस. आयतसंठाणपरिणयावि,जे पज्जत्ता सुहुमपुढवि० एवं चेव,एवं जहाणुपुव्वीए नेयव्वं जाव जे पज्जत्ता सव्वदृसिद्धअणुत्तरोवाइय जाव परिणयावि ते वन्नओ कालवनपरिणयावि जाव आययसठाणपरिणयावि ६॥ जे पुद्गलो अपर्याप्तसूक्ष्मपृथिवीकायिकएकेन्द्रियप्रयोगपरिणत छे ते वर्णथी काळावणे, नीलवर्णे, रक्तवर्णे,पीतवर्णे अने शुक्लवर्णे |पण परिणत छे; गन्धयी सुरभिगन्ध अने दुरभिगन्धपणे पण परिणत हे. रसथी तिक्तरस, कटुकरस, कषायरस, अम्लरस अने मधु + AA +K ATE For Private and Personal Use Only Page #17 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir व्याख्याप्रज्ञप्तिः ॥५८७॥ % A ८ शतके उद्देशः१ ॥५८७|| NARASI-AR ररसरूपे पण परिणत छ स्पर्शथी कर्कशस्पर्श, यावत् रुक्षम्पर्शरूपे पण परिणत , अने संस्थानथी परिमंडलसंस्थान, वृत्तसंस्थान, व्यसंस्थान, चतुरस्र (चोरस) संस्थान अने आयतसंस्थानरूपे पण परिणत छे. जे पुद्गलो पर्याप्तसूक्ष्मपृथिवीकायिकएकेन्द्रियप्रयोगपरिणत छे, ते ए प्रमाणे जाणवा. अने ए प्रकारे सर्व क्रमपूर्वक जाणवं, यावत जे पुद्गलो पर्याप्त सर्वार्थसिद्ध अनुचरौपपातिकयावत् प्रयोगपरिणत छे ते वर्णथी कालावणे परिणत पण छे, यावत् आयतसंस्थान रूपे पण परिणत के. [.६] जे अपज्जता सुहुमपुढवि०एगिदियओरालियतेयाकम्मामरीरपयोगपरिणया ते वन्नओ कालवन्नपरि जाव आययसंठाणपरि०, जे पजत्ता सुहमपुढवि. एवं चेव, एवं जहाणुपुब्बीए नेयव्वं जस्स जइ सरीराणि जाप जे पज्जत्ता सबट्ठसिद्धअणुत्तरोववाइयदेवपंचिंदियविउवियतेयाकम्मसरीरा जाव परिणया ते वन्नओ कालवन्नपरिणयावि जाव आयतसंठाणपरिणयावि ७॥ जे पुद्गलो अपर्याप्तसूक्ष्मपृथिवीकायिकएकेन्द्रियऔदारिक, तैजस अने कार्मणशरीरप्रयोगपरिणत छे, ते वर्णथी कालावणे पण परिणत छे, यावत् आयतसंस्थानरूपे पण परिणत छे. ए प्रमाणे पर्याप्तसूक्ष्मपृथिवीकायिकप्रयोगपरिणत पुद्गलो पण जाणवा. | ए प्रकारे यथानुक्रमे जाणवू. जेने जेटलां शरीर होय [तेने तेटलां कडेवां ] यावत् जे पुद्गलो पर्याप्तसर्वार्थसिद्धअनुत्तरौपपातिक देवपंचेन्द्रिय वैक्रिय, तैजस अने कार्मणशरीरप्रयोगपरिणत छे ते वर्णथी काळावणे पण परिणत छे, अने संस्थानथी यावत् आयतसंस्थानरूपे पण परिणत छ [दं.७] जे अपज्जत्ता सुहुमपुढाविकाइयएगिदियफासिंदियपयोगपरिणया ते वन्नओ कालवनपरिणया जाव आयय A - AS For Private and Personal Use Only Page #18 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandit | संठाणपरिणयावि, जे पज्जत्ता सुहमपुढवि एवं चेव, एवं जहाणुपुब्बीए जस्स जब इंदियाणि तस्स तत्तियाणि व्याख्याभाणियव्वाणि जाव जे पज्जत्ता सम्बट्टसिद्धअणुत्तरजावदेवपंचिंदियसोइंदिय जाव फासिंदियपयोगपरिणयावि ८ शतके प्रज्ञप्तिः दाते वन्नओ कालवन्नपरिणयावि जाव आययसंठाणपरिणयावि ८॥ उद्देशः१ ॥५८८॥ * जे पुद्गलो अपर्याप्तसूक्ष्मपृथिवीकायिकएकेन्द्रियस्पर्शेन्द्रियप्रयोगपरिणत छे ते वर्णथी कालावर्णे परिणत छे, यावत् आयतसं- ॥५८८॥ स्थानरूपे पण परिणत छे. जे पुद्गलो पर्याप्तसक्ष्मपृथिवीकायिक एकेन्द्रियस्पर्शेन्द्रियप्रयोगपरिणत छे ते पण ए प्रमाणे जाणवा. ए ४ प्रकारे सर्व अनुक्रमे जाणवू, जेने जेटली इन्द्रियो होय तेने तेटली कहेवी; यावत् जे पुद्गलो पर्याप्तसर्वार्थसिद्धअनुत्तरौपपातिकदेवपंचेन्द्रिय श्रोत्रेन्द्रिय यावत् स्पर्शेन्द्रियप्रयोगपरिणत छे ते वर्णथी कालावणे परिणत छे, यावत् आयतसंस्थानपणे परिणत छे [६८] जे अपजत्ता सुहमपुढविकाइयएगिदियओरालियतेयाकम्माफासिंदियपयोगपरिणया ते वन्नओ कालवनपरिणयावि जाव आयतसंठायप्प०, जे पज्जत्ता सुहुमपुढवि० एवं चेव, एवं जहाणुपुव्वीए जस्स जइ सरीराणि इंदियाणि य तस्स तइ भाणियब्वाणि जाव जे पज्जत्ता सव्वट्ठसिद्धअणुत्तरोववाइय जाव देवपंचिंदियवेउब्वियतेयाकम्मा सोइंदिय जाव फासिंदियपयोगपरि० ते वन्नओ कालवनपरि० जाव आययसंठाणपरिणयावि, | एवं एए नव दंडगा ९॥ (सूत्र ३०९)॥ जे पुद्गलो अपर्याप्तमूक्ष्मपृथिवीकायिकएकेन्द्रिय औदारिक, तैजस अने कार्मण, अने स्पर्शेन्द्रियप्रयोगपरिणत ते वर्णथी। कालावणे पण परिणत छे, यावत् आयतसंस्थानपणे पण परिणत छे. जे पर्याप्तसूक्ष्मपृथिवीकायिक-[एकेन्द्रिय औदारिक, तैजस अने AAA For Private and Personal Use Only Page #19 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagersuri Gyanmandi न्याख्या- कार्मण तथा स्पर्शेन्द्रियप्रयोगपरिणत छे ते पण ] ए प्रमाणे जाणवा. ए प्रकारे अनुक्रमे सर्व जाणवं. जेने जेटलां शरीर अने | प्रज्ञप्तिः इन्द्रियो होय तेने तेटलां कडेवां, यावत् जे पुद्गलो पर्याप्तसर्वार्थसिद्धअनुचरौपपातिकदेवपंचेन्द्रिय-वैक्रिय, तैजस अने कार्मण ८ शतके तथा श्रोत्रेन्द्रिय यावत् स्पर्शेन्द्रियप्रयोगपरिणत छे ते वर्णथी कालावणे अने यावत् आयतसंस्थानपणे पण परिणत छे. ए प्रमाणे ए|8 ॥५८९॥ | उद्देशः१ नव दंडको कह्या. ।। ३०९ ॥ ॥५८९॥ मीसापरिणया णं भंते ! पोग्गला कतिविहा पण्णता ?, गोयमा ! पंचविहा पण्णत्ता, तंजहा-एगिदियमीसापरिणया जाव पंचिंदियमीसापरिणया, एगिदियमीसापरिणया णं भंते ! पोग्गला कतिविहा पण्णत्ता?, गोयमा! एवं जहा पओगपरिणपहिं नव दंडगा भणिया एवं मीसापरिणएहिवि नव दंडगा भाणियब्वा, तहेव सब्वं निरवसेसं, नवरं अभिलावो मीसापरिणया भाणियब्वं, सेसं तं चेव, जाव जे पज्जत्ता सव्वट्ठसिद्धअणुत्तर जाव आययसंठाणपरिणयावि ॥ (मत्रं ३१०)॥ [म०] हे भगवन् ! मिश्रपरिगत पुद्गलो केटला प्रकारना कह्या छ ? [उ०] हे गौतम! पांच प्रकारना कह्या छे; ते आ प्रमाणे Pएकेन्द्रियमिश्रपरिणत अने यावत् पंचेन्द्रियमिश्रपरिणत. [प्र०] हे भगवन् ! एकेन्द्रियमिश्रपरिणतपुद्गलो केटला प्रकारना छे ? उ०] हे गौतम ! जेम प्रयोगपरिणत पुद्गलो संबन्धे नव दंडक कह्या तेम मिश्रपरिणतपुद्गलो संबन्धे पण नव दंडक कहेवा, तेम | वाकीनुं सर्व कहेवू, परन्तु विशेष ए छे के [प्रयोग परिणतने स्थाने 'मिश्रपरिणत' एवो पाठ कहेवो. बाकी बधुं ते प्रमाणे जाणवू. यावत् जे पुद्गलो पर्याप्तसर्वार्थसिद्धअनुत्तरौपपातिकप्रयोगपरिणत हे ते आयतसंस्थानरूपे पण परिणत छे. ॥ ३१॥ RAP91 For Private and Personal Use Only Page #20 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ४ाद शतके प्रज्ञप्तिः ॥५९०॥ उद्देशः१ ॥५९०॥ 436 वीससापरिणया णं भंते ! पोग्गला कतिविहा पन्नत्ता ?, गोयमा ! पंचविहा पन्नत्ता, तंजहा-वन्नपरिणया गंधपरिणया रमपरिणया फामपरिणया संठाणपरिणया, जे वनपरिणया ते पंचविहा पन्नत्ता, तंजहा-कालव नपरिणया जाव सुकिल्लवन्नपरिणया, जे गंधपरिणया ते दुविहा पन्नत्ता, तंजहा-सुन्भिगंधपरिणयावि दुन्भिगंधपरिणयावि, एवं जहा पन्नवणापदे तहेव निरवसेसं जाव जे संठाणओ आयतसंठाणपरिणया ते | वन्नओ कालवन्नपरिणयावि जाव लुक्खफासपरिणयावि ॥ (सूत्रं ३११)॥ [प्र०] हे भगवन् ! वीस्रसापरिणत (स्वभावथी परिणामने प्राप्त थयेला) पुद्गलो केटला प्रकारना कह्या छ ? [उ०] हे गौतम! पांच प्रकारना कह्या छे; ते आ प्रमाणे-वर्णपरिणत, गंधपरिणत, रसपरिणत, स्पर्शपरिणत अने संस्थानपरिणत. जे वर्णपरिणत पुद्गलो छे ते पांच प्रकारना कद्या के ते आ प्रमाणे-कालावर्णरूपे परिणत, यावत् शुक्लवर्णरूपे पारणत. जे गंधपरिणत छे ते बे प्रकारना छे; ते आ प्रमाणे-मुगंधपरिणत अने दुर्गधपरिणत. ए प्रमाणे जेम प्रज्ञापना पदमां कछु छे तेम सर्व जाणवू. यावत् जे (पुद्गलो) संस्थानयी आयतसंस्थानरूपे परिणत छे ते वर्णथी काळावर्णरूपे पण परिणत छे, यावत् रूक्षस्पर्शरूपे पण परिणत छे. ॥ ३११॥ एगे भंते! दब्बे किं पयोगपरिणए मीसापरिणए वीससापरिणए., गोयमा! पयोगपरिणए वा मीसापरिणए वा बीससारिणए वा । जइ पयोगपरिणए किं मणप्पयोगपरिणए वइप्पयोगपरिणए कायप्पयोगपरिणए ?, गोयमा ! मणप्पयोगपरिणए वा वइप्पयोगपरिणए वा कायप्पओगपरिणए वा, जइ मणप्पओगपरिणए कि सच्चमणप्पओगपरिणए मोसमणप्पयोग सच्चामोसमणप्पयो असच्चामोसमणप्पयो ?, गोयमा ! For Private and Personal Use Only Page #21 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra व्याख्याप्रज्ञप्तिः ॥५९१ ॥ www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir सचमणपयोग परिणए वा मोसमणपयोग वा सच्चामोसमणप्प० वा असच्चामोसमणप्प० वा, जइ सञ्चमणप्पओगप० किं आरंभसचमणप्पयो० अणारंभसचमणप्पयोगपरि० सारंभसचमणप्पयोग० असारंभसचमण० समारंभसचमणप्पयोगपरि० असमारंभसचमणप्पयोगपरिणए ?, गोपमा ! आरंभसचमणप्पओगपरिणए वा जाव असमारंभसच्चमणप्पयोगपरिणए बा, [प्र० ] हे भगवन् ! एक द्रव्य शुं प्रयोगपरिणत होय, मिश्रपरिणत होय के विस्रसापरिणत होय ? [उ०] हे गौतम ! एक द्रव्य प्रयोगपरिणत होय, मिश्रपरिणत होय के विस्रसापरिगत पण होय. [ प्र० ] हे भगवन् ! जो ते [एकद्रव्य ] प्रयोगपरिणत होय तो शुं मनःप्रयोगपरिणत होय, वाक्यप्रयोगपरिणत होय, के कायप्रयोगपरिणत होय ? [अ०] हे गौतम! ते मनःप्रयोगपरिणत होय, वाक्यप्रयोगपरिणत होय के कायप्रयोगपरिणत होय. [प्र] हे भगवन् ! जो ते एकद्रव्य मनःप्रयोगपरिणत होय तो शुं सत्यमनः प्रयोगपरिणत होय, मृपामनः प्रयोगपरिणत होय; सत्यमृषामनः प्रयोगपरिणत होय के असत्यामृषामनः प्रयोगपरिणत होय ? [ उ० ] हे गौतम! ते सत्यमनः प्रयोगपरिणत होय, मृषामनःप्रयोगपरिणत होय, सत्यमृषामनः प्रयोगपरिणत होय के असत्यामृषामनःप्रयोगपरिणत होय. [प्र० ] हे भगवन् ! जो ते एकद्रव्य सत्यमनः प्रयोगपरिणत होय तो शुं आरंभसत्यमनः प्रयोगपरिणत होय, अनारंभसत्यमनः प्रयोगपरिणत होय, संरंभसत्यमनः प्रयोगपरिणत होय, असंरंथसत्यमनः प्रयोगपरिणत होय, समारंभसत्यमनः प्रयोगपरिणत होय के असमारंभसत्यमनः प्रयोगपरिणत होय ? [अ०] हे गौतम! ते आरंभसत्यमनःप्रयोगपरिणत होय, यावत् असमारंभसत्यमनः प्रयोगपरिणत पण होय. For Private and Personal Use Only ८ शतके उद्देशः १ ॥५९१।। Page #22 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ८ शतके जइ मोसमणप्पयोगपरिणए कि आरंभमोसमणप्पयोगपरिणए वा! एवं जहा सञ्चणं तहा मोसेणवि,एवं सच्चाव्याख्या लामोसमणप्पओगपरिणएणवि, एवं असचामोसमणप्पयोगेणवि। जइ वइप्पयोगपरिणए किं सच्चवइप्पयोगपरिणए प्रज्ञतिः मोसवयप्पयोगपरिणए०एवं जहा मणप्पयोगपरिणए तहा वयप्पयोगपरिणएवि जाव असमारंभवयप्पयोगपरिणए है| उद्देशः १ ॥५९२॥ कावा। जइ कायप्पयोगपरिणए किं ओरालियसरीरकायप्पयोगपरिणए ओरालियमीमासरीरकायप्पयो वेउब्वि. ॥५९२॥ यसरीरकायप्पयो० वेउब्वियमीसासरीरकायप्पयोगपरिणए आहारगसरीरकायप्पओगपरिणए आहारकमीसासरीरकायप्पयोगपरिणए कम्मासरीरकायप्पओगपरिण?, गोयमा! ओरालियसरीरकायप्पओगपरिणए वा जाव कम्मासरीरकायप्पओगपरिणए वा,जइ ओरालियसरीरकायप्पओगपरिणए किं एगिदियओरालियसरीरकायप्पओगपरिणए एवं जाव पंचिंदियओरालिय जाव परि०? गोयमा! एगिदियओरालियसरीरकायप्पओगपरिणए वा दियजाव परिणए वा जाव पंचिंदिय जाव परिणए वा, | [प्र०] हे भगवन् ! जो ते एक द्रव्य मृषामनःप्रयोगपरिणत होय तो शुं आरंभमृषामनःप्रयोगपरिणत होय ? [उ०] ए प्रमाणे | जेम सत्यमनःप्रयोगपरिणतने विषे का तेम मृषामनःप्रयोगपरिणत विषे जाणवू. ए प्रमाणे सत्यमृषामनःप्रयोगने विषे अने असत्या| मृषामनःप्रयोगने विषे पण जाणवू. [प्र०] हे भगवन् ! जो ते एक द्रव्य वाक्यप्रयोगपरिणत होय तो शुं सत्यवाक्यप्रयोगपरिणत होय ? [उ०] ए प्रमाणे जेम मनःप्रयोगपरिणतने विषे कयु, तेम वचनप्रयोगपरिणतने विषे पण जाणवू, यावत् असमारंभवचनप्र| योगपरिणत होय. [प्र०] हे भगवन् ! जो ते एक द्रव्य कायप्रयोगपरिणत होय तो शु१ औदारिकशरीरकायप्रयोगपरिणत होय, २ For Private and Personal Use Only Page #23 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir R 4% व्याख्याप्रज्ञप्तिः ॥५९३॥ ८ शतके उद्देशः१ ५९३॥ CER ECEIBASSA-- औदारिक मिश्रशरीरकायप्रयोगपरिणत होय, 3 वैक्रियशरीरकायप्रयोगपरिणत होय, ४ वैक्रियमिश्रशरीरकायपयोगपरिणत होय, ६|| आहारकशरीरकायप्रयोगपरिणत होय, ६ आहारकमिश्रशरीरकायप्रयोगपरिणत होय के ७ कार्मणशरीरप्रयोगपरिणत होय ? [उ०] हे | गौतम ! ते एक द्रव्य औदारिकशरीरकायप्रयोगपरिणत पण होय, यावत् कार्मणशरीरकायप्रयोगपरिणत पण होय. [प्र०] जो ते है (एक द्रव्य) औदारिकशरीरकायप्रयोगपरिणत होय तो शुं एकेन्द्रियऔदारिकशरीरकायप्रयोगपरिणत होय, बेइन्द्रियऔदारिकशरीरका यप्रयोगपरिणत होय, के यावत् पंचेन्द्रियऔदारिकशरीरकायप्रयोगपरिणत होय ? [उ०] हे गौतम ! ते एक द्रव्य एकेन्द्रियऔदारिकशरीरकायप्रयोगपरिणत होय, बेइन्द्रियकायप्रयोगपरिणत होय, यावत् पंचेन्द्रियऔदारिकशरीरकायप्रयोगपरिणत होय. जइ एगिदियओरालियसरीरकायप्पओगपरिणए किं पुढविक्काइयएगिदिय जाव परिणए जाव वणस्सइ| काइयएगिदियओरालियमरीरकायप्पओगपरिणए वा ?, गोयमा! पुढविकाइयएगिदियपयोग जाव परिणए वा जाव वणस्सइकाइयएगिदिय जाव परिणए वा, जइ पुढविकाइयएगिदियओरालियसरीर जाव परिणए किं सुहुमपुढविकाइय जाव परिणए बायरपुढविकाइयएगिदिय जाव परिणए ?, गोयमा ! सुहुमपुढविकाइयएगिदिय जाव परिणए वा बायरपुढविक्काइय जाव परिणए वा, जइ सुहमपुढविकाइय जाव परिणए किं पजत्तसुहुमपुढवि जाव परिणए अपजत्तसुहम पुढवी जाव परिणए ?, गोयमा ! |पज्जत्तसुहुमपुढविकाइय जाव परिणए वा अपज्जत्तसुहमपुढविकाइय जाव परिणए वा, एवं बादरोवि, एवं जाव वणस्सइकाइयाणं चउक्कओ भेदो, बेइंदियतेइंदियचउरिंदियाणं दुयओ भेदो पजत्तगा य - - - For Private and Personal Use Only Page #24 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir अपनत्तगा य । जइ पंचिंदियओरालियसरीरकायप्पओगपरिणए किं तिरिक्खजोणियपंचिंदियओरालियसरीध्याख्या हैरकायप्रोगपरिगए मणुस्सपंचिंदिय जाव परिणए ?. गोयमा तिरिक्खजोणिय जाव परिणए वा मणु-18 ८ शतके प्रज्ञतिः स्सपांचंदिय जाव परिणए वा, जइ तिरिक्खजोणिय जाव परिणए कि जलचरतिरिक्खजोणिय जाव परि-16 | उद्देशः१ ॥५९४॥ णा वा थलचर० खहचर०, एवं चउक्कओ भेदो जाव खहचराणं । ॥५९४॥ [प्र.] हे भगवन् ! जो ते एक द्रव्य एकेन्द्रिय औदारिकशरीरकप्रयोगपरिणत होय तो शुं पृथिवीकायिकएकेन्द्रियऔदारिकशरीकायप्रयोगपरिणत होय के यावत् वनस्पति कायिकएकेन्द्रियऔदारिकशरीरकायप्रयोगपरिणत होय ? [उ०] हे गौतम ! पृथिवीकायिकएकेन्द्रियकायप्रयोगपरिणत होय के यावत् वनस्पतिकायिकएकेन्द्रियकायप्रयोगपरिणत होय. [प्र०] हे भगवन् ! जो ते एक | द्रव्य पृथिवीकायिकएकेन्द्रिय औदारिकशरीरप्रयोगपरिणत होय शुं सूक्ष्मपृथिवीकायिक-एकेन्द्रियकायप्रयोगपरिणत होय के बादरपृथिवीकायिकए केन्द्रियकायप्रयोगपरिणत होय ? [उ०] हे गौतम ! सूक्ष्मपृथिवीकायिकएकेन्द्रियकायप्रयोगपरिणत होय के बादरपृथिवीकायिकएकेन्द्रियकायप्रयोगपरिणत होय. [प्र०] हे भगवन् ! जो ते एक द्रव्य सूक्ष्मपृथिवीकायिककायप्रयोगपरिणत होय तो शु पर्याप्तसूक्ष्मपृथिवीकायिककायप्रयोगपरिणत होय, के अपर्याप्तसूक्ष्मपृथिवीकायिककायप्रयोगपरिणत होय ? [उ०] हे गौतम ! पर्याप्तसूक्ष्मपृथिवीकायिककायप्रयोगपरिणत होय के अपर्याप्तसूक्ष्मपृथिवीकायिककायप्रयोगपरिणत होय. ए प्रमाणे बादरपृथिवी कायिको जाणवा. ए प्रमाणे यावत् वनस्पतिकायिकना चार भेद (सूक्ष्म, चादर, पर्याप्त अने अपर्याप्त ) अने बेइन्द्रिय, त्रीइन्द्रिय, II अने चउरिन्द्रिय जीवोना बे भेद पर्याप्त अने अपर्याप्त जाणवा. [प्र०] हे भगवन् ! जो ते एक द्रव्य पंचेन्द्रियऔदारिकशरीरप्रयो For Private and Personal Use Only Page #25 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir व्याख्या-15गपरिणत होय तो शुं तिर्यचयोनिकपंचेन्द्रियऔदारिकशरीरकायप्रयोगपरिणत होय के मनुष्यपंचेन्द्रियऔदारिकशरीरकायप्रयोगपप्रज्ञप्तिः रिणत होय ? [उ०] हे गौतम! तिर्यंचयोनिकऔदारिकशरीरकायप्रयोगपरिणत होय के मनुष्यपंचेन्द्रियऔदारिकशरीरकायप्रयोग- ८ शतके ट्र उद्देशः१ परिणत होय. [प्र०] हे भगवन् ! जो ते एक द्रव्य तियंचयोनिककायप्रयोगपरिणत होय तो शुं जलचरतियंचयोनिककायप्रयोगप-| ॥५९५॥ रिणत होय के स्थलचर अने खेचरयोनिककायप्रयोगपरिणत होय? [उ.] पूर्व प्रमाणे यावत् खेचगेना [ संमूर्छिम, गर्भज, पर्याप्त ५९५० अने अपर्याप्त ] चार भेदो जाणवा. जइ मणुस्सपाँचदिय जाध परिणए किं समुच्छिममणुस्सपंचिंदिय जाव परिणए गम्भवकंतियमणुस्स जाव परिणए ?, गोगमा ! दोसुवि, जइ गम्भवतियमणुस्स जाव परिणए किं पजत्तगब्भवतिय जाव परिणए| अपज्जत्तगब्भवतियमणुस्मपंचिंदियओरालियसरीरकायप्पयोगपरिणए ?, गोयमा! पज्जत्तगम्भवतिय जाव परिणए वा अपज्जत्तगम्भवतिय जाव परिणए १ । जइ ओरालियमीसासरीरकायप्पओगपरिणए किं एगिदियओरालियमीसासरीरकायप्प ओगपरिणए बेइंदियजावपरिणए जाव पंचेंदियओरालिय जाव परिणए?, गोयमा! एमिंदियओरालिय एवं जहा ओरालियसरीरकायप्पयोगपरिणएणं आलावगो भणिओ तहा ओरालियमीसासरीरकायप्पओगपरिणएणवि आलावगो भाणियब्वो, नवरं बायरवाउकाइयगन्भवतियपंचिंदियतिरिक्ख. जोणियगम्भवतियमणुस्साणं पामि णं पजत्तापजत्तगाणं, सेसाणं अपज्जत्तगाणं २ । जइ वेउदिवयसरीरकायप्पयोगपरिणए किं एगिदियवेउब्धियसरीरकायप्पओगपरिणए जाव पंचिंदियवेउब्वियसरीर जाव Acci For Private and Personal Use Only Page #26 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra व्याख्या प्रज्ञप्तिः ॥५९६ ।। www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir परिणए ?, गोयमा ! एगिंदिय जाव परिणए वा पंचिदिय जाव परिणए वा, [प्र०] हे भगवन् ! जो ते एक द्रव्य मनुष्यपंचेन्द्रियकायप्रयोगपरिणत होय तो शुं संमूर्च्छिममनुष्यपंचेन्द्रियकायप्रयोगपरिणत होय के गर्भजमनुष्यपंचेन्द्रियकायप्रयोगपरिणत होय ? [ उ०] हे गौतम! ते (एक द्रव्य) [ संमूर्छिम अने गर्भज ] मनुष्कायप्रयोगपरिणत होय. [प्र० ] हे भगवन् ! जो ते एक द्रव्य गर्भजमनुष्य कायप्रयोग परिणत होय तो शुं पर्याप्तगर्भजमनुष्य कायप्रयोगपरिणत होय के अपर्याप्तगर्भजमनुष्य पंचेन्द्रिय औदारिकशरीरकायप्रयोगपरिणत होय? [उ०] हे गौतम ! पर्याप्तगर्भजमनुष्यकायप्रयोग परिणत होय के अपर्याप्तगर्भजमनुष्यकायप्रयोगपरिणत होय. [ प्र०] हे भगवन्! जो ते एक द्रव्य औदारिकमिश्रशरीरकायप्रयोग परिणत होय तो शुं एकेन्द्रियऔदारिकमिश्रशरीरकायप्रयोग परिणत होय, बेइन्द्रिय औदारिकमिश्रकायप्रयोगपरिणत होय के यावत् पंचेन्द्रि यऔदारिकमिश्रकाय प्रयोगपरिणत होय ? [अ०] हे गौतम! एकेन्द्रिय औदारिकमिश्रकायप्रयोग परिणत होय. जेम 'औदारिकशरीरकाय प्रयोगपरिणत' नो आलापक को तेम 'औदारिकमिश्रशरीर कायप्रयोगपरिणत' नो पण आलापक कहेवो. परन्तु विशेष ए छे के 'औदारिकमिश्रकायप्रयोगपरिणत'नो आलापक बादरवायुकायिक, गर्भजपंचेन्द्रियतिर्थंच अने गर्भजमनुष्य पर्याप्ता अपर्याप्ता एओने अने ते शिवाय बाकीना अपर्याप्ता जीवोने कहेवो. [प्र०] हे भगवन् ! जो एक द्रव्य वैक्रियशरीरकाय प्रयोगपरिणत होय तो शुं एकेन्द्रियवैक्रिय शरीर काय प्रयोगपरिणत होय के यावत् पंचेन्द्रियवै क्रियशरीरकायप्रयोगपरिणत होय ? [अ०] हे गौतम ! ते एकेन्द्रि यवैक्रियकायप्रयोगपरिणत होय के पंचेन्द्रियवैक्रियकायप्रयोगपरिणत होय. जइ एगिंदिय जाव परिणए किं वाउक्काइयए गिंदिय जाव परिणए अवाउक्काध्यएगिंदिय जाय परिणए ?, For Private and Personal Use Only ८ शतके उद्देशः १ ।।५९६।। Page #27 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir P८ शतके प्रज्ञप्तिः उद्देशः१ ॥५९७॥ गोयमा ! बाउक्काइयएगिदिय जाव परिणए. नो अवाउक्काइय जाव परिणए, एवं एएणं अभिलावेणं व्याख्या- जहा ओगाहणसंठाणे वेउब्वियसरीरं भणिय तहा इहवि भाणिवव्वं जाव पज्जत्तसव्वट्ठसिद्ध अणुत्त रोववातियकप्पातीयवेमाणियदेवपंचिंदियवेउब्वियसरीरकायप्पओगपरिणए वा अपज्जत्तसव्वदृसिद्ध० काय॥५९७॥ प्पयोगपरिणए वा ३ । जइ वेउब्वियमीसासरीरकायप्पयोगपरिणए कि एगिदियमीसासरीरकायप्प ओगपरिणए वा जाव पंचिंदियमीसासरीरकायप्पयोग परिणए वा ?, एवं जहा वेउब्वियं तहा वेउब्बियमीसगंपि, नवरं देवनेरइयाणं अपज्जत्तगाणं, सेसाणं पजत्तगाणं तहेव जाव नो पजत्तसव्वट्ठसि अणुत्तरो जाव पओग०,अपजत्तसव्वट्ठसिद्धअणुत्तरोववातियदेवपंचिंदियवेउब्वियमीसामरीरकायप्पओगपरिणए ४ । जइ आहारगसरीरकायप्पओगपरिणए किं मणुस्साहारगसरीरकायप्पओगपरिणए अमणुस्साहार ग जाव प०?, एवं जहा ओगाहणसंठाणे जाव इढिपत्त अपमत्तसंजयसम्मबिडिपजत्तगसंखेजवामाउय जाव परि &ाणए, नो अणिढिपत्तअपमत्तसंजयसम्महिट्टि पजत्तसंखेजवासाउय जाव प० । | [प्र०] हे भगवन् ! जो ते एक द्रव्य एकेन्द्रियवैक्रियकायप्रयोगपरिणत होय तो शुं वायुकायिकएकेन्द्रियवैक्रियकायप्रयोगपरिणत माहोय के वायुकायिक शिवाय एकेन्द्रियकायप्रयोगपरिणत होय ? [उ०] हे गौतम! ते एक द्रव्य वायुकायिकएकेन्द्रियकायप्रयोगपट्रारिणत होय, पण वायुकायिक शिवाय एकेन्द्रियकायप्रयोगपरिणत न होय. ए प्रमाणे ए अभिलाप (पाठ) थी प्रज्ञापना सूत्रना 'अवगाहनासंस्थान' पदने विषे वैक्रियशरीरसंबन्धे कडुं छे तेम अहीं पण कहे; यावत् पर्याप्तसर्वार्थसिद्धअनुत्तरौपपातिककल्पातीत % -% For Private and Personal Use Only Page #28 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandit व्याख्याप्रज्ञप्तिः ॥५९८॥ का वैमानिकदेवपंचेन्द्रियक्रियशरीरकायप्रयोगपरिणत होय के अपर्याप्मसर्वार्थसिद्धवैक्रियकायप्रयोगपरिणत होय. [प्र०] हे भगवन् ! जो ते एक द्रव्य वक्रियमिश्चशरीरकापप्रयोगपरिणत होय तो शुं एकेन्द्रियवैक्रियमिश्रशरीरकायप्रयोगपरिणत होय के यावत् पंचेन्द्रिय ८ शतके क्रियमिश्रशरीरकायप्रयोगपरिणत होय ? [उ०] हे गौतम ! जेम वैक्रियशरीरप्रोगसंबन्धे का, तेम वैक्रियमिश्रकायप्रयोगसंबन्धे * उद्देशः१ | पण कडेवू; परन्तु विशेष ए छे के वैक्रियमिश्रकायप्रयोग देव अने नरयिक अपर्याप्ताने अने बाकीना बधा पर्याप्ताने कहेबो; यावत् | ॥५९८॥ पर्याप्तसर्वार्थसिद्धअनुत्तरौपपातिकवैक्रियमिश्रकायप्रयोगपरिणत न होय, पण अपर्याप्त सर्वार्थसिद्धअनुत्तरौपपातिकदेवपंचेन्द्रियवेक्रियमिश्रशरीरकायप्रयोगपरिणत होय. (४.) [प्र०] हे भगवन् ! जो ते एक द्रव्य आहारकशरीरकायप्रयोगपरिणत होय तो शु मनुष्याहारकशरीरकायप्रयोगपरिणत होय के अमनुष्याहारकका यप्रयोगपरिणत होय ? [उ०] हे गौतम! ए प्रमाणे जेम प्रज्ञापनासूत्रना 'अवगाहनासंस्थान' पदने विषे का छे तेम जाण यावत् ऋद्धिमाप्त-आहारकलब्धिमान् प्रमत्त साधु सम्यग्दृष्टि पर्याप्त संख्येयवर्षायुषवाळा मनुष्याहारककायप्रयोगपरिणत होय, पण ऋद्धिने-आहारकलब्धिने-अप्राप्त प्रमत्त संयत सम्यग्दृष्टि संख्यातवर्षायुषवाला मनुष्याहारककायप्रयोगपरिणत न होप. (५.) जइ आहारगमीसासरीरकायप्पयोगप किंमणुस्साहारगमीसासरीर एवं जहा आहारगं तहेव मीसगंपि निरवसेसं भाणियब्वं ६।जइ कम्मासरीरकायप्पओगपकिंगिदियकम्मासरीरकायप्पओगप० जाव पंचिंदियकम्मासरीर जाव प०१, गोयमा ! एगिदियकम्मासरीरकायप्पओ० एवं जहा ओगाहणसंठाणे कम्मगस्स भेदो तहेव इहावित जाव पज्जत्तसव्वट्ठसिद्धअणुत्तरोववाइय जाव देवपांचंदियकम्मासरीरकायप्पयोगपरिणए अपजत्तसव्वट्ठसिद्ध RAHARHARMA नट For Private and Personal Use Only Page #29 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatrth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandie व्याख्याप्रज्ञप्तिः ॥५९९॥ AC *RKSHEEL अणु० जाव परिणए वा ७॥ जइ मीसापरिणए कि मणमीसापरिणए वयमीसापरिणए कायमीसापरिणए ?, गोयमा! मणमीसापरिणए वा वयमीसा० वा कायमीसापरिणए वा, जइ मणमीसापरिणए किं सच्चमणमीसा P८ शतके परिणए वा मोसमणमीसापरीणए वा जहा पओगपरिगए तहा मीसापरिणएवि भाणियब्वं निरवसेस जाव | उद्देशः१ पज्जत्तसब्वट्ठसिद्धअणुत्तरोववाइय जाव देवपंचिंदियकम्मासरीरगमीसापरिणए वा अपज्जत्तसव्वट्ठसिद्धअणु. ॥५९९॥ जाव कम्मासरीरमीसापरिणए वा । प्र०] हे भगवन् ! जो ते एक द्रव्य आहारकमिश्रशरीरकायप्रयोगपरिणत होय तो शु मनुष्याहारकमिश्रशरीरकायप्रयोगपरिणत होय ? इत्यादि. [उ०] हे गौतम ! जेम आहारकशरीरसंबन्धे कह्यं तेम आहारकमिश्रसंबन्धे पण कहे. (६.) [प्र०] हे भग-14 वन् ! जो ते एक द्रव्य कार्मणशरीरप्रयोगपरिणत होय तो शुं एकेन्द्रियकार्मणशरीरकायप्रयोगपरिणत होय के यावत् पंचेन्द्रियकामणशरीरकायप्रयोगपरिणत होय ! [उ०] हे गौतम ! ते एक द्रव्य एकेन्द्रियकार्मणशरीरकायप्रयोगपरिणत होय. ए प्रमाणे जेम प्रज्ञापना सूत्रना 'अवगाहनासंस्थान' पदने विषे कयुं छे तेम अहीं पण जाणवू, यावत् पर्याप्तसर्वार्थसिद्धअनुत्तरौपपातिकदेवपंचेन्द्रिय-18 कार्मणशरीरकायप्रयोगपरिणत होय, के अपर्याप्तसर्वार्थसिद्धअनुत्तरौषपातिककाणिकायप्रयोगपरिणत होय. [प्र०] हे भगवन् ! जो ते एक द्रव्य मिश्रपरिणत होय तो शुं मनोमिश्रपरिणत होय, वचनमिश्रपरिणत होय, के कायमिश्रपरिणत होय ? [उ०] हे गौतम! ते मनोमिश्रपरिणत वचनमिश्रपरिणत होय, के कायमिश्रपरिणत होय. [प्र०] हे भगवन् ! जो ते एक द्रव्य मनोमिश्रपरिणत होय | तो शुं सत्यमनोमिश्रपरिणत होय, मृषामनोमिश्रपरिणत होय ? [उ०] हे गौतम ! जेम प्रयोगपरिणत पुद्गलो संबन्धे का तेम में -64-%A4-% For Private and Personal Use Only Page #30 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir परिणतसबमतिककार्मणशक बन्नपापरिणए परिणए व्याख्याप्रज्ञतिः ॥६००॥ ८ शतके उद्देशः१ ॥६००॥ 48 मिश्रपरिणतसंबन्धे सर्व कहे, यावत् पर्यात सर्वार्थसिद्धत्तरौपपातिकदेवपंचेन्द्रियकार्मणशरीरभिश्रपरिणत होय, के अपर्याप्तसार्थसिद्धअनुत्तरौपपातिककार्मणशरीरमिश्रपरिणत होय. जइ वीससापरिणए कि वनपरिणए गंधपरिणए रसपरिणए फासपरिणए संठाणपरिणए ?, गोयमा ! वनपरिणए वा गंधपरिणए वा रसपरिणए वा फासपरिणए बा संठाणपरिणए वा, जइ वनपरिणए किं कालवनपरिणए नील जाव सुकिल्लवन्नपरिणए ?, गोयमा ! कालवनपरिणए जाव सुकिल्लवनपरिणए, जइ गंधपरिणए किं सुभिगंधपरिणए दुन्भिगंधपरिणए ?, गोयमा ! सुब्भिगंधपरिणए वा दुन्भिगंधपरिणए वा, जइ रसपरिणए किं तित्तरसपरिणए ? ५, पुच्छा, गोयमा! तित्तरसपरिणए वा जाव महुररसपरिणए वा जइ फासपरिणए किं कक्खडफामपरिणए जाव लुक्खफासपरिणए?, गोयमा! कक्खडफासपरिणए वा जाव लुक्खफासपरिणए वा, जइ संठाणपरिणए पुच्छा, गोयमा! परिमंडलसंठाणपरिणए वा जाव आययसंठाणपरिणए वा ॥ (मृत्रं ३१२)॥ [प्र०] हे भगवन् ! जो ते एक द्रव्य विस्रसापरिणत-खभावपरिणत होय तो शुं ते वर्णपरिणत होय, गंधपरिणत होय, रसपरिणत होय, स्पर्शपरिणत होय के संस्थानपरिणत होय ? [उ०] हे गौतम ! ते वर्णपरिणत होय, गंधपरिणत होय, रसपरिणत होय, | रपर्शपरिणत होय, अने संस्थानपरिणत पण होय. [प्र०] हे भगवन् ! जो ते एक द्रव्य वर्णपरिणत होय तो शुं काळावर्णपणे परिणत होय, नीलवर्णपणे परिणत होय के यावत् शुक्लवर्णपणे परिणत होय ? [उ०] हे गौतम ! ते काळावर्णपने परिणत होय, यावत् । AAAAAEEG 3+%ANCE For Private and Personal Use Only Page #31 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir W पद शुक्लवर्णपणे पण परिणत होय. [म.] हे भगवन् ! जो ते एक द्रव्य गंधपणे परिणत होय तो शं सुगंधपणे परिणत होय के दुर्गध-II व्याख्या |पणे परिणत होय ? [उ०] हे गौतम ! ते सुगंधपणे परिणत होय अने दुगंधपणे पण परिणत होय. [प्र०] जो ते एक द्रव्य रस- ८ शतके प्रज्ञप्तिः परिणत होय तो शुं तिक्तरसपरिणत होय ? इत्यादि. [उ०] हे गौतम ! ते तिक्तरसपरिणत होय यावत् मधुररसपणे परिणत होय. उद्देशः१ [प्र०] हे भगवन् ! जो एक द्रव्य स्पर्शपरिणत होय तो ते शुं कर्कशपरिणत होय के यावत् रूक्षस्पर्शपरिणत होय? [उ०) हे गौतम ! ॥६०१॥ || ते कर्कशस्पर्शपणे परिणत होय, यावत् रूक्षस्पर्शपणे परिणत होय. [प्र०] हे भगवन् ! एक द्रव्य संस्थानपरिणत होय तो शुं ते परिमंडलसंस्थानपणे परिणत होय के यावत् आयतसंस्थानपणे परिणत होय ? [उ०] हे गौतम ! ते परिमंडलसंस्थानपणे परिणत A होय के यावत् आयतसंस्थानपणे पग परिणत होय. ॥ ३१२ ॥ दो भंते ! दवा किं पयोगपरिणया मीसापरिणया वीससापरिणया?, गोयमा! पओगपरिणया वा १ | मीसापरिणया वा २ वीसमापरिणया वा ३ अहवा एगे पओगपरिणए एगे मीसापरिणए ४ अह| वेगे पओगप० एगे वीससापरि०५ अहवा एगे मीसापरिणए एगे वीससापरिणए, एवं ६। जइ पओगपरि|णया किं मणप्पयोगपरिणया वइप्पयोग कायप्पयोगपरिणया?, गोयमा ! मणप्पयो० वइप्पयोगप० काय प्पयोगपरिणया वा, अहवेगे मणप्पयोगप० एगे वयप्पयोगप०,अहवेगे मणप्पयोगपरिणए एगे कायप०,अहवेगे| | वयप्पयोगप० एगे कायप्पओगपरि०, जइ मगप्पयोगप० किं सच्चनणप्पयोगप० ४?, गोयमा ! सच्चमणप्पयोगपरिणया वा जाव असच्चामोसमणप्पयोगप० १ अहवा एगे सच्चमणप्पयोगपरिणए एगे मोसमणप्पओगप AAAAA R-1- 1-1 For Private and Personal Use Only Page #32 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir व्याख्या प्रज्ञप्तिः ॥६०२|| 4 PIरिणए १ अहवा एगे सच्चमणप्पओगप० एगे सच्चामोसमणप्पओगपरिणए २ अहवा एगे सच्चमणप्पयोगप-1 रिणए एगे असच्चामोसमणप्पओगपरिणए ३ अहवा एगे मोसमणप्पयोगप० एगे सच्चामोसमणप्पगोगप०४/31 शतके अहवा एगे मोसमणप्पयोगप० एगे असच्चामोसमणप्पयोगप०५ अहवा एगे सच्चामोसमणप्पओगप० एगे| लाउद्देशः१ | असच्चामोसमणप्पओगप०६।। ॥६०२।। [प्र०] हे भगवन् ! बे द्रव्यो शुं प्रयोगपरिणत होय, मिश्रपरिणत होय के विस्रसापरिणत होय ? [उ०] हे गौतम! ते प्रयोगपरिणत होय, मिश्रपरिणत होय के विस्रसापरिणत पण होय. १ अथवा एक द्रव्य प्रयोगपरिणत होय अने बीजें मिश्रपरिणत होय. २ अथवा एक द्रव्य प्रयोगपरिणत होय अने बीजं विस्रसापरिणत होय. ३ अथवा एक द्रव्य मिश्रपरिणत होय अने बीजें वित्रसापरिणत होय. [H०] हे भगवन् ! जो ते वे द्रव्यो प्रयोगपरिणत होय तो शुं मनःप्रयोगपरिणत होय, वचनप्रयोगपरिणत होय के कायप्रयोगपरिणत होय? [उ०] हे गौतम! ते बे द्रव्यो मतःप्रयोगपरिणत होय, वचनप्रयोगपरिणत होय अने कायप्रयोगपरिणत होय. १ अथवा एक द्रव्य मनःप्रयोगपरिणत होय अने बीजु वचनप्रयोगपरिणत होय. २ अथवा एक मनःप्रयोगपरिणत होय अने बीजुं कायप्रयोगपरिणत होय. ३ अथवा एक वचनप्रयोगपरिणत होय अने बीजु कायप्रयोगपरिणत होय. [प्र०] | हे भगवन् ! जो ते बे द्रव्यो मनःप्रयोगपरिणत होय तो शुं सत्यमनःप्रयोगपरिणत होय, असत्यमनःप्रयोगपरिणत होय, सत्यमृषामनःप्रयोगपरिणत होय के असत्यामृषामनःप्रयोगपरिणत होय ? [उ.] हे गौतम ! सत्यमनःप्रयोगपरिणत होय के यावत् असत्यामृषामनःप्रयोगपरिणत होय. १ अथवा एक सत्यमनःप्रयोगपरिणत होय अने बीजं मृषामनःप्रयोगपरिणत होय. २ अथवा एक For Private and Personal Use Only Page #33 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailaseagarsuri Gyanmandie C व्याख्याप्रज्ञप्तिः ॥६०३॥ ATI- सत्यमनःप्रयोगपरिणत होप अने बीजु सत्यमृषामनःपयोगपरिणत होय. अथवा एक सत्यमनःप्रयोगपरिणत होय अने बीजु असत्यामृपामनःप्रयोगपरिणत होय. ४ अथवा एक मृषामनःप्रयोगपरिणत होय अने बीजं सत्यमृषामनःप्रयोगपरिणत होय. ५ अथवा ८ शतके एक मृषामनःप्रयोगपरिणत होय अने बीजं असत्यामृषामनःप्रयोगपरिणत होय. ६ अथवा एक सत्यमृषामनःप्रयोगपरिणत होय अने उद्देशः१ बीजुं असत्यामृषामनःप्रयोगपरिणत होय. ६०३॥ जह सचमणप्पओगप० किं आरंभसच्चमणप्पयोगपरिणया जाव असमारंभसचमणप्पयोगप०१, गोयमा ! आरंभसच्चमणप्पयोगपरिणया वा जाव असमारंभसच्चमणप्पयोगपरिणया वा, अहवा एगे आरंभसच्चमणप्पयोगप० एगे अणारंभसच्चमणप्पयोगप० एवं एएणं गमएणं दुयसंजोएण नेयब्वं, सब्वे संयोगा जत्थ जत्तिया उ8ति ते भाणियब्वा जाव सब्वट्ठसिद्धगत्ति । जइ मीसाप किं मणमीसापरि० एवं मीसापरि० वि० । जइ वीससापरिणया किंवण्णपरिणया गंधप० एवं वीससापरिणयावि जाव अहवा एगे चउरंससंठाणपरि० एगे आययसंठाणपरिणए वा ॥ तिन्नि भंते ! दब्बा किं पयोगपरिणया मीसाप० वीससाप०?, गोयमा! पयोगपरिणया वा मीसापरिणया वा वीससापरिणया वा १ अहवा एगे पयोगपरिणए दो मीसाप० १ अहवेगे पयोगपरिणए दो वीससाप० २ अहवा दो पयोगपरिणया एगे मीससापरिणए ३ अहवा दो पयोग-15 प० एगे वीससाप० ४ अहवा एगे मीसापरिणए दो वीससाप० ५ अहवा दो मीससाप० एगे वीससाप०६ अहवा एगे पयोगप० एगे मीसापरि० एगे वीसासाप०७। SHA- - .. For Private and Personal Use Only Page #34 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir % ८ शतके व्याख्याप्रज्ञप्तिः ॥६०४॥ %A ॥६०१॥ 4 % [प्र०] हे भगवन् ! जो वे द्रव्यो सत्यमनःप्रयोगपरिणत होय तो शुं १ आरंभसत्यमनःप्रयोगपरिगत होय, २ अनारंभसत्यमनःप्रयोगपरिगत होय, ३ संरंभसत्यमनःप्रयोगपरिणत होय, ४ असंरंभसत्यमनःप्रयोगपरिणत होय, समारंभसत्यमनःप्रयोगपरिणत | होय के ६ असमारंभसत्यमनःप्रयोगपरिणत होय ? [उ०] हे गौतम! ते बे द्रव्यो आरंभसत्यमनःप्रयोगपरिणत होय, यावत् असमारंभसत्यमनःप्रयोगपरिणत होय. १ अथवा एक द्रव्य आरंभसत्यमनःप्रयोगपरिणत होय अने बीतुं अनारंभसत्यमनःप्रयोगपरिणत होय. ए प्रमाणे ए रीते द्विक संयोगो करवा. ज्यां जेटला द्विकसंयोगो थाय त्यां ते सघळा कहेवा; यावत् सर्वार्थसिद्धवैमानिकदेव सुधी कहेवू. [प्र०] हे भगवन् ! जो वे द्रव्यो मिश्रपरिणत होय तो शुं ते मनोमिश्रपरिणत होय ? इत्यादि. [उ०] हे गौतम ! प्रयोगपरिणत संबंधे का तेम मिश्रपरिणतसंबंधे कहेQ. [प्र०] हे भगवन् ! जो बे द्रव्यो विस्त्रसापरिणत होय तो शुं ते वर्णपणे परिणत होय , गन्धपणे परिणत होय ? इत्यादि [उ०] हे गौतम! ए रीते पूर्व कह्या प्रमाणे विस्रसापरिणतसंबन्धे पण जाणवू, यावत् एक द्रव्य समचतुरस्रसंस्थानपणे परिणत होय अने बीजु आयतसंस्थानपणे पण परिणत होय. [प्र.] हे भगवन् ! त्रण द्रव्यो शुं प्रयोगपरिणत होय, मिश्रपरिणत होय, के विस्रसापरिणत होय? [उ०] हे गौतम ! ते (त्रणे द्रव्यो) प्रयोगपरिणत होय, मिश्रपरिणत होय अने विस्रसापरिणत पण होय. १ अथवा एक द्रव्य प्रयोगपरिणत होय अने बे मिश्रपरिणत होय, २ अथवा एक प्रयोगपरिणत होय अने बे विस्त्रसापरिणत होय, ३ अथवा बे प्रयोगपरिणत होय अने एक मिश्रपरिणत होय, ४ अथवा वे प्रयोगपरिणत होय अने एक वित्रसापरिणत होय, ५ अथवा एक मिश्रपरिणत होय, ५ अथवा एक मिश्रपरिणत होय अने वे विस्रसापरिणत होय. ६ अथवा चे मिश्रपरिणत होय अने एक विनसापरिणत होय. ७ अथवा एक प्रयोगपरिणत एक मिश्रपरिणत अने एक विस्रमापरिणत होय. . % %* -FC4 चल For Private and Personal Use Only Page #35 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra व्याख्या प्रज्ञप्तिः ॥३०५ ॥ www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir tas very fकं मणप्पयोगपरिणया वइप्पयोगप० कायप्पयोगप० ?, गोयमा ! मणप्पयोगपरिणया वा एवं एक्कगसंयोगो दुयासंयोगो तियासंयोगो भाणियन्वो, जड़ मणप्पयोगपरि० किं सचमणप्पयोगपरिणया वा ४१, गोयमा! सचमणपयोगपरिणया वा जाव असचा मोसमणप्पयोगपरिणया वा ४, अहवा एगे सच्चमणप्पयोग परिणए दो मोसमणपयोग परिणया वा, एवं दुयासंयोगो तियासयोगो भाणियव्वो, एत्थवि तहेव जाव अहवा एगे तंस - संठाणपरिणए वा एगे चउरंसठाणपरिणए वा एगे आययसंठाणपरिणए वा ॥ चत्तारि भंते! दव्वा किं पओगपरिणया ३१, गोयमा पयोगपरिणया वा मीसापरिणा वा वीससापरिणया वा. अहवा एगे पओगपरिणए तिन्नि मीसापरिणया १ अहवा एगे पओगपरिणए तिन्नि बीमसापरिणया २ अहवा दो पयोगपरिणया दो मीसापरिणया ३ अहवा दो पयोगपरिणया दो वीसमापरिणया ४ अहवा तिन्नि पओगपरिणया एगे मीससापरिणए ५ अहवा तिन्नि पओगपरिणया एंगे बीससापरिणए ६ अहवा एगे मीससापरिणए तिन्नि बीसमापरिणया ७ अहवा दो मीसापरिणया दो वीससापरिणया ८ अहवा तिन्नि मीसापरिणया एगे बीससापरिणए ९ अहवा एगे पओगपरिणए एगे मीसापरिणए दो वीससापरिणया १ अहवा एगे पयोगपरिणए दो मीसापरिणया एगे बीससापरिणए २ अहवा दो पयोगपरिणया एगे मीसापरिणए एगे बीससापरिणए ३ | [प्र० ] जो ते श्रणे द्रव्यो प्रयोगपरिणत होय तो शुं मनः प्रयोगपरिणत होय; वचनप्रयोगपरिणत होय के कायप्रयोग परिणत होय ? [अ०] हे गौतम ! ते मनःप्रयोगपरिणत पण होय. ए प्रमाणे एकसंयोग, द्विकसंयोग अने त्रिकसंयोग कहेवो. [प्र०] जो ते For Private and Personal Use Only ८ शतके उद्देशः १ ६०५ ॥ Page #36 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir व्याख्याप्रज्ञप्तिः ॥६०६॥ ८ शतके उद्देशः१ ॥६०६॥ * णे द्रव्यो मनःप्रयोगपरिणत होय तो शुं सत्यमनःप्रयोगपरिणत होय ? (इत्यादि ४ प्रश्न.)[उ.] हे गौतम! सत्यमनःप्रयोगप रिणत होय, अथवा यावत् असत्यामृषामनःप्रयोगपरिणत होय. अथवा एक सत्यमनःप्रयोगपरिणत होय अने वे मृषामनःप्रयोगपरिणत होय. ए प्रमाणे अहीं पण द्विकसंयोग अने त्रिकसंयोग कहेवो. यावत् अथवा एक व्यस्र (त्रिकोण) संस्थानपणे परिणत होय, एक समचतुरस्र (चोरस ) संस्थानपणे परिणत होय अने एक आयतसंस्थानपणे परिणत होय. [प्र०] हे भगवन् ! चार द्रव्यो शुं प्रयोगपरिणत होय, मिश्रपरिणत होय के विस्रसापरिणत होय ? [उ०] हे गौतम ! ते ( चारे द्रव्यो) प्रयोगपरिणत होय, मिश्रपरिणत होय के विश्रसापरिणत होय. १ अथवा एक प्रयोगपरिणत होय अने त्रण मिश्रपरिणत होय. २ अथवा एक प्रयोग* परिणत होय अने त्रण विस्रसापरिणत होय. ३ अथवा वे प्रयोगपरिणत होय अने वे मिश्रपरिणत होय. ४ अथवा वे प्रयोगपरिणत होय अने वे विस्रसापरिणत होय. ५ अथवा त्रण प्रयोगपरिणत होय अने एक मिश्रपरिणत होय..६ अथवा त्रण प्रयोगपरिणत होय अने एक विस्रसापरिणत होय. ७ अथवा एक मिश्रपरिणत होय अने प्रण विस्रसापरिणत होय. ८ अथवा बे मिश्रपरिणत होय अने बे विस्त्रसापरिणत होय. ९ अथवा त्रण मिश्रपरिणत होय अने एक विस्रसापरिणत होय. १० अथवा एक प्रयोगपरिणत होय एक | मिश्रपरिणत होय अने बे विस्रसापरिणत होय. ११ अथवा एक प्रयोगपरिणत होय बे मिश्रपरिणत होय अने एक विस्रसापरिणत होय. १२ अथवा बे प्रयोगपरिणत होय अने एक मिश्रपरिणत होय एक विस्रसापरिणत होय. जइ पयोगपरिणया किं मणप्पयोगपरिणया ३?, एवं एएणं कमेणं पंच छ सत्त जाव दम संखेजा असंखेजा अणंता य दव्वा भाणियब्वा (एक्कगसंजोगेण ) दुयासजोएणं तियासंजोएणं जाव दससंजोएणं एकारसंजोएणं MARA-N-BOOK For Private and Personal Use Only Page #37 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra व्याख्या प्रज्ञप्तिः ॥३०७॥ www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir बारससंजोएणं उबजुंजिऊणं जत्थ जत्तिया संजोगा उट्ठेतिते सव्वे भाणियव्वा, एए पुण जहा नवमसए पवेसणए भणिहामो तहा उवजुञ्जिऊण भाणियव्वा जाव असंखेजा अनंता एवं चेव, नवरं एकं पदं अन्भहियं, जाव अहवा अणता परिमंडल संठाणपरिणया जाव अनंता आययसंठाणपरिणया । ( सू ३१३ ) ॥ [प्र०] हे भगवन् ! जो ते चार द्रव्यो प्रयोगपरिणत होय तो शुं मनःप्रयोगपरिणत होय ? (वचनप्रयोगपरिणत होय के कायप्रयोगपरिणत होय ? ) [ उ० ] हे गौतम! सर्व पूर्वनी पेठे जाणवुं ए क्रमवडे पांच, छ, सात यावत् दश, संख्याता, असंख्याता, अने अनंत द्रव्योना द्विकसंयोग, त्रिकसंयोग, यावत् दशसंयोग बारसंयोग, उपयोगपूर्वक कहेवां अने ज्यां जेटला संयोगो थाय त्यां ते सर्व कहेवा. ए बधा संयोगो नवम शतकना प्रवेशक्रमां जे प्रकारे कहीशुं तेम उपयोगपूर्वक विचारीने कहेवा, यावत् असंख्येय अने अनंत द्रव्योनो परिणाम ए प्रमाणे जाणवो, परन्तु एक पद अधिक करीने कहेवुः यावत् अथवा अनंत द्रव्यो परिमंडलसंस्थानपणे परिणत होय, यावत् अनंत द्रव्यो आयतसंस्थानपणे परिणत होय. ।। ३१३ ।। एएसि णं भेत पोग्गलाणं पयोगपरिणयाणं मीसापरिणयाणं वीससापरिणयाण य कयरेर हितो | जाव विसेसाहिया वा ?, गोयमा । सव्वत्थोवा पोग्गला पयोगपरिणया, मीसापरिणया अनंतगुणा, वीससापरिणया अणन्तगुणा । सेवं भंते! सेवं भंते ! ति ॥ ( सू ३१४) । अट्टमसयस्स पढमो उद्देसो सम्मत्तो ॥ ८-१॥ [प्र० ] हे भगवन् ! प्रयोगपरिणत, मिश्रपरिणत अने विस्रसापरिणत ए पुद्गलोमां कया पुद्गलो कोनाथी यावद् विशेषाधिक होय छे ? [उ०] हे गौतम! सर्वथी थोडा पुद्गलो प्रयोगपरिणत छे, तेथी मिश्रपरिणत अनंतगुण छे, अने तेथी विस्रसापरिणत For Private and Personal Use Only ८ शतके उद्देशः १ ||६०७॥ Page #38 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir % % % % % अनंतगुण छे. हे भगवन् ! ते एमज छे, हे भगवन् ! ते एमज छे. (एम कही भगवान् गौतम यावत् विहरे छे ) ॥ ३१४ ॥ व्याख्याभगवत् सुधर्मस्वामीग्रणीत श्रीमद् भगवतीसूत्रना आठमा शतकमा प्रथम उद्देशानो मूलार्थ संपूर्ण थयो. ४ाद शतके प्रज्ञतिः उद्देशः२ ॥६०८॥ उद्देशक २. ॥६०८॥ ___कतिविहा णं भंते ! आसीविसा पन्नत्ता ?, गोयमा ! दुविहा आसीविसा पन्नत्ता, तंजहा-जातिआसी-12 विसा य कम्मआसीविसा य, जाइआसीविसा णं भंते ! कतिविहा पन्नत्ता?, गोयमा! चउब्विहा पन्नत्ता, हैतंजहा--विच्छुयजातिआसीविसे मडुक्कजाइआसीविसे उरगजातिआसीविसे मणुस्सजातिआसीविसे, विच्छुयजातिआसीविसस्स णं भंते ! केवतिए विसए पन्नत्ते ?, गोयमा! पभू णं विच्छुयजातिआसीविसे अद्धभरहप्पमाणमेत्तं बोदि विसेणं विसपरिगयं विसदृमाणं पकरेत्तए, विसए से विसट्टयाए, नो चेव णं संपत्तीए करेंसु वा करेंति वा करिस्संति वा १, मंडुक्कजातिआसीविसपुच्छा, गोयमा ! पभू णं मंडुक्कजातिआसीविसे भरहप्पमाणमेत्तं बोंदि विसेणं विसपरिगयं सेसं तं चेव जाव करेस्संति वा २, एवं उरगजातिआसीविसस्सवि, नवरं जंबुद्दीवप्पमाणमेत्तं बोंदि विसेणं विसपरिगयं सेसंतं चेव जाव करेस्संति वा ३, मणुस्सजाति आसीविस| स्सवि एवं चेव, नवरं समयखेत्तप्पमाणमेत बोंदि विसेण विसपरिगयं सेसं तं चेव जाव करेस्संति वा ४। प्रि०] हे भगवन् ! आशीविषो केटला प्रकारना कह्या छ ? [उ०] हे गौयम ! आशीविषो चे प्रकारना कह्या छे; ते आ प्रमाणे % A+ v s AR For Private and Personal Use Only Page #39 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatrth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir | ८ शतके उद्देश:२ ६०९॥ जातिआशीविष अने कर्माशीविष. [प्र०] हे भगवन ! जातिआशीविषो केटला प्रकारना कह्या छ ? [उ०] हे गौतम ! ते चार प्रकाव्याख्या रना कया छे; ते आ प्रमाणे-१ वृश्चिकजातिआशीविष, २ मंडूकजातिआशीविष, ३ उरगजातिआशीविष अने ४ मनुष्यजातिआशीविष. प्रज्ञप्तिः [प्र०] हे भगवन् ! वृश्चिकजातिआशीविषना विषनो केटलो विषय कह्यो छे?-अर्थात वृश्चिकजातिआशीविषोना विषतुं सामर्थ्य केटलुं| ॥३०९॥ दछ ? [उ०] हे गौतम! वृश्चिकजातिआशौविष अर्धभरतक्षेत्र प्रमाण शरीरने विषवडे विदलित-नाश-करवा विषयी व्याप्त करवा समर्थ छे. एटलं तेना विपर्नु सामर्थ्य छ, पण संप्राप्ति-संबन्धवडे तेओए तेम कर्य नथी, तेओ करता नथी, अने करशे पण नहि. म०] मंडूकजातिआशीविषना विषनो केटलोविषय के ? [उ०] हे गौतम ! मंडूकजातिआशीविष पोताना विषथी भरतक्षेत्र-प्रमाण ४ा शरीरने व्याप्त करवा समर्थ छे. बाकी सर्व पूर्वनी पेठे जाणवू, यावत् संप्राप्तिबडे तेम करशे नहि. ए प्रमाणे उरगजातिआशीविष * संबन्धे पण जाणवू, परन्तु विशेष ए छे के ते उरगजातिआशीविष जंबूद्वीपप्रमाण शरीरने पोताना विषथी व्याप्त करवा समर्थ | के चाकी सर्व पूर्ववत जाणg; यावत् संप्राप्तिथी तेम करशे नहि. ए प्रमाणे मनुष्यजातिशीविप संबन्धे पण जाणवू, परन्तु एटलो विशेष छे के ते मनुष्यक्षेत्रप्रमाण शरीरने पोताना विषथी व्याप्त करवा समर्थ छे. बाकी सर्व पूर्ववत् जाण; यावत् | | संप्राप्तिथी तेम करशे नहि. जइ कम्मआसीविसे किं नेरइयकम्मासीविसे तिरिक्खजोणियकम्मआसीविसे मणुस्सकम्मआसीविसे देवकम्मासीविसे, गोयमा! नो नेरइयकम्मासीविसे, तिरिक्वजोणियकम्मासीविसेवि मणुस्मकम्मा० त देवकम्मासी०, जइ तिरिक्खजोणियकम्मासीविसे किं एगिदियतिरिक्खजोगियकम्मासीविसे जाव पंचिं. CHHArsary For Private and Personal Use Only Page #40 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra व्याख्याप्रज्ञप्तिः ॥६१०॥ www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir दियतिरिक्खजोणियकम्मासीविसे ?, गोयमा ! नो एगिंदियतिरिक्खजोणियकम्मासीबिसे जाव नो चउरिंदियतिरिक्खजोणियकम्मासीविसे, पंचिंदियतिरिक्खजोणियकम्मासीबिसे, जड़ पंचिदियतिरिक्खजोणियजावकम्मासीविसे किं समुच्छिमपंचेंदियतिरिक्खजोणियजावकम्मासीविसे गन्भवकंतिय पंचिंदियतिरिक्खजोणियकम्मासीविसे १, एवं जहा वेडब्बियसरीरस्स भेदो जाव पज्जत्तासंखेज्जवासाउयगन्भवतिय पंचिंदियतिरिक्ग्वजोणियकम्मासीविसे, नो अपज्जत्तासंखेज्जवासाउयजावकम्मासीविसे । जइ मणुस्सकम्मासीविसे किं संमुच्छिममणुस्मकम्मासीविसे गभवकुंतियमणुस्मकम्मासीविसे ?, गोयमा ! णो समुच्छिममणुस्सकम्मासीविसे, गव्भवतियमणुस्मकम्मासीविसे, एवं जहा वेउब्वियमरीरं जाव पज्जत्तासंखेज्जवासाउयकम्मभूमगगन्भवतिय मणूस कम्मासीविसे, नो अपज्जत्ता जाव कम्मासीविसे । [प्र० ] हे भगवन् ! जो कर्माशीविष छे तो शुं नैरयिक कर्माशीविष छे, तिर्थचयोनिक कर्माशीविष छे, मनुष्य कर्माशीविष छे के देव कर्माशीविष छे ? [अ०] हे गौतम! नैरथिक कर्माशीविष नथी, पण तिर्यत्रयोनिक कर्माशीविष छे, मनुष्य कर्माशीविष छे अने देवकर्माशीविष छे. [प्र०] हे भगवन् ! जो तिथंचयोनिक कर्माशीविष छे तो शुं एकेन्द्रिय तिर्यंचयोनिक कर्माशीविष छे के यावद् पंचेन्द्रिय तिर्यचयोनिक कार्माशीविष छे ? [उ०] हे गौतम! एकेन्द्रिय तिर्यचयोनिकथी आरंभी यावत् चतुरिन्द्रिय तिर्यंचयोनिकपर्यन्त कर्माशीविष नथी, पण पंचेन्द्रिय तिर्यंचयोनिक कर्माशीविष छे. [प्र०] हे भगवन् ! जो पंचेन्द्रिय तिर्यचयोनिक कर्माशीविष छे तो शुं संमूमि पंचेन्द्रिय तिर्यंचयोनिक कर्माशीविष छे के गर्भजपंचेन्द्रिय तिर्यंचयोनिक कर्माशीविष छे ? [अ०] है । For Private and Personal Use Only ८ शतके उद्देशः २ ॥६१०॥ Page #41 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra व्याख्याप्रज्ञप्तिः ।।६११॥ www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir गौतम ! जेम वैक्रियशरीरसंबंधे जीवभेद को छे तेम यावसंख्यातवर्षना आयुष्यवाळा गर्भज कर्मभूमिमां उत्पन्न थयेला पंचेन्द्रिय तिर्यचयोनिक कर्माशीविष होय छे, पण अपर्याप्त असंख्यातवर्षना आयुष्यवाळा यावत् कर्माशीविष नथी. [प्र० ] हे भगवन् ! जो मनुष्य कर्माशीविष छे, तो शुं संमूहिम मनुष्य कर्मशीविष छे के गर्भज मनुष्य कर्माशीविष छे ? [उ०] हे गौतम! संमूर्छिम मनुष्य कर्माशीविष नथी, पग गर्भज मनुष्य कर्माशीविष छे. जेम वैक्रियशरीरसंबन्धे जीवभेद कह्यो छे ते प्रमाणे यावत् पर्याप्त संख्यातवर्षना आयुष्यवाळा कर्मभूमिमां उत्पन्न थयेला गर्भज मनुष्य कर्माशीविष छे पण अपर्याप्त असंख्यात वर्षना आयुष्यवाळा कर्माशीविष नथी. | जइ देवकम्मासीविसे किं भवणवासी देवकम्मासोविसे जाव वैमाणियदेवकम्मासीविसे, गोयमा ! भवणवासी देवकम्मासीविसे वाणमंतर जोतिसिय० वैमाणियदेव कम्मासीविसे, जड़ भवणवासिदेवकम्मासीविसे से किं असुरक्रमारभवणवासि देवकम्मासोविसे जाव थणियकुमार जाव कम्मासीविसे ?, गोयमा ! असुरकुमारभवणवासिदेवकमासी विसेविजाब धणियकुमार० आसीविसेवि, जइ असुरकुमार जाव कम्मासीविसे किं पञ्चत्तअसुरकुमार जाव कम्मासीविसे अपजन्त असुर कुमार भवणवासिकम्मासीविसे?, गोयमा ! नो पज्जत्तअसुरकुमार जाव कम्मासीविसे अपज्जत्तअसुरकुमार भवणवासि जाव कम्मासीविसे, एवं धणियकुमाराणं, जड़ वाणमंतरदेवकम्मासीविसे किं पिसायवाणमंतर० एवं सव्वैसिपि अपजत्तगाणं, जोइसियाणं सव्येसिं अपजत्तगाणं, जड़ वेमाणियदेवकम्मासीविसे किं कप्पोवगवेमाणियदेवकम्मासी विसे कप्पातीयवेमाणियदेवकम्मासी विसे ?, गोयमा ! कप्पोवगवे For Private and Personal Use Only ८ शतके उद्देशः २ ॥६११॥ Page #42 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir व्याख्याप्रज्ञातिः ॥६१२॥ ARRIAGE माणियदेवकम्मासीविसे नो कप्पातीयवेमाणियदेवकम्मासीविसे, [प्र०] हे भगवन् ! जो देव कर्माशीविष छे तो शुं भवनवासी देव कर्माशीवित छे के यावत् वैमानिकदेव कर्माशीविष छे ? ८ शतके [उ०] हे गौतम ! भवनवासी देव कर्माशीविष के, वानव्यंतर देव, ज्योतिष्क देव अने वैमानिकदेव पण कर्माशीविष छे. [प्र०] 14 & उद्देशः२ | हे भगवन् ! जो भवनवासी देव कर्माशीविष छे तो शुं असुरकुमार भवनवासी देव कर्माशीविष छे के यावत् स्तनितकुमार भवनवासी |॥६१२॥ देव कर्माशीविष छ ? [उ.] हे गौतम! असुरकुमार भवनवासी देव पण कर्माशीविष छे, यावत् स्तनितकुमार भवनवासी देव पण यावत् कर्माशीविष छे. [प्र०] हे भगवन् ! जो असुरकुमार यावत् कर्माशीविष छे तो शुं पर्याप्त अमुरकुमार भवनवासी देव कर्माशी-14 विष छे के अपर्याप्त असुरकुमार भवनवासी देव कर्माशीविष छ ? [उ०] हे गौतम! पर्याप्त असुरकुमार भवनवासी देव कर्माशीविष नथी, पण अपर्याप्त अमुरकुमार भवनवासी देव काशीविष छे, ए प्रमाणे यावत् स्तनितकुमारो सुधी जाणवू. [प्र.] जो वानव्यंतर देवो कर्माशीविष छे तो शुं पिशाच वानव्यंतर देवो कर्माशीविष छे? इत्यादि. [उ०] हे गौतम ! तेओ बधा अपर्याप्तावस्थामा कर्माशीविष छे, तेम सघळा ज्योतिष्को पण अपर्याप्तावस्थामा कर्माशीविष छे. [प्र.] हे भगवन् ! जो वैमानिक देव कर्माशीविष छे तो शुं कल्पोपपन्नक वैमानिक देव काशीविष छे के कल्पातीत वैमानिक देव कर्माशीविष छ? [उ.] हे गौतम ! कल्पोपपन्नक वैमानिक देव कर्माशीविष छे, पण कल्प तीत वैमानिक देव कर्माशीविष नथी. जइ कप्पोवगवेमाणियदेव कम्मासीविसे किं मोहम्मकप्पोव० जाव कम्मासीविसे अच्चुयकप्पोवग जाव कम्मासीविसे ?, गोयमा! सीहम्मकप्पोक्ग वेमाणियदेवकम्मासोविसेवि जाव सहस्सारकप्पोवगवेमाणियदेव HAN-H-E For Private and Personal Use Only Page #43 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandit www.kobatrth.org ८ शतके | उद्देशः२ ६१३॥ |कम्मासीविसेवि, नो आणयकप्पोवग जाव नो अच्चुयकप्पोवगवेमाणियदेव०, जह सोहम्मकप्पोवग जाव व्याख्या-1*कम्मासीविसे किं पज्जत्तमोहम्मकप्पोवगवेमाणिय. अपज्जत्तगसोहम्मग०१, गोयमा? नो पजत्तसोहम्मकप्पोवप्रज्ञप्तिः भगवेमाणिय०,अपजत्तसोहम्मकप्पोवगवेमाणियदेवकम्मासीबिसे,एवं जाव नो पज्जत्तसहस्सारकप्पोवगवेमाणिय ॥६१३॥ जाव कम्मासीविसे, अपजत्तमहस्सारकप्पोवगजावकम्मासीविसे ।। (सूत्रं ३१५)॥ I [प्र०] जो कल्पोपपत्रक वैमानिक देव काशीविष छे, तो शुं सौधर्मकल्पोपपत्रक यावत् कर्माशीविष छ के यावत् अच्युत कल्पोपपन्नक देव कर्माशीविष के ? [उ०] हे गौतम ! सौधर्मकल्पोपपन्नक वैमानिक देव कर्माशीविष छे. यावत् सहस्रारकल्पोपन्नक ४ वैमानिक देव कर्माशीविष छे; पण आनतकल्पोपन्नक, यावत् अच्युतकल्पोपपन्नक बमानिक देव काशीविष नथी. [प्र.] हे भग | वन् ! जो सौधर्मकल्पोपपन्नक वैमानिक देव कर्माशोविप छे, तो शुं पर्याप्त सौधमकल्पोपपन्नक वैमानिक देव कर्माशीविष छे के 21 अपर्याप्त सौधर्मकल्पोपन्नक वैमानिक देव कमीशीविष छे ? [उ०] हे गौतम ! पर्याप्त सौधर्मकल्पोपन्नक वैमानिक देव कर्माशीविष नथी, पण अपर्याप्त सौधर्मकल्पोपपन्नक वैमनिक देव यावत् कर्माशीविष के ए प्रमाणे यावत् पर्याप्त सहस्रारकल्पोपपन्नक देव यावत् कर्माशोविप नथी. पण अपर्याप्त सहस्रारकल्पोपपन्नक देव यावत् कर्माश विष हे ॥ ३१५ ।। Pा दस ठाणाई छउमत्थे सधभावेण न जाणइ न पासह, तंजहा-धम्मस्थिकायं १ अधम्मस्थिकार्य आगा सत्थिकार्य ३ जीवं असरीरपडिबद्धं ४ परमाणुपोग्गल ५ सई ६ गंध ७ वातं ८ अयं जिणे भविस्सइ वा ण वा भविस्सइ ९ अयं सव्वदुक्वाण अंतं करेस्सति वा न वा करेस्सह १०॥ याणि चेव उप्पन्ननाणदंसणधरे अरहा E-CLASHRES1610 For Private and Personal Use Only Page #44 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir S ८ शतके उद्देशः२ ॥६१४॥ 4 | जिणे केवली सबभावेणं जाणड पासइ,तंजहा-धम्मत्थिकार्य जाव करेस्सति वा न वा करेस्सति ॥(सूत्रं ३१६)। व्याख्या-3 छमस्थ (ज्ञानी) सर्वभावथी-प्रत्यक्ष ज्ञानथी आ दश वस्तुओने जाणतो नथी, तेम जोतो नथी, ते आ प्रमाणे-ध स्तिकाय, प्रज्ञतिः अधर्मास्तिकाय, आकाशास्तिकाय, शरीररहित, (मुक्ति) जीव, परमाणुपुद्गल, शब्द, गंध, वाय, आ जीव जिन थशे के नहि ? अने ॥६१४॥ *आ जीव सर्व दुःखोनो अन्त करशे के नहि ? ए दश स्थानोने उत्पन्न ज्ञान-दर्शनने धारण करनार अर्हन्. जिन, केवली सर्वभावथी साक्षात् ज्ञानथी जाणे छे अने जुए छे. जेमके धर्मास्तिकाय, यावत् आ जीव सर्वदुःखोनो अंत करशे के नहि. ॥ ३१६ ॥ ___कतिविहे णं भंते ! नाणे पन्नत्ते ?, गोयमा ! पंचविहे नाणे पन्नत्ते, तंजहा-आभिणियोहियनाणे सुयनाणे | ओहिनाणे मणपज्जवनाणे केवलनाणे, से किं तं आभिणिबोहियनाणे !, आभिणियोहियनाणे चउबिहे पन्नत्ते, तंजहा-उग्गहो ईहा अवाओ धारणा, एवं जहा रायप्पसेणहए णाणाणं भेदो तहेव इहवि भाणियब्बो जाव सेत्तं केवलनाणे ॥ अन्नाणे णं भंते ! कतिविहे पण्णत्ते?, गोयमा ! तिविहे पण्णत्ते, तंजहामइअन्नाणे सुयअन्नाणे विभंगन्नाणे । से किं तं मइअन्नाणे ?, २ चउब्विहे पण्णत्ते, तंजहा-उग्गहो जाव | धारणा । से किं तं उग्गहे ?, २ दुबिहे पण्णत्ते, तंजहा-अत्थोग्गहे य वंजणोग्गहे य, एवं जहेव आभिणि बोहियनाणं तहेव, नवरं एगट्टियवजं जाव नोइंदियधारणा,सेत्तं धारणा,सेत्तं मइअन्नाणे । से किं तं सुयअन्नाणे?, |२ जं इमं अन्नाणिएहिं मिच्छद्दिट्ठिएहिं जहा नंदीए जाव चत्तारि वेदा संगोवंगा, सेत्तं सुयअन्नाणे। [प्र०] हे भगवन् ! ज्ञान केटला प्रकारे कयु छ ? [उ.] हे गौतम ! ज्ञान पांच प्रकारे कयुं छे. ते आ प्रमाणे-अभिनिबोधि-10 --444 + SC RECE For Private and Personal Use Only Page #45 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir व्याख्या -+ ८ शतके उद्देशः२ ६१५॥ प्रशमिः र कज्ञान, श्रुतज्ञान, अवधिज्ञान, मनःपर्यवज्ञान अने केवलज्ञान. [प्र०] हे भगवन् ! आमिनिबोधिक ज्ञान केटला प्रकारे के [उ.] हे गौतम ! आभिनिबोधिक ज्ञान चार प्रकारे छे, ते आ प्रमाणे-अवग्रह, ईहा, अपाय अने धारणा. जेम 'राजप्रश्नीय' सूत्रमा ज्ञानोना प्रकार कया छ तेम अहीं पण कहेवा; यावत् 'ए प्रमाणे केवलज्ञान का त्यांमृधी कहे. [प्र.] हे भगवन् ! अज्ञान केटला प्रकारे कयुछे ? [उ.] हे गौतम! अज्ञान प्रण प्रकारे का छे, ते आ प्रमाणे-मतिअज्ञान, श्रुतअज्ञान अने विभंगज्ञान. [प्र०] हे भगवन् ! मतिअज्ञान केटला प्रकारे का छे? [उ०] हे गौतम! मतिअज्ञान चार प्रकारनुं छे. ते आ प्रमाणे-अवग्रह, यावत धारणा. [प्र०] अवग्रह केटला प्रकारे छ ? [उ.] अवग्रह वे प्रकारनो कह्यो छे. ते आ प्रमाणे-अर्थावग्रह अने व्यंजनाग्रह-ए प्रमाणे जेम नंदीसूत्रमा आभिनिवोधिकज्ञान संबंधे का छे तेम अहीं पण जाणवू. परन्तु त्यां आमिनिचोधिकज्ञान प्रसंगे अवग्रहादिना एकाथिक समानार्थक शब्दो कहेला हे ते शिवाय यावत् नोइन्द्रियधारणा मृधी कहेवू, ए प्रमाणे धारणा कही. ए प्रमाणे मतिअज्ञान का. [प्र०] श्रुतअज्ञान केवा प्रकार छ ? [उ०] 'जे अज्ञानी एवा मिथ्यादृष्टिओए प्ररूप्यु छे'-इत्यादि नंदीसूत्रमा कया प्रमाणे यावत् । | सांगोपांग चार वेद ते श्रुतअज्ञान, ए प्रमाणे श्रुतप्रज्ञान कथु. से किं तं विभंगनाणे ?, २ अणेगविहे पण्णत्ते, संजहा-गामसंठिए नगरसंठिए जाव संनिवेससंठिए दीवसंठिए समुहसंठिए वाससंठिए वासहरसंठिए पव्वयसंठिए रुग्वसंठिए थूभसंठिए हयसंठिए गय. मंठिए नरसंठिए किंनरसंठिए किंपरिससंठिए महोरगगंधव्वसंठिए उसभसंठिए पसुपसयविहगवानरणाणासंठाणसंठिए पणते ॥ जीवा णं भंते ! किं नाणी अन्नाणो ?, गोयमा ! जीवा नाणीवि अन्नाणीवि, जे -AREKARAI For Private and Personal Use Only Page #46 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir याख्याप्रज्ञतिः ॥६१६॥ R SA ८ शतके उद्देशः२ ॥६१६॥ *%% नाणी ते अत्थेगतिया दुन्नाणी अत्थेगतिया तिन्नाणी अत्थेगतिया चउनाणी अत्थेगतिया एगनाणी, जे दुनाणी ते आभिणियोहियनाणी य सुयनाणी य, जे तिन्नाणी ते आभिणियोहियनाणी सुयनाणी ओहिनाणी अहवा आभिणिबोहियनाणी सुयनाणी मणपजवनाणी, जे चउनाणी ते आभिणिबोहियनाणी सुयनाणी, ओहिनाणी मणपजवनाणी, जे एगनाणी ते नियमा केवलनाणी, जे अन्नाणी ते अत्थेगतिया दुअन्नाणी अत्थेगतिया तिअन्नाणी, जे दुअन्नाणी ते मइअन्नाणी य सुयअन्नाणी य, जे तियअन्नाणी ते मइअन्नाणी सुयअन्नाणी विभंगनाणी।। [प्र०] हे भगवन् ! विभंगज्ञान केटला प्रकारनु का छे ? [उ०] विभंगज्ञान अनेक प्रकारचें काहे, ते आ प्रमाणे-ग्रामने आकारे, वर्ष (भारतादिक्षेत्र) ने आकारे, वर्षधपर्वतने आकारे, पर्वतने आकारे, वक्षना आकारे, स्तूपना आकारे, घोडाना आकारे, हाथीना आकारे, मनुष्यना आकारे, किंनरना आकारे, किंपुरुषना आकारे, महोरगना आकारे, गंधर्वना आकारे, वृषभना आकारे, पशु, पसय, पक्षी अने वानरना आकारे-५ प्रमाणे अनेक आकारे विभंगज्ञान कहेलुं छे. [प्र०] हे भगवन् ! शुं जीवो ज्ञानी ले के अज्ञानी छ ? [उ०] हे गौतम ! जीवो ज्ञानी पण छे अने अज्ञानी पण छे. जे जीवो ज्ञानी छे तेमां केटलाएक चे ज्ञानवाळा, केट| लाएक त्रण ज्ञानवाळा, केटलाक चार ज्ञानवाला अने केटलाक एक ज्ञानवाळा छे, जे वे ज्ञानवाला छे ते मतिज्ञान अने श्रुतज्ञानत वाळा जे व्रण ज्ञानवाळा छे ते मतिज्ञान, श्रुतज्ञान, अने अवधिज्ञानवाला छे, अथवा मतिज्ञान, श्रुतज्ञान अने मनःपर्यवज्ञानवाला छे, जे चारज्ञानवाला छे ते मतिज्ञान, श्रुतज्ञान, अवधिज्ञान अने मनःपर्यवज्ञानवाळा छे. जे एक ज्ञानवाळा छे ते अवश्य एक केवळज्ञा A4+ -% A जर +% For Private and Personal Use Only Page #47 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir व्याख्याप्रज्ञप्तिः ॥६१७॥ ८ शतके उद्देशः२ | ॥६१७॥ | नवाला छे. जे जीवो अज्ञानी छे तेमां केटलाक बे अज्ञानवाला अने केटलाक त्रण अज्ञानवाला छे. जे वे अज्ञानवाला छे ते मतिअ| ज्ञान, अने श्रुतअज्ञानवाला छे, अने जेओ त्रण अज्ञानवाला छे तेओ मतिअज्ञान, श्रुतअज्ञान, अने विभंगज्ञानवाला छे. ा नेरइया णं भंते ! किं नाणी अन्नाणी ?, गोयमा ! नाणीवि अन्नाणीवि, जे नाणी ते नियमा तिनाणी, तंजहा-आभिणिबोहि सुयना. ओहिना, जे अन्नाणी ते अत्थेगतिया दुअन्नाणी अत्थेगतिया तिअन्नाणी, एवं तिन्नि अन्नाणाणि भयणाए । असुरकुमारा णं भते! किं नाणी अन्नाणी ?, जहेव नेरइया तिहेव तिन्नि नाणाणि नियमा, तिन्नि अन्नाणाणि भयणाए, एवं जाव थणियकु० । पुढविक्काइया णं भंते ! किं नाणी अन्नाणी?, गोयमा! नो नाणी, अन्नाणी, जे अन्नाणी ते नियमा दुअन्नाणी-मइअन्नाणी य सुय* अन्ना०, एवं जाव वणस्सइका० । बेइंदियाणं पुच्छा, गोयमा! णाणीवि अन्नाणीवि, जे नाणी ते नियमा दुन्नाणी, तंजहा-आभिणियोहियनाणी य सुयनाणी य, जे अन्नाणी ते नियमा दुअन्नाणी, तं०आभिणियोहियअन्नाणी सुयअन्नाणी, एवं तेइंदियचउरिंदियावि. पंचिंदियतिरिक्खजो पुच्छा, गोयमा ! नाणीवि अन्नाणीवि, जे नाणी ते अत्थे. दुन्नाणी, अत्थे• तिन्ना०, एवं तिन्नि नाणाणि तिन्नि अन्नाणाणि य भयणाए। मणुस्सा जहा जीवा तहेव पंच नाणाणि तिन्नि अन्नाणाणि भयणाए। वाणमंत• जहा ने०, जोइसियवेमाणियाणं | तिनि नाणा तिन्नि अन्नाणा नियमा । सिद्धा णं भंते ! पुच्छा, गोयमा ! णाणी, नो अन्नाणी, नियमा एगमाणी केवलनाणी (सूत्रं ३१७)। For Private and Personal Use Only Page #48 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandie १/ ८ शतके उद्देशः२ प्रज्ञप्तिः ॥६१८॥ [प्र.] हे भगवन् ! नारको शुं ज्ञानी छे के अज्ञानी ? [उ०] हे गौतम ! नारको ज्ञानी पण छे अने अज्ञानी पण छे. तेमां जे ज्ञानी छे ते अवश्य त्रण ज्ञानवाळा होय हे,ते आ प्रमाणे-मतिज्ञान, श्रुतज्ञान अने अवधिज्ञानवाला छे. जे अज्ञानी छे तेंमां केटलाक | वे अज्ञानवाला छे अने केटलाएक त्रण अज्ञानवाला के ए प्रमाणे त्रण अज्ञानो भजनाए (विकल्पे) होय . [प्र०] हे भगवन् ! असुरकुमारो शुं ज्ञानी के के अज्ञानी छ ? [उ.] जेम नैरयिको कद्या तेम असुरकुमारो जाणवा. अर्थात् जेओ ज्ञानी के तेओ अवश्य प्रण ज्ञानवाळा होय छे, अने जेओ अज्ञानी के तेओ भजनाए त्रण अज्ञानवाळा होय छे. ए प्रमाणे यावत् स्तनितकुमारो सुधी जाणवू. [प्र०] हे भगवन् ! पृथिवीकायिको शुं ज्ञानी छे के अज्ञानी छ ? [उ०] हे गौतम ! तेओ ज्ञानी नथी पण अज्ञानी छे, अने ते अवश्य वे अज्ञानवाला छे, मतिअज्ञानी अने श्रुतअज्ञानी. ए प्रमाणे यावत् वनस्पतिकायिक सुधी जाणवू. [प्र०] बेइन्द्रिय जीवो शुं ज्ञानी छे के अज्ञानी छ ? [उ.] हे गौतम ! तेओ ज्ञानी पण छे अने अज्ञानी पण . जेओ ज्ञानी छे तेओ अवश्य बे ज्ञानवाला छे, ते आ प्रमाणे-मतिज्ञानी अने श्रुतज्ञानी. जेओ अज्ञानी छे ते अवश्य बे अज्ञामवाला छे; ते आ प्रमाणे-मतिअज्ञानी अने श्रुतअज्ञानी. | ए प्रमाणे त्रीइन्द्रिय अने चारिन्द्रिय जीवो संबन्धे पण जाणवू. [प्र०] पंचेन्द्रियतिर्यंचयोनिको शुं ज्ञानी के के अज्ञानी छ ? [उ०] हे गौतम ! तेओ ज्ञानी छे अने अज्ञानी पण छे, जेओ ज्ञानी के तेमां केटलाक बे ज्ञानवाळा, अने केटलाक त्रण ज्ञानवाला छे, प प्रमाणे त्रण ज्ञान अने त्रण अज्ञान भजनाए (विकल्पे) जाणवां जीवोनी पेठे मनुष्योने पांच ज्ञान अने त्रण अज्ञान भजनाए होय | नरयिकोने क (सू. २५.) तेम वानव्यतरोने जाणवू. ज्योतिषिको अने वैमानिकोने अवश्य त्रण ज्ञान अने त्रण अज्ञान होय छ. [प्र.] हे भगवन् ! सिद्धो शुं ज्ञानी छे के अज्ञानी छ ? [उ.] हे गौतम! सिद्धो ज्ञानी छे पण अज्ञानी नथी. तेओ अवश्य % % %* - * For Private and Personal Use Only Page #49 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra व्याख्या प्रज्ञप्तिः ।।६१९ ॥ www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir एक केवलज्ञानवाळा छे. ॥ ३१७ ॥ दो निरयगइया णं भंते ! जीवा किं नाणी अन्नाणी ?, गोयमा ! माणीवि अन्नाणीवि, तिन्नि नाणारं नियमा, तिन्नि अन्नाणाई भयणाए । तिरियगइया णं भंते! जीवा किं नाणी अन्नाणी ?, गोयमा ! दो नाणा दो | अन्नाणा नियमा । मणुस्सगइया णं भंते! जीवा किं नाणी अन्नाणी ?, गोयमा ! तिनि नाणाई भयणाए, अन्नाणारं नियमा, देवगतिया जहां निरयगतिया । सिद्धगतिया णं भंते ! जहा सिद्धा १ ॥ सइंदिया णं भंते ! जीवा किं नाणी अन्नाणी १, गोगमा ! चत्तारि नाणारं, तिन्नि अन्नाणाई भगणाए । एगिंदिया णं भंते! जीवा किं नाणी० १, जहा पुढविकाइया बेइंदियतेइंदियचडरिंदियाणं दो नाणा दो अन्नाणा नियमा । पंचिंदिया जहां मदिया । अनिंदिया णं भंते! जीवा किं नाणी ०?, जहा सिद्धा २ || सकाइया णं भंते! जीवा किं नाणी अन्नाणी ?, गोयमा ! पंच नाणाणि, तिन्नि अन्नाणाई भगणाए । पुढविकाइया जाव वणस्सइकाइया नो नाणी, अनाणी, नियमा दुअन्नाणी, तंजहा-मतिअन्नाणी य सुयअन्नाणी य, तसकाइगा जहा सकाइया । [प्र०] हे भगवन् ! निरयगतिक - नरकगतिमां जता जीवो शुं ज्ञानी होय छे के अज्ञानी होय छे ? [उ०] हे गौतम! ते ज्ञानी पण होय छे अने अज्ञानी पण होय छे, ( जेओ ज्ञानी छे ) तेओने अवश्य त्रण ज्ञान होय छे अने (जे अज्ञानी छे तेओने ) त्रण अज्ञान भजनाए होय छे. [प्र०] हे भगवन् ! तिर्यचगतिक-तिर्यंचगतिमां जता जीवो शुं ज्ञानी होय छे के अज्ञानी होय छे? [उ० ] हे गौतम! तेओने अवश्य बे ज्ञान अने वे अज्ञान होय छे. [प्र०] हे भगवन् ! मनुष्यगतिक - मनुष्यगतिमां जता जीवो-शुं ज्ञानी For Private and Personal Use Only ८ शतके उद्देशः २ ।।६१९।। Page #50 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ॐ * | होय के अज्ञानी होय ? [उ.] हे गौतम ! तेओने भजनाए (विकल्पे ) त्रण ज्ञान होय छ अने अवश्य बे अज्ञान होय छे. देवगयाख्या| तिक-देवगतिमा जता जीवो-निरयगतिनी पेठे (सू० ३१.) जाणवा. [प्र०] हे भगवन् ! सिद्धिगतिमा जता जीवो शुं ज्ञानी होय ८ शतके प्रज्ञतिः के अज्ञानी होय ? [उ०] हे गौतम ! तेओ सिद्धोनी पेठे (सू० ३०) जाणवा. [प्र०] हे भगवन् ! सेन्द्रिय-इन्द्रियवाळा-जीवो शुं से उद्देशः२ ॥६२०॥ ज्ञानी होय के अज्ञानी होय ? [उ०] हे गौतम! तेओने भजनाए चार ज्ञान अने त्रण अज्ञान होय छे. [प्र०] हे भगवन् ! एकेन्द्रिय | ॥६२०॥ जीवो शुं ज्ञानी होय के अज्ञानी होय ? [उ०] हे गौतम! पृथिवीकायिकनी पेठे (सू० २७.) (एकेन्द्रिय जीवो) जाणवा. बेइ न्द्रिय, त्रीद्रिय, चउरिंद्रिय जीवोने अवश्य वे ज्ञान अने चे अज्ञान होय छे. पंचेंद्रिय जीवो सेंन्द्रिय जीवोनी पेठे ( सू० ३५.) हैजाणवा. [प्र०] हे भगवन् ! अनिद्रिय-इंद्रियरहित-जीवो शुं ज्ञानी हीय के अज्ञानी होय ? तेओ सिद्धनी पेठे (मू० ३०.) जाणवा. प्र०] हे भगवन् ! सकायिक जीवो शुं ज्ञानी होय के अज्ञानी होय? [उ०] हे गौतम! तेओने पांचं ज्ञान अने त्रण अज्ञान भजनाए होय छे. पृथिवीकायिक यावत् वनस्पतिकाथिक जीवो ज्ञानी नथी पण अज्ञानी होय छे, अने ते अवश्य बे अज्ञानवाळा होय छे, है|ते आ प्रमाणे-मतिअज्ञानवाळा अने श्रुतअज्ञानवाळा. सकायिक जीवो सकायिक जीवोनी पेठे जाणवा. __अकाइया णं भंते ! जीवा किं नाणी ?, जहा सिद्धा ३॥ सुहुमा णं भंते! जीवा कि नाणी०? जहा पुढविकाइया । बादरा णं भते! जीवा किं नाणी०? जहा सकाइया । नोसुहमानोबादरा णं भते! जीवा० जहा सिद्धा ४॥ पज्जत्ता णं भंते ! जीवा किं नाणी ?, जहा सकाइया । पजत्ता णं भंते ! नेरइया किं नाणी. ?, तिन्नि नाणा, तिन्नि अन्नाणा नियमा, जहा नेरइए एवं जाव थणियकुमारा । पुढविकाइया जहा एगिदिया, एवं जाव चउरि * 4- CRI-र 4 For Private and Personal Use Only Page #51 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir व्याख्याप्रज्ञप्तिः ॥३२१॥ ८ शतके हा उद्देशः२ MA ॥६२१॥ *+ दिया। पज्जत्ता णं भंते ! पंचिंदियतिरिक्खजोणिया किं नाणी अन्नाणी ?, तिन्नि नाणा तिन्नि अन्नाणा भयणाए। मणुस्सा जहा सकाइया । वाणमंतरा जोइसिया वेमाणिया जहा नेरइया । अपज्जत्ता णं भंते ! जीवा किं नाणी. २?,तिन्नि नाणा, तिन्नि अन्नाणा भयणाए । अपज्जत्ता णं भंते! नेरतिया किं नाणी अन्नाणी?,तिन्नि नाणा नियमा, तिन्नि अन्नाणा भयणाए, एवं जाव थणियकुमारा । पुडविक्काइया जाव वणस्मइकाइया जहा एगिदिया। [प्र०] हे भगवन् ! कायरहित जीवो शुं ज्ञानी छे के अज्ञानी छ ? [उ.] हे गौतम ! सिद्धोनी पेठे (सू०३०) तेओ जाणवा. [प्र०] हे भगवन् ! सूक्ष्म जीवो शुं ज्ञानी के के अज्ञानी छ ? [उ०] पृथिवीकायिकोनी पेठे (सू० २७.) जाणवा. [प्र.] हे भगवन् ! बादरजीवो शुं ज्ञानी छे के अज्ञानी छ ? [उ०] हे गौतम ! सकायिक जीवोनी पेठे (सू० ३८.) जाणवा. [प०] हे भगवन् ! नोमूक्ष्म नोचादर जीवो शुं ज्ञानी ले के अज्ञानी छ ? [उ०] सिद्धोनी पेठे (सू०३०.) जाणवा. [प्र०] हे भगवन् ! पर्याप्त जीवो शुं ज्ञानी छे के अज्ञानी छ ? [उ०] सकायिक जीवोनी पेठे (सू० ३८.) जाणवा. [प्र०] हे भगवन् पर्याप्त नैरयिको शुं ज्ञानी छे ? | के अज्ञानी छ ? [उ०] हे गौतम! तेओने त्रण ज्ञान अने त्रण अज्ञान अवश्य होय छे. जेम नैरयिको माटे कई तेम यावत् स्तनितकुमार देवो माटे जाणवू. पृथिवीकायिको एकेन्द्रियनी पेठे (मू० ३६.) जाणव'. ए प्रमाणे यावत् चररिदिय जीवो जाणवा: [प्र०] हे भगवन् ! पर्याप्त पंचेन्द्रिय तिर्यचयोनिको शुं ज्ञानी छे के अज्ञानी छ ? [उ०] हे गौतम! तेओने त्रण ज्ञान अने त्रण अज्ञान भजनाए होय छे, मनुष्यो सकायिकनी पेठे (सू० ३८) जाणवा. वानव्यंतरो, ज्योतिषिको अने वैमानिको नैयिकनी पेठे | (सू० २५.) जाणवा. [प्र०] हे भगवन् ! अपर्याप्त जीवो शुं ज्ञानी छे के अज्ञानी छ ? [उ०] हे गौतम ! तेओने त्रण ज्ञान अमें + - For Private and Personal Use Only Page #52 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobairthorg Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir याख्याप्रज्ञप्तिः ॥६२२॥ 4-%AHAK त्रण अज्ञान भजनाए . [प्र०] हे भगवन् ! अपर्याप्त नरयिको शुं ज्ञानी छे के अज्ञानी छ ? उ०] हे गौतम ! तेओने अवश्य त्रण ज्ञान छे अने भजनाए त्रण अज्ञान छे, ए प्रमाणे यावत् स्तनितकुमार देवो जाणवा. जेम एकेन्द्रियो संबन्धे (सू० ३६.) का । ८ शतके तेम अपर्याप्त पृथिवीकायिकथी आरंभी वनस्पतिकायिक पर्यन्त कहे. उद्देशः२ बेंदियाणं पुच्छा, दो नाणा दो अन्नाणा णियमा, एवं जाव पंचिंदियतिरिक्खजोणियाणं । अपज्जत्तगाणं P॥२२॥ भंते! मणुत्सा किं नाणी अन्नाणी,तिन्नि नाणाई भयणाए,दो अन्नाणाई नियमा,वाणमंतरा जहा नेरइया,अपज्जत्तगा जोइसियवेमाणिया णं तिन्नि नाणा, तिन्नि अन्नाणा नियमा । नोपज्जत्तगानोअपज्जत्तगा णं भंते ! जीवा किं नाणी?, जहा सिद्धा५॥ निरयभवत्था णं भंते ! जीवा किं नाणी अन्नाणी ?, जहा निरयगतिया। तिरियभवत्था णं भंते ! जीवा किं नाणी अन्नाणी ?, तिन्नि नाणा, तिन्नि अन्नाणा भयणाए। मणुस्सभवस्था णं. जहा सकाइया । देवभवत्था णं भंते ! जहा निरयभवत्था । अभवत्था जहा सिद्धा६॥ भवसिद्धिया णं भंते ! जीवा किं नाणी.?, जहा सकाइया, । अभवसिद्धियाणं पुच्छा, गोयमा! नो नाणी, अन्नाणी, तिन्नि अन्नाणाई भयणाए। नोभवसिद्धियानोअभवसिद्धिया णं भंते ! जीवा० जहा सिद्धा ७॥ सन्नीणं पुच्छा जहा | सइंदिया, असन्नी जहा इंदिया, नोसन्नीनोअसन्नी जहा सिद्धा ८॥ (सूत्रं ३१८)॥ [प्र.] अपर्याप्त बेइन्द्रिय जीवो ज्ञानी के अज्ञानी ? [उ.] तेओने वे ज्ञान अने वे अज्ञान अवश्य होय छे. ए प्रमाणे यावत्, पंचेन्द्रिय तिर्यंचयोनिक सुधी जाणवू. [प्र०] हे भगवन् ! अपर्याप्त मनुष्य शुं ज्ञानी होय छे के अज्ञानी होय छ ? [उ०] हे गौतम A ALAB For Private and Personal Use Only Page #53 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatrth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir % A शतके उद्देशः२ ॥६२३॥ तेओने त्रण ज्ञान भजनाए होय छे अने अवश्य चे अज्ञान होय छे. नरयिकोनी पेठे (सू०४७.) वानन्यंतरोने जाणवं. तथा अपर्याप्त व्याख्या |ज्योतिषिको अने वैमानिकोने त्रण ज्ञान अने त्रण अज्ञान अवश्य होय छे. [प्र०] हे भगवन् ! नोपर्याप्त अने नोअपर्याप्त जीवो शुं प्रज्ञप्तिः ज्ञानी छे के अज्ञानी ? [उ०] हे गौतम! तेओ सिद्धनी पेठे (सू० ३०.) जाणवा. [प्र.] हे भगवन् ! निरयभवस्थ जीयो शुं ॥३२३॥ ज्ञानी छे के अज्ञानी छे ? [उ०] हे गौतम! तेओ निरयगतिकनी पेठे (मू० ३१.) जाणवा. [प्र.] हे भगवन ! तिर्यगभवस्थ जीवो शुं ज्ञानी छे के अज्ञानी छ ? [उ.] हे गौतम ! तेओने त्रण ज्ञान अने त्रण अज्ञान भजनाए के. [प्र०] हे भगवन् ! मनुष्यवस्थ जीवो शुं ज्ञानी ले के अज्ञानी छे ? [उ.] हे गौतम! तेओ सकायिकनी पेठे (सू०३८.) जाणवा [प्र०] हे भगवन् ! देवभवस्थ जीवो शुं ज्ञानी डे के अज्ञानी छ ? [उ.] हे गौतम ! तेओ निरयभवस्थनी पेठे (मु०५१.) जाणवा. अभवस्थ-भवमा नहि रहेनारा (शुं ज्ञानी छे के अज्ञानी छ ? [उ.] हे गौतम! तेओ) सिद्धोनी पेठे (मू०३०.) जाणवा. [प्र.] हे भगवन् ! भवसिद्धिक-भव्य जीवो शुं ज्ञानी छे के अज्ञानी छ ? [उ०] हे गौतम! तेओ सकायिकनी पेठे (सू० १८.) जाणवा. [प्र०] हे भगवन् ! अभव मेद्धिक अभव्य जीवो शुं ज्ञानी के के अज्ञानी छ ? [उ.] हे गौतम ! तेओ ज्ञानी नथी पण अज्ञानी छे, अने तेओने त्रण अज्ञान भजनाए होय छे. [प्र०] हे भगवन् ! नोभवसिद्धिक नोअभवसिद्धिक जीयो शु ज्ञानी के के अज्ञानी छ ? [उ०] हे गौतम ! तेओ सिद्धोनी |पेठे (सू० ३०.) जाणवा. [प्र.] हे भगवन् ! संज्ञिजीवो शुं ज्ञानी के के अज्ञानी के ? [उ०] हे गौतम : तेओ सेन्द्रियनी छापेठे (सू० ३५.) जाणवा. असंशिजीवो बेइन्द्रियनी पेठे (मू० २८.) जाणवा. नोसंज्ञि-नोप्रसंज्ञि जीवो सिद्धोनी पेठे (सू० HI३०.) जाणवा. ॥ ३१८ ॥ For Private and Personal Use Only Page #54 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ENCE%% E ८ शतक | उद्देशः२ ॥६२४ ____ कहविहा णं भंते ! लद्धी पण्णत्ता ?, गोयमा ! दसविहा लद्धी पण्णता, तंजहा-नाणलदी १ दमणलद्धी याख्या 15२चरित्तलद्धी३चरित्ताचरित्तलद्री४ दाणलदो५लाभली६ भोगलद्धी ७ उवभोगली८ विरियलद्धी ९ प्रज्ञतिः इंदियलद्वी १० । णाणलद्धो णं भंते ! कइबिहा पण्णता ?; गोयमा! पंचविहा पणत्ता, तंजहा-आभिणियो॥६२४॥ हियणाणलद्धी जाव केवलणाणलद्धी ।। अन्नाणलद्धी णं भंते : कतिविहा पण्णता ?, गोयमा ! तिविहा पण्ण त्ता, तंजहा-मइअन्नाणलद्धी सुयअन्नाणली विभगनाणलद्धी। दसणलद्धी णं भंते ! कतिविहा पन्नत्ता!, ४गोयमा ! तिविहा पण्णत्ता, तंजहा-सम्मइंसणलद्धी मिच्छादसणलद्धी सम्मामिच्छादसणलद्धी॥ चरित्तलद्धी |णं भंते ! कतिविहा पण्णत्ता?, गोयमा! पंचविहा पन्नत्ता, तंजहा-सामाइयचरित्तलद्धो छेदोवद्यावणिय लद्धी |परिहारविसुद्धलद्धी सुहमसंपराग लद्धी अहवायचरित्तलद्धीचरित्ताचरित्तलद्धीणं भंते! कतिविहा पण्णत्ता! ४ गोयमा ! एगागारा पण्णत्ता, एवं जाव उवभोगलद्धी एगागारा पन्नत्ता ॥ वीरियलद्धी णं भंते ! कतिविहा है। पण्णत्ता ?, गोयमा ! तिविहा पण्णत्ता, तंजहा-बालवीरियलद्धी पंडियबीरियलद्धी बालपंडियबीरियलद्धी। I [प्र०] हे भगवन् ! लब्धि केंटला प्रकारे कही छ ? [उ०] हे गौतम ! लब्धि दश प्रकारे कही छै, ते आ प्रमाणे-१ ज्ञानलब्धि, २ दर्शनलब्धि, ३ चारित्रलब्धिं, ४ चारित्राचारित्रलब्धि, ५ दानलब्धि, ६ लाभलब्धि, ७ भोगलब्धि, ८ उपभोगलब्धि, वीर्यलब्धि, अने १० इन्द्रियलब्धि. [प्र०] हे भगवन् ! ज्ञानलब्धि केटला प्रकारनी कही छे ? [उ०] हे गौतम ! ज्ञानलब्धि पांच | प्रकारनी कही छे, ते आ प्रमाणे-आभिनिबोधिकज्ञानल.ब्ध, यावत् केवलज्ञानलब्धि. [प्र.] हे भगवन् ! अज्ञानलन्धि केटला प्रका 0k For Private and Personal Use Only Page #55 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir व्यख्यिाप्रज्ञप्तिः ॥३२॥ ८ शतके उद्देशः२ ६२५॥ + |कही छ ? [उ०] हे गौतम ! अज्ञानलब्धि त्रण प्रकारनी कही छे, ते आ प्रमाणे-मतिअज्ञानलब्धि, श्रुतअज्ञानलब्धि अने विभ| गज्ञानलब्धि. [प्र०] हे भगवन् ! दर्शनलब्धि केटला प्रकारनी कही छे ? [उ.] हे गौतम! दर्शनलब्धि त्रण प्रकारनी कही छे, ते आ प्रमाणे-सम्यग्दर्शनलब्धि, मिथ्यादर्शनलब्धि अने सम्यगमिथ्यादर्शनलब्धि. [प्र.] हे भगवन् ! चारित्रलब्धि केटला प्रकारनी कही छे ? [उ०] हे गौतम ! चारित्रलब्धि पांच प्रकारनी कही छे, ते आ प्रमाणे-१ सामायिकचारित्रलब्धि, २ छेदोपस्थानीयचात्रिलब्धि, ३ परिहारविशुद्धिकचारित्रलब्धि, ४ सूक्ष्मसंपरायचारित्रलब्धि अने ५ यथाख्यातचारित्रलब्धि. [प्र.] हे भगवन् ! चारित्राचारित्रलब्धि केटला प्रकारनी कही छे ? [उ.] हे गौतम! एक प्रकारनी कही छे, ए प्रमाणे [दानलब्धि,] यावत् उपभोगलब्धि पण एक प्रकारनी कही हे. [म.] हे भगवन् ! वीर्यलब्धि केटला प्रकारनी कही छे? [उ०] हे गौतम ! वीर्यलब्धि त्रण | प्रकारनी कही छे, ते आ प्रमाणे-बालवीर्यलब्धि पंडितवीर्यलन्धि अने बालपंडितवीर्यलब्धि... I इंदियलद्धो णं भंते ! कतिविहा पण्णत्ता?,गोयमा! पंचविहा पण्णत्ता,तंजहा-सोइंदियलद्धी जाव फासिंदियलद्धी॥ नाणलद्धिया णं भंते! जीवा किं नाणी अन्नाणी, गोयमा! नाणी, नो अन्नाणी, अत्थेगतिया दुन्नाणी,एवं पच नाणाई भयणाए। तस्स अलद्धिया णं भंते! जीवा किं नाणी अन्नाणी?,गोयमा! नो नाणी,अन्नाणी,अत्थेगतिया दुअन्नाणी,तिन्नि अन्नाणाणि भयणाए। आभिणिबोहियणाणलद्धिया णं भंते! जीवा किं नाणी अन्नाणी?; गोयमा नाणी, नो अन्नाणी, अत्थेगतिया दुन्नाणी, चत्तारि नाणाई भयणाए । तस्स अलद्धिया णं भते जीवा किं नाणी अन्नाणी, गोयमा! नाणीवि अन्नाणीवि, जे नाणी ते नियमा पगनाणी केवलनाणी, जे अन्नाणी ते अत्थेगड्या + 95%+ For Private and Personal Use Only Page #56 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir याख्याप्रज्ञप्तिः ॥६२६॥ ८ शतके उद्देशः२ ॥६२६॥ दुअन्नाणी, तिन्नि अन्नाणाई भयणाए, एवं सुयनाणलद्धीयावि, तस्स अलद्धीयावि जहा आभिणियोहियनाणस्स अलद्धीया। ओहिनाणलद्धीया णं पुच्छा, गोयमा! नाणी, नो अन्नाणी, अत्थेगइया तिनाणी, अत्थेगतिया चउनाणी, जे तिनाणी ते आभिणिबोहियनाणी सुयनाणी ओहिनाणी, जे चउनाणी ते आभिणियोहियनाणी | सुय० ओहि मणपज्जवनाणी। [प्र.] हे भगवन् ! इंद्रियलब्धि केटला प्रकारनी कही छे ? [उ०] हे गौतम ! इंद्रियलब्धि पांच प्रकारनी कही छे, ते आ | प्रमाणे-श्रोत्रेन्द्रियलब्धि यावत् स्पर्शेन्द्रियलब्धि, [प्र०] हे भगवन् ! ज्ञानलब्धिवाळा जीवो शुं ज्ञानी ले के अज्ञानी छ ? [उ.] हे गौतम! तेओ ज्ञानी छे पण अज्ञानी नथी. केटला एक बेज्ञानवाला छे; ए प्रमाणे तेओने पांच ज्ञान भजनाए होय छे. [प्र०] हे भगवन् ! ज्ञानलब्धिरहित जीवो शुं ज्ञानी छे के अज्ञानी छ ? [उ०] हे गौतम ! तेओ ज्ञानी नथी पण अज्ञानी छे. केटलाएक बेअज्ञानवाला छे, अने तेओने त्रण अज्ञान भजनाए होय छे. [प्र०] हे भगवन् ! आभिनियोधिकज्ञानलब्धिवाळा जीवो शु ज्ञानी छे के अज्ञानी छ ? [उ.] हे गौतम! तेओ ज्ञानी होय छे, पण अज्ञानी नथी. केटलाएक बेज्ञानवाळा छे, तेओने चार ज्ञान भजनाए होय छे. ( एटले केटलाएक त्रण ज्ञानवाला अने केटलाएक चार ज्ञानवाळा होय छे.) [प्र०] हे भगवन् ! आभिनिबोधिकज्ञानलब्धिरहित जीवो ज्ञानी छे के अज्ञानी ? [उ०] हे गौतम ! तेओ ज्ञानी पण छे अने अज्ञानी पण छे. जेओ ज्ञानी के तेओ अवश्य एक केवलज्ञानी के जेओ अज्ञानी छे तेमां केटलाक बेअज्ञानवाळा छे अने केटलाक त्रण अज्ञानवाळा छेएटले तेओने भजनाए त्रण अज्ञान होय छे. ए श्रुतज्ञानलब्धिवाळा पण जाणवा. श्रुतज्ञानलब्धिरहित जीवो आभिनिवोधिकलन्धिरहित जीवोनी पेठे जाणवा. REAXXSACH For Private and Personal Use Only Page #57 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir व्याख्या प्रज्ञप्तिः ८ शतके उद्देशः२ ॥६२७॥ ॥३२७॥ (०] हे भगवन् ! अवधिज्ञानलब्धिवाला जीवो शुं ज्ञानी छे के अज्ञानी छ? [उ०] हे गौतम ! तेओ ज्ञानी छे, पण अज्ञानी नथी. तेओमां केटलाक त्रण ज्ञानवाला छे अने केटलाक चारज्ञानवाळाछे, जेओ त्रज्ञानवाला छे तेओ आभिनिवोधिक, श्रुतज्ञान अने अवधिज्ञानवाला छे. जेओ चारज्ञानवाळा छे तेओ आभिनिबोधिकज्ञान, श्रुतज्ञान, अवधिज्ञान अने मनापर्यवज्ञानवाला छे. - तस्स अलद्धीया णं भंते ! जीवा किं नाणी, गोयमा! नाणीवि अन्नाणीवि, एवं ओहिनाणवज्जाइं चत्तारि | नाणाई तिन्नि अन्नाणाई भयणाए । मणपज्जवनाणलद्धिया णं पुच्छा, गोयमा! णाणी, णो अन्नाणी, अत्थेगतिया तिन्नाणी अत्थेगतिया चउनाणी, जे तिन्नाणी ते आभिणियोहियनाणी सुयणाणी मणपज्जवणाणी, जे चउनाणी ते आभिणिबोहियनाणी सुयनाणी मणपज्जवणाणी, जे चउनाणी ते आभिणिबोहियनाणी सुयनाणी | ओहिनाणी मणपजवनाणी, तस्स अलद्धिगाणं पुच्छा, गोयमा ! णाणीवि अन्नाणीवि, मणपजवणाणवजाई चत्तारि णाणाई, तिन्नि अन्नाणाई भयणाए । केवलनाणलद्धिया णं भंते ! जीवा किं नाणी अन्नाणी, गोयमा! नाणी, नो अन्नाणी, नियमा एगणाणी केवलनाणी, तस्स अलद्वियाणं पुच्छा, गोयमा! नाणीवि अन्नाणीवि, केवलनाणवजाइं चत्तारि णाणाई, तिनि अन्नाणाई भयणाए । अन्नाणलद्धिया णे पुच्छा, गोयमा नो नाणी, अन्नाणी,तिन्नि अन्नाणाई भयणाए,तस्स अलद्धियाण पुच्छा,गोयमा! नाणी,नो अनाणी,पंच माणाई भयणाए जहा अन्नाणस्स लधिया अलद्विया य भणिया एवं महअन्नाणस्स सुयअन्नाणस्स य लद्विया अलद्धिया य भाणियब्बा, विभंगनाणलद्धियाणं तिनि अनाणाई नियमा,तस्स अलद्धियाणं पंच नाणाई भयणाए,दो अन्नाणाई नियमा १॥ For Private and Personal Use Only Page #58 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir याख्याप्रज्ञप्तिः ॥६२८॥ ॥६२८॥ [प्र०] हे भगवन् ! अवधिज्ञानल ब्धिरहित जीवो शुं ज्ञानी छे के अज्ञानी छ ? [उ०] हे गौतम! तेओ ज्ञानी पण छे अने अज्ञानी पण छे, ए प्रमाणे तेओने अवधिज्ञान शिवाय चार ज्ञान अने त्रण अज्ञान भजनाए होय छे. [प्र.] हे भगवन् ! मनःपर्य- ४८ शतके वज्ञानलब्धिवाळा जीवो शुं ज्ञानी छे के अज्ञानी छ ? [उ०) हे गौतम! तेओ ज्ञानी छे, पण अज्ञानी नथी; तेमां केटलाक उद्देशः२ त्रण ज्ञानवाळा छे अने केट लाक चार ज्ञानवाला छे.जेत्रण ज्ञानवाला छे तेओ आभिनिबोधिकज्ञानी, श्रुतज्ञानी अने मनःपर्यवज्ञानी छे, अने जेओ चार ज्ञानवाला छे तेओ आभिनिबोधिकज्ञानी, श्रुतज्ञानी, अवधिज्ञानी अने मनःपर्यवज्ञानी छे. [प्र०] मनःपर्यवज्ञा| नलब्धिरहित जीवो शुं ज्ञानी छे के अज्ञानी छे ? [उ०] हे गौतम ! तेओ ज्ञानी पण छे अने अज्ञानी पण छे, तेओने मनःपर्यवज्ञान शिवाय चार ज्ञान अने त्रण अज्ञान भजनाए छे. [प्र०] हे भगवन् ! केवलज्ञानलब्धिवाला जीवो शुं ज्ञानी छे के अज्ञानी छे? [उ.] हे गौतम ! तेओ ज्ञानी छे पण अज्ञानी नथी. तेओ अवश्य एक केवलज्ञानवाला छे. [प्र०] केवलज्ञानलब्धिरहित जीवो ज्ञानी छे के अज्ञानी छ ? [उ०] हे गौतम! तेओ ज्ञानी पण छे अने अज्ञानी पण छे. तेओने केवळज्ञान शिवाय चार ज्ञान अने त्रण अज्ञान भजनाए होप छे. [प्र०] हे भगवन् ! अज्ञानलब्धिवान जीवो शुं ज्ञानी छ के अज्ञानी छ ? [उ०] हे गौतम ! तेओ ज्ञानी नथी, पण अज्ञानी छे. तेओने त्रण अज्ञान भजनाए होय छे. [प्र०] हे भगवन् ! अज्ञानलब्धिरहित जीवो शुं ज्ञानी छे के अज्ञानी छ ? [उ०] हे गौतम! तेओ ज्ञानी छे पण अज्ञानी नबी; तआन पांच ज्ञान भजनाए होय छे. छेम अज्ञानलब्धिवाळा अने अज्ञानलब्धिरहित जीवो कह्या तेम मतिअज्ञान अने श्रुतअज्ञानलब्धिवाळा अने ते लब्धिथी रहित जीवो कहेवा. (एटले अज्ञानलब्धिवाळानी | पेठे ( सू० ७७ ) मतिअज्ञान अने श्रुतअज्ञानलब्धिवाळा जीवो जाणवा, अने अज्ञानलब्धिरहित जीवोनी पेठे (सू० ७८ ) मत्यज्ञान * + C. .. For Private and Personal Use Only Page #59 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ८शतके - उद्देशः२ ॥६२९।। अने श्रुतज्ञानलब्धिरहित जीवो जाणवा.) विभंगज्ञानलग्धिवाळा जीवोने अवश्य त्रण अज्ञान होय छे, अने विभंगज्ञानलब्धिरहित व्याख्या जीवोने भजनाए पांच ज्ञान के अवश्य वे अज्ञान होय छे. प्रज्ञप्तिः 3 दंसणलद्धिया णं भंते ! जीवा किं नाणी अन्नाणी, गोयमा! नाणीवि अन्नाणीवि, पंच नाणाई ॥३२९॥ तिन्नि अन्नाणाई भयणाए, तस्स अलद्विया णं भंते ! जीवा किं नाणी अन्नाणी?, गोयमा तस्स अलद्धिया नस्थि । सम्मइंसणलद्धियाणं पंच नाणाई भयणाए, तस्स अलद्धियाणं तिन्नि अन्नाणाई भयणाए, मिच्छादसण लद्धिया णं भंते ! पुरुछा, तिन्नि अन्नाणाई भयणाए, तस्स अल द्वयाणं पंच नाणाई तिन्नि य अन्नाणाई भयणाए, सम्मामिच्छादंसणलद्धिया य अलद्धिया य जहा मिच्छादसणलद्धी अलद्धीतहेव भाणियव्वं ॥ चरित्तलद्धिया णं भंते ! जीवा किं नाणी अन्नाणी?, गोयमा! पंच नाणाई भयणाए, तस्म अलद्धियाणं मणयजवनाणवजाइं |चत्तारि नाणाई तिन्नि य अन्नाणाई भयणाण, सामाइय चरित्तलटिया णं भंते ! जीवा किं नाणी अन्नाणी ? गोयमा! नाणी, केवल बजाईचत्तारि नाणाई भयणाए, तस्म अलद्धियाणं पंच नाणाई तिनि य अन्नाणाई भ यणाए, एवं जहा मामाइयचरित्तलद्धिया अलद्विया य भणिया एवं जाय अहाव यचरित्तलद्विया अलविया माय भाणियब्वा, नवरं अहकवायचरित्तलद्धिया पंच नाणाई भ०३ । म. हे भगवन् ! दर्शनलब्धिवाळा जीवो शुं ज्ञानी ले के अज्ञानी है ? [उ०] हे गौतम ! तेओ ज्ञानी पण छे अने अज्ञानी पण छे. (जेओ ज्ञानी छे ) तेओने पांच ज्ञान, अने (जेओ अज्ञानी हे तेओने) व्रण अज्ञान भजनाए होय छे. [प्र०] हे भगवन् ! 4x4%ACACAN For Private and Personal Use Only Page #60 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir % %% ८ शतके उद्देशः२ ॥६३०॥ % दर्शनलब्धिरहित जीवो शुं ज्ञानी ले के अज्ञानी छ ? [उ.] हे गौतम ! दर्शनलब्धिरहित जीवो होता नथी. सम्यग्दर्शनलब्धिवाळा व्याख्या जीवोने भजनाए पांच ज्ञान होय छे, अने सम्यग्दर्शनलब्धिरहित जीवोने भजाए त्रण अज्ञान होय छे. [प्र०] हे भगवन् : मिथ्या प्रज्ञप्तिः दर्शनलब्धिवाळा जीवो ज्ञानी होय के अज्ञाी? [उ.] तेआने त्रण अज्ञान भजनाए होय छे. मिथ दर्शनल.धरहित (सम्यग्दृष्टि ॥६३०॥ अने मिश्रष्टि) जीवोने पांच ज्ञान अने त्रण अज्ञान भजनाए होय छे. सम्यगमिथ्यादर्शनलब्धवाळा (मिश्राष्टि) जीवो मिथ्याद निलब्धिवालानी पेठे जाणवा. सम्यगमिथ्यादर्शनलब्धिरहित जीवो जेम मिथ्यादर्शनलाब्धरहित जीवो कह्या ते प्रमाणे जाणवा. प्र०] हे भगवन् ! चारित्रलब्धिबाळा जीवो शुं ज्ञानी छे के अज्ञाी छे ? [उ.] हे गौतम ! तेओने पांच ज्ञान भजनाए होय छे. लेचारित्रलब्धिरहित जीवोने मनःपर्यवज्ञान शिवाय चार ज्ञान अने त्रण अज्ञान भजनाए होय छे. [प्र.] हे भगवन् ! सामायिकचारित्र लब्धिवाळा जीवो शुं ज्ञानी होय छे के अज्ञानी होय ? [उ.] हे गौतम! तेओ ज्ञानी होय छे. तओने केवलज्ञान शिवाय चार ज्ञान भजनाए होय छे. सामायिकचारित्रज्ञानलब्धिरहित जीवोने पांच ज्ञान अने त्रण अज्ञान भजनाए होय छे. ए प्रमाणे जेवी रीते सामायिकचारित्रलब्धिवाळा अने सामायिकचारित्रलब्धरहित जीवो कह्या तेम यावत् यथारख्यातचारित्रलब्धिवाला अने यथाख्यातचारित्रलब्धिरहित जीवो कदेवा. परन्तु यथाख्यातचारित्रलब्धिवाळाने पांच ज्ञान भजनाए जाणवा. चरित्ताचरित्तलद्धिया भंते!जीवा किं नाणी अन्नाणी?, गोयमा! नाणी,नो अन्नाणी,अत्थेगइया दुण्णाणी | अत्थेगतिया तिन्नाणी, जे दुन्नाणी ते आभिणिबोहियनाणी य सुयनाणी य, जे तिन्नाणी ते आभि० सुयना. ओहिना, तस्स अल. पंच नाणाई तिन्नि अन्नाणा भयणाए४ ॥ दाणलद्धियणं पंच नाणाई तिन्नि अन्नाणाई। %A + A 4 For Private and Personal Use Only Page #61 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir P८ शतके व्याख्याप्रज्ञप्तिः ॥३३॥ AE भयणाए, तस्स अ० पुच्छा, गोयमा! नाणी, नो अन्नाणी, नियमा एगनाणी केवलनाणी एवं जाव वीरियस्स लद्धी अलद्धी य भाणियब्वा, बालवीरियलद्धियाणं तिमि नाणाई तिन्नि अन्नाणाई भयणाए, तस्स अलद्धियाणं पंच नाणाई भयणाए, पंडियवीरियलद्धीयाणं पंच नाणाई भयणाए, तस्स अलद्धियाणं मणपजवनाणवजाइं उद्देशः२ णाणाई अन्नाणाणि तिन्नि य भयणाए,बालपंडियवीरियलद्वियाणं भंते ! जीवा० तिन्नि नाणाई भयणाए, तस्सद अलद्धियाणं पंच नाणाई तिन्नि अन्नाणाई भयणा ॥ । प्र०] हे भगवन् ! चारित्राचारित्र (देशचारित्र) लब्धिवाळा जीवो शुं ज्ञानी छे के अज्ञानी छ ? [उ०] हे गौतम ! तेओ ज्ञानी 13 छे पण अज्ञानी नथी; तेमां केटलाक बेज्ञानवाला अने केटलाक त्रणज्ञानवाळा छे. जेओ बेज्ञानवाला छे तेश्रो आभिनिबोधिक ज्ञान अने श्रुतज्ञानवाला छे, जेओ त्रण ज्ञानवाला छे तेओ आभिनिवोधिकज्ञानी, श्रुतज्ञानी अने अवधिज्ञानी है. चारित्राचारित्र (देशचारित्र) लब्धिरहित जीवोने भजनाए पांच ज्ञान अने त्रण अज्ञान होय छे. दानलब्धिवान्ठाने पांच ज्ञान अने व्रण अज्ञान भजनाए होय छे. [प्र०] दानल ब्धिरहित जीवो ज्ञानी छे के अज्ञानी छे ? [उ०] हे गौतम! तेओ ज्ञानी छे अने नेओ अवश्य एककेवलज्ञानवाळा हे. ए प्रमाणे यावत् वीर्यलब्धिवाळा अने वीर्यलब्धिरहित जीवो कहेवा. बालवीर्यलब्धिवाळा जीवोने त्रण ज्ञान अने व्रण अज्ञान भजनाए होय छे. बालवीर्यलब्धिरहित जीवोने भजनाए पांच ज्ञान होय छे. पंडितवीर्यलब्धिवाला जीवोने पण भजनाए पांच ज्ञान होय छे. पंडितवीर्यलब्धिरहितने मनःपर्यवज्ञान शिवाय चार ज्ञान अने त्रण अज्ञान भजनाए होय छे. बालपंडितवीर्यलब्धिवा|ळाने भजनाए त्रण ज्ञान होय छे, अने बालपंडितवीर्यलब्धिरहित जीवोने पांच ज्ञान अने त्रण अज्ञान भजनाए होय छे. SHRESTHANK-- -%e0 For Private and Personal Use Only Page #62 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ८ शतके व्याख्याप्रज्ञतिः ॥६३२।। R इंदियलद्धियाणं भंते ! जीवा किं नाणी अन्नाणी?, गोयमा! चत्तारि णाणाई तिन्नि य अन्नाणाई भयणाए, IPL |तस्स अलद्धियाणं पुच्छा, गोयमा! नाणी, नो अन्नाणी, नियमा एगनाणी केवलनाणी, सोइंदियलद्धियाणं जहा इंदियलद्विया, तस्स अलद्धियाणं पुच्छा, गोयमा! नाणीवि अन्नाणीवि, जे नाणी ते अत्थेगतिया दुन्नाणी उद्देशः२ अत्थेगतिया एगन्नाणी, जे दुन्नाणी ते आभिणियोहियनाणी सुयनाणी जे एगनाणी ते केवलनाणी, जे अन्नाणी ते ॥६३२।। नियमा दुअन्नाणी, तंजहा-मइअन्नाणी य सुयअन्नाणी य, चक्खिदिय घाणिदियाणं लधियाणं अलद्धियाण य जहेव सोइंदियस्स, जिभिदियलद्धियाणं चत्तारि णाणाई तिन्नि य अनाणाणि भयणाए, तस्सअलद्धियाणं पुच्छा, गोयमा! नाणीवि अन्नाणीवि, जे नाणी ते नियमा एगनाणी केवलनाणी, जे अन्नाणी ते नियमा दुअन्नाणी, तंजहा-मइअन्नाणी य सुयअन्नाणी य, फासिंदियलद्धियाणंअलद्धीयाणं जहा इंदियलद्धिया य अलद्धिया य ।। (सूत्रं ३१९)॥ | [प्र०] हे भगवन् ! इन्द्रियलब्धिवाळा जीवो शुं ज्ञानी डे के अज्ञानी छ ? [उ०] हे गौतम ! तेश्रो भजनाए चार ज्ञान अने। | त्रण अज्ञान होय छे. [प्र.] इन्द्रियलब्धिरहित जीवो शुं ज्ञानी छे के अज्ञानी ? [उ.] हे गौतम ! तेओ ज्ञानी छे, पण अज्ञानी नथी. ते अवश्य एक केवळज्ञानवाला छे. बोटेन्द्रियलब्धिवाळा इन्द्रियलब्धिवाळानी पेठे (मृ० ८६.) जाणवा. [प्र०] श्रोत्रेन्द्रियलब्धिरहित जीवो शुं ज्ञानी छे के अज्ञानी छ ? [उ०Jहे गौतम ! तेओ ज्ञानी पण छे, अने अज्ञानी पण छे. जेओ ज्ञानी छे तेओमां | केटलाक एकज्ञानवाळा . जेओ बेज्ञानवाळा ओ ‘आभिनिवोधिकज्ञानी अने श्रुतज्ञानी छे अने जेओ एकज्ञानी ले तेश्रो एक -CA4%AF For Private and Personal Use Only Page #63 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir व्याख्या प्रज्ञप्तिः ८ शतके उद्देशः२ ॥६३३॥ केवलज्ञानी छे, जेओ अज्ञानी छे तेओ अवश्य बेअज्ञानवाला छे. जेमके मतिअज्ञानी अने श्रुतअज्ञानी. नेत्रेन्द्रिय अने घाणेन्द्रियलब्धिवाळाने श्रोत्रेन्द्रियलब्धिवाळानी पेठे (सू०८७.) चार ज्ञान अने प्रण अज्ञान जाणवा नेत्रेन्द्रिय अने घ्राणेन्द्रियलब्धिरहित जीवोने श्रोत्रेन्द्रियलब्धिरहित जीवोनी पेठे वे ज्ञान, बे अज्ञान अने एक केवलज्ञान होय छे. जिहवेन्द्रियलन्धिवाळाने चार ज्ञान अने त्रण अज्ञान भजनाए होय छे. [प्र०] जिवेन्द्रियलब्धिरहित जीवो शुं ज्ञानी छे के अज्ञानी? [उ०] हे गौतम ! तेओ ज्ञानी पण छे, अने अज्ञानी पण छे. जेओ ज्ञानी छे तेओ अवश्य एक केवलज्ञानी छे, जेओ अज्ञानी छे तेओ अवश्य बे अज्ञानवाळा छे; ते आ प्रमाणे-मतिअज्ञानी अने श्रुतअज्ञानी. स्पर्शेन्द्रियलब्धिवाळाने इन्द्रियलब्धिवाळानी पेठे (सू०८६. भजनाए चार ज्ञान अने त्रण अज्ञान जाणवा. स्पर्शेन्द्रियलब्धिरहित जीवोने इन्द्रियलब्धिरहित जीवोनी पेठे (सू० ८७.) एक केवलज्ञान होय छे. ॥ ३१९ ।।। सागारोवउत्ता णं भंते! जीवा किं नाणी अन्नाणी ?, पंच नाणाई तिन्नि अन्नाणाई भयणाए ॥ आभिणिबोहियनाणसागारोवत्ता णं भते!०चत्तारि णाणाई भयणाए । एवं सुयनाणसागारोवउत्तावि । ओहिनाणसा. गारोषउत्ता जहा ओहिनाणलद्धिया, मणपजवनाणसागारोवउन्ना जहा मणपजवनाणलद्धिया, केवलनाणसागारोवउत्ता जहा केवलनाणलद्धिया, मइअन्नाणसागरोवउत्ताण तिन्नि अन्नाणाई भयणाए, एवं सुयअन्नाणसागारोवउत्तावि. विभंगनाणसागारोवउत्ताणं तिन्नि अन्नाणाई नियमा ॥ अणागारोवउत्ता णं भंते ! जीवा किं नाणी अन्नाणी, पंच नाणाई तिन्नि अन्नाणाई भयणाए, एवं चक्खुदसणअचक्खुदंसणअणागारोवउत्तावि, नवरं चत्तारि णाणाई तिन्नि अन्नाणाई भयणाए, ओहिदसणअणागारोवउत्ताणं पुच्छा, गोयमा! नाणीवि अन्नाणीवि, SARKARIGINA. For Private and Personal Use Only Page #64 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra व्याख्या प्रज्ञप्तिः ॥६३४॥ www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir जे नाणी ते अत्थेगतिया तिन्नाणी अत्थेगतिया चउन्नाणी, जे तिन्नाणी ते आभिणिबोहिय० सुवनागी ओहिंनाणी, जे चउणाणी ते आभिणिबोहियणनाणी जाव मणपज्जवनाणी, जे अन्नाणी ते नियमातिअन्नाणी, तंजा| मइअन्नाणी सुयअन्नाणी विभंगनाणी, केवलदंसणअणागारोवउत्ता जहा केवलनाणलद्धिया || [प्र० ] हे भगवन् ! साकारउपयोगवाळा जीवो शुं ज्ञानी होय के अज्ञानी होय ? [उ०] हे गौतम! तेओने पांच ज्ञान अने त्रण अज्ञान भजनाए ( विकल्पे ) होय छे. [प्र० ] हे भगवन् ! आभिनिबोधिकसाकारोपयोगवाळा जीवो शुं ज्ञानी होय के अज्ञानी होय ? [उ०] हे गौतम! तेओने भजनाए चार ज्ञान होय छे. ए प्रमाणे श्रुतज्ञानसाकारउपयोगबाळा जीवो पण जाणवा अवधिज्ञानसाकार उपयोगबाळा जीवोने अवधिज्ञानलब्धिवाळानी पेठे ( सू० ७१.) (त्रण के चार ज्ञान ) जाणवा. मनःपर्यवज्ञान साकारउपयोगवाळा जीवोने मनःपर्यवज्ञानलब्धिवाळानी पेठे (सू० ७३ ) मति, श्रुत अने मन:पर्यय ए त्रण ज्ञान, के अवधिसहित चार ज्ञान जाणवा. केवलज्ञान साकारउपयोगवाळा जीवो केवलज्ञानलब्धिवाळानी पेठे ( सू० ७५. ) एक केवलज्ञान सहित जाणवा. मतिअज्ञानसाकारोपयोगवाळा जीवोने भजनाए त्रण अज्ञान होय छे. ए प्रमाणे श्रुतअज्ञानसाकारोपयोगवाळा जीवो पण जाणवा. विभंगज्ञा| नसाकारोपयुक्त जीवोने अवश्य त्रण अज्ञान होय छे. [प्र०] हे भगवन् ! अनाकारोपयोगवाळा जीवो शुं ज्ञानी छे के अज्ञानी छे ? [[अ०] हे गौतम! तेओने पांच ज्ञान अने त्रण अज्ञान भजनाए होय छे. ए प्रमाणे चक्षुदर्शन अने अचक्षुदर्शनअनाकारोपयोगवाळा जीवो पण जाणवा. परन्तु तेओने चार ज्ञान अने त्रण अज्ञान भजनाए होय छे, [प्र० ] अवधिदर्शनअनाकारोपयोगवाळा जीवो शुं ज्ञानी छे के अज्ञानी छे ? [अ०] हे गौतम! तंओ ज्ञानी पण छे अने अज्ञानी पण छे, जेओ ज्ञानी छे तेओमा केटलाक त्रण For Private and Personal Use Only ८ शतके उद्देशः २ ।।६३४।। Page #65 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra व्याख्या प्रज्ञप्तिः ॥६३५॥ 64% 1024 www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ज्ञानवाळा अने केटलाक चार ज्ञानवाळा हे. जेओ त्रण ज्ञानवाळा हे तेओ आभिनिबोधिक, श्रुतज्ञानी अवधिज्ञानी छे; जेओ चार ज्ञानवाळा छे तेओ आभिनिबोधिकज्ञानी, यावत् मनःपर्यायज्ञानी छे. जेओ अज्ञानी छे तेओ अवश्य त्रण अज्ञानवाळा छे. ते आ प्रमाणे - मतिअज्ञानी, श्रुतअज्ञानी, अने विभंगज्ञानी. केवलदर्शन अनाकारोपयोगवाळा जीवो केवलज्ञानलब्धिवाळा पेठे (सू०७५.) | एक केवलज्ञानयुक्त जाणवा. योगी णं भंते! जीवा किं नाणी जहा सकाइया, एवं मणजोगी वड़जोगी कायजोगीवि, अजोगी जहा सिद्धा ।। सलेस्सा णं ते! जहासकाइया, कण्डलेस्सा णं भंते! जहा सइंदिया, एवं जाव पम्ह लेस्सा, सुक्कलेस्सा जहा सलेस्सा, अलेस्सा जहा सिद्धा || सकसाई णं भंते ! जहा सइंदिया, एवं जाव लोहकमाई, अकसाईणं भंते! पंच नाणाई | भयणाः ॥ सवेदगा णं भंते! जहा सइंदिया, एवं इत्थिवेदगावि, एवं पुरिसवेयगा एवं नपुंसकवे०, अवेदगा जहा अकसाई | आहारगा णं भंते ! जीवा जहा सकसाई, नवरं केवलनाणंपि, अणाहारगा णं भंते ! जीवा किं नाणी अन्नाणी ?, मणपजवनाणवजाई नाणाई अन्नाणाणि य तिन्नि भयणाए || ( मृत्रं ३२० ) ॥ [प्र० ] हे भगवन् ! सयोगी जीवो शुं ज्ञानी छे के अज्ञानी छे ? [उ०] तेओ सकायिकनी पेठे (सू० ३८.) जाणवा. ए प्रमाणे मनयोगी, वचनयोगी अने काययोगी पण जाणवा. अयोगी-योगरहित जीवो सिद्धोनी पेठे ( सू० ३०.) जाणवा. [प्र०] हे भगवन् ! लेश्यावाळा जीवो शुं ज्ञानी छे के अज्ञानी छे ? [उ०] हे गौतम! तेओ सकायिकनी पेठे ( सू० ३८. ) जाणवा. [ प्र० ] कृष्णलेश्यावाळा जीवो शुं ज्ञानी छे के अज्ञानी छे ? [उ०] तेओ सेन्द्रिय जीवोनी पेठे ( सू० ३५.) जाणवा. ए प्रमाणे यावत् For Private and Personal Use Only ८ शतके उद्देशः २ | ||६३५॥ Page #66 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir . व्याख्याप्रज्ञप्तिः ॥६३६॥ ८ शतके उद्देशः२ |॥६३६॥ NEHASHA | पद्मलेश्यावाला जीवो पण जाणवा. शुक्ललेश्यावाळा सलेश्यनी पेठे (मु० ९५.) जाणवा अने अलेश्य-लेश्याविनाना जीवो सिद्धोनी | पेठे (मू. ३०.) जाणवा. [प्र०] हे भगवन् ! सकपायी! जीवो शुं ज्ञानीछे के अज्ञानी छ ? [उ.] सेंन्द्रिय जीवोनी पेठे (सू० ३५.) जाणवा. ए प्रमाणे यावत् लोभकषायी जीयो जाणवा. [प्र०] हे भगवन् ! अकषायी जीवो शुं ज्ञानी छे के अज्ञानी छ ? [[उ०] तेओने पांच ज्ञान भजनाए होप छे. [प्र.] हे भगवन् ! वेदसहित जीवो शुं ज्ञानी छे के अज्ञानी छ ? [उ०] तेओ सइन्द्रिय जीवोनी पेठे (सू० ३५.) जाणवा. ए प्रमाणे स्त्रीवेदी,पुरुषवेदी अने नपुंसकवेदी जीवो जाणवा,तथा वेदरहित जीवो अकषायी जीवोनी | पेठे (सू०९८.) जाणवा. [प्र०] हे भगवन् ! आहारक जीवो शुं ज्ञानी के अज्ञानी छ ? [उ०] तेओ सकषायी जीवोनी पेठे (सू०९७) जाणवा. परन्तु विशेष ए ले के तेओने केवलज्ञान (अधिक) होय छे. [म०] हे भगवन् ! अनाहारक जीवो शुं ज्ञानी छे के अज्ञानी छ ? [उ०] हे गौतम! तेओने मनःपर्यवज्ञान सिवायना चार ज्ञान अने त्रण अज्ञान भजनाण होय छे. ।। ३२० ॥ आभिणियोहियनाणस्स णं भंते ! केवतिए विसए पन्नत्ते ?, गोयमा! से समासओ चउविहे पन्नत्ते, तंजहा-दव्वओ खेत्तओ कालओ भावओ, दबओ णं आभिणियोहियनाणी आएसेणं सव्वदव्वाइं जाणइ पासइ, खेत्तओ आभिणिबोहियणाणी आपसेणं सब्बखेत्तं जाणइ पासइ, एवं कालओवि, एवं भावओवि । सुयनाण. स्म णं भंते ! केवतिए विसर पण्णत्ते ?, गोयमा ! से समासओ चउब्बिहे पण्णत्ते, तंजहा-दव्वओ ४, दवओ णं सुयनाणी उपउत्ते सव्वदव्वाइं जाणति पासति, एवं खेत्तओवि कालओवि, भावओ णं सुयनाणी उवउत्ते सव्वभावे जाणाति पासति । ओहिनाणस्स णं भंते ! केवतिए विसए पन्नत्ते ?, गोयमा ! से समासओ चउ CREATENERGEAR +% यर For Private and Personal Use Only Page #67 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra व्याख्या प्रज्ञप्तिः ॥६३७।। www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir विहे पण्णत्ते, तंजहा- दग्बओ, दवओ णं ओहिनाणी रूविदव्वाइं जाणड़ पासह जहा नंदीए जाव भावओ । मणपज्जवनाणस्स णं भंते ! केवतिए विसए पण्णत्ते ?, गोयमा ! से समासओ चउब्बिहे पण्णत्ते, संजहा- दव्व४, दव्वओ णं उज्जुमती अनंते अणतपदेसिए जहा नंदीए जाव भावओ । केवलनाणस्स णं भंते! केवतिए विस पण्णत्ते ?, गोमा ! से समासओ चंडव्विहे पन्नत्ते, तंजहा-दच्वओ खेत्तओ कालओ भात्रओ, दव्बओ णं केवलनाणी मव्वदन्वाई जाणइ पासह, एवं जाव भावओ ॥ मइअन्नाणस्स पणं भंते! केवतिए विसए पन्नते?, गोमासे चउम्बिहे पन्नत्ते, तंजहा- दव्वओ खेनओ कालओ भावओ, दव्बओ णं मन्नाणी मह अन्नाणपरिगयाई दबाई जाणइ, जाव भावओ महअन्नाणी मइ अन्नाणपरिगए भावे जाणड़ पासइ । [प्र०] हे भगवन्! आभिनिबोधिक ज्ञाननो विषय केटलो कयो छे ? [उ०] हे गौतम! आभिनिबोधिक ज्ञाननो विषय संक्षे पथी चार प्रकारनो को ले, ते आ प्रमाणे द्रव्यथी, क्षेत्रथी, कालथी अने भावथी. द्रव्यथी आभिनिबोधिकज्ञानी आदेशवडे (सामान्यरूपे) सर्व द्रव्योने जाणे अने जुए, क्षेत्रथी आभिनि बोधिकज्ञानी आदेशघडे सर्व क्षेत्रने जाणे अने जुए ए प्रमाणे कालथी अने भावी पण जाणं. [प्र० ] हे भगवन् ! श्रुतज्ञाननो विषय केटलो को छे ? [अ०] हे गौतम ! ते संक्षेपथी चार प्रकारनो को छे. ते आ प्रमाणे द्रव्यथी, क्षेत्रथी, कालथी अने भावथी. द्रव्यथी उपयुक्त ( उपयोग सहित ) श्रुतज्ञानी सर्व द्रन्योने जाणे अने जुए हे. ए प्रमाणे क्षेत्रथी अने कालथी पण जाणवु, भावथी उपयुक्त श्रुतज्ञानी सर्व भावोने जाणे हे अने जुए छे. [प्र० ] हे भगवन् ! अवधिज्ञाननो विषय केटलो को छे ? [30] हे गौतम! संक्षेपथी चार प्रकारनो को छे, ते आ. प्रमाणे- द्रव्यथी, For Private and Personal Use Only ८ शतके उद्देशः २ २६३७॥ Page #68 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ८ शतके व्याख्याप्रज्ञतिः ॥६३८॥ क्षेत्रथी, कालथी अने भावथी द्रव्यथी अवधिज्ञानी रूपि द्रव्योने जाणे छे अने देखे छे-इत्यादि जेम नंदीमत्रमा कयु छ तेम यावत् भाव सुची जाणवू. [प्र.] हे भगवन् ! मनःपर्यवज्ञाननो विषय केटलो को छे' [उ.] हे गौतम! संक्षेपथी चार प्रकारनो कह्यो छे, ते आ प्रमाणे-द्रव्यथी, क्षेत्रथी कालथी अने भावथी. द्रव्यथी ऋजुमतिमनःपर्यवज्ञानी (मनपणे परिणत) अनंतप्रदेशिक अनन्त उद्देशः २ | स्कंधोने जाणे अने देखे-इत्यादि जेम नंदीसूत्रमा कयुं छे तेम अहीं जाणवू, यावत् भावथी जाणे . [प्र०] हे भगवन् ! केवलज्ञा- ॥६३८॥ नो विषय केटलो को छ ? [उ०] हे गौतम! ते संक्षेपथी चार प्रकारनो कह्यो छे, ते आ प्रमाणे-द्रव्यथी, क्षेत्रथी, कालथी अने भावथी. द्रव्यथी केवलज्ञानी सर्व द्रव्योने जागे के अने जुए छे, ए प्रमाणे यावत् भावथी (केवलज्ञानी सर्व भावोने जाणे के अने & जुए छे.) [प्र.] हे भगवन् ! मतिअज्ञाननो विषय केटलो कसो छ ? [उ०] हे गौतम ! ते चार प्रकारनो कयो छे, ते आ प्रमाणे द्रव्यथी, क्षेत्री, कालथी अने भ.वथी. द्रव्यथी मतिअज्ञानी मतिअज्ञानना विषयने प्राप्त द्रव्योने जाणे छे अने जुए के ए प्रमाणे । यावत् भावथी मतिअज्ञानी मतिअज्ञानना विषयभूत भावोने जाणे छे अने जुए छे... सुयअन्नाणस्स णं भंते! केवतिए विसए पण्णत्ते?.गोयमा! से समासओ चउम्बिहे पण्णत्ते, तंजहा-दव्यओ २४, दवओ णं सुयअन्नाणी सुयअन्नाणरिगयाइं दवाइं आघवेति पन्नवेति परूवेह, एवं खेत्तओ कालओ, भा बओणं सुयअन्नाणी सुयअन्नाणपरिगए भावे आघवेति तं चेव । विभंगणाणस्स ण भंते ! केवतिए विसए पण्णत्ते,गोयमा से समासओ चउबिहे पण्णत्ते,तंजहा-दव्वओ४,दब्बओ णं विभंगनाणी विभंगनाणपरिगयाई दवाई जाणइ पासइ.एवं जाच भावओ णं विभंगनाणी विभंगनाणपरिगए भावे जाणइ पासइ (सूत्रं ३२१॥il For Private and Personal Use Only Page #69 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir . . ८ शतके उद्देशः ॥६३९॥ [प्र.] हे भगवन् ! श्रुतअज्ञाननो विषय केटलो कयो ? [उ०] हे गौतम ! ते संक्षेपथी चार प्रकारनो कह्यो छे, ते आ व्याख्या-1 पमाणे-द्रव्यथी, क्षेत्रथी, कालथी अने भावथी. द्रव्ययी श्रुतप्रज्ञानी श्रुतअज्ञानना विषयभूत द्रव्योने कहे थे, जणावे छे अने प्ररूपे प्रज्ञप्तिः के ए प्रमाणे क्षेत्रयी अने कालथी जाणवू. भावथी श्रुतअज्ञानी श्रुतअज्ञानना विषयभूत भावोने कई छे, जणावे के अने प्ररूपे छे. ॥६३९॥ म.] हे भगवन् ! विभंगज्ञाननो विषय केटलो कयो के ? [उ०] हे गौतम! ते संक्षेपथी चार प्रकारनो कयो छे, ते आ प्रमाणेद्रव्यथी, क्षेत्रथी, कालथी अने भावथी; द्रव्यथी विभंगज्ञानी विमंगज्ञानना विषयभूत द्रव्योने जाणे छे अने जुए छे, प.प्रमाणे यावत् भावथी विभंगज्ञानी विभंगज्ञानना विषयभूत भावोने जाणे के अने जुए थे.॥३२१ ॥ णाणी णं भंते ! णा गीति कालओ केवच्चिरं होइ ?, गोयमा! नाणी दुविहे पन्नत्ते, तंजाहा-साइए वा अपज्जवसिए साइए वा सपजवसिए, तत्थ णं जे से साइए मपज्जवसिए से जहन्नेणं अंतोमुहत्तं उनोसेणं छावहि मागरोवमाइं सानिरेगाई । आभिणिबोहियणाणी णं भंते ! आभिणियोहिय० एवं नाणी आभिणियो हियनाणी जाव केवलनाणी । अन्नागी मइअन्नागी सुयअन्नागी विभंगनागी, एएसिं दमण्हवि संचिट्ठणा जहा | कायट्टिईए ॥ अंतरं सव्वं जहा जीवाभिगमे ।। अप्पायहुगाणि तिन्नि जहा बहुवत्तन्वयाए ॥ केवतिया णं भंते ! आभिणियोहियणागपजवा पगत्ता ?, गोयमा! अणंता आभिणियोहियणागपज्जवा पगत्ता, केवतिया णं भंते ! सुयनाणपज्जवा पण्णत्ता, एवं चेव, एवं जाव केवलनागस्न । एवं मइअन्नाणस्म सुयअन्नाणस्स, केव#तिया णं भंते! विभंगनागपजवा पण् गत्ता, गोयमा ! अणंता विभंगनाणपज्जवा पण्णत्ता। For Private and Personal Use Only Page #70 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir भ्याख्याप्रज्ञतिः ॥६४०॥ ८ शतके उद्देशः २ 4%+14. [प्र०] हे भगवन् ! ज्ञानी ज्ञानीपणे कालथी क्यांमुधी रहे ? [उ०] हे गौतम ! ज्ञानी वे प्रकारना कया छे, ते आ प्रमाणेसादि सपर्यवसित अने सादिअपयवसित. तेमा जे ज्ञानी सादिपर्यवसित छे ते जघन्यथी अन्तर्मुहूर्त सुधी अने उत्कृष्ट यी काइक अधिक छासठ सागरोपम मुधी ज्ञ नीपणे रहे . [प्र०] हे भगवन् ! आभिनिवोधि कज्ञानी, आभिनिवोधिकज्ञानीपणे कालथी कंठला काल सुधी रहे ? [उ.] ए प्रमाणे ज्ञानी आभिनिबोधिक ज्ञानी, यावत् केवलज्ञानी, अज्ञानी, मतिअज्ञानी. श्रुतअज्ञानी अने विभंगज्ञानी| ए दशनो ज्ञानीपणे स्थितिकाल प्रज्ञापनासूत्रना अढारमा कायस्थितेिपदमां कह्या प्रमाणे जाणवो; अने जीवाभिगमसूत्रमा कथा प्रमाणे |ए दशर्नु परस्पर अन्तर जाणवू तेमज प्रज्ञापनामूत्रना बहुवक्तव्यता पदमां कद्या प्रमाणे त्रणे ज्ञानी, अज्ञानी अने उभयना अल्पबहुत्वो जाणवा. [प्र०] हे भगवन् ! आभिनिबोधिकज्ञानना केटला पर्यायो कह्या छे ? [उ०] हे गौतम ! आभिनिबोधिकज्ञानना अनन्त पर्यायो कद्या हे. [प्र०] हे भगवन् ! श्रुतज्ञानना केटला पर्यायो कह्या छ ? [उ०] हे गौतम ! पूर्व प्रमाणे (अनन्त पर्यायो) जाणवा. ए प्रमाणे यावन केवलज्ञानना पर्यायो जाणवा, तेम मति अज्ञान अने श्रुतअज्ञानना पण पर्यायो जाणवा. [H०] हे भगवन् ! विभं| गज्ञानना केटला पर्यायो कह्या छ ? [उ.] हे गौन! विभंगज्ञानना अनन्त पर्यायो कह्या के. एएसि णं भंते !आभिणिवोहियनाणपजवाणं सुयनाण. ओहिनाणमणपज्जवनाण केवलनाणपजवाण य कयरे २ जाव विसेसाहियावा,गोयमा! मम्वत्थोवा मणपजवनाणपज्जवा ओहिनाणपज्जवा अणतगुणा सुयनाणपजवा अणंतगुणा आभिणियोहियनाणपज वा अणंतगुण केवलनाणपजवा अणंतमुणा । एएसिण भंते ! महअ. नाणपज्जवाणं सुयअन्नागविभंगनागपजवाग य कयरे २ जाव विसेसाहिया वा?,गोयमा ! सब्बथोवा विभंग 4kiE For Private and Personal Use Only Page #71 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir व्याख्याप्रज्ञप्तिः ॥१४॥ उद्देशः२ ॥६४१॥ DINE नाणपज्जवा सुयअन्नाणपज्जवा अणंतगुणा महअन्नाणपज्जवा अणतगुणा | एएसिणं भते! आभिणिबोहियणाणपजवाणं जाव केवलनाणप. महअन्नाणप० सुयअन्नाणप.विभंगनाणप० कयरे २जाव विसेसाहिया वा!, गोयमा! सव्वत्थोवा मणपज्जवनाणपज्जवा विभंगनाणपज्जवा अणंतगुणा ओहिणाणपजवा अणंतगुणा सुयअन्नाणपजवा अणंतगुणा मुयनाणपजवा विसेसाहिया महअन्नाणपज्जवा अणंतगुणा आभिणियोहियनाणपजवा विसेसाहिया केवलणाणपज्जवा अणंतगुणा। सेवं भंते! सेवं भंते ! त्ति ॥ (सूत्र ३२२)॥ अट्ठमस्स सयस्स बितिओ उद्देसो ॥८-२॥ [प्र०] हे भगवन् । ए (पूर्व कहेला ) आमिनिबोधिकज्ञाम, श्रुतज्ञान, अवधिज्ञान, मन:पर्यवज्ञान अने केवलज्ञानना पर्यायोमा | कोना पर्यायो कोनाथी यावद् विशेषाधिक छे ? [उ०] हे गौतम ! मनःपर्यवज्ञानना पर्यायो सौथी थोडा छे, तेथी अवधिज्ञानना पर्यायो अनंतगुण छ, तेथी श्रुतज्ञानना पर्यायो अनन्त छे तेथी अनंतगुण आभिनिवोधिकज्ञानना पर्यायो छे, अने तेथी अनंतगुण केवलज्ञानना पर्यायो छे. [प्र०] हे भगवन् ! ए मतिअज्ञान श्रुतअंझान अने विभंगज्ञानना पर्यायोमा कोना पर्यायो कोना पर्यायोथी यावद् विशेषाधिक छ ? [उ.] हे गौतम! सर्वथी थोडा विभंगज्ञानना पर्यायो छे, तेथी अनंतगुण श्रुतअज्ञानना पर्यायो छे, अने | तेथी अनंतगुण मतिअज्ञानना पर्यायो छ. [म.] हे भगवन् ! ए आभिनिबोधिकज्ञानना यावत् केवलज्ञानना तथा मतिअज्ञान, श्रुतअज्ञान, अने विभंगज्ञानना पर्यायोमा कोना पर्यायो कोना पर्यायोथी यावत् विशेषाधिक छे ? [उ०] हे गौतम ! सौथीथोडा मन:पर्यायज्ञानना पर्यायो छे, तेथी अनंतगुण विभंगज्ञानना पर्यायो छे, तेथी अनंतगुण अवधिज्ञानना पर्यायो छे. तेथी अनंतगुण श्रुत S - For Private and Personal Use Only Page #72 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir व्याख्याप्रज्ञप्तिः ॥६४२॥ अज्ञानना पर्यायो हे, तेना करतां श्रुतज्ञानना पर्यायो विशेषाधिक छे, तेथी मतिअज्ञानना पर्यायो अनंतगुण छे, तेथी मतिज्ञानना पर्यायो विशेषाधिक छे अने तेना करता केवलज्ञानना पर्यायो अनंतगुण . हे भगवन् ! ते ए प्रमाणे छे, हे भगवन् ! ते ए प्रमाणे I४८ शतके छे. एम कही भगवान् गौतम! यावत् विहरे छे. ॥३२२॥ * उद्देशः ३ भगवत् सुधर्मस्वामीप्रणीत श्रीमद् भगवतीमत्रना आठमा शतकमां बीजा उद्देशानो मूलार्थ संपूर्ण थयो. ॥६४२॥ HHHHHHHATE उद्देशक ३. कइविहा णं भंते ! रुक्खा पन्नत्ता ?, गोयमा ! तिविहा रुक्खा पण्णत्ता, तंजहा-संखेजजीविया असंखेजजीविया अणंतजीविया । से किं तं संखेजजीविया ?, संखे० अणेगविहा पण्णत्ता, तंजहा-ताले तमाले तकलि तेतलि जहा पन्नवणाए जाव नालिएरी, जे यावन्ने तहप्पगारा, सेत्तं संखेजजीविया । से किंतं असंखेजजीविया?, असंखेजजीविया दुविहा पण्णत्ता, तंजहा-एगट्ठिया य बहुबीयगा य, से किं तं एगट्टिया ?, २ अणेगविहा पण्णत्ता, तंजहा-निबंबजंबु० एवं जहा पन्नवणापए जाव फला बहुवीयगा, सेत्तं बहुबीयगा, सेत्तं असंखेज्जजीविया। से किं तं अणंतजीविया ?, अणंतजीविया अणेगविहा पण्णत्ता, तंजहा-आलुए मूलए सिंगबेरे, एवं | जहा सत्तमसए जाव सीउण्हे सिंउंढी मुसुंढी, जे यावन्ने त०, सेत्तं अणंतजीविया ।। (सूत्रं ३२३)॥ प्र०] हे भगवन् ! वृक्षो केटला प्रकारना कह्या छ ? [उ०] हे गौतम ! वृक्षो त्रण प्रकारना कह्या छे; ते आ प्रमाणे-संख्यात For Private and Personal use only Page #73 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatrth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandie व्याख्या प्रज्ञप्तिः ॥४३॥ ८ शतके उद्देशः३ हा॥६४३॥ HALKENDRI | जीववाळा, असंख्यातजीववाळा अने अनंतजीववाळा. [प्र०] हे भगवन् ! संख्यातजीववाला वृक्षो केटला प्रकारे छे ? [उ०] हे गौतम ! संख्यातजीववाळा वृक्षो अनेक प्रकारना कह्या छे, ते आ प्रमाणे-ताड, तमाल, तक्कलि, तेतलि-इत्यादि 'प्रज्ञापना' सूत्रमा कद्या प्रमाणे यावत् नालियेरी पर्यन्त जाणवा. ए सिवाय तेवा प्रकारना वीजा वृक्षो पण संख्यातजीवबाळा जाणवा. ए प्रमाणे संख्यातजीवी वृक्षो कया. [प्र०] हे भगवन् ! असंख्यातजीववाळा वृक्षो केटला प्रकारना छे? [उ०] हे गौतम! असंख्यातजीवबाळा वृक्षो वे प्रकारना कह्या हे ते आ प्रमाणे-एकबीजवाळा अने बहुषीजवाळा. [प्र०] हे भगवन् ! एकबीजवाला वृक्षो केटला प्रकारे छे ? [उ०] हे गौतम! एकबीजवाला वृक्षो अनेक प्रकारना कह्या छे; ते आ प्रमाणे-'निंब, आम्र, जांबू'-इत्यादि प्रज्ञापनासूत्रना 'प्रज्ञापना' नामे प्रथमपदमां कह्या प्रमाणे यावत् बहुबीजवाळा फलो सुधी जाणवां, ए प्रमाणे असंख्यातजीवी वृक्षो कद्या. [प्र०] हे भगवन् ! अनंतजीववाळा वृक्षो केटला प्रकारे छे? [उ.] हे गौतम ! अनन्तजीवबाळा वृक्षो अनेक प्रकारना कह्या छे, ते आ प्रमाणे-'आलु (बटाटा ) शृंगबेर ( आदु) इत्यादि सप्तम शतकमां कह्या प्रमाणे यावत् सिउंढी मुसुंढी मुधी जाणवा. जे वीजा पण तेवा प्रकारना वृक्षो छे तेओ पण (अनन्तजीववाळा) जाणवा. ए प्रमाणे अनन्तजीवबाला वृक्षो कह्या. ॥ ३२३ ॥ । अह भंते ! कुम्मे कुम्मावलिया गोहे गोहावलिया गोणे गोणावलिया मणुस्से मणुस्सावलियामहिसे महिसाबलिया एएसि णं दुहा वा तिहावा संखेजहावि छिन्नाणं जे अंतरा तेविणं तेहिं जीवपएसेहिं फुडा, हंता फुडा। पुरिसे णं भंते ! (जं अंतरं) ते अंतरे हत्थेण वा पादेण वा अंगुलियाए वा सलागाए वा कडेण वा कलिंचेग वा आमुसमाणे वा संमुसमाणे वा आलिहमाणे वा विलिहमाणे वा अन्नयरेण वा तिक्खेणं सत्थजाएणं आच्छिद For Private and Personal Use Only Page #74 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir व्याख्याप्रज्ञप्तिः ॥६४४॥ ८ शतके उद्देशः३ ॥६४४॥ सनमा माणे चा विच्छिदमाणे वा अगणिकाएणं वा समोडहमाणे तेसिं जीवपएसाणं किंचि आवाहं वा विवाहं वा उप्पा यइ छविच्छेदं वा करेइ ?, णो तिणढे समढे, नो खलु तत्थ सत्थं संकमइ ॥ (सूत्रं ३२४)॥ 4 [प्र०] हे भगवन् ! काचबो, काचबानी श्रेणि, गोधा (घो) गोधानी श्रेणी, गाय गायनी श्रेणि, मनुष्य, मनुष्यनी श्रेणि, | महिष ( पाडो) महिपनी श्रेणि ए बधाना चे, त्रण के संख्याता खंड कर्या होय तो तेओनी बच्चेनो भाग शु जीवप्रदेशथी स्पृष्टस्पर्शायेलो होय ? [उ०] हे गौतम ! हा, स्पृष्ट होय. [प्र०] हे भगवन् ! कोइ पुरुष (ते काचबादिना खंडोना) अन्तराल-बच्चेना भागने हाथथी, पगथी, आंगळीथी, सळीथी, काष्ठथी अने नाना लाकडाथी स्पर्श करतो, विशेष स्पर्श करतो, थोई विशेष आकर्षण करतो, अथवा कोइपण तीक्ष्ण शखना समूहथी छेदतो, अधिक छेदतो, अग्नि वढे चाळतो, ते जीवप्रदेशोने थोडी के अधिक पीडा उत्पन्न करे, या तेना कोइ अवयवोनो छेद करे ? [उ०] हे गौतम! ए अर्थ यथार्थ नथी, केमके जीव प्रदेशोने शस्त्र असर करतुं नथी. ॥ ३२४ ॥ कति णं भंते ! पुढवीओ पण्णत्ताओ?, गोयमा ! अट्ट पुढवीओ पन्नत्ताओ, तंजहा भयणप्पभा जाव अहे सत्तमा पुढवी ईसिपन्भारा । इमा णं भंते ! रयणप्पभापुढवी किं चरिमा अचरिमा?, चरिमपंद निरवसेसं भाणियव्वं जाव वेमाणिया णं भंते! फासचरिमेणं किं चरिमा अचरिमा?, गोयमा! चरिमावि अचरिमावि । सेवं भंते !२ भग० गो० ॥ (सूत्रं ३२५)॥८-३॥ प्र०] हे भगवन् ! पृथ्वीओ केटली कही छे ? [उ०] हे गौतम ! आठ पृथिवीओ कही छे, ते आ प्रमाणे-रत्नप्रभा, यावत् । APE For Private and Personal use only Page #75 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra व्याख्या प्रज्ञप्तिः ॥ ३४५॥ www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir अधः सप्तम पृथिवी अने ईषत्प्राग्भारा ( सिद्धशिला) [प्र०] हे भगवन् ! आ स्त्रप्रभा पृथिवी शुं चरम - प्रान्तत्रर्ती के अचरममध्यवर्ती छे ? इत्यादि. [30] अहीं (प्रज्ञापना: सूत्रनुं ) 'चरम ' पद सधळं कहेतुं यावत् [प्र० ] हे भगवन् !"वैमानिको स्पर्श चरमवडे शुं चरम छे के अंचरम छे ? [उ० ] हे गौतम! तेओ चरम पण के अने अचरम पण छे. हे भगवन् ! तेः एमन छे, हे भगवन्! ते एमजछे. एम कही भगवान् गौतम यावत् विचरे छे. ।। ३२५ ।। भगवत् सुधर्मस्वामीप्रणीत श्रीमद् भगवतीसूत्रना आठमा शतकमां श्रीजा उद्देशानो मूलार्थ संपूर्ण थयो: उद्देशक ४. रायगिहे जाव एवं क्यासी-कति णं भंते । किरियाओ पन्नत्ताओ ?, गोयमा ! पंच किरियाओं पन्नत्ताओं, तंजा - काइया अहिगरणिया, एवं किरियापदं निरवसेसं भाणियव्वं जाव मायावत्तियाओं किरियाओ विसेसाहियाओ, सेवं भंते ! सेवं भंतेत्ति भगवं गोयमे० ॥ ( सूत्रं ३२६ ) ।। ८-४ ।। [प्र० ] राजगृह नगरमां यावत् (गौतम) ए प्रमाणे बोल्या के हे भगवन् ! केटली क्रियाओ कहीं छे ? [उ०] हे गौतम! पांच क्रियाओ कही छे, ते आ प्रमाणे-कायिकी, अधिकरणिकी-ए प्रमाणे अहीं (प्रज्ञापना सूत्रनुं बावीस) सघळु क्रियापद यांवत् ' मायाप्रत्ययिक क्रियाओ विशेषाधिक छे' त्यांसुधी कहेनुं, हे भगवन ते एमज हे, हे भगवन् ! ते एमज छे (एम कही भगवान्: गौतम यावद् विहरे छे.) ॥ ३२६ ॥ भगवत् सुधर्मस्वामीप्रणीत श्रीमद् भगवतीसूत्रना आठमा शतकमा चोथा उद्देशानों मूलार्थ संपूर्ण थयो. For Private and Personal Use Only .८ शतके उद्देशः ४ ५६४५॥ Page #76 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ८ शतके उद्देशः५ ॥६४६॥ उद्देशक ५. व्याख्या रापगिहे जाव एवं बयासी-आजीविया णं भंते ! थेरे भगवंते एवं बयासी-समणोवासगस्स णं भंते ? साप्रज्ञप्तिः माइयकडस्स समणोवस्सए अच्छमाणस्स केइ भंडे अवहरेज्जा, से णं भंते ! तं भंडं अणुगवेसमाणे किं सयं भंड ॥६४६॥ है अणुगवेसइ परायगं भंडं अणुगवेसइ ?, गोयमा! सयं भंडं अणुगवेसति, नो परायगं भंडं अणुगवेसइ, तस्स णं भेते ! तेहिं सीलव्वयगुणवेरमणपञ्चक्खाणपोसहोववासेहिं से भंडे अभंड भवति ?, हंता भवति ॥ से केणं खाइ णं अटेणं भंते ! एवं वुच्चइ सयं भंडं अणुगवेसइ, नो पगयगं भंडं अणुगवेसइ ? गोयमा! तस्स णं एवं भवति6 णो मे हिरन्ने नो मे सुवन्ने नो मे कंसे नो मे दूसे नो मे विउलधणकणगरयणमणिमोत्तियसंखसिलप्पवालरत्तरय णमादीए संतसारसावदेज, ममत्तभावे पुण से अपरिणाए भवति, से तेण?णं गोयमा! एवं बुचइ-सयं भंडं| अणुगवेसइ, नो परायगं भंडं अणुगवेसइ॥ समणोवासग्गस्स णं भंते ! सामाइयकडस्स समणोवस्सर अच्छमा. | णस्स केति जायं चरेजा, से णं भंते ! किं जायं चरइ अजायं चरइ ?, गोयमा ! जायं चरइ, नो अज.यं चरइ, तस्स शाणं भंते ! तेहिं सीलन्वयगुणवेरमणपञ्चक्खाणपोसहोववासेहिं सा जाया अजाया भवइ ?, हंता भवइ, से केणं खाइ णं अटेणं भंते ! एवं वुच्चइ-जायं चरइ, नो अजायं चरइ ?, गोयमा ! तस्स णं एवं भवइ-णो मे माता णो| मे पिता णो मे भाया णो मे भगिणी णो मे भजा णो मे पुत्ता णो मे धूया नो मे सुण्हा, पेजबंधणे पुण से अवोच्छिन्ने भवइ, से तेणटेणं गोयमा ! जाव नो अजायं चरइ ।। (सूत्रं ३२७)॥ NARENERGAGAGA AAAAACARDASPEECH For Private and Personal Use Only Page #77 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatrth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ८ शतके उद्देशः५ ॥६४७॥ | [] राजगृह नगरमां यावत् गौतमे एं प्रमाणे कधुकेहे भगवन् ! आजीविकोए (गोशालकना शिष्योए) स्थविर भगवन्तोने से ध्याख्या- | आ प्रमाणे का हतुं-हे भगवन् ! जेणे सामायिक कयु छे एवा श्रमणना उपाश्रयमां बेठेला श्रमणोपासकना भांड-वस्त्रादि वस्तुनुं अज्ञप्ति कोइ अपहरण करे, तो हे भगवन् ! (सामायिक समाप्त थया पछी) ते वस्तुनुं अन्वेषण करतो ते श्रावक शुं पोताना भांडने शोधे १३४७ IC छे के पारका भांडने शोचे ? [उ०] हे गौतम ! ते श्रावक पोताना भांडने शोधे छे, पण पारका भांडने शोधतो नथी. [प्र०] हे | भगवन् ! ते शीलवत, गुणव्रत, विरमवत, प्रत्याख्यान अने पौषधोपचासवडे ते श्रावकनुं (अपहत) भांड ते अभांड थाय ? [उ.] हे गौतम ! हा, अभांड थाय. [प्र०] हे भगवन् ! (जो अभांड थाय तो) एम शा हेतुथी कहो छो के (ते श्रमणोपासक) पोताना मांडने शोधे छे, पण पारका भांडने शोधतो नथी ? [उ०] हे गौतम ! ( सामायिक करनार ) ते श्रावकना मनमा एवो परिणाम होय छे. के-'मारे हिरण्य नथी, मारे मुवर्ण नथी, मारे कांसुं नथी, मारे वस्त्र नथी, अने मारे विपुल, धन, कनक, रन, मणि, मोती, शंख, | परवाला, रक्त रत्नो-इत्यादि विद्यमान सारभूत द्रव्य मथी, परन्तु तेणे ममत्व भावनुं प्रत्याख्यान कर्यु नथी, ते हेतुथी हे गौतम! एम कहेवाय छे के ते पोताना भांडने गवेषे छे, पण पारका भांडने गवेषतो नथी. [म.] हे भगवन् ! जैणे सामायिक कयु के एवा, श्रमणना उपाश्रयमा रहेला श्रमणोपासकनी सीने कोइ पुरुष सेवे तो शुं ते तेनी स्त्री सेवे छे के अस्त्रीने-अन्यनी स्त्रीने सेवे? [[उ०] हे गौतम ! ते पुरुष तेनी स्त्रीने सेवे छे पण अन्यनी स्त्रीने सेवतो नथी. [प्र०] हे भगवन् ! ते शीलवत, गुणवत, विरमणव्रत, प्रत्याख्यान अने पौषधोपवासवडे (ते श्रावकनी) स्त्री अस्त्री (अन्यत्री) थाय? [उ०] हा, थाय. [म.] हे भगवन् ! तो एम शा हेतुथी कहो छो के तेनी स्त्रीने सेवे छे पण अस्त्री (अन्यखी) मे सेवतो नथी? [उ०] हे गौतम ! (शीलवतादि वडे) SHASHREE For Private and Personal Use Only Page #78 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ध्याख्याप्रज्ञप्तिः ॥६४८॥ ८शतके उद्देशः५ SESASARASURESTHA ते श्राक्कना मनमा एवं होय छे के-'मारे माता नथी, पिता नथी, भाई नथी, बहेन नथी, स्त्री नथी, पुत्रो नथी, पुत्री नथी, अने स्नुपा (पुत्रवधू) मथी, परन्तु लेने प्रेमबन्धन त्रुट्युं नथी, ते हेतुथी हे मौतम! ते पुरुष तेनी स्त्रीमे सेवे छे, पण अन्य स्त्रीने | सेवतो नथी. ॥ ३२७ ॥ समणोचासगस्स पं भंते ! पुवामेव धूलए पाणाइवाए अपञ्चक्रवाए भवइ, से णं भैते पच्छा पचाइक्क माणे किं करेति?, गोयमा तीयं पडिक्कमइ पडुप्पनं संवरेड अणागयं पञ्चक्खाति। तीयं पडिक्कममाणे किं तिविहं |तिविहेणं पडिक्कमति१तिविहं दुविहेणं पडिक्कमति २तिविहं एगविहेणं पडिक्कमति ३ दुविहं तिविहेणं पडिहै कमति ४ दुबिहं दुविहेणं पडिकमति ५ दुविहं एगविहेणं पडिक्कमति ६ एगविहं तिविहेणं पडिक्कमति ७. एकविहं दुविहेणं पडिक्कमति ८ एक्कविहं एकाविहेणं पडिक्कमति ९, गोयमा ! तिविहं तिविहेणं पडिकमति तिचिह दुविहेण वा पडिक्कमति तं व जाव एक्कविहं वा एकविहेण परिक्कमति, तिविहं वा तिविहेणं पडिक्कममाणे न करेति न कारवेति करेंत णाणुजाणइ मणसा वयसा कायसा १, तिविहं दुविहेणं पडिन क.न का करें नाणुजाणइ मणसा वयसा २, अहवा न करेइन का० करते नाणुजा मणसा कायसा ३, अह न करेइ ३ वपसी कायसा ४, तिविहं एगविहेणं फडिन करेति ३ मणसा ५, अहवा न करेइ ३ वयसा ६, अहवा न करेइ३ कायसा ७, दुविंह ति.प.म करेइन का० मणसा वयसा कायसा८, अहवान करेइ करेंतं नाणुजाणइ मण. वय० काय.९.अहवा न कारवेइ करतं नाणुजा मणसा बयसा कायसा १०, दु. दु. ५०नक न का.म. %ATURISTIAABAR For Private and Personal Use Only Page #79 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra व्याख्याप्रज्ञप्तिः ॥३४९॥ www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir व० ११, अहवा न क० न का० म० कार्यसा १२, अहवा न क० न का० वयसा कार्यसा १३, अहवा न करेइ करते नाणुजाणइ मणसा वयसा १४, अहवा न करे० करेतं नाणुजाण मणसा कायसा १५, अहवा न करेति करेंतं नाणुजाणति वयसा कायसा १६, अहवा न कारवेति करेंतं नाणुजाणति मणसा वयसा १७, अहवा न कारवेड़ करेंत नाणुजाण मणसा कायसा १८, अहवा न कारबेति करेंनं नाणुजाण वयसा कायसा १९, दुविहं एक्कविणं पडिकममाणे न करेति न कारवेति मणसा २०, अहवा न करेति न कारवेति वयंसा २१, अहवा न करेति न कारवेति कार्यसा २२ अहवा न करेति करेंतं ना गुजाणइ मणसा २३, अहवा म करेइ करेतं नाणुजाणइ वयमा २४, अहवा न करेइ करेंतं नाणुजाणए कायसा २५, अह्ह्वा न कारवेइ करेंतं नाणुजाणइ मणसा २६. अहवा न कारवेइ करेंतं नाणुजाण वयसा २७ अहवा न कारवेश करेंतं नाणुजाणइ कांयसा २८, एगविहं तिविहेणं पडि० न करेति मणसा वयसा कायसा २९, अहवा न कारवेह मण० वय० कार्यसा ३०, अहवा करेंते नाणुजा० मणसा ३।३१, एक विहं दुबिहेणं पडिक्कममाणे न करेति मणसा वयसा ३२, अहवा न करेति मणमा कायसा ३३, अहवा न करेड़ वयसा कायसा ३४, अहवा न कारवेति मणसा वयसा ३५ अहवा न कारवेति मणसा कायसा ३६, अहवा न कारवेइ वयसा कायसा ३७, अहवा करेंतं नाणुजा० मणसा वयमा ३८, अहवा करेंतं नाणुजा० मणसा कायमा ३९, अहया करें नाणुजाणड़ वयसा कायसा ४०, एकविहं एगविहे पडिकममाणे न करेति मणमा ४१ अहवा न करेति वयसा ४२, अहवा न करेति कायमा ४३, अहवा न कारवेति For Private and Personal Use Only ८ शतके उद्देशः ५ ॥६४९॥ Page #80 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir N ध्याख्याप्रज्ञप्तिः ॥६५०॥ ८ शतके उद्देशः५ ५ ANKAR मणसा ४४, अहवा न कारवेति वयसा ४५, अहवा न कारवेई कायसा ४६, अहवा करेंत नाणुजाणइ मणसा४७ | अहवा करेंतं नाणुजा. वयसा ४८ अहवा करेंतं नाणुजाणइ कायसा ४९ । [प्र०] हे भगवन् ! जे श्रमणोपासकने पूर्वे स्थूल प्राणातिपातनं प्रत्याख्यान होतुं नथी, ते पछीथी तेनुं प्रत्याख्यान करतो झुं करे ? [उ०] हे गौतम ! अतीत काले करेल प्राणातिपातने प्रतिक्रमे-निन्दे, प्रत्युत्पन्न (वर्तमान ) प्राणातिपातनो संवर-रोध करे, P अने अनागत (भविष्य) प्राणातिपातनुं प्रत्याख्यान करे. [प्र.] हे भगवन् ! अतीत कालना प्राणातिपातने प्रतिक्रमतो ते श्रम णोपासक शुं१त्रिविधे त्रिविधे प्रतिक्रमे, २ त्रिविध द्विविध ३ त्रिविध एकविधे, ४ द्विविध त्रिविवे, ५द्विविध द्विविधे, ६ द्विविध है| एकविधे, ७ एकविध त्रिविधे, ८ एकविध द्विविधे, के ९ एकविध एकविधे प्रतिक्रमे ? [उ०] हे गौतम! १ त्रिविध त्रिविधे प्रति क्रमे, २ त्रिविध द्विविधे अतिक्रमे-इत्यादि पूर्वे कह्या प्रमाणे यावत् ९ एकविध एकविधे प्रतिक्रमे. त्रिविध त्रिविधे प्रतिक्रमतो मन, ४ वचन अने कायाथी करतो नथी, करावतो नथी अने करताने अनुमोदन आपतो नथी; २ द्विविध त्रिविधे प्रतिक्रमतो मन अने वच नथी करतो नथी, करावतो नथी अने करनारने अनुमोदन आपतो नथी; ३ अथवा मन अने कायथी करतो नथी, करावतो नथी |अने करनारने अनुमति आपतो नथी; ४ अथवा वचन अने कायथी करतो नथी, करावतो नथी अने करनारने अनुमति आपतो | नथी; ५ त्रिविध एकविधे प्रतिक्रमतो मनथी करतो नथी, करावतो नथी, अने करनारने अनुमति आपतो नथी; ६ अथवा वचनथी | करतो नथी, करावतो नथी अने करनारने अनुमति आपतो नथी; ७ अथवा कायथी करतो नथी, करावतो नथी अने करनारने अनुमति आपतो नथी; ८ द्विविध त्रिविधे प्रतिक्रमतो मन, वचन अने कायथी करतो नयी अने करावतो नथी; ९ अथवा मन, वचन सब For Private and Personal Use Only Page #81 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir व्याख्याप्रज्ञप्तिः - ८ शतके उद्देशः५ ॥६५॥ - RECASH अने कायथी करतो नथी अने करनारने अनुमति आपतो नथी; १० अथवा मन, वचन अने कायथी करावतो नथी अने करनारने अनुमति आपतो नथी; ११ द्विविध द्विविधे प्रतिक्रमतो मन अने वचनथी करतो नथी अने करावतो नथी, १२ अथवा मन अने कायथी करतो नथी अने करावतो नथी, १३ अथवा वचन अने कायथी करतो नथी अने करावतो नथी, १४ अथवा मन अने वचनथी करतो नथी अने करनारने अनुमति आपतो नथी, १५ अथवा मन अने कायथी करतो नथी अने करनारने अनुमति आपतो नथी, १६ अथवा वचन अने कायथी करतो नथी अने करनारने अनुमति आपतो नथी, १७ अथवा मन अने वचनथी करावतो नथी अने करनारने अनुमति आपतो नवी, १८ अथवा मन अने काययी करावतो नबी अने करनारने अनुमति आपतो नथी, १९ | अथवा वचन अने कायथी करावतो नथी अने करनारने अनुमति आपतो नयी; २० द्विविध एकविधे प्रतिकमतो मनथी करतो नथी अने करावतो नथी, २१ अथवा वचनथी करतो नथी अने करावतो नथी, २२ अथवा कायवडे करतो नथी अने करावतो नथी, २३ | अथवा मनवडे करतो नथी अने करनार ने अनुमति आपतो नयी, २४ अथवा वचनवडे करतो नथी अने करनारने अनुमति आपतो | नथी, २५ अथवा कायवडे करतो नथी अने करनारने अनुमति आपतो नथी, २६ अथवा मनवडे करावतो नथी अने करनारने अनु|मति आपतो नथी, २७ अथवा वचनथी करावतो नथी अने करनारने अनुमति आपतो नयी २८ अथवा कायवडे करावतो नथी अने | करनारने अनुमति आपतो नी; २९ एकविध त्रिविधे प्रतिक्रमतो मन, वचन अने कायथी करतो नथी, ३० अथवा मन, वचन अने कायथी करावतो नथी, ३१ अथवा मन, वचन अने कायथी करनारने अनुमति आपतो नयी; ३२ एकविध द्विविधै प्रतिक्रमतो *मन अने बचनथी कस्तो नथी, ३३ अथवा मन अने कायथी करतो नथी, ३४ अथवा वचन अने कायथी करावतो नथी, ३५ अथवा - - - For Private and Personal Use Only Page #82 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra व्याख्या प्रज्ञप्तिः ॥६५२॥ www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir मन अने यचनथी करावतो मथी, ३६ अथवा मन अने कायथी करावतो नथी, ३७ अथवा वचन अने कायर्थी करावतो नथी, ३८ अथवा मन अने वचनथी करनारने अनुमति आपतो नथी, ३९ अथवा मन अने कायथी करनारने अनुमति आपतो नथी, ४० अथवा वचन अने कायथी करनारने अनुमति आपतो नथी; ४१ एकविध एकविधे प्रतिक्रमतो मनथी करतो नथी, ४२ अथवा वचनथी करतो नथी, ४३ अथवा कायथी करतो नथी; ४४ अथवा मनथी करावतो नथी. ४५ अथवा वचनथी करावतो नथी, ४६ अथवा कायथी करावतो नथी, ४७ अथवा मनथी करनारने अनुमति आपतो नथी, ४८ अथवा वचनथी करनारने अनुमति अपतो नथी, | ४९ अथवा काययी करनारने अनुमति आपतो नथी. पडुप्पन्नं संवरेमाणे किं तिविहं तिविहेणं संवरेह ?, एवं जहा पडिक्कममाणेणं एगूणपन्नं भंगा भणिया एवं संवरमाणेणवि एगूणपन्नं भंगा भाणियव्वा । अणागयं पञ्चक्खमाणे किं तिविहं तिविहेणं पञ्चकखाइ ? एवं ते चैव भंगा एगुणपन्ना भाणियव्वा जाव अहवा करेंतं नाणुजाणइ कायसा । समणोवासगस्स णं भंते ! पुव्वामेव थूलमुसावाए अपचक्खाए भवइ, से णं भंते! पच्छा पञ्चाइक्खमाणे एवं जहा पाणाइवायस्स सीयालं भंगसयं भणियं तहा मुसावायस्सवि भाणियब्वं । एवं अदिन्नादाणस्सवि, एवं थूलगस्स मेहुणस्सवि, थूलगस्स परिग्गहरवि जाव अहवा करेंतं नाणुजाणइ कायसा ॥ एए खलु एरिसगा समणोपासना भवंति, नो खलु एरिसगा आजीवियोवासगा भवति ॥ ( सूत्रं ३२८ ) | [r] प्रत्युत्पन्न (वर्तमान) प्राणातिपातनो संवर (रोध) करतो ( श्रमणोपासक ) शुं त्रिविध त्रिविधे संवर करे ? इत्यादि. For Private and Personal Use Only ८ शतके उद्देशः ५ ॥६५२॥ Page #83 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir - - व्याख्याप्रज्ञप्तिः ॥६५३॥ ८ शतके उद्देशः५ - [उ.] जेम प्रतिक्रमता ओगणपचास भांगा कह्या, सेम संवर करतां पण ओगणपचास भांगा कडेवा. [प्र०] अनागत प्राणातिपातनुं प्रत्याख्यान करतो (श्रमणोपासक) शुं त्रिविध त्रिविधे प्रत्याख्यान करे ? इत्यादि. [उ०] पूर्वे कह्या प्रमाणे ओगणपचास भांगा यावत् 'अथवा कायवडे करनारने अनुमति आपतो नथी' त्यांसुधी कहेवा. [प्र. हे भगवन् ! जे श्रमणोपासके पहेलां स्थूल मृषावावादनुं प्रत्याख्यान कर्यु नथी, पछीथी हे भगवन् ! ते स्थूलमृपावादनुं प्रत्याख्यान करतो शुं करे ? [उ०] जेम प्राणातिपातना एकसो | सुडताळीश मांगा कह्या, तेम मृषावादना पण एकसो सुडतालीश मांगा कहेवा, ए प्रमाणे (स्थूल) अदत्तादानना, स्थूल मैथुनना अने स्थूल परिग्रहना पण भांगाओ यावत् 'अथवा कायथी करनारने अनुमति आपतो नथी' त्यांसुधी जाणवा. आ आवा प्रकारना श्रमणोपासको होय छे, पण आवा प्रकारना आजीविकना (गोशालना) उपासको होता नथी. ॥ ३२८॥ __ आजीवियसमयस्स णं अयमढे पण्णत्ते अक्खीणपडिभोइणो सव्वे सत्ता से हंता छेत्ता भेत्ता लुपित्ता विलं| पित्ता उद्दवइत्ता आहारमाहारेति, तत्थ खलु इमे दुवालस आजीवियोवासगा भवंति, तंजहा-ताले १ तालपलंबे २उविहे ३ संविहे ४ अवविह ५ उदए ६ नामुदए ७ णमुदए ८ अणुवालए ९संखवालए १० अयंबुले ११ कायरए १२, इच्चेते दुवालस आजीवियोवासगा अरिहंतदेवतागा अम्मापिउसुस्सूसगा पंचफलपडिकंता, तंजहा-उंबरेहिं | वडेहिं बोरेहिं सतरेहिं पिलखूहिं, पलंडुल्हसणकंदमूलविवजगा अणिल्लंछिएहिं अणक्कभिन्नेहिं गोणेहिं तसपाणविवज्जिएहिं चित्तहिं वित्तिं कप्पेमाणे विहरंति, एएवि ताव एवं इच्छंति, किमंग पुण जे इमे समणोवासगा | भवंति जेसि नो कप्पंति इमाई पन्नरस कम्मादाणाई सयं करेत्तए वा कारवेत्तए वा करेंतं वा अन्नं न समणुजा. 1-% A-Hit P-42-4 For Private and Personal Use Only Page #84 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ध्याख्याप्रज्ञप्तिः ॥६५४॥ %%%% र शतके उद्देशः ५ ॥६५४॥ णेत्तए, तंजहा-इंगालकम्मे वणकम्मे साडीकम्मे भाडीकम्मे फोडीकम्मे दंतवाणिज्जे लक्खवाणिज्जे केसवाणिजे रसवाणिजे विसवाणिजे जतपीलणकम्मे निल्लंछणकम्मे दवग्गिदावणया सरहदतलायपरिसोसणया असतीपोसणया, इचेते समणोवासगा सुक्का सुक्काभिजातीया भविया भवित्ता कालमासे कालं किचा अन्नयरेसुदेवलोएसु देवत्ताए उववत्तारो भवंति ॥ (सूत्रं ३२९)॥ आजीविक (गोशालक) ना सिद्धांतनो आ अर्थ छ- 'दरेक जीवो अक्षीणपरिभोगी-सचित्ताहारी छे, तेथी तेओ (लाकडी वगेथी) हणीने (तरवार वगेरेथी) छेदीने, (शूलादिथी) भेदीने, (पांख वगेरेना कापवावडे) लोप करीने (चामडी उतारवाथी) विलोपीने | अने विनाश करीने खाय छे. (अर्थात् बीजा जीवो हननादिर्मा तत्पर छे) पण आजीवकना मतमां आ बार आजीविकोपासको कह्या छे, ते आ प्रमाणे-१ ताल, २ तालप्रलंब, ३ उद्विध, ४ संविध, ५ अवविध, ६ उदय, ७ नामोदय, ८ नर्मोदय, ९ अनुपालक, १. शंखपालक, ११ अयंबुल अने १२ कातर-ए बार आजीविकना उपासको छे, तेओनो देव अर्हत् (गोशालक) छे, मातापितानी | सेवा करनारा तेओ आ पांच प्रकारना फलने खाता नथी; ते आप्रमाणे-१ उंबराना फल, २ वडना फल, ३ बोर, ४ सनरनां फल अने ५ पीपळाना फल, तेओ डुंगळी, लसण अने कंदमूलना विवजक (त्यागी) छे. तेओ अनिलाछित (खसी नहि करायला), नहि नाथेला (नाक विधेला) एवा बळदोवडे त्रसप्राणीनी हिंसा विवर्जित व्यापारवडे आजीविका करे छे. ज्यारे ए गोशालकना श्रावको | पण ए प्रकारे धर्मने इच्छे छे, तो पछी जे आ श्रमणोपासको छे तेओने माटे शुं कहेवू ? जेओने आ पंदर कर्मादानो स्वयं करवाने. बीजा पासे कराववाने अने अन्य करनारने अनुमति आपवाने कल्पता नथी, ते कर्मादानो आ प्रमाणे छे-१ अंगारकर्म, २ वनकर्म, ENA- 4 For Private and Personal Use Only Page #85 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ८ शतके प्रज्ञप्तिः उद्देशः५ M३ शकटकर्म, ४ भाटककर्म, ५ स्फोटककर्म, ६ दंतवाणिज्य, ७ लाक्षावाणिज्य, ८ केशवाणिज्य, ९ रसवाणिज्य, १० विषवाणिज्य, | व्याख्या- ११ यंत्रपीलनकर्म, १२ निलांछनकर्म, १३ दवाग्निदापन, १४ सरोवर, द्रह अने तलावन शोषण अने १५ असतीपोषण. ए श्रमणो 1 पासको शुक्ल-पवित्र, अने पवित्रताप्रधान थइने मरणसमये काल करीने कोइपण देवलोकमां देवपणे उत्पन्न थाय छे. ॥ ३२९॥ ॥६५॥ कतिविहा णं भंते ! [देवा] देवलोगा पण्णत्ता?, गोयमा! चउब्विहा देवलोगा पण्णत्ता संजहा-भवणवासिवाणमंतरजोइसवेमाणिया, सेवं भंते २॥ (सूत्रं ३३०)॥ अट्ठमसयस्स पंचमो।। ८-५॥ प्र] हे भगवन् ! केटला प्रकारना देवलोको कह्या छे?[उ०] हे गौतम! चार प्रकारना देवलोको कह्या हे. ते आ प्रमाणेभवनवासी, वानव्यंतर, ज्योतिष्क अने वैमानिक. हे भगवन् ! ते ए प्रमाणे छे, हे भगवन् ! ते ए प्रमाणे छे. (एम कहीने यावत् भगवान् गौतम विहरे छे.) ॥ ३३०॥ भगवत् सुधर्मखमीप्रणीत श्रीमद् भगवतीसूत्रना आठमा शतकमां पांचमा उद्देशानो मूलार्थ संपूर्ण थयो. BARASADA A-ARYANA- उद्देशक ६. समणोवासगस्स णं भंते ! तहारूवं समणं वा माहणं वा फासुएसणिजेणं असणपाणखाइमसाइमेणं पडिजालामेमाणस्स किं कजति ?, गोयमा! एगंतसो निजरा कजइ, नस्थि य से पावे कम्मे कज्जति। समणोवासगस्स गंभते!तहारूवं समर्ण वा माहणं वा अफासुएणं अणेसणिज्जेणं असणपाणजावपडिलामेमाणस्स किं कजाइ?, For Private and Personal Use Only Page #86 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir -% % गोयमा: बहुतरिया से निजरा कजइ, अप्पतराए से पावे कम्मे कज्जा। समणोवासगस्स णं भंते ! तहारूवं व्याख्याअस्संजयअविरयपडिहयपच्चक्खायपावकम्मं फासुएण वा अफासुएण वा एसणिज्जेण वा अणेसणिजेण वा असण ८ शतके प्रज्ञप्तिः पाण जाव किं कजइ?, गोयमा! एगंतसो से पावे कम्मे कज्जइ, नत्थि से काइ निजरा कज्जइ ।। (सूत्रं ३३१)॥ | उद्देशः६ ॥६५६॥ [प्र०] हे भगवन् ! तेवा प्रकारना (उत्तम) श्रमण या ब्राह्मणने प्रासुक अचित्त अने एषणीय (निर्दोष) अशन, पान, खादिम तथा स्वादिम आहारवडे प्रतिलाभता-सत्कार करता-श्रमणोपासकने शुं (फल) थाय ? [उ०] हे गौतम! एकांत निर्जरा थाय, पण तेने पाप कर्म न थाय. [प्र०] हे भगवन् ! तेवा प्रकारना श्रमण या ब्राह्मणने अप्रासुक (सचित्त ) अने अनेषणीय (सदोष) अशनादिवडे प्रतिलाभता श्रमणोपासकने शुं (फल) थाय ? [उ०] हे गौतम! घणी निर्जरा थाय, अने अत्यन्त अल्प पापकर्म थाय. [प्र०] हे भगवन् ! तेवा प्रकारना विरतिरहित, अप्रतिहत अने अप्रत्याख्यान पापकर्मवाळा असंयतने प्रासुक अथवा अप्रासुक, एषउणीय अथवा अनेषणीय अशनादिवडे प्रतिलाभता श्रमणोपासकने शुं फल थाय ? [उ०] हे गौतम ! एकांत पापकर्म थाय, पण काइ निर्जरा न थाय. ॥ ३३१ ।। P निग्गथं च णं गाहावइकुलं पिंडवायपडियाए अणुप्पविलु केई दोहिं पिंडेहिं उवनिमंतेजा-एगं आउसो ! अप्पणा मुंजाहि, एग थेराणं दलयाहि, से य तं पिण्डं पडिग्गहेज्जा, थेरा य से अणुगवेसियब्वा सिया, जत्थेव अणुगेवसमाणे थेरे पासिज्जा तत्थेवाणुप्पदायब्वे सिया, नो चेव णं अणुगवेसमाणे थेरे पासिजा तं नो अप्पणा: भुजेजा, नो अन्नेसिं दावए, एगंते अणावाए अचित्ते बहुफासुए थंडिल्ले पडिलेहेत्ता पमजित्ता परिहावेयब्वे सि --ECESEARCH For Private and Personal Use Only Page #87 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra व्याख्या प्रज्ञप्तिः ॥६५७॥ www.kobatirth.org तो ते पिंड पोते खाय नहीं अने बीजाने आपे नहीं, स्थंडिल (भूमि) ने जोइने, प्रमार्जीने त्यां परठवे. कोइ गृहस्थ ऋण पिंड ग्रहण करवाने उपनिमंत्रण करे या । निग्गंथं च णं गाहाबडकुलं पिंडवायपडियाए अणुष्पविद्धं केति तिहिं पिंडेहि उवनिमंतेज्जा - एगं आउसो ! अप्पणा भुंजाहि, दो घेराणं वलयाहि, से य ते पडिग्गहेज्जा, थेरा य से अणुगवेसेयब्वा सेसं तं चैव जाव परिडावेयव्वे सिया, एवं जाब दसहिं पिंडेहिं उबनिमंतेज्जा, नवरं एगं आउसो ! अप्पणा भुंजाहि, नव थेराणं दलपाहि सेसं तं चैव जाव परिद्वावेयब्वे सिया । निग्गंथं च णं गाहावइ जाव केइ दोहिं पडिग्गहेहिं उवनिमंतेज्जा-एगं | आउसो ! अप्पणा पडिभुंजाहि, एगं थेराणं दलयाहि, से य तं पडिग्गहेज्जा, तहेब जाव तं नो अप्पणा पडिभुंजेज्जा, नो अन्नोसें दावए, सेसं तं चैव जाव परिद्ववेयब्वे सिया, एवं जाव दसहिं पडिग्ग हेहिं, एवं जहा | पडिग्गहवत्तव्वया भणिया एवं गोच्छगरयहरण चोलपट्टग कंबलल द्वीसंधारगवत्तब्वया य भाणियव्वा जाव दस हिं संधारएहि उवनिमंतेज्जा जाव परिद्वावेयव्वे सिया || (सूत्रं ३३२ ) ॥ गृहस्थना घरे आहार ग्रहण करवानी इच्छाथी प्रवेश करेला निर्ग्रन्थने कोइ गृहस्थ वे पिंड ( आहार ) ग्रहण करवा माटे उपनिमंत्रण करे के - हे आयुष्मन् ! एक पिंड तमे खाजो, अने बीजो पिंड स्थविरोने आपजो पछी ते निग्रंथ ते ( बन्ने ) पिंडने ग्रहण करें अने ते स्थविरोनी शोध करे; तपास करतां ज्यां स्थविरोने जुए त्यांज ते पिंड तेने आपे, जो कदाच शोधतां स्थविरोने न जुए पण एकान्त, अनापात-ज्यां कोइ आवे नहि एवी अचित्त अने बहु प्रासुक [ प्र० ] गृहस्थना घरे आहार ग्रहण करवाना इरादाथी प्रवेश करेला निर्मन्थने के-दे आयुष्मन् ! एक पिंड तमे खाजो अने बीजा वे पिंड स्थविरोने आपजो. Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir For Private and Personal Use Only ८ शतके उद्देशः ६ ॥६५७॥ Page #88 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir का८ शतके व्याख्याप्रज्ञप्तिः ॥६५८॥ उद्देशः६ ६५८॥ | पछी ते निग्रंथ ते पिंडोने ग्रहण करे, अने स्थविरोनी तपास करे. बाकीर्नु पूर्वसूत्रनी पेठे आणवं, यावत् परठवे, ए प्रमाणे यावत् दश पिंडोने ग्रहण करवाने उपनिमंत्रण करे, परन्नु एम कहे के हे आयुष्मन् ! एक पिंड तमे खाजो अने बाकीना नव पिंड स्थवि| रोने आपजो, बाकी बधुं पूर्वनी पेठे जाणवू, यावत परठवे. [प्र०] निग्रेथ यावत् गृहपतिना कुलमा प्रवेश करे अने कोइ गृहस्थ बे| पत्रिवडे तेने उपनिमंत्रण करे के-हे आयुष्मन् ! एक पात्रनो तमे उपभोग करजो अने बीजु पात्र स्थविरोने आपजो. ते बन्ने पात्रोने | ग्रहण करे, चाकीनु ते प्रमाणे जाणवू, यावत् पोते ते पात्रनो उपयोग न करे अने बीजाने आपे नहीं,वाकीनु पूर्वनी पेठे जाणवू,यावत् ते पात्रने परठवे. प. प्रमाणे यावत् दस पात्र सुधी कहे, जे प्रमाणे पात्रनी वक्तव्यता कही छे तेम गुच्छा, रजोहरण, चोलपट्ट, कंबल, | दंड अने संस्तारकनी वक्तव्यता कहेवी, यावत् दश संस्तारकवडे उपनिमंत्रण करे, यावत् तेने परठवे. ॥ ३३२ ।। | निग्गंथेण य गाहावइकुलं पिंडवायपडियाए पविटेणं अन्नयरे अकिच्चट्ठाणे पडिसेविए, तस्स णं एवं भवति४ इहेव ताव अहं एयस्स ठाणस्स आलोएमि पडिकमामि निंदामि गरिहामि विउद्यामि विसोहेमि अकरणयाए। अन्भुट्टेमि आहारिहं पायच्छित्तं तवोकम्म पडिवजामि, तओ पच्छा थेराणं अंतियं आलोएस्सामि जाव तवोकम्म पडिवजिस्सामि, से य संपट्टिओ असंपत्त थेरा य पुवामेव अमुहा सिया से णं भंते ! किं आराहए विराहए ?, गोयमा ! आराहए, नो विराहए १, से य संपट्टिए असंपत्ते अप्पणा व पुब्बामेव अमुहा सिया, से णं भंते ! किं आराहए विराहए ?, गोयमा आराहए, नो विराहए २, से य संपट्टिए असंपत्ते अप्पणाय पुवामेव थेरा य कालं करेजा से णं भंते ! किं आराहए विराहए?, गोयमा ! आराहए, नो विराहए ३, से य संपट्टिए For Private and Personal Use Only Page #89 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatrth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir मा असंपत्ते अप्पणा य पुवामेव कालं करेजा से णं भंते ! किं आराहए विराहए?, गोयमा! आराहए, नो विराहए ४, व्याख्या- [प्र०] कोई निर्ग्रन्थे गृहपतिना घरे आहार ग्रहण करवाना इरादायी प्रवेश करता कोइ अकृत्य स्थान- प्रतिसेवन कयु होय, ८ शतके प्रज्ञप्तिः 13 पछी ते निग्रन्थना मनमा एम थाय के-"प्रथम हुँ अहींज आ अकार्य स्थान- आलोचन. प्रतिक्रमण, निन्दा अने गर्दा करूं, ( तेना ६ उद्देशः६ ॥३५॥ अनुबन्धने ) ९, विशुद्ध करूँ, पुनः न करवा माटे तैयार थाउं, अने यथायोग्य प्रायश्चित्तरूप तप कर्मनो स्वीकार करुं. त्यारपछी ॥६५९॥ स्थविरोनी पासे जइने आलोचना करीश, यावत् तपकर्मनो स्वीकार करीश.” (एम विचारी) ते निर्ग्रन्थ स्थविरोनी पासे जवा नीकळे अने त्यां पहोंच्या पहेला ते स्थविरो (वातादि दोषना प्रकोपथी) मूक थइ जाय-बोली न शके अर्थात् प्रायश्चित्त न आपी शके तो। हे भगवन् ! शुं ते निग्रन्थ आराधक छे के विराधक छे ? [उ०] हे गौतम! ते निन्थि आराधक छ पण विराधक नथी. (१) [प्र.] हवे ते निग्रन्थ स्थविरोनी पासे जाय अने त्यां पहोंच्या पहेला ते (निर्ग्रन्थ) मूक थइ जाय तो हे भगवन् ! शुं ते निर्ग्रन्थ आराधक हार के विराधक के ? [उ०] हे गौतम ! ते निग्रन्थ आराधक छे पण विराधक नयी. (२) [प्र०] ते निग्रन्थ स्थविरोनी पासे जवा नीकळे अने ते पहोंच्या पहेला ते स्थविरो काळ करे तो हे भगवन् ! ते निग्रन्थ आराधक के के विराधक छे ? [उ०] हे गौतम ! ते निग्रन्थ आराधक के पण विराधक नथी. (३) [प्र०] हवे स्थविरोनी पासे जवा निकळेलो ते निर्ग्रन्थ स्थविरोनी पासे पहोंच्या पहेला पोते काळ करी जाय तो हे भगवन् ! शुं ते आराधक छे के विराधक छ ? [उ०] हे गौतम ! ते निग्रन्थ आराधक छे पण विराधक नथी. (४) से य संपट्टिए संपत्ते थेरा य अमुहा सिया, से णं भंते ! किं आराहा विराह?,गोयमा ! आराहए, नो वि AASHAINEKHABAR For Private and Personal use only Page #90 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra व्याख्या प्रज्ञतः ||६६०॥ www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir राहए, से य संपट्टिए संपत्ते अप्पणा य, एवं संपत्तेणवि चत्तारि आलावगा भाणियब्वा जहेव असंपत्तेणं । निग्गंथेण बहिया वियारभूमि वा विहारभूमिं वा निक्खतेणं अन्नयरे अकिञ्चट्ठाणे पडिसेविए, तस्स णं एवं भवति इहेव ताव अहं एवं एत्थवि एते चेव अट्ठ आलावगा भाणियव्वा जाव नो विराहए । निग्गंथेण य गामाणुगामं दृइज्जमाणेणं अन्नयरे अचिट्ठाणे पडिसेबिए तस्स णं एवं भवति इहेव ताव अहं एत्थवि ते चैव अट्ठ आलावगा भाणियव्वा | जाव नो विराहए ॥ निग्गंधीए य गाहावइकुलं पिंडवायपडियाए अणुपविट्ठाए अन्नयरे अकिञ्चट्ठाणे पडिसेविए तीसे णं एवं भवइ, इहेब ताव अहं एयस्स ठाणस्स आलोएमि जाव तवोकम्मं पडिवज्जामि तओ पच्छा पवत्तिणीए अंतियं आलोएस्सामि जाव पडिवज्जिस्सामि, सा य संपट्टिया असंपत्ता पवत्तिणीय अमुहा सिया, साणं भंते! किं आराहिया विराहिया ?, गोयमा ! आराहिया, नो विराहिया, सा य संपट्टिया जहा निग्गंधस्स तिन्नि | गमा भणिया एवं निग्गधी एवि तिन्नि आलावगा भाणियव्वा जाव आराहिया, नो विराहिया ॥ [प्र०] ते निर्ग्रन्थ स्थविरोनी पासे जवा नीकळे अने पहोंचता वार ते स्थविरो मूक थह जाय, तो हे भगवन् ! शुं ते निर्ग्रन्थ आराधक के विराधक छे ? [अ०] हे गौतम! ते निर्ग्रन्थ आराधक छे पण विराधक नथी. हवे ते निर्ग्रन्थ स्थविरोनी पासे जाय अने त्यां पहोंचता वार ते (निर्ग्रन्थ) मूक थइ जाय तो शुं ते निर्ग्रन्थ आराधक छे के विराधक छे ? इत्यादि संप्राप्त (पहोंचेला ) निर्मन्थना चार आलापक असंप्राप्त (नहि पहोंचेला ) निर्ग्रन्थनी पेठे कहेवा. कोई निर्ग्रन्थे बहार निहारभूमि के विहारभूमि तरफ जतां कोई एक अकृत्यस्थाननुं प्रतिसेवन करें होय, पछी तेने एम थाय के 'हुं प्रथम अहीं तेनुं आलोचनादि करूं' - इत्यादि पूर्वनी For Private and Personal Use Only ८ शतके उद्देशः ६ ॥६६०॥ Page #91 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobalrm.org Acharya Shri Kailassagersuri Gyanmandir ८ शतके उद्दशः६ ॥६६॥ पेठे अहीं पण तेज आलापक कहे वा, यावल ते निर्ग्रन्थ विराधक नथी. निर्ग्रन्थे ग्रामानुग्रामविहार करतां कोई एक अकृत्यस्थानव्याख्या- प्रतिसेवन कयु होय, पछी तेने एम थाय के, हुं प्रश्चम तेनुं आलोचनादि करूं-इत्यादि पूर्ववत् अहीं पण तेज आठ आलापक कहेवा, प्रज्ञप्तिः यावत् 'ते निर्ग्रन्थ विराधक नथी.' [प्र०] कोई साधीए आहार ग्रहण करवाना इरादाथीगृहपतिना घरे प्रवेश करता कोइएक अकृ॥३६॥ त्यस्थानतुं प्रतिसेवन कयु, पछी तेने एम थाय के हुं प्रथम आ अकृत्यस्थाननं आलोचन करूं, यावत् तपकर्मनो स्वीकार करूं. त्यार पछी प्रवर्तिनी (वृद्ध साध्वी)नी पासे आलोचना करीश, यावत् तपकर्मनो स्वीकार करीश, (एम विचारी) ते साध्वी ते प्रवर्तिनीनी पासे जवा निकळे, अने त्यां पहोंच्या पड़ेला ते प्रवर्तिनी मुंगी थइ जाय, तो हे भगवन् ! शुं ते साध्वी आराधक छे के विराधक छे? [उ०] हे गौतम! ते साध्वी आराधक छे पण विराधक नथी, जेम निर्ग्रथने त्रण आलापको कह्या छे तेम' ते साध्वी जवा नीकळे' | इत्यादि त्रण आलापको साध्वीने कहेवा. यावत् 'ते आराधक छे पण विराधक नथी.' से केगटेणं भंते ! एवं वुच्चइ-आराहए, नो विराहए ?, गोयमा! से जहानामए-केइ पुरिसे एगं महं उन्नालोमं वा गयलोमं वा मणलोमं वा कप्पासलोमं वा तणसूयं वा दुहा वा तिहा वा संखेजहा वा छिदित्ता अगणिकायंसिपक्विवेज्जासे नूर्ण गोयमा! छिजमाणे छिन्ने पक्खिप्पमाणे पक्वित्ते दज्झमाणे दड्ढेत्ति वनव्वं सिया?, हंता भगवं ! छिज्जमाणे छिन्ने जाव दड्डेत्ति वत्तब्वं सिया, से जहा वा केइ पुरिसे बत्थं अहतं वा धोतं बाबा तंतुग्गयं वा मंजिहादोणीए पक्विवेज्जा से नूणं गोयग! उक्विपमाणे उक्खित्ते पविखप्पमाणे पक्खित्ते रज्जमाणे रत्तेत्ति वत्तब्बं सिया?, हंता भगवं ! उक्खिप्पमाणे उक्खित्ते जाव रत्तेत्ति वत्तव्वं सिया, से तेणढेणं For Private and Personal Use Only Page #92 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir व्याख्याप्रज्ञप्तिः ॥६६२॥ CAT ८ शतके उद्देशः६ ॥६६२॥ गोयमा! एवं बुच्चइ-आराहए, नो विराहए ।। ( सूत्रं ३३३)॥ | [प्र०] हे भगवन् ! ए प्रमाणे आप शा हेतुथी कहो छो के तेओ आराधक के पण विराधक नथी ? [उ०] हे गौतम ! जेम कोइ एक पुरुष एक मोटा ऊनना, गजना लोमना, शणना रेसामा, कपासना रेसाना, तृणना अग्रभागना बे, त्रण के संख्यात छेदककडा-करी तेने अग्निमां नाखे तो हे गौतम! ते छेदातां मेदायेलं, अग्निमां नंखाता नंखायेलं, बळतां वळेलु एम कहेवाय ? हे भगवन् ! हा, छेदातां छेदायेलं, यावत् वळतां बळेलं कहेवाय, अथवा कोई पुरुष नवू, धोएल के तन्त्र-साळथी तरत उतरेलु कपडुं मजीठना रंगनी कुंडीमा नांखे तो हे गौतम! ते उंचेयी नांखता उंचे नंखायेखें, नांखतां नंखायेखें, रंगात रंगायेलु एम कहेवाय ? हा, भगवन् ! ते उंचेथी नांखतां उंचेयी नंखायेखें, यावत् रंगात रंगायेलुं कहेवाय; ते हेतुथी हे गौतम ! एम कहेवाय छे के [आरधना माटे तैयार थयेलो ते आराधक के पण विराधक नथी. ॥ ३३३ ॥ पईवस्स णं भंते ! झियायमाणस्स किं पदीवे झियाति लट्ठी झियाइ वत्ती झियाइ तेल्ले झियाइ दीवचंपए झियाइ जोती झियाइ ?, गोयमा ! नो पदीवे झियाइ जाव नो पदीवचंपए झियाइ, जोई झियाइ।। आगारस्सणं भंते ! झियायमाणस्स किं आगारे झियाइ कुड्डा वा झियाइ कडणा झि० धारणा झि० बलहरणे झि० वंसा० मल्ला झि० वग्गा झियाइ छित्तरा झियाइ छाणे झियाति जोती झियाति ?, गोयमा ! नो अगारे झियाति, नो कुड्डा झियाति जाव नो छाणे झियाति, जोती झियाति ॥ (सूत्रं ३३४)॥ [प्र.] हे भगवन् ! बळता दीवामां शुं बळे छ ? शुं दीवो बळे छे, दीपयष्टि-दीवी बळे छे, वाट बळे छे, तेल बळे छ, दीवान | IO-A-Fk For Private and Personal Use Only Page #93 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir 4 - व्याख्या प्रज्ञप्तिः ८ शतके उद्देशः६ ॥६६३॥ S % A | ढाकणुं वळे छ, के ज्योति-दीपशिखा बळे ? [उ.] हे गौतम ! दीवो बळतो नथी, यावत् दीवानु ढांकणुं बळतुं नथी, पण ज्योति बळे के. [प्र०] हे भगवन् ! बळता घरमा शुंबळे के? शुं घर बळे छे, भीतो बळे छ, त्राटी बळे छे, धारण (मोभनी नीचेना स्तंभो) साबळे , मोभ बळे छे, वांसो बळे छे, मल्लो (भींतोना आधार थांभला) बळे छे, छींदरीओ बळे छे, छापलं बळे छे, छादन-डाम वगेरेनु दांकण बळे के के ज्योति-अग्नि बळे छे? [उ०] हे गौतम ! घर वळतुं नथी, भीतो वळती नथी, यावत् डाभ वगेरेनुं छादन | पळतुं नथी, पण ज्योति बळे छे. ॥ ३३४ ॥ जीवे णं भंते ! ओरालियसरीराओ कतिकिरिए ?, गोगमा! सियतिकिरिए सिय चउकिरिए सिय पंच| किरिए सिय अकिरिए । नेरइए भंते ! ओरालियसरीराओ कतिकिरिया (ए)?, गोयमा ! सिय तिकिरिए सिय चउकिरिए सिय पंचकिरिए। असुरकुमारे णं भंते ! ओरालियसरीराओ कतिकिरिए ? एवं चेव, एवं जाव वेमाणिए, नवरं मणुस्से जहा जीवे । जीवे णं भंते ! ओरालियसरीरेहिंतो कतिकिरिए ?, गोयमा! सिय तिकिरिए जाव सिय अकिरिए। [प्र०] हे भगवन् ! एक जीव (परकीय) एक औदारिक शरीरने आश्रयी केटली क्रियावाळो होय ? [उ०] हे गौतम ! कदाच त्रण क्रियावाळो, कदाच चार कियावाळो, कदाच पांच क्रियावाळो, अने कदाच अक्रिय (क्रिया रहित ) होय. [प्र०] हे भगवन् ! एक नारक (परकीय) एक औदारिक शरीरने आश्रयी केटली क्रियावालो होय ? [उ.] हे गौतम ! कदाच त्रण क्रियावालो, कदाच चार क्रियावाळो अने कदाच पांच क्रियावाळो होय. [प्र०] हे भगवन् ! एक असुरकुमार (परकीय) एक औदारिक शरीरने आश्रयी A -%4% EARN - For Private and Personal Use Only Page #94 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ध्याख्याप्रज्ञप्तिः ॥६६४॥ | केटली क्रियावाळो होय? [उ०] हे गौतम ! पूर्वनी पेठे (त्रण, चार के पांच चियावालो होय) ए प्रमाणे यावत् वैमानिको जाणवा. परन्तु मनुष्यो जीवोनी पेठे जाणवा. [प्र०] हे भगवन् ! एक जीव (परकीय) औदारिक शरीरोने आश्रयी केटली क्रियावाळो होय?1८शतक [[उ०] हे गौतम ! ते कदाच त्रण क्रियावाळो होय, यावत् कदाच अक्रिय होय. लै उद्देशः६ । नेरइए णं भंते! ओरालियसरीरेहिंतो कतिकिरिए?,एवं एसो जहा पढमो दंडओ तहा इमोवि अपरिएसो भाणि- ॥६६४॥ यवो जाव वेमाणिए, नवरं मणुस्से जहा जीवे | जीवा णं भंते ओरालियसरीराओ कतिकिरिया?,गोयमा! सिय तिकिरिया जाव सिय अकिरिया, नेरइया णं भंते ! ओरालियसरीराओ कतिकिरिया?,एवं एसोवि जहा पढमो दंडओ तहा भाणियब्वो जाव वेमाणिया, नवरं मणुस्सा जहा जीवा। जीवा णं भंते ! ओरालियसरीरेहिंतो कतिकिरिया, गोयमा! तिकिरियावि चउकिरियावि पंचकिरियावि अकिरियावि, नेरइया णं भंते ! ओरालियसरीरेहितो कइकिरिया?, गोयमा ! तिकिरियावि चउकिरियावि पंचकिरियावि एवं जाव वेमाणिया, नवरं मणुस्सा जहा जीवा ॥ प्र०] हे भगवन् ! एक नैरयिक (पर संबन्धी) औदारिक शरीरोने आश्रयी केटली क्रियावाळो होय ? [उ०] हे गौतम ! जेम आ प्रथम दंडक (सू. १८) को छे तेम आ सघळा दंडको पण यावत् वैमानिक सुधी कहेवा, परन्तु मनुष्यो जीवोनी पेठे जाणवा. [प्र०] हे भगवन् ! जीवो (परसंबन्धी) एक औदारिक शरीरने आश्रयी केटली क्रियावाळा होय ? [उ०] हे गौतम ! कदाच त्रण क्रियावाळा होय, यावत् कदाच क्रियारहित होय. [प्र०) हे भगवन् ! नरयिको ( पर संबन्धी) औदारिक शरीरने आश्रयी केटली क्रियावाळा होय ? [उ०] हे गौतम ! जेम प्रथम दंडक (सू. १८) कडो छे तेनी पेठे यावत् वैमानिक सुधी आ दंडक पण कहेवो, For Private and Personal use only Page #95 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir व्याख्या- प्रज्ञप्तिः ॥६६॥ पण मनुष्यो जीवोनी पेठे कहेवा. [प्र.] हे भगवन् ! जीवो औदारिक शरीरोने आश्रयी केटली क्रियावाळा होय? [उ०] हे गौतम! ८ शतके कदाच त्रण क्रियावाला पण होय, चार क्रियावाला पण होय, पांच क्रियावाला पण होय अने क्रियारहित पण होय.[प्र०] हे भग उद्देशः६ वन् ! नैरयिको (परकीय) औदारिक शरीरोने आश्रयी केटली क्रियावाळा होय ? [उ०] हे गौतम ! त्रण क्रियावाला पण होय, चार क्रियावाला पण होय, अने पांच क्रियावाला पण होय. ए प्रमाणे यावत् वमानिको जाणवा. पण मनुष्यो जीवोनी पेठे जाणवा. जीवे णं भंते ! वे उब्वियसरीराओ कति किरिए?, गोयमा ! सिय तिकिरिए सिय चउकिरिए सिय अकिरिए, नेरइए णं भंते ! वेउब्बियसरीराओ कतिकिरिए ?, गोयमा! सिय तिकिरिए सिय चउकिरिण, एवं जाव वेमा|णिए, नवरं मणुस्से जहाजीवे, एवं जहा ओरालियमरीराणं चत्तारि दंडगा भणिया तहा वेउनि यसरीरेणवि चत्तारि | दंडगा भाणियब्वा, नवरं पंचमकिरिया न भन्नइ, सेस तं चेत्र, एवं जहा वेउब्वियं तहा आहारगंपि तेयगंपि कम्मगपि भाणियव्वं, एकेके चत्तारि दंडगा भाणियचा जाव वेमाणियाण भंते! कम्नगमरीरेहिंतो कइकिरिया ?, गोयमा ! तिकिरियावि चउकिरियावि, सेवं भंते ! सेवं भंते!॥ (सूत्रं ३३५)॥ अहमसयस्म छट्ठो | उद्देसओ ममत्तो।। ८-६॥ | [प्र०] हे भगवन् ! जीव (परकीय) वैक्रियशरीरने आश्रयी केटली क्रियावालो होय ? [उ०] हे गौतम ! कदाच त्रण क्रिया वालो, कदाच चार क्रियावाळो अने कदाच अक्रिय होय. [प्र.] हे भगवन् ! नरयिक (परसंबन्धी) वैक्रिय शरीरने आश्रयीने केटली |क्रियावाळो होय ? [उ०] हे गौतम ! कदाच त्रण कियावाळो अने कदाच चार क्रियावालो होय. ए प्रमाणे यावत् वैमानिक सुधोग For Private and Personal Use Only Page #96 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ८ शतके ध्याख्याप्रज्ञातिः ॥६६६॥ | उद्देशः७ ॥६६६॥ जाणवू, पण मनुष्यने जीवनी पेठे जाणवो. ए प्रमाणे जेम औदारिक शरीरना चार दंडक कह्या, तेम चक्रिय शरीरना पण चार दंडक कहेवा, परन्तु तेमां पांचमी क्रिया न कहेवी. बाकीर्नु पूर्वनी पेठे जाणवू. एप्रमाणे जेम वैक्रिय शरीर संबन्धे कधु, तेम आहारक, तेजस अने कार्मण शरीर संबंधे पण कहे. एक एकना चार दंडक कहेवा, यावत् [प्र०] हे भगवन् ! वैमानिको कार्मण शरीरोने आश्रयी केटली क्रियावाळा होय ? [उ०] हे गौतम! त्रण क्रियावाळा पण होय अने चार क्रियावाळा पण होय. हे भग-1 वन् ! ते एमज हे, हे भगवन् ! ते एमज हे. (एम कही यावत् भगवान् गौतम विहरे छे.)॥ ३३५ ॥ . भगवत् सुधर्मस्वामीप्रणीत श्रीमद् भगवतीसूत्रना आठमा शतकमा छट्ठा उद्देशानो मूलार्थ संपूर्ण थयो. उद्देशक ७. तेणं कालेणं २ रायगिहे नगरे वन्नओ, गुणसिलए चेइए वन्नओ, जाव पुढविसिलावटओ, तस्स णं गुणसि- लस्स चेइयस्स अदूरसामंते बहवे अन्नउत्थिया परिवसंति, तेणं कालेणं२ समणे भगवं महावीरे आदिगरे जाव समोसढे जाव परिसा पडिगया, तेणं कालेणं २ समणस्स भगवओ महावीरस्स बहवे अंतेवामी थेरा भगवतो जातिसंपन्ना कुलसंपन्ना जहा बितियसए जाव जीवियासामरणभयविषमुक्का समणस्म भगवओ महावीरस्म अदूरसामंते उड्ढंजाणू अहोसिरा झाणकोहोवगया संजमेणं तवसा अप्पाणं भावेमाणा जाव विहरंति, ताणं ते अन्नउत्थिया जेणेव थेरा भगवंतो तेणेव उवागच्छंति २त्ता ते थेरे भगवंते एवं वयासी-तुम्भे णं अजो! ति For Private and Personal Use Only Page #97 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra व्याख्याप्रज्ञप्तिः ॥६६७॥ www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir विहं तिविहेणं अस्संजयअविरय अप्पडिहय जहा सत्तममए बितिए उद्देमए जाब एगंतबाले यावि भवह, तए णं ते थेरा भगवंतो ते अन्नउत्थिए एवं बयासी-केण कारणेणं अजो ! अम्हे तिविहं तिविहेणं अस्संजयअविरय जाव एगंतबाला यावि भवामो ?, तए णं ते अन्नउत्थिया ते धेरे भगवंते एवं वयासी-तुम्भे णं अज्जो ! अदिन्नं गेव्हह अदिनं भुंजह अदिन्न सातिजह, नए णं ते तुभे अदिन्नं गेण्हमाणा अदिनं भुंजमाणा अदिन्नं सातिजनाणा तिविहं तिविहेणं अस्संजय अविरय जाव एगंतबाला यावि भवह, ते काले अने ते समये राजगृह नामे नगर हतुं वर्णन. गुणसिलक चैत्य हतुं वर्णन यावत् पृथिवीशिलापट्टक हतो. ते गुणसिलक चैत्यनी आसपास थोडे दूर घणा अन्यतीर्थिको रहे छे. ते काले ते समये श्रमण भगवान् महावीर तीर्थनी आदिना करनारा यावत् समोसर्या, यावत् परिषद् विसर्जित थइ. ते काले-ते समये श्रमण भगवंत महावीरना घणा शिष्यो, स्थविर भगवंतो जातिसंपन्न, कुलसंपन्न - इत्यादि जेम बीजा शतकमां वर्णव्या छे तेवा, यावत् जीवितनी आशा अने मग्णना भयथी रहित हता. अने श्रमण भगवंत महावीरनी आसपास उंचा ढींचण करी नीचे मस्तक नमावी, ध्यानरूप कोष्ठने प्राप्त थयेला, तेओ संयम अने तपवडे | आत्माने भावित करता यावत् विहरे छे. त्यारपछी ते अन्यतीर्थिको ज्यां स्थविर भगवंतो हे त्यां आवे छे। अने त्यां आवीने तेओए ते स्थविर भगवंतो ने एम कछु के- 'हे आया ! तमे त्रिविधे त्रिविधे असंयत, अविरत अने अप्रतिहत पापकर्मवाला छो' इत्यादि जेम सातमा शतकना बीजा उद्देशक्रमां कथा प्रमाणे यावत् एकांत बाल-अज्ञ छो. त्यावाद ते स्थविर भगवतोय ते अन्यतीर्थिकोने एम कं के, हे आयों ! अमे क्या कारणथी त्रिविधे त्रिविधे असंयत, अविरत यावत् एकांत बाल छीए. त्यारबाद ते अन्यतीर्थिकोए त For Private and Personal Use Only ८ शतके उद्देशः ७ ॥६६७॥ Page #98 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ८ शतके उद्देशः ७ ॥६६८॥ स्थविर भगवंतोने एम का के, हे आर्यो ! तमे अदत्त (कोइए नहीं आपेल) पदार्थनुं ग्रहण करो छो, अदत्त पदार्थने खाओ छो अने ध्याख्या अदत्तनो खाद लो छो अर्थात् (ग्रहणादिकनी) अनुमति आपो छो, तेथी अदत्तनुं ग्रहग करता, अदत्तने जमता अने अदत्तनी अनुप्रज्ञतिः | पति आपता तमे त्रिविवे त्रिविवे असंयत. अने अविरत यावन् एकांत बाल पण छो. ॥६६८॥ | तए णं ते धेरा भगवंतो ते अन्नउत्थिए एवं वयासी-केण कारणेणं अजो! अम्हे अदिनं गेण्हामो अदिनं भुंजामो अदिन्नं सातिजामो?, जए णं अम्हे अदिन्नं गेण्हमाणा जाव अदिन्नं मातिजमाणा तिविहं तिविहेणं अ|स्संजय जाव एगंतबाला यावि भवामो?, तए णं अन्नउत्थिया ते धेरे भगवंते एवं वयासी-तुम्हा णंअजो! दिज्जमाणे अदिन्ने पडिग्गहेबमाणे अपडिग्गहिए निस्सरिजमाणे अणिसट्टे, तुम्भे गं अजो! दिजमाणं पडिग्गहगं असंपत्तं एत्थ णं अंतरा केइ अवहरिज्जा, गाहावइस्स णं तं भंते !, नो खलु तं तुम्भ, तए णं तुझे अदिन्नं गेण्हह जाव अदिन्न सातिजह, तए णं तुज्झ अदिन गेण्हमाणा जाब एगंतबाला यावि भवह, तए णं ते थेरा भगवतो ते अन्नउत्थिए एवं वयासी-नो खलु अजो! अम्हे अदिन्नं गिण्हामो अदिन्नं भुजामोअदिन्नं मातिजामो, अम्हे णं अजो! दिन गेण्हामो दिन्नं भुंजामो दिन्न सातिजामो तए णं अम्हे दिन्नं गेण्हमाणा दिन्नं भुजमाणा | दिन्नं सातिजमाणा तिविहं तिषिहेणं संजयविरयपडिहय जहा मत्तमसए जाव एगंतपंडिया यावि भवामो, तए लणं ते अन्नउत्थियाते थेरे भगवंते एवं वयासी-केण कारणेणं अजो! तुम्हे दिन्नं गेण्हह जाव दिन्नं सातिजह, जए तुझे दिन्नं गेण्हमाणा जाव एगंतपंडिया यावि भवह ?, ARRERAPRA For Private and Personal Use Only Page #99 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir व्याख्याप्रज्ञप्तिः ॥६६९॥ ८ शतके उद्देशः७ ॥६६॥ राज त्यारवाद ते स्थविर भगवंतोए ते अन्यतीथिकोने एम कडु के, हे आर्यो! क्या कारणथी अमे अदत्तनुं ग्रहण करीए छीए, अदत्तनुं | भोजन करीए छीए अने अदत्तनी अनुमति आपीए छीए के जेथीं अदत्तने ग्रहण करता, यावत् अदत्तनी अनुमति आपता अमे त्रिविध त्रिविधे असंयत. यावत् एकांत बाल छीए ! त्यारबाद ते अन्यतीर्थिकोए ते स्थविर भगवंतोने एम कई के, हे आर्यो! तमारा मतमा अपातुं होय ते आपलं नथी, ग्रहण करातुं होय ते ग्रहण करायेलुं नथीं, (पात्रमां) नंखातुं होय ते नंखायेलुं नथी. हे आर्यों! तमने आपवामां आवतो पदार्थ ज्यांसुधी पात्रमा पड्यो नयी, तेवामा वचमाथीज ते पदार्थने कोइ अपहरण करे तो ते गृहपतिना पदार्थन अपहरण थयु एम कहेवाय, पण तमारा पदार्थ- अपहरण थयुं एम न कहेवाय, तेथी तमे अदचनुं ग्रहण करो छो, यावत् अदचनी | अनुमति आपो छो, माटे अदत्तनुं ग्रहण करता तमे यावत् एकांत अज्ञ छो. त्यारपछी ते स्थविर भगवंतोए ते अन्यतीर्थिकोने एम का के हे आर्यो ! अमे अदत्तनुं ग्रहण करता नथी, अदत्तनुं भोजन करता नथी अने अदत्तनी अनुमति पण आपता नथी, हे आर्यो! अमे दत्तनु-आपेल पदार्थनुं ग्रहण करीए छीए, दत्तनुं भोजन करीए छीए, अने दत्तनी अनुमति आपीण छीए, माटे दत्तनुं ग्रहण करता, दत्तनुं भोजन करता अने दत्तनी अनुमति आपता अमे त्रिविध त्रिविवे संयत, विरत अने पापकर्मनो नाश करवावाळा सप्तम शतकमां कह्या प्रमाणे यावत् एकांत पंडित छीए. त्यारबाद ते अन्यतीथिकोए ते स्थविर भगवंतोने एम कयुके, हे आर्यो! तमे क्या कारणथी दत्तनुं ग्रहण करो छो, यावत् दत्तनी अनुमति आपो छो, जेथी दत्तनुं ग्रहण क ता तमे यावत् एकांत पंडित छो? तए णं ते थेरा भगवंतो ते अन्नउत्थिए एवं वयासी-अम्हे णं अजो! दिज्जमाणे दिन्ने पडिग्गहेजमाणे पडिग्गहिए निसिरिजमाणे निसट्टे, जेणं अम्हे णं अजो! दिजमाण पडिग्गहगं असंपत्तं एत्थ णं अंतरा: AAAAA4 For Private and Personal Use Only Page #100 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra व्याख्याप्रज्ञप्तिः ॥६७० ॥ www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir केइ अवहरेजा अम्हाणं तं णो खलु तं गाहावइस्स, जए णं अम्हे दिनं भुंजामो दिनं सातिनामो तए णं अम्हे दिन्नं गेण्हमाणा जाव दिनं सातिज्जमाणा तिविहं तिविहेणं संजय जाव एगंतपंडिया यानि भवामो, तुझे णं अज्जो अप्पणा चैव तिविहं तिविहेणं अस्संजय जाव एगंतबाला यावि भवह, तए णं ते अन्नउत्थिया ते धेरे भगवंते एवं वयासी-केण कारणेणं अज्जो ! अम्हे तिविहं जाव एगंतबाला यावि भवामो ?, तए णं ते थेरा भगवंतो ते. अन्न स्थिर एवं वयासी-तुज्झे णं अज्जो ! अदिन्नं गेण्हह ३, तए णं अज्जो तुग्भे अदिन्नं गे० जाव एगंत०, ते पछी ते स्थविर भगवंतोए ते अन्यतीर्थिकोने ए प्रमाणे कछु के, हे आर्यो ! अंमारा मतमां अपातुं ते अपायेलं, ग्रहण करातुं ते ग्रहण करायलं, अने ( पात्रमां ) नंखातुं ते नंखायेलं छे, जेथी हे आर्यो ! अमने देवातो पदार्थ ज्यांसुधी पात्रमां नथी पडचो तेवामां वचमां कोइ ते पदार्थनो अपहार करे तो ते अमारा पदार्थनो अपहार थयो एम कहेवाय, पण ते गृहपतिना पदार्थनो अपहार थयो एम न कहेवाय, माटे अमे दत्तनुं ग्रहण करीए छीए, दत्तनुं भोजन करीए छीए, अने दत्तनी अनुमति आपीए छीए, तेथी दत्तनुं ग्रहण करता यावत् दत्तनी अनुमति आपता अमे त्रिविध त्रिविधे संयत, यावत् एकांत पंडित पण छीए. हे आर्यो ! तमे पोतेज त्रिविध त्रिविधे असंयत यावत् एकांत बाल छो. त्यारबाद ते अन्यतीर्थिकोए ते स्थविर भगवतोने एम कछु के, हे आर्यो ! क्या कारणथी अमे त्रिविध त्रिविधे यावत् एकांत बाल छीए ? त्यारबाद ते स्थविर भगवंतोए ते अन्यतीर्थिकोने एम क. के, हे आर्यो ! तमे अदत्तनुं ग्रहण करो छो, अदत्तनुं भोजन करो छो अने अदत्तनी अनुमति आपो छो माटे अदत्तनुं ग्रहण करता | तमे यावत् एकांत बाल छो. For Private and Personal Use Only ८ शतके उद्देशः ७ ॥६७०॥ Page #101 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagersuri Gyanmandit ८शतके व्याख्याप्रज्ञप्तिः ॥६७१॥ उद्देशः७ ॥६७१॥ * तए ण ते अन्नउत्थिया ते घेरे भगवते एवं वयासी-केण कारणेणं अम्हें अदिनं गेण्हामोजाव एगंतवा ? तए णं ते थेरे भगवंते ते अन्नउस्थिए एवं वयासी-तुझे णं अज्जो दिजमाणे अदिन्न तं चेव जावगाहावइस्सणं, णोखलुतं तुझे, तएणं तुडभे अदिन्नं गेण्हह, तं चेव जाव एगंतवाला यावि भवह । तएणते अन्नउ० ते थेरे भ०एवं &व०-तुज्झे अज्जो ! तिविहं तिविहेणे अस्संजय जाव एगंतषा. भवह तए णं ते थेरा भ० ते अन्नउत्थिए एवं| घयासी-केण कारणेणं अम्हे तिविहं तिविहेणं जाव एयंतबाला यावि भवामो ?, तए ण ते अन्नउत्थिया ते थेरे भगवंते एवं वयासी-तुझे णं अजो! रीयं रीयमाणा पुढवि पेचेह अभिहणह वत्तेह लेसेह संघाएह संघद्देह परितावेह किलामेह उद्दवेह, तए णं तुज्झे पुढवि पेच्चेमाणा जाव उवहवेमाणा तिविहं तिविहेणं असंजयअविरय जाव एगंतवाला यावि भवह, त्यारपछी ते अन्यतीथिकोए ते स्थविर भगवतीने एम कयु के, हे आर्यो ! अमे क्या कारणथी अदत्तनुं ग्रहण करीए छीप, यावत् एकांत बाल छीए? त्यारबाद ते स्थविर भगवतोए ते अन्यतीर्थिकोने एम कहाँ के, हे आर्यों! तमारा मतमा अपातुं ते अपायेखें नयी-इत्यादि पूर्वनी पेठे कहे. यावत् ते वस्तु गृहपतिनी छे, पण तमारी नयी, माटे तमे अदत्तनुं ग्रहण करो छो, यावत् पूर्व प्रमाणे तमे एकांत बाल छो. त्यारपछी ते अन्यतार्थकोए ते स्थविर भगवंतोने एम कयु के, हे आयों ! तमे त्रिविध त्रिविधे असंयत यावत् एकांत बाल छो. त्यारबाद ते स्थविर भगवंतोए ते अन्यतीर्थकोने एम कडं के, हे आर्यो ! अमे क्या कारणर्थी त्रिविध त्रिविधे यावत् एकांत बाल छीए ? स्पारपछी ते अन्यतीर्थकोए ते स्थविर भगवंतोने एम कयु के, हे आर्यों ! तमे गति करता पृथिवीना जीवने * * For Private and Personal Use Only Page #102 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatrth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandit A व्याख्याप्रज्ञप्तिः ॥६७२॥ ८ शतके देवावो छो, इणो छो, पादाभिघात करो छो, श्लिष्ट (संघर्षित) करो छो, सहत-एकठा करो छो, संघहित-स्पर्शित, करो छो, परितापित करो छो, क्लांत करो छो अने तेओने मारो छो; तेथी पृथिवीना जीवने दबावता, यावत् मारता तमे त्रिविध त्रिविधे असंयत, अविरत अने यावत् एकांत बाल पण छो. | उद्देशः ७ तए णं ते थेरा भगवंतो ते अन्नउथिए एवं वयासी-नो खलु अजो! अम्हे रीयं रीयमाणा पुढविं ॥६७२॥ पेचेमो अभिहणामो जाव उवद्दवेमो, अम्हे णं अजो! रीयं रीयमाणा कायं वा जोयं वा रीयं वा | पडुच्च देसं देसेण वयामो पएस पएसेणं वयामो, ते णं अम्हे देसं देसेणं वयमाणा पएस पएसेणं वयमाणा नो पुढविं पेञ्चेमो अभिहणामो जाव उवद्दवेमो, तए णं अम्हे पुढविं अपेचेमाणा अणभिहणेमाणा जाव अणुवद्दवेमाणा तिविहं तिविहेणं संजय जाव एगंतपंडिया यावि भवामो, तुज्झे गं अजो! अप्पणा चेव तिविहं तिविहेणं अस्संजय जाव वाला यावि भवह, तए णं ते अन्नउत्थिया थेरे भगवंते एवं वयासी-केण कारणेण अजो। है अम्हे तिविहं तिविहेणं जाव एगंतवाला यावि भवामो ?, तए णं ते थेरा भगवंतो अन्नउत्थिए एवं वयासी-तुब्मे । णं अजो!रीय रीयमाणा पुढविं पे जाव उद्दवेह, तए णं तुझे पुढविं पेञ्चेमाणा जाव उबद्दवेमाणा तिविहं तिविहेणं जाव एगंबाला यावि भवह, त्यारवाद ते स्थविर भगवंतोए ते अन्यतीर्थकोने एम कयुके, हे आर्यों! गति करता अमे पृथिवीना जीवने दवावता नथी, | हणता नथी, यावत् तेओने मारता नथी, हे आर्यो ! गति करता अमे कायना (शरीरना) कार्यने आश्रयी, योगने (ग्लानादिनी सेवाने) asax GANG+ For Private and Personal Use Only Page #103 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatrh.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir व्याख्याप्रज्ञप्तिः ॥६७३॥ आश्रयी अने सत्यने ( जीवरक्षणरूप संयमने ) आश्रयी एक स्थळेथी बीजे स्थळे जइण छीए, एक प्रदेशथी बीजे प्रदेशे जइए छीप, तो एक स्थळेयी बीजे स्थळे जता अने एक प्रदेशथी बीजे प्रदेशे जता अमे पृथिवीना जीवने दवावता नथी, तेओने हणता नथी, कादशतके यावत् तेओने मारता नथी; तेथी पृथिवीना जीवोने नहि दबावता, नहीं हणता, यावत् नहीं मारता अमे त्रिविध त्रिविधे संयत, यावत् उद्देशः ७ एकांत पंडित छीए, हे आर्यों ! तमे पोतेज त्रिविध त्रिविधे असंयत यावत् एकांत बाल पण छो. त्यारपछी ते अन्यतीथिकोए ते ॥६७॥ स्थविर भगवंतोने एम कर्दा के, हे आर्यो! क्या कारणथी अमे त्रिविध त्रिविवे यावत् एकांत बाल पण छीए ? त्यारबाद ते स्थविर भगवंतोए ते अन्यतीथिकोने एम का के, हे आर्यो! गति करता तमे पृथिवीना जीवने दबावो छो, यावत् मारो छो, माटे पृथिवीना जीपने दयावता, यावत् मारता तमे त्रिविध त्रिविधे (असंयत) यावत् एकांत बाल छो. तए णं ते अन्नउत्थिया ते थेरे भगवंते एवं वयासी-तुज्झे णं अन्जो! गममाणे अगते वीतिकमिजमाणे अवीतिकते रायगिहं नगरं संपाविउकामे असंपत्ते, तए णं ते थेरा भगवंतो ते अन्नउत्थिए एवं वयासी-नो खलु अजो! अम्हं गममाणे अगए वीइकमिजमाणे अवीतिकंतेरायगिहं नगरं जाव असंपत्ते, अम्हाणं अज्जो! गममाणे गए वीतिकमिजमाणे वितिक्ते रायगिहं नगरं संपाविउकामे संपत्ते, तुज्झे णं अप्पणा चेव गममाणे अगएर वीतिकमिज्जमाणे अवीकिंते रायगिहं नगरं जाव असंपत्ते,तए णं ते थेरा भगवंतो अन्नउत्थिा एवं पडिहणेन्ति, पडिहणित्ता गइप्पवायं नाम अज्झयणं पन्नवइंसु ॥ (सूत्रं ३३६)॥ त्यारपछी ते अन्यतीथिकोए ते स्थविर भगवतीने एम कथु के, हे आर्यों! तमारा (मते) गम्यमान-जे स्थळे जवातुं होय ते For Private and Personal Use Only Page #104 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra व्याख्या प्रज्ञप्तिः ॥६७४॥ www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir अगत-न जवायेलं कहेवाय, जे उल्लंघन करातुं होय ते न उल्लंघन करायेलं एम कईवाय, अने राजगृह नगरने प्राप्त करवानी इच्छावाळाने न प्राप्त थं एम कहेवाय. ते पछी ते स्थविर भगवंतोए ते अन्यतीर्थिकोने एम कछु के, हे आर्यो ! अमारा ( मते) गम्यमान-जे स्थळे जवातुं होय ते अगत-न जवायेलं, व्यतिक्रम्यमाण-उल्लंघन करातुं ते अव्यतिक्रांत-उल्लंघन न करायेलं, अने राजगृह नगरने प्राप्त करवानी इच्छावाळाने असंप्राप्त-न प्राप्त थयेलुं न कद्देवाय, पण हे आयो ! अमारा ( मते) गम्यमान ते गत, व्यतिक्रम्यमाण ते व्यतिक्रांत अने राजगृह नगरने प्राप्त करवानी इच्छावाळाने ते संप्राप्त कहेवाय हे तमारे मते गम्यमान ते अगत, व्यंतिक्रम्यमाण ते अव्यतिक्रांत अने राजगृह नगरने यावत् प्राप्त करवानी इच्छावाळाने ते असंप्राप्त छे. ते पछी ते स्थविर भगवंतोए ते अन्यतीर्थिकोने ए प्रमाणे निरुत्तर कर्या, अने निरुत्तर करीने तेओए गतिप्रपात नामे अध्ययन प्ररूप्यं ॥ ३३६ ॥ कवि णं भंते! गइप्पवाए पण्णत्ते ?, गोयमा ! पंचविहे गइप्पवाए पण्णत्ते, तंजा-पयोगगती ततगती | बंधणछेयणगती उववाथगती विहायगती, एत्तो आरम्भ पयोगपयं निरवसेसं भाणियव्वं, जाव सेत्तं विहायगई । सेवं भंते ! सेवं भंते! त्ति (सूत्र ३३७ ) । अट्ठमसयस्स सत्तमो उद्देसो सम्मत्तो ॥ ८-७ ॥ [प्र०] हे भगवन् ! गतिपातो केटला प्रकारे कथा छे ? [उ० ] हे गौतम ! गतिपातो पांच प्रकारना कया है, ते आ प्रमाणे - १ प्रयोगगति, २ ततगति, ३ बंधन छेदनगति, ४ उपपातगति अने ५ विहायोगति. अहींथी आरंभीने सघळु प्रयोगपद अहीं कहे यावत् ए प्रमाणे विहायोगति छे. हे भगवन् ! ते एमज छे. हे भगवन्! ते एमज छे. एम कहीने भगवान् गौतम यावत् विहरे छे ।। ३३७ ।। भगवत् सुधर्मस्वामीप्रणीत श्रीमद् भगवतीसूत्रना आठमा शतकमां सातमा उद्देशानो मूलार्थ संपूर्ण थयो. For Private and Personal Use Only ८ शतके उद्देशः ७ ॥६७४॥ Page #105 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir व्याख्याप्रज्ञप्तिः ॥६७५॥ ८ शतके उद्देशः८ ॥६७५॥ उद्देशक ८. रायगिहे नगरे जाव एवं वयासी-गुरूण भंते ! पडुच्च कति पडिणीया पण्णता?, गोयमा! तओ पडिणीया पण्णत्ता ?, तंजहा-आयरियपडिणीए उवज्झायपडिणीए थेरपडिणीए ॥ गई णं भंते ! पडुश्च कति पडिणीया पण्णत्ता ?, गोयमा! तओ पडिणीया पण्णत्ता, तंजहा-इहलोगपडिणीए परलोगपडिणीए दुहओलोगपडिणीए।। समूहष्ण भंते! पडुच्च कति पडिणीया पण्णत्ता?, गोयमा! तओ पडिणीया पण्णत्ता,तंजहा-कुलपडिणीए गणपडिणीए संघपडिणीए। अणुकंप पडुच्च पुच्छा,गोयमा! तओ पडिणीया पण्णत्ता, तंजहा-तवस्सिपडिणीए गिलाणपडिणीए सेहपडिणीए । सुयण्णं भंते ! पडुच्च पुच्छा, गोयमा! तओ पडिणीया पण्णत्ता. तंजहा-सुत्तपडिणीए अत्थपडिणीप तदुभयपडिणीए । भावं णं भंते ! पडुच्च पुच्छा, गोयमा! तओ पडिणीया पन्नत्ता, तंजहा| नाणपडिणीए सणपडिणीए चरित्तपडिणीए ॥ (सूत्रं ३३८)॥ राजगृह नगरमां (गौतमे) यावत् ए प्रमाणे काके हे भगवन् ! गुरुओने आश्रयी केटला प्रत्यनीको (द्वेपी) कह्या है ? [उ०] हे गौतम! त्रण प्रत्यनीको कह्या छे, ते आ प्रमाणे-आचार्यप्रत्यनीक, उपाध्यायप्रत्यनीक अने स्थविरप्रत्यनीक. [प्र०] हे भगवन् ! गतिने आश्रयी केटला प्रत्यनीको कह्या छे ? [उ०] हे गौतम ! त्रण प्रत्यनीको कया छे. ते आ प्रमाणे-इहलोकप्रत्यनीक परलोकप्रत्यनीक अने उभयलोकप्रत्यनीक. [प्र०] हे भगवन् ! समूहने आश्रयी केटला प्रत्यनीको कह्या छ ? [उ०] हे गौतम! त्रण प्रत्यनीको कह्या छे, ते आ प्रमाणे-कुलप्रत्यनीक, मणप्रत्यनीक अने संघप्रत्पनीक. [प्र.] हे भगवन् ! अनुकंपाने आश्रयी प्रश्न; अर्थात् For Private and Personal Use Only Page #106 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir व्याख्याप्रज्ञप्तिः ॥६७६॥ ८शतके उद्देशः८ ॥६७६॥ केटला प्रत्यनीको कह्या छ ? [उ०] हे गौतम ! अनुकंपाने आश्रयी त्रण प्रत्यनीको कह्या छे, ते आ प्रमाणे-तपखिप्रत्यनीक, ग्लानप्रत्यनीक अने शैक्षप्रत्यनीक. [प्र०] हे भगवन् ! श्रुतने आश्रयी प्रश्न. [उ०] हे गौतम! त्रण प्रत्यनीको कह्या छे, ते आ प्रमाणेसूत्रप्रत्यनीक, अर्थप्रत्यनीक अने तदुभयप्रत्यनीक. [सं०] हे भगवन् ! भावने आश्रयी प्रश्न. [उ०] हे गौतम ! त्रण प्रत्यनीको कह्या छे,ते आ प्रमाणे-ज्ञानप्रत्यनीक, दर्शनप्रत्यनीक अने चारित्रप्रत्यनीक. ॥ ३३८ ॥ कइविहे णं भंते ! ववहारे पन्नत्ते ?, गोयमा ! पंचविहे ववहारे पन्नत्ते, तंजहा-आगमे सुत्तं आणा धारणा जीए, जहा से तत्य आगमे सिया आगमेणं ववहारं पट्टवेजा, णो य से तत्थ आगमे सिया जहा से तत्थ सुते सिया सुएणं ववहारं पट्टवेजा, णो वा से तत्थ सुए सिया जहा से तत्थ आणा सिया आणाए ववहारं पट्टवेज्जा, णो य से तत्थ आणा सिया जहा से तत्थ धारणा सिया धारणाए ण ववहारं पट्टवेजा, णो य से तत्थ धारणा सिया जहा से तत्थ जीए सिया जीएणं ववहारं पट्टवेजा, इच्चेएहिं पंचहिं ववहारं पट्टवेजा, तंजहा-आगमेणं सुएणं आणाए धारणाए जीएणं, जहा २ से आगमे सुए आणा धारणा जीए तहा २ ववहारं पट्टवेजा ॥ से किमाहु भंते !, आगमबलिया समणा निग्गंथा, इच्चेतं पंचविहं ववहारं जया २ जहिं २ तहा २ तहिं २ अणि. स्सिओवस्सितं सम्मं ववहरमाणे समणे निग्गंथे आणाए आराहए भवइ ।। (सूत्रं ३३९)॥ [प्र०] हे भगवन् ! व्यवहार केटला प्रकारनो कसो छ ? [उ०] हे गौतम ! व्यवहार पांच प्रकारे कह्यो छे, ते आ प्रमाणे-१ आगमव्यवहार, २ श्रुतव्यवहार, ३ आज्ञाब्यवहार,४ धारणाव्यवहार अने ५ जीतव्यवहार. ते पांच प्रकारना व्यवहारमा तेनी पासे For Private and Personal Use Only Page #107 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra व्याख्या प्रज्ञप्तिः ॥ ६७७॥ www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir जे प्रकारे आगम होय ते प्रकारे तेणे आगमयी व्यवहार चलाववो, तेमां जो आगम न होय तो जे प्रकारे तेनी पासे श्रुत होय ते श्रुतवडे व्यवहार चलाववो, अथवा जो तेमां श्रुत न होय तो जे प्रकारे तेनी पासे आज्ञा होय ते प्रकारे तेथे आज्ञावडे व्यवहार चलाववो. जो तेमां आज्ञा न होय तो जे प्रकारे तेनी पासे धारणा होय ते प्रकारे धारणा वडे तेणे व्यवहार चलाववो. जो तेमां धारणा न होय तो जे प्रकारे तेनी पासे जीत होय ते प्रकारे तेणे जीतवडे व्यवहार चलात्रवो. ए. प्रमाणे ए पांच व्यवहारोडे व्यबहार चलाववो, ते आ प्रमाणे-आगम, श्रुत, आज्ञा, धारणा अने जीतवडे जे जे प्रकारे तेनी पासे आगम, श्रुत, आज्ञा, धारणा अने जीत होय ते ते प्रकारे तेणे व्यवहार चलाववो. [प्र०] हे भगवन् ! आगमना बलवाळा श्रमण निर्ग्रथो शुं कहे छे ? अर्थात् पंचविध व्यवहार फल शुं कहे छे ? [उ०] ए प्रकारे आ पांच प्रकारना व्यवहारने ज्यारे ज्यारे अने ज्यां ज्यां (उचित होय) त्यारे प्यारे त्यां त्यां अनिश्रपश्रित- रागद्वेषना त्यागपूर्वक सारीरीते व्यवहारतो श्रमण निग्रंथ आज्ञानो आराधक थाय छे. ॥ ३३९ ॥ कवि णं भंते! बंधे पण्णत्ते !, गोयमा ! दुविहे बंधे पन्नत्ते, तंजहा-ईरियावहियाबंधे य संपराइयबंधे य। ईरियावहियण्णं भंते ! कम्मं किं नेरइओ बंधइ तिरिक्खजोणिओ बंधइ तिरिक्खजोणिणी बंधइ मणुस्सो बं० मणुस्सी बं० देवो बं० देवी बं० ?, गोग्रमा ! नो नेरइओ बंधइ नो तिरिक्खजोणिओ बंधइ नो तिरिक्खजोगिणी बंध नो देवो बंधह नो देवी बंधह, पुव्वपडिवन्नए पहुच मणुस्सा य मणुस्सीओ य बं० पडिवज्जमाणए पडुच्च मणुस्सो वा बंधइ १ मणुस्सी वा बंधइ २ मणुस्सा वा बंधंति ३ मणुस्सीओ वा बंधंति ४ अहवा मणुस्सो य मणुस्सी य बंधइ ५ अहवा मणुस्सो य मणुस्सीओ य बंधन्ति ६ अहवा मणुस्सा य मणुस्सी य For Private and Personal Use Only ८ शतके उद्देशः ८ ॥६७७॥ Page #108 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ८ शतके उद्देशः८ ॥६७८॥ बंधंति ७ अहवा मणुस्सा य मणुस्सीओ य बं०८॥ तं भंते! किं. इत्थी बंधइ पुरिसो बंधह नपुंसगो बंधति इत्थीओ व्याख्या- ॐबंधन्ति पुरिमा बं० नपुंसगा बंधन्ति नोइत्थीनोपुरिसोनोनपुंसओ बंधइ ?, गोयमा! नो इत्थी बंधइ नो पुरिसो प्रज्ञप्तिः बं० जाव नो नपुंसगा बंधन्ति, पुवपडिवन्नए पडुच्च अवगयवेदा बंधति, पडिवजमाणए य पडुच्च अवगयवेदो बा ॥६७८॥ बंधति अवगयवेदा वा बंधति [प्र.] हे भगवन् ! बन्ध केटला प्रकारनो कयो छे ? [उ०] हे गौतम ! बन्ध के प्रकारनो को छे, ते आ प्रमाणे-ऐपिथिकबन्ध अने सांपरायिकबन्ध. [प्र०] हे भगवन् ! ऐर्यापथिक कर्म शु१ नारक बांधे, २ तिर्यच बांधे, ३ तिर्यच वी बांधे, ४ & मनुष्य बांधे, ५ मनुष्यस्वी बांधे, ६ देव बांधे के ७ देवी बांधे ? [उ०] हे गौतम!१ नारक बांधतो नथी, २ तिर्यच बांधतो नथी, ३ तिर्यंचस्त्री बांधती नथी, ४ देव बांधतो नथी अने ५ देवी बांधती नी; पण पूर्वप्रतिपन्नने आश्रयी मनुष्यो अने मनुष्य स्वीओ बांधे छे. प्रतिपद्यमानने आश्रयी १ मनुष्य बांधे छे. २ अथवा मनुष्यस्त्री बांधे छे. ३ अथवा मनुष्यो बांधे छे. ४ अथवा मनुष्य स्त्रीओ बांधे छे; ५ अथवा मनुष्य अने मनुष्यस्त्री बांधे छे. ६ अथवा मनुष्य अने मनुष्यस्वीओ बांधे छे. ७ अथवा मनुष्यो अने मनुष्यस्त्री बांधे छे. ८ अथवा मनुष्यो अने मनुष्यस्वीओ बांधे छे.[प्र०] हे भगवन् ! ते ऐर्यापथिक कर्मने शु१खी बांधे, २ पुरुष४ वांधे, ३ नपुंसक बांधे, ४ स्त्रीओ बांधे, ५ पुरुषो बांधे, ६ नपुंसको बांधे, ७ नोस्त्री, नोपुरुष, के नोनपुंसक बांधे ? [उ.] हे गौतम! है स्त्री न बांधे, यावत् नपुंसको न बांधे; अथवा पूर्वप्रतिपनने आश्रयी वेदरहित जीवो बांधे, अथवा प्रतिपद्यमानने आश्रयी वेदरहित जीव अथवा वेदरहित जीवो बांधे. ऊARE For Private and Personal Use Only Page #109 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ८ शतके उद्देशः८ ॥६७२॥ जइ भंते ! अवगयवेदो वा बंधइ अवययवेदा वा, बंधति. ते भंते ! कि इत्थीपच्छाकडो बंधइ पुरिसपच्छाकडो बं० २ नपुंसकपच्छाकडो बं० ३. इत्यीपच्छाकडा बंधति ४ पुरिसपच्छाकडावि बंधंति व्याख्या ४५ नपुंसगपच्छाकडावि बं. ६ उदाहु इत्थिपच्छाकडो य पुरिसपच्छाकडो य बंधति ४ उदाहु इत्थीपच्छाप्रज्ञप्तिः कडो य णपुंसगपच्छाकडो य बंधइ ४ उदाहु पुरिसपच्छाकडो य णपुंसगपच्छाकडो य बंधइ. ४ उदाहु इस्थिप॥६७९॥ च्छाकडो य पुरिसपच्छाकडो य णपुंसगपच्छाकडो य भाणियब्वं ८, एवं एते छब्बीस भंगा २६ जाव उदाहु इत्थीपच्छाकडा य पुरिसप० नपुंसकप. बंधति ?, गोयमा ! इत्थिपच्छाकडोवि बंधइ १ पुरिसपच्छाकडोवि बं० २ नपुंसगपच्छाकडोवि बं०३ इत्थीपच्छाकडावि बं०४ पुरिसपच्छाकडावि बं०५ नपुंसकपच्छाकडावि ०६ अहवा इत्थीपच्छाकडो पुरिसपच्छाकडो य बंधइ ७ एवं एए चेव छब्बीस भगा भाणियव्वा, जाव अहवा इत्थिपच्छाकडा य पुरिसपच्छाकडा य नपुंसगपच्छाकडा य बंधंति ॥ [प्र०] हे भगवन् ! जो वेदरहित जीव या वेदरहित जीवो ऐर्यापथिक कर्मने बांधे तो शुं १ स्त्रीपश्चात्कृत (जेने पूर्व स्त्रीवद होय एवो) जीव बांधे, २ पुरुषपश्चात्कृत (जेने पूर्व पुरुषवेद होय एवो) जीव बांधे, ३ नपुंसकपश्चात्कृत (जेने पूर्वे नपुंसक वेद होय एवो) जीव बांधे, ४ स्त्रीपश्चात्कृत जीवो बांधे, ५ पुरुषपश्चात्कृत जीवो बांधे, के ६ नपुंसकपश्चात्कृत जीवो बांधे ?; ४ अथवा स्त्रीपवात्कृत अने पुरुषपश्चात्कृत जीव बांधे ? स्त्रीपश्चात्कृत अने पुरुषपश्चात्कृत जीवो बांधे ? ४ अथवा स्त्रीपश्चात्कृत अने नपुंसकपश्चात्कृत बांधे?४ अथवा पुरुषपश्चात्कृत अने नपुंसकपश्चात्कृत बांधे? ८ अथवा स्त्रीपश्चात्कृत, पुरुषपश्चात्कृत अने नपुंसकपश्चात्कृत पण कहेवा. For Private and Personal Use Only Page #110 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ८ शतके ध्याख्याप्रज्ञप्तिः ॥६८०॥ उद्देशः ८ ६८०॥ ए प्रमाणे ए छब्बीस भंगो जाणवा, यावत् अथवा स्त्र पश्चात्कृतो, पुरुषपश्चात्कृतो अने नपुंसकपश्चात्कृतो बांधे? [उ०] हे गोतम! १ स्त्रीपश्चात्कृत पण बांधे. २ पुरुषपश्चात्कृत पण बांधे अने ३ नपुंसकपश्चात्कृत पण बांधे ४ स्त्रीपश्चात्कृतो बांधे, ५ पुरुषपश्चात्कृतो बांधे अने ६ नपुंसकपश्चात्कृतो पण बांध, अथवा ७ स्त्रीपश्चात्कृतो अने पुरुषपश्चात्कृतो बांधे, ए प्रमाणे ए छब्बीस भांगा कहेवा. | यावत् अथवा स्त्रोपश्चात्कृतो, पुरुषपश्चात्कृतो अने नपुंसकपश्चात्कृतो बांधे. तं भंते! किं बंधी बंधइ बंधिस्सइ १ बंधी बंधइ न बंधिस्सइ २ बंधी न बंधइ बंधिस्सइ ३ बंधी न बंधई न बंधिस्सइ ४ न बंधी बंधइ बंधिस्सइन बंधी बंधइ न बंधिस्सइ ६ न बंधी न बंधई बंधिस्सइ ७न बंधी न बंधइ। न बंधिस्सइ ८ ?, गोयमा ! भवागरिस पडुच अत्थेगतिए बंधी बंधइ बंधिस्सइ, अत्थेगतिर बंधी बंधइ न बंधि| स्सइ, एवं तं चेव सव्वं जाव अत्थेगतिए न बंधी न बंधइ न बंधिस्सह, गहणागरिमं पडुच्च अत्थेगतिए बंधी बंधइ बंधिस्सइ एवं जाव अन्थेगतिए न बंधी बंधइ बंधिस्सइ, णो चेव णं न बंधी बंधइ न बंधिस्सइ, अत्थेगतिए. न बंधी न बंधइ बंधिस्सइ अत्थेगतिए न बंधी न बंधइन बंधिस्सइ ॥ तं भंते ! किं साइयं सपजवसियं बंधड़ साइयं अपजवसियं बंधइ अगाइयं सपज्जवसियं बंधइ अणाइयं अपज्जवसियं बंधइ ?, गोयमा ! साइयं सपज्जवसियं बंधड, नो साइयं अपजवसियं बंधइ नो अणाइयं सपज्जवसियं बंधइ नो अणाइयं अपज्जवसिय बंधइ ॥ भंते ! किं देसेणं देसं बंधड़ देसेणं सव्वं बंधइ सब्वेणं देसं बंधइ सब्वेणं सव्वं बंधइ ?, गोयमा! नो देसेणं देसं बंधइ णो देसेणं सव्वं बंधइ नो सब्वेणं दसं बंधह, सब्वेणं सव्वं बंधइ ॥ (सूत्रं ३४०)॥ For Private and Personal Use Only Page #111 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir * * [प्र०] हे भगवन् ! ते (ऐर्यापथिक कर्मने) कोइए शु बांध्यु छे, बांधे थे, अने बांधशे; २ बांध्यं छे. बांधे छै 'अने नहीं बांधे DI३ बांध्यं छे, बाधतो नथी अने बांधशे; ४ बांध्यु छे, बांधतो नथी अने नहि बांधेः ५ बांध्यं नथी बांधे के अने बांधशे; ६ बांध्यं शतक व्याख्या-1 नथी, बांधे के अने नहि बांधे; ७ बांध्यु नथी, बांधतो नथी अने बांधशे; ८ बांभ्यु नथी, बांधतो नथी अने बांधशे नही [10] हे131 उद्देशः ८ प्राप्ति | गौतम ! भवाकर्षने आश्रयी कोइ एके वांध युंळे, बांधे के अने बांधशे; कोइ एके बांध्यु छे, बांधे छे अने बांधशे नहीं; ए रीते बधुंद ॥६८१॥ ते प्रमाणेज जाणवू, यावत कोइ एके बांध्यु नथी, बांधतो नथी अने बांधशे नहीं. ग्रहणाकर्षने आश्रयी कोइ एके बांध्युं छे, बांधे ॥६८१॥ छे अने बांधशे. ए प्रमाणे यावत् कोइ एके बांध्यु नथी, बांधे छ भने बांधशे; पण 'बांध्यु नथी, बांधे छे अने बांधशे नहीं' ए| भांगो नथी. कोइ एके बांध्यं नथी, बांधतो नथी अने बांधशे; कोइ एके बांध्यु नथी, बांधतो नथी अने बांधशे नहीं. [प्र०] हे| भगवन् ! ते (ऐपिथिक कर्म) शु १ सादि सपर्यवसित बांधे, २ सादि अपर्यवसित बांधे, ३ अनादि सपर्यवसित बांधे के ४ अनादि अपर्यवसित बांधे ? [उ०] हे गौतम! सादि सपर्यवसित बांधे पण सादि अपर्यवसित न बांधे, तेम अनादि सपर्यवसित अने अनादि अपर्यवसित न बांधे. [प्र०] हे भगवन् ! ते (ऐपिथिक) कर्मने शुं देशथी देशने बांधे, देशथी सर्वने बांधे, सर्वथी देशने बांधे, के सर्वर्या सर्वने बांधे ? [उ०] हे गौतम ! देशथी देशने बांधतो नथी, देशथी सबने बांधतो नथी, सर्वथी देशने बांधतो नथी, पण सर्वथी सर्वने बांधे छे. ॥ २४ ॥ | संपराइयण्णं भंते ! कम्मं किं नेरइयो बंधइ तिरिक्खजोणिओ बंधह जाव देवी बंधइ ? गोयमा ! नेरइओवि |* बंधइ तिरिक्खजोणिओवि बंधह तिरिक्वजोणिणीवि बंधइ मणुस्सोवि बंधड़ मणुस्सीवि बंघइ देवोवि वंधड कसरी * For Private and Personal Use Only Page #112 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir व्याख्याप्रज्ञप्तिः ॥६८२॥ ८ शतके उद्देशः ८ ॥६८२॥ देवीवि बंधइ ॥ तं भंते ! किं इत्थी बंधइ पुरिसो बं० तहेव जाव नोइत्थीनोपुरिसोनोनपुंसओ बंधइ ?, गोयमा! इत्थीवि पं० पुरिसोवि बंधइ जाव नपुंसगोवि बंधइ अहवेए य अवगयवेदो य बंधइ अहवेए य अवगयवेया य |बंधति । जइ भंते ! अवगयवेदो य बंधइ अवगयवेदा य बंधन्ति तं भंते ! किं इत्थीपच्छाकडो बंधह पुरिसपच्छा| कडो बंधइ ? एवं जहेव ईरियावहियाबंधगस्स तहेव निरवसेसं जाव अहवा इत्थीपच्छाकडा य पुरिसपच्छाकडा |य [बंधन्ति नपुंसगपच्छाकडा य बंधंति ॥ तं भंते ! किं बंधी बंधइ बंधिस्पड १ बंधी बंधइन बंधिस्सइ २ बंधी न बंधइ बंधिस्सइ ३ बंधी न बंधइ न बंधिस्सइ ४१, गोयमा ! अत्थेगतिए बंधी बंधा बंधिस्सइ १ अत्थेगतिए बंधी बंधइ न बंधिस्सइ २ अत्थेगतिए बंधी न बंधइ बंधिस्सइ ३ अत्थेगतिए यंधी न बंधइन पंधिस्मइ ॥ तं भंते ! किं साइयं सपज्जवसिय बंधइ.? पुच्छा तहेव, गोयमा ! साइयं वा सपजवसियं बंधइ अणाइयं वा सपज्जवसियं बंधा अणाइयं वा अपज्जवसियं बंधइ, णो चेव णं साइयं अपजवसिय बंधइ । तं भंते! किं देसेणं देसं | बंधह एवं जहेव ईरियावहियाबंधगस्स जाव सब्वेणं सव्वं बंधइ ( सूत्रं ३४१)॥ | [प्र०] हे भगवन् ! सांपरायिक कर्म शुं नारक बांधे, तिथंच बांधे, यावद् देवी बांधे ? [उ०] हे गौतम ! नैरयिक पण बांधे, | तियेच पण बांधे, तियचस्त्री पण बांधे, मनुष्य पण बांधे, मनुष्यस्वी पण बांधे, देव पण बांधे अने देवी पण बांधे. [प्र०] हे भग वन् ! शुं सांपरायिक कर्मने स्त्री बांधे, पुरुष बांधे, तेमज यावत् नोस्त्री, नोपुरुष अने नोनपुंसक बांधे ? [उ०] हे गौतम ! स्त्री पण |बांधे, पुरुष पण बांधे, यावद् नपुंसक पण बांधे; अथवा एओ अने वेदरहित स्त्री वगेरे एक जीव पणवांधे, अथवा एओ अने वेदरहित For Private and Personal Use Only Page #113 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ८ शतके व्याख्या- प्रज्ञप्तिः ॥६८३॥ अनेक जीवो पण बांधे. [प्र०] हे भगवन् ! (संपरायिक कर्मने) जो वेदरहितजीव अने वेदरहितजीवो बांधे तो शुं स्वीपश्चात्कृत बांधे के पुरुषपश्चात्कृत बांधे ? इत्यादि. [उ.] ए प्रमाणे जेम ऐर्यापथिकना बंधकने कई (सू. १२.) तेम अहीं सर्व जाणवू, अथवा खीपश्चात्कृत जीवो, पुरुषपश्चात्कृत जीवो अने नपुंसकपश्चात्कृत जीवो बांधे छे. [प्र०] हे भगवन् ! शु कोइए सांपरायिक कमने १ उद्देशः८ बांध्यु, बांधे छे अने बांधशे; २ बांध्यू, बांधे छे, अने बांधशे नहीं, ३ बांध्यु, बांधतो नथी अने बांधशे नहीं; ४ बांध्यू, बांधतो ॥६८३॥ नथी अने बांधशे नहीं ? [उ०] हे गौतम! १ केटला एके चांध्यु छे, बांधे छे अने बांधशे; २ केटला एके बांगुं छे, बांधे छ | अने बांधशे नहीं; ३ केटला एके बांध्यं, बांधता नथी अने बांधशे; ४ केटला एके बांध्यु, बांधता नथी अने बांधशे नहीं. [प्र.] हे भगवन् ! ते (सांपरायिक कर्मने) शु सादि सपर्यवसित बांधे छे ?-इत्यादि प्रश्न. [उ०] हे गौतम! १ सादि सपर्यवसित बांधे छे २ अनादि सपर्यवसित बांध के ३ अनादि अपर्यवसित बाधे छे; पण सादि अपर्यवसित बांधतो नथी. [प्र.] हे भगवन् ! (सांपरायिक कर्मने) शुं देशथी (जीवना देशथी) देशने (कर्मना देशने) बांधे छे ? इत्यादि. [उ०] जेम एर्यापथिक बंधक संबन्धे: कडं (सू. १५.) तेम जाणवू, यावत् 'सर्वथी सर्वने बांधे छे.' ॥ २४१ ।। कह भंते ! कम्मपयडीओ पन्नत्ताओ?, गोयमा ! अट्ठ कम्मपयडीओ पन्नत्ताओ, तंजहाणाणावरणिज्ज जाव अंतराइयं ॥ कइ णं भंते ! परीसहा पण्णत्ता ?, गोयमा ! बावीस परीसहा पन्नत्ता, तंजहा-दिगिंछापरीसहे पिवासापरीसहे जाव दंसणपरीसहे । एए णं भते! बावीसं परिसहा कतिसु कम्मपगडीसु समोयरंति ?, गोयमा ! चउसु कम्मपयडीसु समोयरंति, तंजहा-नाणावरणिज्जे वेयणिजे मोहणिजे अंतराइए । नाणावर For Private and Personal Use Only Page #114 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir प्याख्या- प्रज्ञप्तिः ॥६८४॥ णिजे णं भंते ! कम्मे कति परीसहा समोयरंति ?, गोयमा ! दो परीसहा समोयरंति, तंजहां-पन्नापरीसहे (अन्ना)नाणपरीसहे य, वेयणिजे णं भते! कम्मे कति परीसहा समोयरंति,गोयमा! एक्कारस परीसहा समोयरंति, ८ शतके तंजहा-पंचेव आणुपुवी चरिया सेना वहे य रोगे य । तणफास जल्लमेव य एक्कारस वेदणिज्जंमि ॥ ५८॥ देस उद्देशः८ णमोहणिजे ण भते ! कम्मे कति परीसहा समोयरंति ?, गोयमा! एगे दंसणपरीसहे समोयरइ, |॥६८४॥ [प्र०] हे भगवन् ! कर्मप्रकृतिओ केटला प्रकारे कही छे ? [उ०] हे गौतम ! आठ कर्मप्रकृतिओ कही छे, ते आ प्रमाणेज्ञानावरणीय, यावद् अंतराय..[प्र०] हे भगवन् ! केटला परीषहो कद्या छ ? [उ०] हे गौतम ! बावीश परीषहो कला छे, ते आ4 प्रमाणे-क्षुधापरीषह, पिपासापरीषह, यावद् दर्शनपरीषह. [प्र.] हे भगवन् ! बावीश परीपहोनो केटली कर्मप्रकृतिओमां समवतार थाय ? [उ०] हे गौतम! ते बाविश परीषहोनो चार कर्मप्रकृतिमा समवतार थाय छे, ते आ प्रमणे-ज्ञानावरणीय, वेदनीय, मोहनीय, अने अंतराय. [प्र०] हे भगवन् ! ज्ञानावरणीयकर्ममा केटला परीषहोनो समवतार थाय ? [उ.] हे गौतम! बे परीषहोनो समवतार थाय छे ते. आ प्रमाणे-प्रज्ञापरीषह अने ज्ञानपरीपह, [प्र०] हे भगवन्! वेदनीयकर्ममा केटला परीपहोनो समवतार थाय छे ? [उ०] हे गौतम ! वेदनीयकर्ममा अग्यार परीषहो समवतरे छे, ते आ प्रमाणे-अनुक्रमे पहेला पांच परीषहो-(क्षुधा, पिपासा, शीत, उष्ण, अने दंशमशक.) चर्या शय्या, वध, रोग, तृणस्पर्श अने मलपरिषह-ए अग्यार परिषहोनो वेदनीयकर्ममा समवतार | थाय छे. [प्र०] हे भगवन् ! .दर्शनमोहयकर्ममा केटला परीपहोनो समवतार थाय छे ? [३०] हे गौतम ! तेमा एक दर्शन परीपहनो समवतार थाय के. For Private and Personal Use Only Page #115 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir व्याख्याप्रज्ञप्तिः ॥६८५॥ ८ शतके उद्देशः ८ ॥६८५॥ चरित्तमोहणिज्जेणं भंते ! कम्मे कति परीसहा समोयरंति!,गोयमा सत्त परीसहा समोयरंति,तंजहा-अरती अचेल इत्थी निसीहिया जायगा य अकोसे। सकारपुरकारे चरित्तमोहंमि सत्तेते। ५९॥ अंतराइए णं भंते ! कम्मे कति परीसहा समोयरंति?,गोयमा! एगे अलाभपरीसहे. समोयरइ ॥ सत्तविहवंधगस्स ण भते! कति परीसहा पण्णत्ता ?, गोयमा! बावीस परीसहा पण्णत्ता, वीसं पुण वेदेइ, जं समयं सीयपरीसहं वेदेति णो सं समय उसिणपरिसहं वेदेइ, जं समयं उसिणपरीसहं वेदेइ णो तं समयं सीयपरीसंह बेदेइ, जं समयं चरियापरीसहं वेदेति जो तं समय निसीहियापरिसहं वेदेति, ज समयं निसीहियापरिमहं वेदेइ णो तं समयं चरियापरीसहं वेदेव । एवं अट्टविहबंधगस्सवि । छविहबंधगस्स णं भंते ! सरागछउमत्थस्स कति परीसहा पण्णत्ता ?, गोयमा ! चोइस परीसहा पण्णत्ता, बारस पुण बेदेइ, जं समयं सीयपरीसहं वेदेइ णो तं समय उसिणपरीसहं वेदेइ, ज समयं उसिणपरीसहं वेदेइ नो तं समयं सीयपरीसहं वेदेइ, जं समयं चरियापरीसहं वेदेति णो तं समयं सेज्जापरीसहं वेदेइ जं समयं सेज्जापरीसहं वेदेति णो तं समयं चरियापरीमहं वेदेइ । [प्र०] हे भगवन् ! चारित्रमोहनीयकर्ममा केटला परीषहो समबतरे हे ? [उ०] हे गौतम! तेमां सात परीषहो समवतरे से, ते आ प्रमाणे-अरति, अचेल, स्त्री, नैपेधिकी, याचना, आक्रोश अने सत्कारपुरस्कार परीषह. ए सात परीषहो चारित्रमोहमा समवतरे टे. [प्र०] हे भगवन् ! अंतरायकर्ममा केटला परीपहो समवतरे हे ? [उ.] हे गौतम! तेमा एक अलाभ परीपह समवतरे छे. प्र०] हे भगवन् ! सात प्रकारना कर्मना बांधनारने केटला परीपहो कह्या छे? [उ०] हे गौतम ! बाबीश परीषहो कह्या हे. पण For Private and Personal Use Only Page #116 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir A men उद्देशः८ व्याख्याप्रज्ञप्तिः ॥६८६॥ एक साथे वीश परीपहोने वेदे हे, कारण के जे समये शीतपरीषहने वेदे छे ते समये उष्णपरीषहने वेदतो नथी, अने जे समये उष्णपरीपह ने वेदे छे, ते समये शीतपरीपहने वदेतो नथी. तथा जे समये चर्यापरिषहने वेदे हे ते समये नैधिकीपरीपहने वेदतो|31८शतके नथी, अने जे समये नैषेधिकीपरीषहने वेदे छे ते समये चर्यापरीषहने वेदतो नथी. [प्र०] हे भगवन् ! आठ प्रकारना कर्मना बांध| नारने केटला परीषहो कह्या छे ? [उ०] हे गौतम ! तेने बावीश परीपहो कह्या छे, ते आ प्रमाणे-क्षुधारीषह, पिपासापरीषह, ॥६८६॥ शीतपरीषह, दंशमशकपरीपह, यावद् अलाभपरीपह, ए प्रमाणे अष्टविधबंधकने पण सप्तविध बन्धकनी जेम जाणवू. (तेने बावीश परीषहो होय छे, अने ते एक साथे वीश परीषहोने वेदे छे.) [प्र०] हे भगवन् ! छ प्रकारना कर्मना बन्धक सरागछद्मस्थाने केटला परीषहो कह्या छ ? [उ.] हे गौतम ! चौद परीपहो कह्या छे, पण ते एक साथे बार परीपहोने अनुभवे छे; कारण के जे समये शीतपरीषहने वेदे छे, ते समये उष्णपरीषहने वेदतो नथी, अने जे समये उष्णपरीपहने वेदे छे ते समये शीतपरीषहने वेदतो नथी. तथा जे समये चर्यापरिषहने वेदे छे ते समये शय्यापरीषहने वेदतो नथी, अने जे समये शय्यापरीपहने वेदे छे ते समये चर्यापरीषहने वेदतो नथी. एक्कविहबंधगस्सणं भंते! बीयरागछउमत्थस्स कति परीसहा पण्णत्ता , गोयमा! एवं चेव जहेव छब्बिहबंधगस्स णं । एगविहबंधगस्स णं भंते ! सजोगिभवत्थकेवलिस्स कति परीसहा पण्णत्ता ?, गोयमा ! एक्कारस परीसहा पण्णत्ता, नव पुण वेदेइ, सेसं जहा छब्विहबंधगस्स । अबंधगस्स णं भंते! अजोगिभवत्थकेवलिस्स कति परीसहा पण्णत्ता ? गोयमा ! एक्कारस परीसहा पण्णत्ता, नव पुण वेदेइ, जं समयं सीयपरीसहं वेदेति For Private and Personal Use Only Page #117 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ८शतके व्याख्याप्रज्ञप्तिः ॥६८७॥ | उद्देशः८ ॥६८७॥ नो तं समयं उसिणपरीसहं वेदेइ ज समयं उसिणपरीसहं वेदेति नो तं समयं सीयपरीसहं वेदेइ, जं समयं चरियापरीसहं वेदेइ नो तं समयं सेनापरीसहं वेदेति जं समयं सेनापरीसहं वेदेह नो तं समयं चरियापरीसहं वेदेइ ॥ (सूत्र ३४२)॥ | [प्र०] हे भगवन् ! एक प्रकारना कर्मना बांधनार वीतराग छद्मस्थने केटला परीपहो कह्या छे ? [उ०] हे गौतम! जेम छ प्रकारना कर्मना बांधनारने परिपहो कया छे तेम एकविधकर्मबन्धकने पण जाणवा. [प्र०] हे भगवन् ! एकविधबंधक सयोगी भवस्थ केवलज्ञानीने केटला परीपहो कह्या छ ? [उ०] हे गौतम ! अग्यार परीषहो कह्या छे, तेमां साथे नव परीपहोने वेदे छे. बाकीनुं बधुं छ प्रकारना कर्मबन्धकनी पेठे जाणवू. [प्र०] हे भगवन! कर्मवन्धरहित अयोगी भवस्थ के चलज्ञानीने केटला परीषहो कह्या छ ? [उ०] हे गौतम ! अगीयार परीषहो कहा ते तेमा साथे नव परीषहोने वेदे के कारण के जे समये शीतपरीपहने वेदे छे ते समये उष्णपरीपहने वेदता नथी, अने जे समये उष्णपरीपहने वेदे छे ते समये शीतपरीपहने वेदता नथी. तथा जे समये चर्यापरीपहने वेदे। छे ते समये शय्यापरीपहने वेदता नथी, अने जे समये शम्यापरीषहने वेदे छे ते समये चर्यापरीपहने वेदता नथी. ॥ २४२॥ जंबुद्दीवे णं भंते ! दीवे सूरिया उग्गमणमुहुत्तसि दूरे य मूले य दीसंति, मज्झंतियमुहुत्तंसि मूले य दृरे य दीसंति, अस्थमणमुहुत्तंसि दूरे य मूले य दीसंति ?, हंता गोयमा! जंबुद्दीवे णं दीवे सूरिया उग्गमणमुहुत्तंसि दूरे य तं चेव जाव अस्थमणमुहुत्तंसि दूरे य मूले य दीसंति । जंबुद्दीवे णं भंते ! दीवे सूरिया उग्गमणमुहत्तसि | मझंतियमुहुत्तंसि य अत्थमणमुहुत्तंसि य सब्वत्थ समा उच्चत्तेणं ?, हंता गोयमा! जबुद्दीवे णं दीवे सूरिया | For Private and Personal Use Only Page #118 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra व्याख्या प्रज्ञप्तिः ||६८८॥ www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir | उग्गमण जाव उच्चत्तेणं । जड़ णं भंते ! जंबुद्दीवे २ सूरिया उग्गमणमुहुत्तंसि य मज्झतिय० अत्थमणमुहुत्तंमि मूले जाव उच्चत्तणं से केणं खाइ अद्वेणं मंते ! एवं वुबइ जंबुद्दीवे णं दीवे सूरिया उग्गमणमुहुत्तंसि दूरे य मूले य दीसंति जाव अत्थमणमुहुत्तंसि दूरे य मूले य दीसंति ?, गोयमा ! [ ग्रन्थाग्रं ५००० ] लेसापडियाएणं उग्ग|मणमुहुत्तंसि दूरे य मूले य दीसंति, लेसाभितावेणं मज्झतियमुहुत्तंसि मूले य दूरेय दीसंति, लेस्मापडिघाएणं अत्थमणमुत्तंसि दृरेय मूले य दीसंति से तेणट्टेणं गोयमा ! एवं बुच्चइ-जंबुद्दीवे णं दीवे सूरिया उग्गमणमुहुत्तंसि दृरे य मूले य दीसंति जाव अत्थमण जाव दीसंति । जंबुद्दीवे णं भंते ! दीवे सूरिया किं तीयं खेत्तं ग |च्छति पप्पन्नं खेत्तं गच्छति अणागयं खेत्तं गच्छति ?, गोयमा! णो तीयं खेत्तं गच्छति, पडुप्पन्नं खेत्तं गच्छति, णो अणागयं खेत्तं गच्छति, [प्र०] हे भगवन् ! जंबूद्वीप नामे द्वीपमां वे सूर्यो उगवाना समये दूर छतां पासे देखाय हे, मध्याह्न समये पासे छतां दूर देखाय छे, अने आथमवाने समये दूर छतां पासे देखाय छे ? [ उ० ] हा, गौतम ! जंबूद्वीपमां बे सूर्यो उगवाना समये दूर छत पासे देखाय - इत्यादि, यावद् आथमवाना समये दूर छतां पासे देखाय छे. [प्र० ] हे भगवन् ! जंबूद्वीपमां बे सूर्यो उगवाना समये, मध्याह्नसमये अने आथमवाना समये सर्व स्थळे उंचाइमां सरखा छे ? [उ० ] हा, गौतम ! जंबूद्वीपमा रहेला वे सूर्यो उगवाना समये यावत् सर्वस्थळे उंचाइमां सरखा छे. [प्र० ] हे भगवन् ! जो जंबूद्वीपमां वे सूर्यो उगवाना समये, मध्याह्नसमये अने आथमवाना समये यावद् उंचाइमां सरखा छे तो हे भगवन्! एम शा हेतुथी कहो छो के जंबूद्वीपमां के सूर्यो उगवाना समये दूर छतां पासे For Private and Personal Use Only ८ शतकें उद्देशः ८ ||६८८॥ Page #119 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir व्याख्याप्रज्ञप्तिः ॥६८९॥ | देखाय छे, यावद् आथमवाना समये दर छतां पासे देखाय छे ? [उ०] हे गौतम ! लेश्याना (तेजना) प्रतिघातथी उगवाना समये दूर छतां पासे देखाय छे, लेश्याना-तेजना अभितापर्थी मध्याह्न समये पासे छतां दर देखाय छे, तथा लेश्याना प्रतिघातथी आथ-II शतक मवाना समये दूर छतां पासे देखाय छे, माटे हे गौतम! ते हेतुयी एम कवाय छे के जंबूद्वीपमां वे सूर्यो उगबाना समये दूर छतां | उद्देशः ८ पासे देखाय हे, यावद् आथमवाना समये दूर छतां पासे देखाय छे. [प्र०] हे भगवन् ! जंबूद्वीपमा बे सूर्यो शुं अतीत क्षेत्र प्रति ॥६८९॥ जाय छ, वर्तमान क्षेत्र प्रति जाय छे, के अनागत क्षेत्र प्रति जाय छे? [उ०] हे गौतम ! अतित क्षेत्र प्रति जता नथी, वर्तमान क्षेत्र प्रति जाय छे, पण अनागत क्षेत्र प्रति जता नथी. जंबुद्दीवे णं दीवे सूरिया किं तीयं खेत्तं ओभासंति पडुप्पन्नं खेत्तं ओभासंति अणागयं खेत्तं ओभासंति ?, गोयमा! नो तीयं खेत्तं ओभासंति, पडुप्पन्नं खेत्तं ओभासंति, नो अणागयं खेत्तं ओभासंति, तं भंते ! किं पुढे ओभासंति अपुढे ओभासंति?, गोयमा! पुढे ओभासंति, नो अपुढे ओभासंति, जाब नियमा छद्दिसि । जंबुद्दीवे णं भंते ! दीवे सूरिया किं तीयं खेत्तं उज्जोवेंति एवं चेव जाव नियमा छदिमि, एवं: |तवेंति एवं भासंति जाव नियमा छद्दिसिं । जंबुद्दीचे णं भंते! दीवे सूरियाणं किं तीए खेत्ते किरिया कजइ पडुप्पन्ने खेत्ते किरिया कन्नड़ अणागए खेत्ते किरिया कजइ?, गोयमा !नो तीए खेत्ते किरिया कज्जइ पडुप्पन्ने खेत्ते किरिया कजइ णो अणागए खेत्ते किरिया कजह, सा भंते! किं पुट्ठा कन्जति अपुट्ठा कजइ ?, गोयमा! पुट्ठा कजइ नो अपुट्ठा कज्जति जाव नियमा छद्दिसि । CARKAR For Private and Personal Use Only Page #120 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir प्रज्ञप्तिः ॥६९०॥ ८ शतके उद्देशः८ ॥६९०॥ SCREESOMACHAR [प्र०] हे भगवन् ! जंबूद्वीपमां बे सूर्यो अ॒ अतीत क्षेत्रने प्रकाशे छे, वर्तमान क्षेत्रने प्रकाशेद के अनागत क्षेत्रने प्रकाशे छ ? [उ०] हे गौतम ! अतीत क्षेत्रने प्रकाशता नथी, वर्तमान क्षेत्रने प्रकाशे छे, अने अनागत क्षेत्रने प्रकाशता नथी. [प्र०] हे भगवन् ! (ते सूर्यो ) स्पर्शेला क्षेत्रने प्रकाशित करे छे के अस्पर्शेला क्षेत्रने प्रकाशित करे छ ? [उ०] हे गौतम ! स्पर्शेला क्षेत्रने प्रकाशे छे | पण अस्पर्शला क्षेत्रने प्रकाशित करता नथी; यावत् अवश्य छ दिशाने प्रकाशे छे. [प्र०] हे भगवन् ! जंबूद्वीपमा वे सूर्यो शुं अतीत क्षेत्रने उयोतित करे छे ? इत्यादि. [उ.] पूर्वनी पेठे जाणवू, यावद् अवश्य छ दिशाने उयोतित करे छे, ए प्रमाणे तपावे छे, यावद् अवश्य छ दिशाने प्रकाशे छे. [प्र०] हे भगवन् ! जंबूद्वीपमा सूर्योनी क्रिया शुं अतीत क्षेत्रमा कराय छे, वर्तमान क्षेत्रमा कराय छे के अनागत क्षेत्रमा कराय ? [उ.] हे गौतम ! अतीत क्षेत्रमा क्रिया कराती नथी, वर्तमान क्षेत्रमा क्रिया कराय छे, |पण अनागत क्षेत्रमा क्रिया कराती नथी. [प्र०] हे भगवन् ! शुं (ते सूर्यो) स्पृष्ट क्रियाने करे छे के अस्पृष्ट क्रियाने करे छे ? [उ०] हे गौतम! तेओ स्पृष्ट क्रियाने करे ले, पण अस्पृष्ट क्रियाने नथी करता, यावद् अवश्य छ दिशामां स्पृष्ट क्रियाने करे छे. जंबुद्दीवे णं भंते ! दीवे सूरिया केवतियं खेत्तं उडुं तवंति केवतियं खेत्तं अहे तवंति केवतियं खेत्तं तिरियं तवंति?, गोयमा! एगं जोयणसयं उड्ढं तवंति अट्ठारस जोयणस याई अहे तवंति सीयालीसं जोयणसहस्साई दोन्नि तेवढे जोयणसए एकवीस च सहिभाए जोयणस्स तिरियं तवंति ॥ अंतो णं भंते ! माणुसुत्तरस्म पव्वयस्स जे चंदिमसूरियगहगणणक्खत्ततारारूवा ते णं भंते! देवा किं उड्ढोववन्नगा जहा जीवाभिगमे तहेव निरवसेसं जाव उक्कोसेणं छम्मासा। बहिया णं भंते ! माणुसुत्तरस्स जहा जीवाभिगमे जाव इंदट्ठाणे णं भंते ! For Private and Personal Use Only Page #121 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ८ शतके व्याख्याप्रज्ञप्तिः ॥६९१॥ उद्देशः८ ॥६९१॥ MUSICROMAX है केवतियं कालं उववाएणं विरहिए पन्नत्ते?, गोयमा! जहन्नेणं एक समयं उनोसेणं छम्मासा । सेवं भंते ! सेवं भंते!॥ सूत्रं ३४३ ॥ अट्ठमसए अट्ठमो उद्देसो संमत्तो।। [म.] हे भगवन् ! जंबूद्वीपमा सूर्यो केटलुं क्षेत्र उंचे तपाचे छे, केटलुं क्षेत्र नीचे तपावे छे अने केटलुं क्षेत्र तिर्यग् तपावे छे? [उ.] हे गौतम ! सो योजन क्षेत्र उंचे तपावे छे, अढारसो योजन क्षेत्र नीचे तपाबे छे. अने सूडताळीश हजार बसे श्रेसठ योजन तथा एक योजनना साठीया एकवीस भाग जेटलं क्षेत्र तिर्यग् (तिरछु) तपावे छे. [प्र०] हे भगवन् ! मनुष्योत्तर पर्वतनी अंदर जे चंद्रो, सूर्यो, ग्रहगण, नक्षत्र अने तारारूप देवो छे, हे भगवन् ! ते शुं ऊर्ध्वलोकमां उत्पन्न थयेला छे ? [उ०] जे प्रमाणे जीवाभिगमसूत्रमा का छे तेम यावद् (तेओनो उपपातविरहकाल-उपजवान अन्तर जघन्य एक समय अने) यावद् उत्कृष्ट छ मास के त्यांसुधी बधुं जाणवं. [प्र०] हे भगवन् ! मनुष्योत्तर पर्वतनी बहार जे चंद्रादि देवो छे तेओ शु ऊर्ध्वलोकमां उत्पन्न थयेला छे ? [उ०] जेम जीवाभिगमसूत्रमा कयुं छे तेम जाणवू, यावत्-[प्र०] 'हे भगवन् ! इन्द्रस्थान केटला काल सुधी उपपात वडे विरहित कह्यु छ ? [उ०] हे गौतम ! जघन्यथी एक समय, अने उत्कृष्टथी छ मास, (अर्थात् एक इन्द्रना मरण पछी जघन्यथी एक समये अने उत्कृष्टथी छ मासे तेने स्थाने वीजो इन्द्र उत्पन्न थाय छे तेथी तेटलो काळ इन्द्रस्थान उपपात विरहित होय छे',) हे भगवन् ! ते एमज छे, हे भगवन् ते एमज छे. (एम कही भगवन् गौतम यावद् विहरे हे). ।। २४३ ॥ भगवत् सूधर्मखामीप्रणीत श्रीमद् भगवतीयंत्रना आठमा शतकमा आठमा उद्देशानो मूलार्थ संपूर्ण थयो. FARAHARASHRS For Private and Personal Use Only Page #122 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ८ शतके व्याख्याप्रज्ञप्तिः ॥६९२॥ उद्देशः ९ ॥६९२॥ उद्देशकः ९. कहविहेणं भंते ! बंधे पण्णत्ते, गोयमा! दुविहे बंधे पण्णत्ते, तंजहा-पयोगबंधेय वीससाबंधे य॥ (सूत्रं ३४४) - [प्र०] हे भगवन् ! बन्ध केटला प्रकारनो कह्यो छे ? [उ०] हे गौतम ! बन्ध बे प्रकारनो कह्यो छे, ते आ प्रमाणे-प्रयोगबन्ध | अने विस्रसाबन्ध. ॥ ३४४ ॥ | वीससावंधे णं भंते ! कतिविहे पण्णत्ते?, गोयमा दुविहे पण्णत्ते, तंजहा-साइयवीससाबंधे अणाइयवीससाबंधे य । अणाइयवीससाबंधे णं भंते ! कतिविहे पण्णते?, गोयमा! तिविहे पणते, तंजहा-धम्मत्थिकाय अन्नमन्नअणादीयवीससाबंधे अधम्मत्थिकायअन्नमन्नअणादीयवीससायंधे आगासत्थिकायअन्नमन्नअणादीयवीससाबंधे। | धम्मत्थिकायअन्नमन्नअणादीयवीससाबंधे णं भंते! किं देसबंधे सव्वयंधे?, गोयमा! देसबंधे नो सव्वबंधे, एवं चेव अधम्मत्थिकायअन्नमन्नअणादीयवीससाबंधेवि,एवमागासत्थिकाय अन्नमन्नअणावीयवीससाबंधेवि । धम्मथिकायअन्नमन्नअणाइयवीससाबंधे णं भंते ! कालओ केवचिरं होइ ?, गोयमा ! सव्वद्धं, एवं अधम्मत्थिकाए, एवं आगासत्थिकाये । सादीयवीसमाबंधे णं भंते ! कतिविहे पण्णत्ते ?, गोयमा! तिविहे पण्णत्त, तंजहा-बंधणपच्चइए भायणपञ्चइए परिणामपञ्चइए । से किंतं बंधणपच्चइए?,२ जन्नं परमाणुपुग्गलादुपएसिया तिपएसिया जाय दसपएसिया संखेजपएसिया असंखेजपएसिया,अणंतपएसियाणं भंते! खंधाणं वेमायनिद्धयाए वेमायलुक्खयाए वेमायनिद्धलुक्खयाए बंधणपच्चए णं बंधे समुप्पजइ जहन्नेणं एक समयं उक्कोसेणं असंखेज्जं कालं, सेत्तं बंधणप For Private and Personal Use Only Page #123 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailaseagarsuri Gyanmandie व्याख्याप्रज्ञप्तिः ॥६९३॥ ८ शतके उद्देशः ९ ॥६९३॥ | चइए । से किं तं भायणपञ्चइए?, भा० २ जन्नं जुन्नसुराजुन्नगुलजुन्नतंदुलाणं भायणपचइएणं बंधे समुप्पजड़ ज. हनेणं अंतोमुहत्तं उक्कोसेणं संखेनं कालं, सेत्तं भायणपञ्चइए । से किं तं परिणामपञ्चइए?, परिणामपच्चइए जन्नं अब्भाणं अब्भरुक्खाणं जहा ततियसए जाव अमोहाणं परिणामपञ्चइए णं बंधे समुप्पज्जइ जहन्नेणं एक समयं उक्कोसेणं छम्मासा, सेत्तं परिणामपञ्चइए, सेत्तं साइयवीससाबंधे, सेत्त वीसमाबंधे ( सूत्रं ३४५)॥ l [प्र०] हे भगवन् ! विस्रसाबन्ध केटला प्रकारनो कह्यो छे ? [उ०] हे गौतम ! बे प्रकारनो को छे, ते आ प्रमाणे-सादिविस साबध अने अनादि विस्रसाबन्ध. [प्र.] हे भगवन् ! अनादि विमुसाबन्ध केटला प्रकारनो कह्यो छे ? [उ०] हे गौतम! त्रण प्रकारनो कह्यो छे, ते आ प्रमाणे-धर्मास्तिकायनो अन्योन्य अनादि विस्रसाबन्ध, अधर्मास्तिकायनो अन्योन्य अनादि विस्रसाबन्ध अने आकाशास्तिकायनो पण अन्योन्य अनादि विस्रसाबन्ध. [प्र०] हे भगवन् ! धर्मास्तिकायनो अन्योन्य अनादि विस्रसाबन्ध देशबन्ध छे के सर्वबन्ध छ ? [उ०] हे गौतम ! देशबन्ध छे, पण सर्वबन्ध नथी. ए प्रमाणे अधर्मास्तिकायनो अन्योन्य अनादि विस्रसाबन्ध | जाणवो. एवी रीते आकाशास्तिकायनो अन्योन्य अनादि विरसावन्ध जाणवो. [प्र०] हे भगवन् ! धर्मास्तिकायनो अन्योन्य अनादि विस्रसाबन्ध कालथी क्यां सुधी होय ? [उ०] हे गौतम! सर्व काल सुधी होय छे. ए प्रमाणे अधर्मास्तिकाय अने आकाशास्तिका| यनो अन्योन्य अनादि विस्रसावन्ध जाणवो. [प्र०] हे भगवन् ! सादिविस्रसाबन्ध केटला प्रकारनो कह्यो छे ? [उ०] हे गौतम! |त्रण प्रकारनो कह्यो छे; ते आ प्रमाणे-१ बंधनप्रत्ययिक, २ भाजनप्रत्ययिक अने ३ परिणामप्रत्ययिक. [प्र०] हे भगवन् ! |बंधनप्रत्ययिक(सादि बन्ध केवा प्रकारे छे ? [उ०] द्विप्रदेशिक, त्रिप्रदेशिक, यावद् दशप्रदेशिक, संख्यातप्रदेशिक, असंख्यातन For Private and Personal use only Page #124 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra व्याख्या प्रज्ञतिः ॥ ६९४॥ www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir देशिक अने अनंतमदेशिक परमाणु पुद्गलस्कंधोनो विषम स्निग्धता (चिकाश ) वडे, विषम रूक्षतावडे अने विषम स्निग्ध- रूक्षता वडे बन्धप्रत्ययिक बन्ध थाय छे. ते जयन्यथी एक समय, अने उत्कृष्टथी असंख्य काल सुधी रहे छे. ए प्रमाणे बंधनप्रत्ययिक बन्ध कह्यो. [प्र० ] हे भगवन ! भाजनप्रत्ययिक बन्ध केवा प्रकारे होय ? [30] जूनी मदिरानो, जूना गोळनो अने जुना चोखानो भाजन प्रत्ययिक बन्ध थाय छे. ते जधन्यथी अन्तर्मुहूर्त अने उत्कृष्ट संख्यात काल सुधी रहे छे. ए प्रमाणे भाजनप्रत्ययिक बन्ध कह्यो. [प्र० ] हे भगवन् ! परिणामप्रत्ययिक बन्ध केवा प्रकारे छे ? [अ०] वादळाओनो, अभ्रवृक्षोनो जेम तृतीय शतकमां कथं छे तेम यावद् अमोघोनो परिणामप्रत्ययिकबन्ध, उत्पन्न थाय छे. ते जघन्यथी एक समय अने उत्कृष्टथी छ मास सुधी रहेछे, ए प्रमाणे परिणामप्रत्ययिकबन्ध, सादिविस्रसाबन्ध अनेविससाबन्ध को. ।। ३४५ ।। से किं तं पयोगबंधे ?, पयोगबंधे तिविहे पण्णत्ते, तंजहा अणाइए वा अपज्जवसिए साइए वा अपज्जबसिए साइए वा मपज्जवसिए, तत्थ णं जे से अणाइए अपज्जबसिए से णं अट्ठण्हं जीवमज्झपएसाणं ॥ तत्थवि णं तिन्हं २ अणाइए अपज्जवसिए, संसाणं साइए, तत्थ णं जे से सादीए अजबसिए से णं सिद्धाणं, तत्थ णं जे से साइए सपज्जबसिए से णं चउबिहे पन्नत्ते, तंजहा- आलावणबंधे अल्लियावणबंधे सरीरबंधे सरीरप्पयोगबंधे ॥ से किं तं आलावणबंधे ?, आलावणबंधे जण्णं तणभाराण वा कट्टभाराण वा पत्तभाराण वा पलालभाराण वा वेल्लभाराण वा वेत्तलयाबागवरत्तरज्जुवल्लिकुसदन्भमादिएहिं आलावणबंधे समुप्पज्जइ जहनेणं अंतोमुहुत्तं उकोसेणं संखेज कालं, सेत्त आलावणबंधे से किं तं अल्लियावणबंधे ?, अल्लियावणबंधे चउब्विहे पन्नत्ते, तंजहा For Private and Personal Use Only ८ शतके उद्देशः ९ ॥ ६९४॥ Page #125 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailaseagarsuri Gyanmandie व्याख्याप्रज्ञप्तिः ॥६९५॥ ८ शतके उद्देशः ९ ॥६९५॥ लेसणाबंधे उच्चयबंधे समुच्चयबंधे साहणणाचंधे, से किं तं लेसणाबंधे?, लेसणाबंधेजन्नं कुडाणं कोट्टिमाणं खंभाणं पासायाणं कट्ठाणं चम्माणं घडाणं पडाणं कडाणं छुहाचिक्खिल्लसिलेसलक्खमहुसित्थमाइएहिं लेसणएहिं बंधे समुप्पजह जहन्ने] अंतोमुहुत्तं उक्कोसेणं संखेनं कालं, सेत्तं लेसणाबंधे, . (प्र०] हे भगवन् ! प्रयोगबन्ध केवा प्रकारे छे ? [उ०] प्रयोगबन्ध त्रण प्रकारनो कह्यो छे, ते आ प्रमाणे- १ अनादि अपयेवसित' २ सादि अपर्यवसित अने ३ सादि सपर्यवसित प्रयोगबन्ध. तेमां जे अनादि अपर्यवसितबन्ध छे ते जीवना आठ मध्यप्रदेशोनो होय छे, ते आठ प्रदेशोमां पण त्रण त्रण प्रदेशोनो जे बन्ध ते अनादि अपर्यवसित बन्ध छे. बाकीना सर्वप्रदेशोनो सादि सपर्यवसित (सान्त) बन्ध छे. तेमां सादि अपर्यवसित बन्ध सिद्धना जीव प्रदेशोनो के. सादिक सपर्यवसित बन्ध चार प्रकारनो को ठे, ते आ प्रमाणे-१ आलापनबन्ध, २ आलीनबन्ध, ३ शरीरबन्ध अने ४ शरीरप्रयोगवन्ध. [40] आलापन बन्ध केवा प्रकारनो छे ? [उ०] आलापन बन्ध घासना भाराओनो, पांदडाना भाराओनो, पलालना भाराओनो अने वेलाना भाराओनो नेतरनी वेल, छाल, वाधरी, दोरडा, वेल, कुश, अने डाम आदिथी आलापनबन्ध थाय छे. ते जघन्यथी अन्तर्मुहूर्त अने उत्कृष्टथी संख्यात काल हूँ सुधी रहे छे. ए प्रमाणे आलापनबन्ध कह्यो. [प्र०] आलीनबन्ध केवा प्रकारनो को छ ? [उ०] आलीनबन्ध चार प्रकारनो कह्यो | छे, ते आ प्रमाणे-१ श्लेषणाबन्ध, २ उच्चयबन्ध, ३ समुच्चयबन्ध अने ४ संहननबन्ध. [प्र०] श्लेषणाबन्ध केवा प्रकारनो होय ? [उ.] शिखरोनो, कुट्टिमोनो (फरस बंधीनो) स्तंभोनो, प्रासादोनो, लाकडाओनो, चामडानो, घडाओनो, कपडाओनो अने सादडी-15 ओनो चूनावडे, कचडावडे, श्लेष-वज्रलेप-बडे, लाखवडे मीण-इत्यादि श्लेषण द्रव्योवडे श्लेषणाबन्ध थाय छे. ते जघन्य अन्तर्मु-1* CHARACHAN For Private and Personal Use Only Page #126 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir 66 व्याख्याप्रज्ञप्तिः ८ शतके | उद्देशः ९ ॥६९६॥ |हूर्त, अने उत्कृष्टथी संख्यातकाल सुधी रहे छे. ए प्रमाणे श्लेषणाबन्ध कह्यो. से किं तं उच्चयबंधे ?, उच्चयबंधे जन्नं तणरासीण वा कट्ठरासीण वा पत्तरासीण वा तुसरासीण वा भुसरा. सीण वा गोमयरासीण वा अवगररासीण वा उच्चत्तणं बंधे समुप्पज्जइ जहन्नेणं अंतोमुहुत्तं उक्कोसेणंसंखेनं कालं, सेत्तं उच्चयबंधे, से किं तं समुच्चयबंधे ?, समुच्चयबंधे जन्नं अगडतडागनदीदवावीपुक्खरिणीदीहियाणं गुंजलियाणं सराणं सरपंतिआणं सरसरपंतियाणं बिलपंतियाणं देवकुलसभापब्वथूभखाइयाणं फरिहाणं पागा. रहालगचरियदारगोपुरतोरणाणं पासायघरसरणलेणआवणाणं सिंघाडगतियचउक्कचच्चरचउम्मुहमहापहमादीणं छुहाचिक्खिल्लसिलेससमुच्चएणं बंधे समुच्चए णं बंधे समुप्पजइ जहन्नेणं अंतोमुहुत्तं उक्कोसेणं संखेनं कालं, सेत्तं समुच्चयबंधे, से किं तं साहणणाबंधे?, साहणणाबंधे दुविहे पन्नत्ते, तंजहा-देससाहणणाबंधे य सव्वसाहणणाबंधे य, से किं तं देमसाहणणाबंधे ?, देससाहणणाबंधे जन्नं सगडरहजाणजुग्गगिल्लिथिल्लिसीयसंदमाणियालोहीलोहकडाहकडुच्छुआसणसयणखभभंडमत्तोवगरणमाईणं देससाहणणाबंधे समुप्मजइ जहन्नेणं अंतोमुहुत्तं उक्कोसेणं संखेनं कालं, सेत्तं देससाहणणाबंधे, प्र०] उच्चयबन्ध केवा प्रकारनो कह्यो छे ? [उ०] तृणराशिनो, काष्ठराशिनो, पत्रराशिनो, तुषराशिनो, भुसानी राशिनो, छाणना ढगलानो अने कचराना ढगलानो उच्चपणे जे बन्ध थाय छे ते उच्चयबन्ध छे. ते जघन्यथी अन्तर्मुहूर्त, अने उत्कृष्टथी संख्येयकाल सुधी रहे छे. ए प्रमाणे उच्चयबन्ध कह्यो. [प्र०] समुच्चयबन्ध केवा प्रकारनो कह्यो छे ? [उ०] कुवा, तळाव, नदी, द्रह, वापी, For Private and Personal Use Only Page #127 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir व्याख्याप्रज्ञप्तिः ॥६९७॥ ८ शतके उद्देशः९ ॥६९७॥ | पुष्करिणी, दीपिका, गुंजालिका, सरोवरो, सरोवरनी श्रेणि, मोटा सरोवरनी पंक्ति, बिलनी श्रेणि, देवकुल, सभा, परब, स्तूप, खाइओ. परिघो, किल्लाओ, कांगराओ. चरिको, द्वार, गोपुर, तोरण, प्रासाद, घर, शरण, लेण (गृह विशेष) हाटो, शृंगाटकाकारमार्ग, | त्रिकमार्ग, चतुष्कमार्ग, चत्वरमार्ग, चतुर्मुखमार्ग, अने राजमार्गादिनो चुनाद्वारा, कचराद्वारा अने श्लेषना (वचलेपना) समुच्चयवडे जे बंध थाय छे ते समुच्चयबन्ध. ते जघन्यथी अन्तर्मुहूर्त, अने उत्कृष्टथी संख्येयकाल सुधी रहे छे. ए प्रमाणे समुच्चयबन्ध कह्यो. [प्र०] संहननबन्ध केवा प्रकारनो कह्यो छ ? [उ०] संहननबन्ध वे प्रकारनो कयो हे; ते आ प्रमाणे-देशसंहननबन्ध अने सर्वसंहननबन्ध, [प्र०] हे भगवन् ! देशसंहनन बन्ध केवा प्रकारनो के ? [उ०] हे गौतम! गाडा, रथ, यान (नाना गाडा) युग्यवाहन गिल्लि (हाथीनी अंबाडी), थिल्लि (पलाण); शिविका, अने स्यन्दमानी (पुरुषप्रमाण वाहनविशेष), तेमज लोढी. लोढाना कडाया, कडछा. आसन, शयन, स्तंभो, भांड (माटीनां वासण) पात्र अने नाना प्रकारना उपकरण-इत्यादि पदार्थोनो जे संबन्ध थाय छे ते देश संहननबन्ध छे. ते जघन्यथी अन्तर्मुहूर्त, अने उत्कृष्टथी संख्येय काल सुधी रहे है. ए प्रमाणे देशसंहनन बन्ध कयो. से किं तं सव्वसाहणणाबंधे !, सव्वसाहणणाबंधे से णं खीरोदगमाईणं, सेत्तं सव्वसाहणणाबंधे, सेत्तं साहणणाबंधे, सेत्तं अल्लियावणबंधे॥से कितं सरीरबंधे?, मरीरबंधे दुविहे पण्णत्ते, तंजहा-पुवप्पओगपञ्चइए य | पडुप्पन्नपओगपञ्चइए य, से किं तं पुवप्पयोगपच्चइए?,पृथ्वप्पओगपञ्चइए जन्नं नेरइयाइयाणं संमारवत्थामव्वजीवाणं तत्थ २ तेसु २ कारणेसु ममोहणमाणाणं जीवप्पदेसाणं बंधे समुप्पजइ, सेत्तं पुवापयोगपञ्चइग, से किं तं पडप्पन्नप्पयोगपच्चइए?, २ जन्नं केवलनाणिस्स अणगारस्स केवलिसमुग्घाएणं समोहगस्स ताओ समुग्घायाओ CAMARCRACACARE For Private and Personal Use Only Page #128 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir (ता पडिनियत्तमाणस्स अंतरा मंथे वट्टमाणस्स तेयाकम्माणं बंधे समुप्पज्जा, किं कारणं?, ताहे से पएसा एगत्ती-II व्याख्या- 18|गया भवंतित्ति, सेत्तं पडुप्पन्नप्पयोगपच्चइए, सेत्तं सरीरबंधे ३॥ से किं तं सरीरप्पयोगबंधे?, सरीरप्पयोगबंधे X८ शतके प्रज्ञप्तिः पंचविहे पन्नत्ते, तंजहा-ओरालियसरीरप्पओगबंधे वेउब्वियसरीरप्पओगबंधे आहारगसरीरप्पओगबंधे तेयास उद्देशः ९ ॥६९८॥ रीरप्पयोगबंधे कम्मासरीरप्पयोगबंधे । ओरालियसरीरप्पयोगबंधे णं भंते ! कतिविहे पण्णत्ते?, गोयमा! पंच ॥६९८॥ विहे पन्नत्ते, तंजहा-एगिदियओरालियसरीरप्पयोगबंधे बेंदियओ० जाव पंचिंदियओरालियसरीरप्पयोगबंधे। प्र०] सर्वसहनन बन्ध केवा प्रकारनो कयो छे ? [उ०] हे गौतम! दूध अने पाणी इत्यादिनो सर्वसंहनन बन्ध कह्यो छे. ए | प्रमाणे सर्वसंहनन बन्ध करो. ए रीते आलीनबंध पण कयो. [प्र.] शरीरबन्ध केटला प्रकारनो कयो छे, [उ.] शरीरबन्ध वे प्रकारनो कयो छे, ते आ प्रमाणे-१ पूर्वप्रयोगप्रत्ययिक अने २ प्रत्युत्पन्न प्रयोगप्रत्ययिक. [प्र०] हे भगवन् ! पूर्वप्रयोगप्रत्ययिक शरीरबन्ध केवा प्रकारनो छे? [उ०] ते ते स्थळे ते ते कारणोने लीधे समुद्घात करता नैरयिको अने संसारावस्थावळा सर्व जीवप्रदेशोनो जे बन्ध थाय छे ते पूर्वप्रयोगप्रत्ययिक बन्ध छ. ए प्रमाणे पूर्वप्रयोगप्रत्ययिक बन्ध कयो. [प्र.] प्रत्युत्पन्न प्रयोगप्रत्ययिक | बन्ध केवा प्रकारनो कसो छ ? [उ.] केवलिसमुद्घातवडे समुद्घात करता अने ते समुद्घातथी पाछा फरता, बच्चे मंथानमां वर्तता | केवलज्ञानी अनगारना तैजस अने कार्मण शरीरनो जे बन्ध थाय ते प्रत्युत्पन्नप्रयोगप्रत्ययिक बन्ध कहेवाय के. तैजस अने कार्मण है शरीरनो बन्ध शाथी थाय छे ? ते वखते ते आत्मप्रदेशो संघातने पामे छे. (अने ते प्रदेशोने अनुसरीने तैजस अने कार्मणनो पण नबन्ध पण थाय छे.) ए प्रमाणे प्रत्युत्पन्न प्रयोगप्रत्ययिक बन्ध कह्यो, ए प्रमाणे शरीरबन्ध को. [प्र.] शरीरप्रयोग बन्ध केवा प्रकारे For Private and Personal Use Only Page #129 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatrth.org Acharya Shri Kailassagersuri Gyanmandit कह्यो छे ? [उ०] शरीरप्रयोगवन्ध पांच प्रकारनो को छे, ते आ प्रमाणे-१ औदारिकशरीरप्रयोगबन्ध, २ वैक्रियशरीरप्रयोगवन्ध, ४३ आहारकशरीरप्रयोगवन्ध, ४ तैजसशरीरप्रयोगबन्ध अने ५ कार्मणशरीरप्रयोगवन्ध. [प्र०] हे भगवन् ! औदारिकशरीरप्रयोगबन्ध केटला प्रकारनो को छे ? [उ०] हे गौतम ! औदारिकशरीरप्रयोगबन्ध पांच प्रकारनो कयो छे. ते आ प्रमाणे-एकेन्द्रियऔदारिव्याख्या- | कशरीरप्रयोगबन्ध, द्वीन्द्रियऔदारिकशरीरप्रयोगबन्ध, यावत् पंचेन्द्रियऔदारिकशरीरप्रयोगबन्ध. ८ शतके उद्देशः९ प्रज्ञप्तिः I एगिदियओरालियसरीरप्पयोगवंधे णं भंते! कतिविहे पण्णत्ते?, गोयमा! पंचविहे पण्णत्ते, तंजहा-पुढवि-15 ॥६९९॥ ॥६९९॥ काइयएगिदिय० एवं एएणं अभिलावेणं भेदोजहा ओगाहणसंठाणे ओरालियसरीरस्स तहा भाणियब्वो जावटू पज्जत्तगन्भवतियमणुस्सपंचिंदियओरालियसरीरप्पयोगबंधे य अपज्जत्तगगम्भवतियमणूस. जाव बंधे य॥ ओरालियसरीरप्पयोगबंधे णं भंते ! कस्स कम्मस्स उदएणं?, गोयमा! वीरियसजोगसहब्वयाए पमादपच्चया कम्मं च जोगं च भवं च आउयं च पडुच्च ओरालियसरीरप्पयोगनामकम्मस्स उदएणं ओरालियसरीरप्पयोग& बंधे ॥ एगिदियओरालियसरीरप्पयोगबंधे णं भंते ! कस्स कम्मस्स उदएणं?, एवं चेव, पुढविधाइयएगिंदियओPारालियसरीरप्पयोगयंधे एवं चेव, एवं जाव वणस्सइकाइया, एवं बेइंदिया एवं तेइंदिया एवं चउरिंदियतिरि क्खजोणिय०, पंचिंदियओरालियसरीरप्पयोगपंधे णं भंते ! कस्स कम्मस्स उदएणं?, गो. वीरियसजोग| सहब्वयाए पमाय जाव आउयं पडुच पंचिंदियओरालियसरीरप्पयोगनामाए कम्मस्स उदएणं, तिरिक्वपं|चिंदियओरालियसरीरप्पयोगबंधे एवं चेव, मणुस्सपंचिंदियओरालियसरीरप्पयोगबंधे णं भंते ! कस्स कम्मस्स For Private and Personal Use Only Page #130 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir उदएणं, गोयमा! वीरियसजोगसहव्वयाए पमादपच्चया जाव आउयं च पडुच्च मणुस्सपंचिंदियओरालियव्याख्या- सरीरप्पयोगनामाए कम्मस्स उदएणं मणुस्सपंचिंदियओरालियसरीरप्पयोगबंधे, ८ शतके प्रज्ञप्तिः ला [प्र.] हे भगवन् ! एकेन्द्रियऔदारिकशरीरप्रयोगबन्ध केटला प्रकारनो कयो के ? [उ०] हे गौतम! पांच प्रकारनो को | उद्देशः९ ॥७००॥ | छे, ते आ प्रमाणे-पृथिवीकायिकए केन्द्रियओदारिकशरीरप्रयोगबन्ध; ए प्रमाणे ए अभिलापथी जेम' अवगाहनासंस्थान' पदमा | औदारिक शरीरनो भेद कह्यो छे तेम अहीं कहेवो; यावत् पर्याप्तगर्भजमनुष्यपंचेन्द्रियऔदारिकशरीरप्रयोगबन्ध अने अपर्याप्तगर्भज-18 | मनुष्यपंचेन्द्रियऔदारीकशरीरप्रयोगवन्धः [प्र०] हे भगवन् ! औदारिकशरीरप्रयोगवन्ध कया कर्मना उदयथी थाय छे ? [उ.] हे गौतम ! जीवनी सवीर्यता, सयोगता अने सद्र्व्यताथी, प्रमादहेतुथी, कर्म, योग, (काययोग) भव अने आयुष्यने आश्रयी औदारिकशरीरप्रयोगनामकर्मना उदयथी औदारिकशरीरप्रयोगवन्ध थाय छे. [प्र०] हे भगवन ! एकेन्द्रियऔदारिकशरीरप्रयोगबन्ध कया कर्मना उदयथी थाय छे ? [उ.] पूर्वे कह्या प्रमाणे जाणवू. पृथिवीकायिकएकेन्द्रियऔदारिकशरीरप्रयोगबन्ध ए प्रमाणे जाणवो. ए प्रमाणे यावद् वनस्पतिकायिक एकेन्द्रिय औदारिकशरीरप्रयोगबन्ध, तथा बेइन्द्रिय, त्रींद्रिय अने चउरिन्द्रिय औदारिकशरीरप्रयोगबन्ध जाणवो. [प्र०] हे भगवन् ! पंचेन्द्रियऔदारिकशरीरप्रयोगबन्ध कया कर्मना उदयथी थाय ? [उ०] पूर्व प्रमाणे जाणवं. [प्र०] हे भगवन् ! मनुष्यपंचेन्द्रियऔदारिकशरीरप्रयोगबन्ध कया कर्मना उदयथी थाय छे ? [उ.] हे गौतम ! सवीर्यता, सयोगता|8| है अने सव्यताथी, तेम प्रमादहेतुथी, यावत् आयुष्यने आश्रयी मनुष्यपंचेन्द्रियऔदारिकशरीरप्रयोगनामकर्मना उदयथी मनुष्यपंचेभन्द्रियऔदारिकशरीरप्रयोगबन्ध थाय के. 5454334 For Private and Personal Use Only Page #131 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra व्याख्या प्रज्ञप्तिः ॥७०१ ॥ www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ओरालिय सरीरप्पयोगबंधे णं भंते! किं देसबंधे सव्वबंधे ?, गोयमा ! देसबंधेवि सव्वबंधेवि, एगिंदियओ. रालिय सरीरप्पयोगबंधे णं भंते! किं देसबंधे सव्वबंधे १, एवं चेव, एवं पुढविकाइया, एवं जाव मणुस्सपंचिंदियओरालिय सरीरप्पयोगबंधे णं भंते! किं देसबंधे सव्वबंधे ?, गोयमा ! देसबंधेवि सव्वबंधेवि ॥ ओरालिग सरीरध्वयोगबंधे णं भंते ! कालओ केवचिरं होइ ?, गोयमा ! सव्वबंधे एक समय, देसबंधे जहन्नेणं एवं समयं उक्कोसेणं तिनि पलिओ माई समयऊणाई, एगिंदिय ओरालिय सरीरप्पयोगबंधे णं भंते ! कालओ केवचिरं होड़ ?, गोयमा ! सव्वबंधे एकं समयं देसबंधे जहन्नेर्ण एकं समयं उक्कोसेणं बावीस वाससहस्साइं समऊणाई, पुढविकाइयए गिंदिपुच्छा, गोयमा ! सव्वबंधे एकं समयं देसबंधे जहन्नेणं खुड्डागभवग्गहणं तिसमयऊणं उक्कोसेणं बावीसं वाससहस्साइं समऊणाई, एवं सव्वेसिं सव्वबंधो एक्कं समयं देसबंधो जेंसिं नत्थि वैउब्वियसरीरं तेसिं 'जहनेणं खुड्डागं भवग्गहणं तिसमयऊणं उक्कोसेणं जा जस्स ठिती सा समऊणा कार्यव्वा, जेसिं पुण अस्थि उब्वियसरीरं तेसिं देसबंधो जहन्नेणं एवं समयं उक्कोसेणं जा जस्म किती सा समऊणा कायव्वा जाब मणुस्साणं देसबंधे जहनेणं एक समयं उक्कोसेणं तिन्नि पलिओदमाई समयूणाई ॥ . [प्र०] हे भगवन! औदारिकशरीरप्रयोग बन्धनो शुं देशबन्ध छे के सर्वबन्ध छे ? [उ०] हे गौतम! देशबन्ध पण छे अने सर्व [] केन्द्रियदारिकशरीर प्रयोगवन्ध थुं देशबन्ध छे के सर्वबन्ध है ? [30] पूर्वनी पेठे जाण, पु प्रमाणे व यावत्] [प्र० ] हे भगवन् ! मनुष्य पंचेन्द्रिय औदारिकशरीरे प्रयोग बन्धनों शुदेशबन्ध छे के सर्वबन्ध छ ? [ॐ०] है गौतम ! देशबन्ध For Private and Personal Use Only ८ शतके उद्देशः ९ ॥७०१ ॥ Page #132 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir -64 ६ पण चे अने सर्वबन्ध पण छेमिक हे भगवन ! औदारिकशरीरप्रयोगवन्ध कालथी क्यांमुधी होय?[उ०] हे गौतम ! सर्वबन्ध एक व्याख्या-1४ा समय, अने देशबन्ध जघन्यथी एक समय, अने उत्कृष्ट एक समय न्यून त्रण पल्यापम सुधी होय छे. [प्र०] हे भगवन् ! एकेन्द्रिप्रज्ञप्तिः पऔदारिकशरीरपयोगबन्ध कालथी क्यांसुधी हाय? [उ०] हे गौतम! सर्वबन्ध एक समय, अने देशबन्ध जघन्यथी एक समय, उद्देशः९ ॥७०२॥ अने उत्कृष्ट एक समय न्यून बाबीशहजार वर्ष सुधी होय छे. [म.] हे भगवन् ! पृथिवीकायिकएकेन्द्रिय औदारिकशरीरप्रयोगबन्ध | ॥७०२॥ संबंधे प्रश्न. [उ०] हे गौतम! सर्वचन्ध एक समय, अने देशबन्ध जघन्यथा त्रण समय न्यून क्षुल्लक भव पर्यन्त, अने उत्कृष्ट एक समय न्यून बावीसहजार वर्ष सुधी होय छे. ए प्रमाणे सर्वजावाना सर्वबन्ध एक समय छे, अने देशबन्ध जेओने वैक्रियशरीर नथी तओने जघन्यथी प्रण समय न्यून क्षुल्लक भव पर्यन्त होय छे, अने उत्कृष्टथी जेटलो जेनी आयुष्यस्थिति छे, तेथी एक समय न्यून करवो. जेओने वैक्रिय शरीर के तेओने देशबन्ध जघन्यथी एक समय, अने उत्कृष्टथी जेटलुं जेनुं आयुष्य छे | तेटलामांथी एक समय न्यून जाणवो, ए प्रमाणे यावद् मनुष्योनो देशबन्ध जयन्यथी एक समय, अने उत्कृष्टथी एक समय न्यून त्रण पल्योपम मुधी जाणवो. ओरालियसरीरबंधंतरे णं भंते ! कालओ केवचिरं होइ ?, गोयमा ! सव्वबंधंतरं जहन्नेणं खुड्डाग भवग्गहणं तिसमयऊणं उक्कोसेणं तेत्तीसं सागरोवमाई पुवकोडिसमयाहियाई, देसबंधंतरं जहन्नेणं एक समयं उक्को. सेणं तेत्तीसं सागरोवमाई तिसमयाहियाई, एगिदियओरालियपुच्छा, गोयमा! सव्वबंधंतरं जहन्नेणं खुड्डागं| भवग्गणं तिसमयऊणं उक्कोसेणं बावीसं वाससहस्साई समयाहियाई, देसबंधंतरं जहन्नेणं एकं समयं उकोसेणं I Cent-***454 A0ACANCY For Private and Personal Use Only Page #133 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra व्याख्या प्रज्ञप्तिः ॥७०३॥ www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir अंतोमुहुत्तं, पुढविकाइयए गिंदियपुच्छा गो० ! सव्वबंधंतरं जहेब एगिंदियस्स तहेव भाणियव्वं, देसबंधंतरं जह नेणं एवं समयं उक्कोसेणं तिन्नि समया जहा पुढविक्काइयाणं, एवं जाव चउरिंदियाणं वाउक्कायवज्जाणं, नवरं सव्वबंधतरं उक्कोसेणं जा जस्स द्विती सा समग्राहिया कायव्वा, वाउक्काइगाणं सव्वबंधंतरं जहनेणं खुड्डागभवग्गहणं तिसमयऊणं उक्कोसेणं तिन्नि वाससहस्साई समयाहियाई, देसबंधंतरं जहनेणं एवं समयं उक्कोसेण अंतोमुहुत्त, पंचिंदियतिरिक्खजोणिय ओरालिय पुच्छा, सव्वबंधंतरं जहनेणं खुड्डागभवग्गहणं तिसमयऊणं उक्कोसेर्ण पुग्वकोडी समयाहिया, देसबंधंतरं जहा एगिंदियाणं तहा पंचिदियतिरिक्खजो०, एवं मणुस्साणवि निरबसेसं भाणियन्वं जाव उक्कोसेण अंतोमुहुत्तं ॥ जीवस्म णं भंते ! एगिंदियत्ते णोएगिंदियते पुणरवि एगिंदियत्ते एगिंदियओरालिब सरीरप्पओगबंधंतरं कालओ केषश्चिरं होइ?, गोयमा! सव्वबंधंतरं जहन्नेणं दो खुड्डागभवरगहणाई तिसमयऊणाई उक्कोसेणं दो सागरोवमसहस्साई संखेज्जवासमन्भहियाई, देसबंधंतरं जहनेणं खुड्डागं भवग्गहृणं समयाहियं उक्कोसेणं दो सागरोवमसहस्साइं संखेज्जवासमम्भहियाई, [प्र० ] हे भगवन् ! औदारिक शरीरना बन्धनुं अन्तर कालथी क्यांसुधी होय ? [उ०] हे गौतम! सर्वत्रन्धनुं अन्तर जघन्यथी त्रण समय न्यून क्षुल्लक भवग्रहण पर्यन्त छे, अने उत्कृष्टथी समयाधिक पूर्वकोटी अने तेत्रोश सागरोपम छे. अने देश बन्धनुं अन्तर जघन्थी एक समय, अने उत्कृष्टथी त्रण समय अधिक तेत्री सागरोपम छे. [प्र० ] एकेन्द्रिय औदारिकशरीरसंबंधे प्रश्न. [उ०] हे गौतम ! तेओना सर्वबन्धनुं अन्तर जघन्यथी त्रण समय न्यून क्षुल्लक भव पर्यन्त अने उत्कृष्टथी समयाधिक बावशिहजार वर्ष सुधी For Private and Personal Use Only ८ शतके उद्देशः ९ ॥७०३ ॥ Page #134 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ध्याख्याप्रज्ञप्तिः ॥७०४॥ उद्देशः९ CREASOORAKAR होय छे. देशबन्धनुं अन्तर जघन्यथी एक समय, अने उत्कृष्टथी अंतर्मुहूर्त सुधीर्नु छे. [प्र०] पृथिवीकायिक एकेन्द्रियना औदारिकशरीरसंबंधे मश्न..उ] हे गौतम! ते भोना सर्वबन्धनु अन्तर जेम एकेन्द्रियाने कडं तेम कहेवू; अने देशबन्धन अन्तर जघन्यथी 131८शतके एक समय, अने उत्कृष्टथी त्रण समय सुधीर्नु होय छे. जेमपृथिवीकायिकने कयुं तेम वायुकायिक सिवाय यावत् चउरिन्द्रिय सूधीना जीवोने जाणवं, पण उत्कृष्टयी सर्वबन्धनुं अन्तर जेटली जेनी आयुष्यस्थिति हाय तेटली एक समय अधिक करवी. (अर्थात् सर्वव ७०४॥ न्ध अन्तर समयाधिक आयुष्यनी स्थिति प्रमाणे जाणवू.) वायुकायिकना सर्वबन्धनुं अन्तर जघन्यथी त्रण समय न्यून क्षुल्लक भव, अने उत्कृष्टथी समयाधिक त्रणहजार वर्ष सुधी जाणवू. तेओना देशबन्धनुं अन्तर जघन्यथी एक समय, अने उत्कृष्टथी अंतर्मुहूर्त | पर्यन्त जाणवू. [१०] पंचेन्द्रियतियंचना औदारिकशरीरचन्धना अन्तर संबंधे प्रश्न. [उ०] हे गौतम ! तेभोना सर्वबन्धनुं अन्तर जघन्यथी त्रण समय न्यून क्षुल्लक भवपर्यन्त, अने उत्कृष्टथी समयाधिक पूर्वकोटि होय छे. देशबन्धनुं अन्तर जेम एकेन्द्रियोने का छे ते प्रकारे सर्व पंचेन्द्रिय तियेचोने जाणवू. ए प्रमाणे मनुष्योने पण समग्र जाणवू, यावत् उत्कृष्टथी अंतर्मुहूर्त छे. [प्र०] हे भगबन् ! कोइ जीव एकेन्द्रियपणामां होय, अने पछी ते एकेन्द्रिय सिवाय बीजी कोड जातिमा जाय, अने पुनः एकेन्द्रियपणामां आवे | तो एकेन्द्रियौदारिकशरीरप्रयोगबन्धनुं अन्तर कालधी केटलुं होय? [उ०] हे गौतम! जघन्यथी सर्वबन्धन अन्तर त्रण समय न्यून वे शुल्लक भव, अने उत्कृष्टथी संख्याता वर्ष अधिक बेहजार सागरोपम छे. तथा देशबन्धनुं अन्तर जघन्यथी एक समय अधिक क्षुल्लक भव, अने उत्कृष्टथी संख्यात वर्ष अधिक बेहजार सागरोपम छे. जीवस्सणं भंते ! पुढविकाइयत्ते नोपुढविकाइयत्ते पुणरवि पुढधिकाइयत्ते पुढविकाइयएगिदियओरालियसरी For Private and Personal Use Only Page #135 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir व्याख्याप्रज्ञप्तिः ॥७०५॥ शतके १७०५॥ ACCॐ रप्पयोबंधंतरंकालओकेवचिरं होइ?,गोयमा सम्वधंतर जहनेणं दो खुडाई भवग्गहणाई तिसमयऊणाई उकोसेणं अणंतं कालं अणंवा उस्सप्पिणीओसप्पिणीओ कालओखेत्तओ अणतालोगा असंखेज्जा पोग्गलपरिया, | तेणं पोग्गलपरिया आवलियाए असंखेजइभागो, देसबंधंतरं जहनेणं खुडाग्गभवग्गहण समयाहियं उक्कोसेणं अणतं कालं जाब आपलियाए असंखेजहभागो, जहा पुढविकाइयाणं एवं वणस्सइकाइयवजाणं जावमणुस्साणं, वणस्मइकाइयाणं दोनि खुड्डाई, एवं चेव उक्कोसेणं असंखिजं कालं असंग्विजाओ उस्सप्पिणिओसप्पिणीओ | कालओ खेत्तओ असंखेजा लोगा, एवं देसबंधतरंपि उक्कोसेणं पुढवीकालो॥ एएसिणं भंते! जीवाणं ओरालियमरीरस्स देसबंधगाणं सब्वबंधगाणं अबंधगाण य कयरे २ जाव विसेसाहिया वा?, गोयमा! सव्वत्थोवा जीवा ओरालियसरीरस्स सब्वबंधगा अचंधगा विसेसाहिया देसबंधगा असंखेजगुणा (पत्र ३४७)॥ 1 [प्र.] हे भगवन् ! कोइ जीव पृथिवीकायपणामां होय, त्यांथी पृथिवीकाय सिवायना बीजा जीवोमां उत्पन्न याय अने पुनः | ते पृथिवीकायमां आवे तो पृथिवीकायिक एकेन्द्रिय औदारिकशरीरपयोगबन्धन अन्तर केटलं होय ? [उ०] हे गौतम ! सर्वबन्धनुं | अन्तर जघन्यथी ए रीते त्रण समय न्यून वे क्षुल्लक भव पयन्त छे, अने उत्कृष्टयी कालनी अपेक्षाए अननकाल - अनन्त उत्मर्पिणी अने अवसर्पिणी छे, क्षेत्रथी अनन्तलोक-असंख्य पुद्गलपरावर्त छे, अने ते पुद्गलपरावर्त आवलिकाना असंख्यातमा भागना (पमय)। तुल्य छे. तथा देशबन्धन अन्तर जयन्यथी समयाधिक क्षुल्लक भव, अने उत्कृष्टथी अनन्तकाल, यावत् आवलिकाना अपंख्यातमा भागना समय तुल्य असंख्य पुद्गलपरावर्त छ. जेम पृथिवीकायिकोने ४ तेम वनस्पतिकायिक सिवाय बाकीना यावद् मनुष्य SRINAKAKARAN For Private and Personal Use Only Page #136 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir व्याख्या ८शत प्रज्ञप्तिः उद्देशः ९ ॥७०६॥ ॥७०६॥ | मुधीना जीवो माटे जाणवू. वनस्पतिकायिकोने सर्वबन्धनुं अन्तर जघन्यथी कालनो अपेक्षाए ए प्रमाणे (त्रण समय न्यून) वे क्षुल्लक भव, अने उत्कृष्टथी असंख्यकाल-असंख्य उत्सर्पिणी अने अवसर्पिणी मुधी छे, क्षेत्रथी असंख्य लोक छ देशबन्धनुं अन्तर जघन्यथी र प्रमाणे (समयाधिक क्षुल्लक भव) जाणवू. अने उत्कृष्टथी पृथिवीकायना स्थितिकाल (असंख्य उत्सर्पिणी अवसर्पिणी) सुधी जाणवू [प्र०] हे भगवन् ! ए औदारिक शरीरना देशबन्धक, सर्वबन्धक अने अबन्धक जीवोमां कया जीवो कोनाथी यावद् विशेषाधिक के ? [उ०] हे गौतम सौथी थोडा जीवो औदारिक शरीरना सर्वबन्धक छे, तेथी अबन्धक जीवो विशेषाधिक छे, अने तेथी देशबन्धक जीवो असंख्यातगुण छे. ॥ ३४७॥ | वेउब्वियसरीरप्पयोगबंधे णं भंते! कतिविहे पन्नत्ते?, गोयमा! दुविहे पन्नत्ते, तंजहा-एगिदियवेउब्विय| सरीरप्पयोगबंधे य पंचिंदियवेउब्वियसरीरप्पयोगबंधे य | जइ एगिदियवेउब्वियसरीरप्पयोगबंधे किं वाउक्काइयएगिदियसरीरप्पयोगवंधे य अवाउक्काइयएगिदिय एवं एएणं अभिलावेणं जहा ओगाहणसंठाणे वेउब्वियसरीरभेदो तहा भाणियब्वो जाव पज्जत्तसम्बदसिद्ध भगुत्तरोववाइयकप्पातीयवेमाणियदेवपंचिंदियवेउब्वियसरीरप्पयोगबंधे य अप्पज्जत्तसव्वट्ठसिद्ध अणुत्तरांववाइय जाव पयोगबंधे य। वेउब्वियसरीरप्पयोगबंधे णं भंते! कस्स कम्मस्स उदएणं १, गोयमा! वीरियसजोगसद्दब्वयाए जाव आउयं वा लद्धिं वा पडुच्च वेउब्वियसरीरप्प बोगनामाए कम्मस्स उदएणं वेउब्धियसरीरप्पयोगबंधे। वाउकाइयएगिदियबेउब्वियसरीरप्पयोग. पुच्छा, Pागोयमा! वीरियसजोगसहब्वयाए चेव जाव लद्धिं च पडुच वाउकाइयएगिदियवेउब्विय जाव बंधो । रयणप्प EARCRACRECAR For Private and Personal Use Only Page #137 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir तके ॥७०७॥ भापुढविनेरइयपंचिंदियवेउब्वियसरीरप्पयोगवंधेणं भंते ! कस्स कम्मस्स उदएण?, गोयमा ! वीरियमयोगसद व्याख्या व्बयाए जाव आउयं वा पडुच्च रयणप्पभापुढवि० जाव बंधे, एवं जाव अहेसत्तमाए। प्रज्ञप्तिः | [अ०] हे भगवन् ! वैक्रियशरीरनो प्रयोगबन्ध केटला प्रकारनो कयो के ? [उ०] हे गौतम ! बे प्रकारनी को छे, ते भा| ॥७०७॥ लप्रमाणे-एकेन्द्रिय वैक्रियशरीरपयोगबन्ध अने पंचेन्द्रिय वैक्रियशरीरपयोगबन्ध, [प्र०] जो एकेन्द्रिय वैक्रियशरीरपयोगबन्ध छे तो | शुं वायुकायिक एकेन्द्रियशरीरमयोगबन्ध छे के वायुकायिक भिन्न एकेन्द्रिय शरीरमयोगबन्ध छ ? [उ०] ए प्रमाणे ए अमिलापयी जेम 'भगाइनासंस्थान' पदमां वैक्रिय शरीरनो भेद कह्यो छे, तेम कहे वो; यावत् पर्याप्त सर्वार्थसिद्ध अनुत्तरौपपातिक कल्पातीत वैमानिकदेव पंचेन्द्रिय वैक्रियशरीरप्रयोगबन्ध अने अपर्याप्त सर्वार्थसिद्ध अनुत्तरौपपातिक-यावद् वैक्रियशरीरपयोगबन्ध. [प्र०] हे भगवन् ! बैंक्रियत्ररीरप्रयागबन्ध कथा कर्मना उदयथी थाय छे ! [उ०] हे गौतम ! सवीर्यता, सयोगता अने सदद्रव्यताथी याबद्र आयुष अने लब्धिने आश्रयी क्रियशरीरमयोग नामकर्मना उदयथी नैक्रियशरीरप्रयोगबन्ध थाय . [प्र०] वायुकायिकएकेन्द्रियक्रियशरीरप्रयोगबन्धसंबन्धे प्रश्न. [उ०] हे गौतम! सवीयता, सयोगता अने सद्व्यनाथी पूर्वनी पेठे यावद् लब्धिने आश्रयी वायुकायिकएकेन्द्रियवैक्रियशरीरप्रयोग नामकर्मना उदयथी यावद वैक्रियशसरपयोगबन्ध थाय छे. [प्र.] हे भगवन ! रत्नप्रभा| पिवीनैरयिकर्षचेन्द्रियवैक्रियशरीरमयोगबन्ध कया कर्मना उदयथी थाय छे ? [उ०] हे गौतम ! सवीर्यता, सयोगता अने सन्यताथी यावद् आयुष्यने आश्रयी रत्नप्रभापृथिवी नरयिकपंचेन्द्रियशरीरमयोगनामकर्मना उदयथी यावद वैक्रियशरीरप्रयोगवन्ध थाय छे. ए | प्रमाणे यावत् नीचे सातमी नरक पृथ्वी मुधी जाणवू. CACAAR*** For Private and Personal Use Only Page #138 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatrth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandit XI . ८ शतके उद्देशः९ ॥७०८॥ | तिरिक्खजोणियपंचिंदियवेउब्बियसरीरपुच्छा, गोयमा! वीरिय० जहा वाउक्काइयाणं, मणुस्सपंचिंदियवेउ | ब्विय० एवं चेव, असुरकुमारभवणवासिदेवपंचिंदियवेउन्विय० जहा रयणप्पभापुढविनेरइया, एवं जाव व्याख्या थणियकुमारा, एवं वाणमंतरा, एवं जोइसिया, एवं सोहम्मकप्पोवगया वेमाणिया एवं जाव अच्चुयगेवेजप्रज्ञप्तिः कप्पातीया वेमाणिया, एवं चेव अणुत्तरोववाइयकप्पातीया वेमाणिया एवं चेव । वेउब्वियसरीरप्पयोगबंधे ॥७०८॥ जणं भंते! किं देसबंधे सव्वबंधे?, गोयमा! देसबंधेवि सम्बबंधेवि, बाउक्काइयएगिदिय एवं चेव रयणप्पभापुढवि-| नेरइया एवं चेव, एवं जाव अणुत्तरोववाइया ॥ वेउब्वियसरीरप्पयोगबंधे णं भंते ! कालओ केवचिरं होइ ?, गोयमा! सव्वबंधे जहन्नेण एक समयं उकोसेणं दो समया, देसबंधे जहन्नेणं एक समयं उक्कोसेणं तेत्तीसं साग रोवमाई समयूणाई । वाउकाइए-गिदियवेउब्वियपुच्छा, गोयमा! सव्वबंधे एक्कं समय, देसबंधे जहन्नण एकं समयं, उकोसेणं अंतोमुहुत्तं ॥ [प्र०] तियंचयोनिक पंचेन्द्रिय क्रियशरीरमयोगबन्ध संबन्धे प्रश्न. [उ०] हे गौतम ! सवीर्यता, सयोगता अने सव व्यताथी पूर्ववत् जेम वायुकायिकोने कंधुतेम जाणवू. मनुष्य पंचेन्द्रिय क्रियशरीरप्रयोगवन्ध पण ए प्रमाणे जाणवो. असुरकुमार भवनवा| सीदेव पंचेन्द्रियवैक्रियशरीरमयोगबन्ध रत्नप्रभापृथिवीना नैरयिकनी पेठे जाणवो. ए प्रमाणे यावत् स्तनितकुमारो सुधी जाणवू.ए रीते वानन्यंतर, ज्योतिषिक, सौधर्मकल्पोपत्रक मानिक याचद अच्युत, अने अवेयक कल्पातीत वैमानिकोने जाणवू. तथा अनुत्तरोपपातिककल्पातीत मानिकोने पण ए प्रमाणे जाणवा. [H०] हे भगवन् ! वैक्रियशरीरप्रयोगबन्ध्र शुं देशबन्ध छे के सर्वबन्ध छ ? For Private and Personal use only Page #139 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir व्याख्याप्रज्ञप्तिः ॥७०९॥ GAASARA** [उ०] हे गौतम ! ते देशबन्ध पण छे अने सर्वबन्ध पण छे. ए प्रमाणे वायुकायिकएकेन्द्रियवैक्रियशरीरपयोगबन्ध तथा रनमभाषाथ| वीनरयिकवैक्रियशरीरमयोगबन्ध जाणवो. ए प्रमाणे यावद् अनुत्तरौपपातिक देवी सुधी जाणवू. [प्र.] हे भगवन् ! वैक्रियशरीरमयोगबन्ध कालथी क्यां सुधी होय? [उ०] हे गौतम ! सर्वबन्ध जघन्यथी एक समय, अमे उत्कृष्टथी चे समय मुधी होय. तथा देशव- ८ शतके न्ध जघन्यथी एक समय, अने उत्कुष्टथी एक समय न्यून तेत्रीश सागरोपम मुधी होय.[H०] वायुकायिकएकेन्द्रियवैक्रियशरीरप्रयो उद्देशः२ गबन्धसंबन्धे प्रश्न. [उ०] हे गौतम ! सर्वबन्ध एक समय, अने देशबन्ध जघन्ययी एक समय अने उत्कृष्टथी अन्तर्मुहूर्त सुधी होय छे. ॥७०९॥ रयणप्पभापुढविनेरहय पुच्छा, गोयमा सव्वबंधे एक समयं, देसबंधे जहन्नेणं दसवाससहस्साई तिममयऊणाई | उक्कोसेणं सागरोवमं समऊण, एवं जाव अहेसत्तमा, नवरं देसबंधे जस्स जा जहनिया ठिती सा ति समऊणा कायब्वा जस्स जा उकोसा सा समयूणा॥ पंचिंदियतिरिक्खजोणियाण मणुस्माण य जहा वाउकाइयाणं । असुरकु-। मारनागकुमार० जाव अणुत्तरोववाइयाण जहा नेरइयाणं, नवरं जस्स जा ठिई सा भाणियब्वा जाव अणुत्तरोववाइयाण सव्वबंधे एक समयं, देसबंधेजहन्नण एक्कतीसं सागरोवमाई तिसमऊणाई, उक्कोसेणं तेत्तीसं सागरोवमाई समऊणाई ॥ वेउब्वियसरीरप्पयोगबंधंतरे णं भंते ! कालओ केवच्चिरं होड ?. गोयमा ! सब्वयंधतरं जहन्नेणं एवं समयं उक्कोसेणं अणतं कालं अणंताओ जाव आवलियाए असंखेजइभागो, एवं देमबंधतरंपि ॥ | [प्र०] रत्नप्रभानैरयिक वैक्रियशरीरप्रयोगबन्धसंबन्धे प्रश्न. [उ०] हे गौतम ! सर्वबन्ध एक समय, अने देशबन्ध जघन्यथी *त्रण समय उणा दशहजार वर्ष सुधी होय, तथा उत्कृष्टथी एक समय न्यून एक सागरोपम सुधी होय. ए प्रमाणे यावत् नीचे सातमी || CARRIERGARH For Private and Personal Use Only Page #140 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra व्याख्या प्रज्ञप्तिः ॥७१०॥ www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir नरक पृथ्वी सुधी जाणं. परन्तु देशबन्धने विषे जेनी जे जघन्य स्थिति होय तेने एक समय न्यून करवी, अने यावत जेनी उत्कृष्ट स्थिति होय ते पण समय न्यून करवी. पञ्चेन्द्रिय तिर्यंच अने मनुष्यने वायुकायिकनी पेठे जाणवुं. असुरकुमार, नागकुमार, याबद् | अनुत्तरौपपातिक देवोने नारकनी पेठे जाणवा; परन्तु जेनी जे स्थिति (आयुष्य) होय ते कहेवी, यावद् अनुत्तरौपपातिकोनो सर्वबन्ध एक समय, अने देशबन्ध जघन्यथी ऋण समय न्यून एकत्रीश सागरोपम सुधीनो होय छे; तथा उत्कृष्टथी एक समय न्यून तेत्रीश सागरोपम सुधीनो छे. [प्र०] हे भगवन् ! वैक्रियशरीरना प्रयोगबन्धनुं अन्तर कालथी क्यां सुधी होय ? [उ०] हे गौतम ! सर्वच - न्धनुं अन्तर जघन्यथी एक समय, अने उत्कृष्टथी अनंतकाल - अनन्त उत्सर्पिणी, अवसर्पिणी, यावद् आवलिकाना असंख्यातमा - भागना समय तुल्य असंख्य पुद्गल परावर्त सुधी होय छे. ए ममाणे देशबन्धनुं अन्तर पण जाणवु. बाउक्काइयवेउब्विय सरीरपुच्छा, गोयमा ! सव्वबंधंतरं जहन्नेणं अतोमुहुत्तं उक्कोसेणं पलिओवमस्स असंखेइभागं, एवं सबंधंतरंपि॥ तिरिक्खजोणिय पंचिंदिय वेउब्विय सरीरप्पयोगबंधंतरं पुच्छा, गोयमा ! सव्वबंधंतरं जहन्नेणं अतोमुहुत्तं उक्कोसेणं पुत्र्वकोडीपुहुत्तं, एवं देसबंधंतरंपि, मणूसस्सवि || जीवस्स णं भंते ! वाउकाइयत्ते नोवाउकाइयत्ते पुणरवि वाउकाइयते वाउकाइयएगिंदिय० बेउब्वियपुच्छा, गोयमा! सव्वबंधंतरं जहन्नेणं अतोमुहुत्तं उक्कोसेणं अनंत कालं वणस्सइकालो, एवं देसबंधंतरंपि ॥ जीवस्स णं भंते ! रयणप्पभापुढविनेरइयत्ते णोरयण भादंवि० पुच्छा, गोयमा ! सव्वबंधतरं जहनेणं दस वाससहस्साइं अंतोमुहुत्तमम्भहियाई उक्कोसेणं वणरसइकालो, देसबंधंतरं जहनेणं अंतोमुहुत्तं उक्कोसेणं अनंतं कालं वणस्सइकालो, एवं जाव अहेसत्तमाए, नवर For Private and Personal Use Only ८ शतके उद्देशः ९ ॥७१०॥ Page #141 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatrth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyarmandir व्याख्याप्राप्तिः ॥७११॥ ८ शतके उद्देशः ॥७११॥ SCALCREACROSSAR जा जस्म ठिती जहनिया सा सव्वबंधंतरं जहन्नेणं अंतोमुहुत्तमभहिया कायवा, सेसं तं चेव, पंचिंदियतिरिक्खजोणियमणुस्साण य जहा वाउकाइयाणं । असुरकुमारनागकुमार जाव सहस्सारदेवाण एएसि जहा रयणप्पभापुढविनेरइयाणं नवरं सब्वबंधंतरे जस्स जा ठिती जहन्निया सा अंतोमुत्तमभहिया कायब्बा , सेसं तं चेव ।। [प्र०] वायुकायिकना वैक्रियशरीरप्रयोगबन्धना अन्तर संबन्धे प्रश्न. [उ०] हे गौतम ! सर्वबन्धनुं अन्तर जघन्यथी अन्तर्मुहूर्त, I' | अने उत्कृष्टथी पल्योपमनो असंख्यातमोभाग. ए प्रमाणे देशचन्ध अन्तर पण जाणवू [प्र०] तिर्यंचयोनिक पंचेद्रियना वैक्रियशरीरना है प्रयोगबन्धना अन्तर संबन्धे प्रश्न. [उ०] हे गौतम ! सर्वबन्धनुं अन्तर जघन्यथी अन्तर्मुहूर्त, अने उत्कृष्टथी पूर्वकोटिपृथक्त्व (बेथी नव पूर्नकोटी) सुधो होय छे. ए प्रमाणे देशबन्धनुं अन्तर पण जाणवू. ए रीते मनुष्यने पण जाणवू [प्र०] हे भगवन ! कोइ जीव वायु कायिकपणामां होय अने [मरीने] वायुकाय सिवाय बीजा जीवोमां आवीने उपजे, अने ते पुनः वायुकायपणामां आवे ते वायुकायिक एकेन्द्रिय बैक्रियशरीरप्रयोगबन्धना अन्तर संबन्धे प्रश्न. [२०] हे गौतम ! तेना सर्वबन्धनुं अन्तर जघन्यथी अन्तर्मुहूर्त, अने उत्कृष्टथी अनन्तकाल-वनस्पति काल होय. ए प्रमाणे देशबन्धनुं पण अन्तर जाणवू [प्र०] हे भगवन् ! कोइ जीव रत्नप्रभापृथिवीमां | नारकपणे उत्पन्न थाय अने पछी रत्नप्रभापृथिवी शिवायना जीवोमां जाय, अने पुनः रत्नप्रभा नरकमां आवे ते रत्नप्रभानरयिकना | वैक्रियशरीरप्रयोगबन्धना अन्तर संबन्धे प्रश्न. [उ०] हे गौतम ? सर्वबन्धनुं अन्तर जघन्यथी अंतर्मुहूर्त अधिक दश हजार वर्ष, अने उत्कृष्ठथी वनस्पतिकालपर्यन्त होय. तथा देशबन्धनुं अन्तर जघन्यथी अंतर्मुहूर्त, अने उत्कृष्टयी अनन्तकाल-वनस्पतिकाल सुधी होय. FARRUKRISEMERGRAMM For Private and Personal Use Only Page #142 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir व्याख्या प्रज्ञप्तिः ॥७१२॥ ८ शतके उद्देशः ९ ॥७१२॥ EGISTRICANASI ए प्रमाणे यावत् नीचे सातमी नरकपृथ्वी पर्यन्त जाणवू. परन्तु विशेष ए छे के जघन्यथी सर्वबन्धनुं अन्तर जे नारकनी जेटली | जघन्य स्थिति होय तेटली स्थिति अन्तर्मुहूर्त अधिक जाणवी. बाकीर्नु पूर्वनी पेठे जाणवू. पंचेन्द्रिय तियंचयोनिक अने मनुष्योने सर्वबन्धन अन्तर वायुकायिकनी पेठे जाणवू. जेम रत्नप्रभाना नैरविकोने कछु तेम अमुरकुमार, नागकुमार, यावत् सहस्रार देवाने | पण जाणवु', परन्तु विशेष ए छे के तेना सर्वबन्ध अन्तर जेनी जे जघन्य स्थिति होय तेने अन्तर्मुहुर्त अधिक करवी बाकी सर्व | पूर्वे कह्या प्रमाणे जाणवू. जीवस्स णं भंते ! आणयदेवत्ते नोआणय० पुच्छा, गोयमा! सबबंधंतरं जहन्नेणं अट्ठारस सागरोवमा वासपुहुत्तमम्भहियाई उक्कोसेणं अणतं कालं वणस्मइकालो, देसबंधतरं जहन्नेणं वासपुहुत्तं उक्कोसेणं अणतं कालं वणस्सइकालो, एवं जाव अच्चुए, नवरं जस्स जा जहलिया ठिती सा सव्वबंधतरं जह• वासपुहुत्तमम्भहिया कायब्वा, सेसंतं चेव। गेवेजकप्पातीयपुच्छा, गोयमा! सव्वबंधंतरं जहन्नेणं बावीस सागरोवमाई वासपुहुत्तमम्भहियाई उक्कोसेणं अणतं कालं वणस्सइकालो, देसबंधंतरंजहन्नेणं वासपुहुत्तं उक्कोसेणं वणस्सइकालो। जीवस्सणं भंते! अणुत्तरोववातियपुच्छा, गोयमा! सव्वबंधंतरं जहन्नेणं एकतीसं सागरोवमाई वासपुहुत्तमन्भहियाई उकोसेणं संखेन्जाई सागरोवमाई, देसबंधंतरं जहन्नेणं वासपुहुत्तं उकोसेण संखेजाइं सागरोवमाई। एएसि णं भंते ! जीवाणं वेउब्बियसरीरस्स देसघंधगाणं सब्वबंधगाणं अबंधगाण य कयरे २हिंतो जाव विसेसाहिया वा ?, गोयमा! सब्वथोवा जीवा वेउम्बियसरीरस्स सव्वबंधगा देसंबंधगा असंखेजगुणा अबंधगा अणंतगुणा ॥ For Private and Personal Use Only Page #143 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra व्याख्या प्रज्ञप्तिः ॥७१३ ॥ www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir [प्र०] हे भगवन् ! आनतदेवलोकमा देवपणे उत्पश्च भयेलो कोइ जीव त्यांथी ( व्यवी) आनत देवलोक सीवायना जीवोमां उत्पन्न थाय अने पाछो फरीने त्यां आनत देवलोकमां उत्पन्न थाय ते आनतदेव वैक्रियशरीरप्रयोगवन्धना अन्तर संबन्धे प्रश्न. [ उ० ] हे गौतम! सर्वबन्ध अन्तर जघन्यथी वर्षपृथक्त्व अधिक अढार सागरोपम, अने उत्कृष्ट अनंतकाल्द-वनस्पतिकालपर्यन्त होय. तथा देशवन्धनुं अन्तर जघन्यथी वर्षपृथक्त्व, अने उत्कृष्ट अनंतकाल - वनस्पतिकाल होय. ए प्रमाणे यावद् अच्युत देवलोक पर्यन्त जाणं परन्तु सर्वबन्धनुं अन्तर जघन्यथी जेनी जे स्थिति होय ते वर्षपृथक्त्व अधिक करवी. बाकी बधुं पूर्वनी पेठे जाणं. [प्र० ] ग्रैवेयक कल्पातीत वैक्रियशरीरप्रयोग बन्धना अन्तर संबन्धे प्रश्न. [30] हे गौतम! सर्वत्रन्धनुं अन्तर जघन्यथी वर्षपृथक्त्व अधिक बावीश सागरोपम, अने उत्कृष्टथी अनंतकाल वनस्पतिकाल सुधी होय. तथा देशवन्धनुं अन्तर जघन्यथी वर्षथक्त्व भने उत्कृष्टथी वनस्पतिकाल जाणवो. [प्र० ] हे भगवन् ! अनुत्तरौपपातिकदेव संबंधे प्रश्न. [उ०] हे गौतम! सर्वत्रन्धनुं अन्तर जघन्यथी वर्षपृथयक्त्व अधिक एकत्रीश सागरोपम, भने उत्कृष्टथी संख्पात सागरोपम है, तथा देशबन्ध अन्तर जघन्यथी वर्षपृथक्त्व, अनं उत्क पृथी संख्यात सागरोपम होय छे. [प्र०] हे भगवन ! ए वैक्रियशरीरना देशबंधक, सर्वबंधक अने अबंधक जीवोमां कया जीवो कया जीवोथी यावद् विशेषाधिक छे ? [उ०] हे गौतम! वैक्रियशरीरना सर्वबंधक जीवो सौथी थोडा छे, तथा देशबंधको असंख्यातगुणा छे, अने तेथी अबंधको अनंतगुणा छे. आहारगसरीरप्पयोग बधे णं भंते ! कतिविहे पण्णत्ते १, गोयमा ! एगागारे पण्णत्ते । जइ एगागारे पण्णत्ते किं मणुस्साहारगसरीरप्पयोगबंधे किं अमणुस्साहारगसरीरप्पयोग बंधे ?, गोयमा ! मणुस्साहारगसरीरप्पयोगबंधे, For Private and Personal Use Only शतके उद्देशः ९ ॥७१३॥ Page #144 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir R ८ शतके व्याख्या प्रज्ञप्तिः ॥७१४॥ उद्देशः ९ ॥७१४॥ CRECCARROR नो अमगुस्साहारगसरीरप्पयोगबंधे, एवं एएणं अभिलावेणं जहा ओगाहणसंठाणे जाव इड्ढीपत्त,पमत्तसंजय-IA सम्मद्दिहिपजत्तसंखेजवामाउयकम्मभूमिगगनभवतियमणुस्साहारगसरीरप्पयोगबंधे णो अणि ढीपत्तपमत्त जाव आहारगसरीरप्पयोगबंधे। आहारगसरीरप्पयोगबंधे णं भंते ! कस्स कम्मस्स उदएणं, गोयमा! वीरियसयोगसद्दव्वयाए जाव लद्धिं च पडुच आहारगसरीरप्पयोगणामाए कम्मस्स उदएणं आहारगसरीरप्पयोगबंधे । आहारसरीरप्पयोगबंधे णं भंते ! किं देसबंधे सव्वबंधे ?, गोयमा! देसबंधेवि सब्वबंधेवि । आहारगसरीरप्पयोगबंधे ण भंते ! कालओ केवचिरं होइ?, गोयमा ! सव्वबंधे एक समयं देसबंधे जहन्नेणं अंतोमुहुत्तं उकोसेणवि अंतोमुहुत्त । आहारगसरीरप्पयोगबंधतरे णं भंते ! कालओ केवचिरं होइ ?, गोयमा! सब्वबंधंतरं जहन्नेण अंतोमुहुत्त उकोसेण अणतं कालं अणंताओ ओसपिणिउस्सप्पिणीओ कालओ खेत्तओ अणंता लोया अवड्ढे पोग्गलपरियह देसूणं, एवं देसबंधतरंपि ।। एएसि णं भंते ! जीवाणं आहारगसरीरस्स देसबंधगाणं सब्बबंधगाण अबंधगाण य कयरे २ जाव विसेसाहिया वा ?, गोयमा! सव्वत्थोवा जीवा आहारगसरीरस्स |सब्वबंधगा देसबंधगा संखेजगुणा अबंधगा अणंतगुणा ३॥ (सू० ३४८)॥ | [प्र०] हे भगवन् ! आहारकशरीरनो प्रयोगबंध केटला प्रकारनो कह्यो छे ? [उ०] हे गौतम! एक प्रकारनो कह्यो छे. [प्र०] |जो (आहारकशरीरप्रयोगबंध ) एक प्रकारनो कयो छे तो शुं ते मनुष्योने आहारकशरीरमयोगबंध के के मनुष्य शिवाय बीजा 5जीवोने आहारकशरीरप्रयोगबन्ध छ ? [उ.] हे गौतम ! मनुष्योने आहारकशरीरप्रयोगबन्ध होय छे, पण मनुष्य शिवाय बीजा CREASE For Private and Personal Use Only Page #145 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra व्याख्या प्रज्ञप्तिः ॥७१५॥ www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir जोवने आहारकशरीरप्रयोगवन्ध होतो नथी. ए प्रमाणे ए अभिलापथी 'अवगाहनासंस्थान' पदमां कह्या प्रमाणे यावद् ऋद्धिवास प्रमत्तसंयत सम्यग्दृष्टि पर्याप्त संख्यात वर्षंना आयुष्यवाळा कर्मभूमिमां उत्पन्न थएला गर्भज मनुष्यने आहारकशरीरप्रयोगबन्ध होय छे, पण ऋद्धिने अमाप्त प्रमत्तसंयतने यावद् आहारकशरीरप्रयोगबंध होतो नथी. [ प्र० ] हे भगवन्! आहारकशरीर प्रयोगबन्ध कया कर्मना उदयथी होय छे ? [उ०] हे गौतम! सवीर्थता, सयोगता अने सद्द्रव्यताथी यावद् लब्धिने आश्रयी आहारकशरीर प्रयोगनामकर्मना उदयथी आहारकशरीर प्रयोगबन्ध होय छे. [प्र०] हे भगवन् ! आहारकशरीरमयोगबन्ध शुं देशबन्ध छे के सर्वबन्ध छे ? [अ०] हे गौतम ! देशबन्ध पण छे अने सर्वबन्ध पण छे. [प्र०] हे भगवन् ! आहारकशरीरप्रयोगवन्ध कालथी क्यांसुधी होय ? [[अ०] हे गौतम! तेनो सर्वबंध एक समय, अने देशबंध जघन्यथी अंतर्मुहूर्त अने उत्कृष्टथी पण अंतर्मुहूर्त सुधी होय छे. [प्र० ] हे भगवन! आहारकशरीरमा प्रयोगबंधनुं अंतर कालथी केटलं होय छे ? [अ०] हे गौतम ! तेना सर्वबंधनुं अंतर जघन्यथी अंतर्मुहूर्त, अने उत्कृष्टथी कालनी अपेक्षाए अनंतकाल - अनंत उत्सर्पिणी अने अवसर्पिणी होय हे. क्षेत्रथी अनंतलोक- कांइक न्यून अर्धपुद्गल परावर्त छे. ए प्रमाणे देशबंधनुं अंतर पण जाणं. [प्र० ] हे भगवन् ! आहारकशरीरना देशबंधक सर्वबंधक अने अबंधक जीवोमां कया -जीवों कया जीवोथी यावद् विशेषाधिक के ? [उ०] हे गौतम! सौथी थोडा जीवो आहारक्रशरीरना सर्वबंधक छे, तेषी देशबंधक संख्यातगुणा छे, अने तेथी अबंधक जीवो अनंतगुणा के ॥ ३४८ ॥ तेयासरीरप्पयोगबंधे णं भंते! कतिविहे पण्णत्ते १, गोयमा ! पंचविहे पण्णत्ते, संजहा- एगिंवियते यासरीरप्पयोगबंधे बेइंदिय० तेइंदिय० जाव पंचिंदियतेयास संरूपयोगयंचे। एमिंदियते या सरीरप्पयोगयंघे णं भंते । कइ विहे For Private and Personal Use Only ८ शतके उद्देशः ९ ।।७१५।। Page #146 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandit व्याख्या प्रज्ञप्तिः ॥७१६॥ पण्णत्ते?, एवं एएणं अभिलावेणं भेदो जहा ओगाहणसंठाणे जाव पज्जत्तसव्वट्ठसिद्धअणुत्तरोववाइयकप्पातीयवेमाणियदेवपंचिंदियतेयासरीरप्पयोगबंधे य अपज्जत्तसव्वट्ठसिद्धअणुत्तरोषवाइयजावबंधे य । तेयासरीरप्पयोग-18|| ८ शतके बंधे णं भंते! कस्स कम्मस्स उदएणं?, गोयमा! वीरियसजोगसहब्बयाए जाव आउयं च पडुच तेयासरीरप्पयो | उद्देशः९ गनामाए कम्मस्स उदएणं तेयासरीरप्पयोगबंधे। तेयासरीरप्पयोगबंधे णं भंते ! किं देसबंधे सब्वबंधे?, गोयमा! ॥७१६॥ देसबंधे, नो सब्वबंधे । तेयासरीरप्पयोगबंधे णं भंते ! कालओ केवचिरं होइ?, गोयमा! दुविहे पण्णत्ते, तंजहाअणाइए वा अपज्जवसिए, अणाइए वा सपज्जवसिए॥ तेयासरीरप्पयोगबंधतरेण भंते! कालओ केवचिरं होइ?, गोयमा! अणाइयस्स अपज्जवसियस्स नत्थि अंतरं, अणाइयस्स सपजवसियस्स नस्थि अंतरं ॥ एएसिणं भंते ! जीवाणं तेयासरीरस्स देसबंधगाणं अबंधगाण य कयरे २ जाव विसेसाहिया वा?, गोयमा! सम्बत्थोवा जीवा तेयासरीरस्स अबंधगा, देसबंधगा अणंतगुणा ४ ( सूत्रं ३४९)॥ . | [प्र०] हे भगवन ! तैजसशरीरप्रयोगबंध केटला प्रकारनो कह्यो छे? [उ०] हे गौतम ! पांच प्रकारनो कह्यो छे, ते आ प्रमाणे१ एकेन्द्रिय तैजसशरीरमयोगबन्ध, २वीन्द्रिय तेजसशरीरपयोगबन्ध, ३ त्रीन्द्रिय तैजसशरीरप्रयोगबन्ध, यावत् ५ पंचेन्द्रिय तेजसशरीरप्रयोगबन्ध. [प्र०] हे भगवन् ! एकेन्द्रियतैजसशरीरप्रयोगबन्ध केटला प्रकारे कयो छे ? [उ.] ए अमिलापथी ए प्रमाणे जेम · अवगाहनासंस्थान' मां भेद कयो छे तेम अहीं पण कहेवो, यावद् पर्याप्त सर्वार्थसिद्ध अनुसरौपपातिक कल्पातीत वैमानिक देवपंचेन्द्रिय तेजसशरीरमयोगबन्ध अने अपर्याप्तसर्वार्थसिद्ध अनुत्तरौपपातिक तैनसशरीरपयोगबन्ध छे. [म.] हे भगवन् ! तैनसश For Private and Personal Use Only Page #147 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailaseagarsuri Gyanmandie व्याख्याप्राप्तिः ॥७१७॥ ८ शतके उद्देशः९ ॥७१७॥ C+LEGALAMMUNICAL [प्र०] हे भगवन ! मोहनीयकार्मणशरीरप्रयोगबन्ध संबन्धे प्रश्न. [उ०] हे गौतम ! तीवक्रोध करवाथी, तीव्र मान करवायी, तीव माया (कपट) करवायी, तीव्र लोभ करवाथी, तीव्र दर्शनमोहनीययी, तीव्र चारित्रमोहनीयथी तथा मोहनीयकार्मणशरीरपयोगनामकर्मना उदयथी मोहनीयकार्मणशरीरप्रयोगबन्ध थाय छे. [प्र०] हे भगवन् ! नारकायुषकार्मणशरीरमयोगबन्ध संवन्धे प्रश्न.[उ.]13 हे गौतम! महा आरम्भथी, महापरिग्रहथी, मांसाहार करवायी,पंचेन्द्रिय जीवोनो वध करवायी तथा नारकायुपकार्मणशरीरपयोगनामकर्मना उदययी नारकायुषकार्मणशरीरमयोगबन्ध थाय छे. [प्र.] हे भगवन् ! तिर्यचयोनिकायुषकार्मणशरीरमयोगबन्ध कया कर्मना उदयथी थाय छे ? [उ.] हे गौतम ! मायिकपणाथी, कपटीपणाथी, खोटुं बोलवाथी, खोटा तोलां अने खोटां मापथी तथा तिर्यचयोनिकायुष-18 कार्मणशरीरपयोगनामकर्ममा उदयथी तिर्यचयोनिकायुषकार्मणशरीरप्रयोगबन्ध याय छे. [प्र०] हे भगवन् ! मनुष्यायुषकार्मणशरीरप्रयोगबन्ध कया कर्मना उदयथी थाय छे ? [उ०] हे गौतम ! प्रकृतिनी भद्रनाथी, प्रकृतिना विनीतपणाथी, दयाळूपणाथी, अमत्सरिपणाथी तथा मनुष्यायुपकार्मणशरीरप्रयोगनामकर्मना उदयथी मनुष्यायुषकार्मणशरीरप्रयोगबन्ध थाय छे. [प्र०] देवायुषकार्मणशरीरपयोगबन्ध संपन्धे प्रश्न. [उ०] हे गौतम ! सरागसंयमथी, संयमासंयम-(देशविरति)थी, अज्ञानतपकर्मथी, अकामनिर्जराथी तथा | वायुष्कार्मणशरीरमयोगनापकर्मना उदयथी देवायुष्कार्मण शरीरप्रयोगबन्ध थाय छे. [प्र०] शुभनामकार्मणशरीरमयोगबन्ध संबन्धे | प्रश्न. [उ०] हे गौतम ! कायनी सरलताथी, भावनी सरलताथी, भाषानी सरलताथी अने योगना अविसंवादनपणाथी-एकताथी तथा शुभनामकार्मणशरीरमयोगनाम कर्मना उदयथी यावत् प्रयोगबन्ध थाय छे. असुमनामकम्मासरीरपुच्छा, गोयमा कायअणुज्जुययाए भावअणुज्जुययाए भासणुज्जुयाए विसंवायणाजोगेणं 3555 For Private and Personal Use Only Page #148 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ८ शतके व्याख्या प्रज्ञप्तिः ॥७१८॥ o ॥७१८॥ रीरपयोगनामाए कम्मस्स उदएण जावप्पओगबंधे। सायावेयणिज्नकम्मासरीरप्पयोगबंधे णं भंते ! कस्स कम्मस्स उदएणं!, गोयमा! पाणाणुकंपयाए भूयाणुकंपयाए एवं जहा सत्तमसए दसमोइसए जाव अपरियावणयाए सायावेयणिज्नकम्मासरीरप्पयोगनामाए कम्मस्स उदएणं सायावेयणिज्जकम्मा जाव बंधे। अस्सायावेयणिज्ज पुच्छा, गोयमा! परदुकखणयाए परसोयणयाए जहा सत्तमसए दसमोद्देसए जाव परियावणयाए अस्सायवेयणिज्जकम्मा जावपयोगबंधे। [प्र०] हे भगवन् ! कार्मणशरीरमयोगबन्ध केटला प्रकारनो कह्यो छे ? [उ०] हे गौतम ! आठ प्रकारनो कह्यो छे, ते आ | प्रमाणे--ज्ञानावरणीयकार्मणशरीरप्रयोगबन्ध, यावद् अन्तरायकार्मणशरीरप्रयोगबन्ध. [प्र०] हे भगवन् ! ज्ञानावरणीयकार्मण शरीरप्रयोगबन्ध कया कर्मना उदययी पाय छे?[उ०] हे गौतम ! ज्ञाननी प्रत्यनीकताथी, ज्ञाननो अपलाप करवाथी, ज्ञाननो अन्तराय-विघ्न करवायी, जाननो पद्वेष करवाथी, ज्ञाननी अत्यन्त आशातना करचाथी, ज्ञानना विसंवादन योगथी अने ज्ञानावरणीयकार्मणशरीरप्रयो| गनामकर्मना उदययी झानावरणीयकार्मणशरीरमयोगवन्ध थाय छे. [प्र०] हे भगवन् ! दर्शनावरणीयकार्मणशरीरप्रयोगबन्ध कया है कर्मना उदयथी थाय छे ? [उ०] हे गौतम ! दर्शननी प्रत्यनीकताथी-इत्यादि जेम ज्ञानावरणीयना कारणो कया छे तेम दर्शनावरणीय माटे जाणवा; परन्तु (शानावरणीयस्थाने) 'दर्शनावरणीय' कहे, यावद् दर्शन विसंवादनयोगथी, तथा दर्शनावरणीयकार्मणशरीरप्रयोगनामकर्मना उदयथी दर्शनावरणीयकार्मणशरीरमयोगवन्ध धाय छे. [प्र०] हे भगवन ! सातावेदनीयकार्मणशरीरप्रयोगबन्ध कया कर्मनाउदयथी थाय छे ? [उ.] हे गौतम! पाणीओ उपर अनुकम्पा करवाची, भूतो उपर अनुकंपा करवाथी-इत्यादि जेम सर For Private and Personal Use Only Page #149 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ८ शतके उद्देशः९ ॥७१९॥ सप्तम शतकना दुःपमा उमेशकमां कथुछे तेम कहे, यावद् तेओने परिताप नहि उत्पन्न करवायी, अने सातावेदनीयकार्मणशरीर | प्रयोगनामकर्मना उदयथी सातावेदनीयकार्मणशरीरप्रयोगबन्ध थाय छे. [प्र०] हे भगवन् ! आसातावेदनीयकार्मणशरीरप्रयोगबन्ध व्याख्या- | संबन्धे प्रश्न. [उ०] हे गौतम बीजाने दुःख देवाथी, बीजाने शोक उत्पन्न करवाथी-इत्यादि जेम सप्तम शतकना दुःषमा उद्देशकमा प्राप्तिः है कयुं छे तेम यावद् बीजाने परिताप उपजाववाथी भने असातावेदनीयकार्मणशरीरमयोगनामकर्मना उदयथी अप्सातावेदनीयकार्मणश॥७१९॥ |रीरप्रयोगबन्ध थाय छे. मोहणिज्जकम्मासरीरप्पयोग पुच्छा, गोयमा! तिव्वकोहयाए तिब्वमाणयाए तिब्वमायाए तिब्बलोभाए | तिब्बदसणमोहणिज्जयाए तिव्वचरित्तमोहणिज्जयाए मोहणिजकम्मासरीरजावपयोगबंधे । नेरइयाउयकम्मास रीरप्पयोगबंधे णभंते! पुच्छा,गोयमा! महारंभपाए महापरिग्गहयाए कुणिमाहारेणं पंचिंदियवहेणं नेरइयाउयक|म्मासरीरप्पयोगनामाए कम्मस्स उदएणं नेरइयाउयकम्मासरीरजाव पयोगबंधे।तिरिक्खजोणीयाउयकम्मासरीरप्पओगपुच्छा, गोयामा! माइल्लियाए नियडिल्लयाए अलियवयणेणं कूडतुलकूडमाणेणं तिरिक्खजोणियकम्मासरीजावप्पयोगबंधे। मणुस्सआउयकम्मासरीरपुच्छा, गोयमा! पगइभद्दयाए, पगइविणीययाए, साणुक्कोसणयाए,अम. छरियाए मणुस्साउयकम्मा जावपयोगबंधे । देवाउयकम्मासरीरपुच्छा, गोयमा! सरागसंजमेणं संजमासंजमेणं | बालतवोकम्मेणं अकामनिज्जराए देवाउयकम्मासरीर जावपयोगबंधे ॥ सुभनामकम्मासरीरपुच्छा, गोयमा ! कायउज्जुययाए भावुज्जुययाए भासुज्जुययाए अविसंवादणजोगेणं सुभनामकम्मासरीरजावप्पयोगबंधे। RSSRISH For Private and Personal Use Only Page #150 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra व्याख्याप्रज्ञप्तिः ॥७२० ॥ www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir उद्देशः ९ 1102011 प्रयोगवन्ध कया कर्मना उदयथी थाय छे ? [उ०] हे गौतम! सवीर्यता, सयोगता अने सद् द्रव्यताथी यावद् आयुष्यने आश्रयी तेजसशरीर प्रयोगनामकर्मना उदयथी तैजसशरीरनो प्रयोगबन्ध थाय छे. [प्र० ] हे भगवन् ! तैजसशरीरप्रयोगबन्ध शुं देशबन्ध छे के २८ शतके सर्वबन्ध छे? [उ० ] हे गौतम! देशबन्ध हे पण सर्वबन्ध नथी. [प्र०] हे भगवन् ! तैजसशरीरप्रयोगबन्ध कालथी क्यां सुधी होय ? [30] हे गौतम! तैजसशरीरमयोगबन्ध वे प्रकारनो को छे. ते आ प्रमाणे- १ अनादि अपर्यवसित अने २ अनादि सपर्यवसित [प्र० ] हे भगवन् ! तैजसशरीरप्रयोगवन्धनुं अन्तर कालथी क्यां सुधी होय ? [अ०] हे गौतम! अनादि अपर्यवसित अने अनादि सपर्यवसित ए बन्ने प्रकारना तैजसशरीरप्रयोगबन्धतुं अन्तर नथी. [प्र०] हे भगवन् ! ए तैजसशरीरना देशवन्धक अने अन्धक जीवोमां कया जीवो कया जीवोथी यावद् विशेषाधिक छे ? [अ०] हे गौतम! तैजसशरीरना अबन्धक जीवो सौथी थोडा छे, तेथी देशबन्धक जीवो अनन्तगुण छे. ॥ ३४९ ॥ कम्मासरीरपयोगबंधे णं भंते! कतिविहे पण्णत्ते ?, गोयमा ! अट्ठविहे पण्णत्ते, तंजहा-नाणावरणिजकम्मासरीरप्पयोगबंधे जाव अंतराइयकम्मासरीरप्पयोगबंधे । णाणावरणिज्जकम्मासरीरप्पयोगबंधे णं भंते! कस्स कम्मस्स उदपणं १, गोयमा ! नाणपडिणीययाए णाणणिण्हवणयाए णाणतराएणं णापाप्पदोसेणं णाणच्चासादणाए णाणविसंवादणाजोगेणं णाणावरणिज्जकम्मासरीरप्पयोगनामाए कम्मस्स उदएणं णाणावरणिजकम्मासरीरप्पयोग बंधे । दरिसणावरणिज्जकम्मासरीरप्पयोगबंधे णं भंते! कस्स कम्मस्स उदरणं, गोपमा ! दंसणपडिणीययाए, एवं जहा णाणावरणिज्जं नवरं दंसणनाम घेत्तव्वं जाव दंसणविसंवादणाजोगेणं दरिसणावर णिज्जकम्मास For Private and Personal Use Only Page #151 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ८शतके असुभनामकम्माजाव पयोगबंधे। उपागोयकम्मासरीरपुरुछा, गोयमा! जातिअमदेणं कुलभमदेणं बलअमदेणं रूबध्याख्या अमदेणं तवअमदेणं सुयअमदेणं लाभअमदेण इस्सरियअमदेणं उच्चागोयकम्मासरीरजाव पयोगधंधे, नीयागोयकप्रमतिः म्मासरीरपुच्छा, गोयमा! जातिमदेणं कुलमदेणं बलमदेणं जाव इस्सरियमदेणं णीयागोरकम्मासरीरजावपयोग॥७२१॥ बंधे। अंतराइयकम्मासरीरपुच्छा,गोयमा!दाणंतराएण लाभतराएणं भोगंतराएणं उपभोगतराएणं बीरियंतराएणं | अंतराइयकम्मासरीरप्पयोगनामाए कम्मस्स उदएणं अंताइयकम्मासरीरप्पयोगबंधे॥ [प्र०] अशुभनामकार्मणशरीरपयोगबन्ध संबन्धे प्रश्न. [उ.] हे गौतम ! कायनी वक्रताथी, भावनी वक्रताथी, भाषानी वक्रताथी, अने योगना विसंवादनपणाथी-भिन्नताथी अशुभनामकार्मणशरीरमयोगमामकर्मना उदयथी यावत प्रयोगवन्ध थाय छे. [१०] उच्च गोत्रकार्मणशरीरपयोगबन्ध संबन्धे प्रश्न [उ.] हे गौतम ! जातिमद न करवायी, कुलमद न करवाथी बलमद म करवाथी, रूपमद | न करवायी, तपमद म करवाथी, श्रुतमद न करवाधी, लाभमद न करवायी अने ऐश्वर्यमद न करवायी, तथा उचगोत्रकार्मणशरीर|| प्रयोगनाकर्मना उदयथी उच्चगोत्रकार्मणशरीरप्रयोगबन्ध थाय छे. [म.] नीचगोप्रकार्मणशरीरप्रयोगबन्ध संबन्थे प्रश्न. [उ.] हे गौ-15 तम ! जातिमद करवाथी, कुलमद करवायी, बलमद करवाथी, यावद् ऐश्वर्यमद करवायी तथा नीचगोत्रकार्मणशरीरप्रयोगनामकर्मना उदयथी नीचगोत्रकार्मणशरीरमयोगवन्ध धाय छे. [प्र०] अंतरायकार्मणशरीरपयोगबन्ध संबन्धे प्रश्न. [उ०] हे गौतम ! दाननो अन्तराय करवायी, लाभनो अन्तरायकरवाधी, भोगनोअन्तराय करवाथी, उपभोगमो अम्तराय करपाथी अने वीर्यनो अन्तराय करवापी तथा अन्तरायकार्मणशरीरमयोगनामकर्मना उदयथी अन्तरायकार्मणशरीरप्रयोगपन्ध थाय छे. SHASHA ॥७२॥ SMSUSMSAX For Private and Personal Use Only Page #152 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir व्याख्या प्रज्ञप्तिः ॥७२२॥ ८ शतके उद्देशः९ ॥७२२॥ णाणावरणिनकम्मासरीरप्पयोगधंधे णं भंते! किं देसबंधे सव्वबंधे?, गोयमा! देसबंधे, णो सव्वयंधे, एवं जाव अंतराइयकम्मा । णाणावरणिजकम्मासरीरप्पयोगबंधेणं भंते! कालओ केवच्चिरं होइ ?, गोयमा!णाणा. दुविहे पण्णत्ते, तंजहा-अणाइए सपजवसिए अणाइए अपज्जवसिए वा, एवं जहा तेयगस्स संचिट्ठणा तहेव, एवं जाव अंतराइयकम्मस्साणाणावरणिज्जकम्मासरीरप्पयोगबंधंतरे णं भंते! कालओ केवञ्चिरं होइ?, गोयमा! अणाइयस्स एवं जहा तेयगसरीरस्स अंतरं तहेव, एवं जाव अंतराइयस्स । एएसिणं भंते ! जीवाणं नाणावरणिज्जस्स कम्मस्स देसबंधगाणं अबंधगाण य कयरे २ जाव अप्पाबहुगं जहा तेयगस्स, एवं आउयवज्ज़ जाव अंतराइयस्स । आउयस्स पुच्छा, गोयमा! सम्वत्थोवा जीवा आउयस्स कम्मस्स देसबंधगा, अबंधगा संखेजगुणा ५ (सूत्रं ३५०॥) [म.] हे भगवन् ! ज्ञानावरणीयकार्मणशरीरप्रयोगबन्ध | देशबन्ध छे के सर्वबन्ध छ ? [उ०] हे गौतम ! देशबन्ध छे, पण है सर्वबन्ध नथी. ए प्रमाणे यावद् अन्तरायकार्मणशरीरप्रयोगबन्ध सुधी जाणवू [प्र०] हे भगवन् ! ज्ञानावरणीयकार्मणशरीरप्रयोगबन्ध कालथी क्यां सुधी होय ? [उ०] हे गौतम ! ज्ञानावरणीयकार्मणशरीरपयोगवन्ध चे प्रकारनो कयो छे ते आ प्रमाणे-अनादि सपयवसित (सान्त) अने अनादि अपर्यवसित (अनन्त). ए प्रमाणे यावत जेम तैजस शरीरनो स्थितिकाल कह्यो छे तेम अहीं पण कहेवो, ए प्रमाणे यावद् अन्तराय कर्मनो स्थितिकाल जाणवो. [प्र०] हे भगवन् ! ज्ञानावरणीयकार्मणशरीरमयोगबन्धनुं अन्तर कालथी क्यां मुधी होय १ [उ०] हे गौतम ! अनादि अनंत अने अनादि सात छे. जे प्रमाणे तैजसशरीरमयोगबन्धन अन्तर कां For Private and Personal Use Only Page #153 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir दा(म०७२.) ते प्रमाणे अहीं पण कहे. ए प्रमाणे यावद् अंतरायकार्मणशरीरप्रयोगबन्धन अन्तर जाणवू [म.] हे भगवन्! हाननावर-16 व्याख्या- गीय कर्मना देशबन्धक अने अबन्धक जीवोमां कया जीवो कया जीवोथी यावद् विशेषाधिक छ? (उ०) जेम तैनस शरीरंतु अल्पब- शतके प्रज्ञप्तिः | हुत्व कj (मू. ७३.) तेम अहीं पण जाणवू. ए प्रमाणे आयुषकर्म शिवाय यावत् अन्तराय कर्म सुधी जाणवू. [म.] आयुषकर्म संव-18 उद्देशः ॥७२३॥ न्धे पश्न. [उ०] हे गौतम ! आयुषकर्मना देशबन्धक जीवो सौथी योडाछे, अने तेनाथी अबंधक जीवो संख्यातगुण छे.॥ ३५॥ ॥७२३॥ जस्स णं भंते! ओरालियसरीरस्स सव्वबंधे से णं भंते! वेउब्धियसरीस्स किंबंधए अबंधए ! मेयमा, नो बंधए, अबंधए, आहारगसरीरस्स किं बंधए अबंधए?, गोयमा! नो बंधए, अबंधए, तेयासरीरस्स किं बंधए अबंधए ?, गोयमा! बंधए, नो अबंधए, जइ बंधए किं देसबंधए सब्बबंधए?, गोयमा ! देसबंधए, नो सव्वबंधए, | कम्मासरीरस्स किं बंधए अबंधए !, जहेव तेयगस्स जाव देसबंधए, नो सबबंधए। जस्स णं भंते! ओरालियसरीरस्स देसबंधे से णं भंते! वेउब्वियसरीरस्स किं बंधए अबंधए ?, गोयमा! नो बंधए, अबंधए, एवं जहेव सम्वबंधेणं भणियं तहेव देसबंधेणवि भाणियव्वं जाव कम्मगस्स णं । जस्स णं भंते! वेउब्वियसरीरस्स सब्बH घए से ण भंते ! ओरालियसरीरस्स किं बंधए अबंधए?,गोयमा! नो बंधए, अबंधए, आहारगसरीरस्स IPातेयगस्स कम्मगस्स य जहेव ओरालिएणं समं भाणियव्वं जाव देसबंधए नो सव्वयंधए। . . H०] हे भगवन् ! जे जीवने औदारिकशरीरनो सर्वबन्ध छे ते जीव शु वैक्रियशरीरनो बन्धक छे के अबन्धक छ ? [उ०].हे गौ-13 तम ! ते बन्धक नथी; पण अबन्धक छे. [म.] औदारिकशरीरनो सर्वबन्धक शृं आहारकशरीरनो बन्धक छे, के अबन्धक छे ? UKAMARCLECREनऊ *65 For Private and Personal Use Only Page #154 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir [उ.] हे मौतम ! बन्धक नथी पण अबन्धक छे. [प्र०] तैजसशरीरनो बन्धक के के अबन्धक के ? [उ०] हे गौतम ? ते तैजसश-12 भ्याख्या रीरनो बन्धक छे पण अबन्धक नथी. [प्र०] हे भगवन् जो ते (तेजस शरीरनो) बन्धक छे तो शुं देशबन्धक छे के सर्वबन्धक ८ शतके प्रज्ञप्तिः छ? [उ.] हे गौतम ! ते देशवन्धक छे, पण सर्ववन्धक नथी. [प्र०] कार्मणशरीरनो बंधक के के अबंधक छे? [उ०] हे गौतम || उद्देशः९ ॥२४॥ | तैजस शरीरनी पेठे यावत् कार्मणशरीरनो देशबन्धक छे पण सर्वबन्धक नथी. [प्र०] हे भगवन् ! जेने औदारिकशरीरनो देशबन्ध ॥७२॥ | छे ते जीव शुं वैक्रियशरीरनो बन्धक छे के अबन्धक छ? [उ०] हे गौतम! बन्धक नथी, पण अबन्धक छे. ए प्रमाणे जेम सर्वबन्धना प्रसंगे कयुं तेम अहीं देशबन्धना प्रसंगे पण यावत् कार्मण शरीर सुधो कहे. [प्र०] हे भगवन् जे जीवने क्रियशरीरनो सर्वबन्ध |ळे ते जीव शुं औदारिकशरीरनो बन्धक छे के अवन्धक छ ? [उ०] हे गौतम । बन्धक नथी पण अबन्धक छे. ए प्रमाणे आहारकमाटे पण जाणवू तेजस अने कार्मण शरीरने जेम औदारिक शरीरनी साथे कयु तेम वैक्रियशरीरनी साधे पण कहे, यावत् देशबन्धक छे पण सर्वबन्धक नथी. जस्स णं भंते ! वेउब्बियसरीरस्स देसबंधे से णं भंते ! ओरालियसरीरस्स किं बंधए अबंधए?, गोयमा! नो बंधए अबंधए, एवं जहा सम्वबंधेणं भणियं तहेव देसबंधेणविभणियं तहेव भाणियव्वं जाव कम्मगस्स।जस्सणं भंते! आहारगसरीरस्ससब्वबंधे से णं भंते! ओरालियसंरीरस्सं किं बंधए अबंधए, गोयमानो बंधए, अबंधए, एवं वैउब्वियस्सवि, तेयाकम्माणं जहेब ओरालिएणं समं भणियंतहेव भाणियब्वं । जस्स ण भंते! आहारगसरीरस्स सबंधे से णं भंते ! ओरालियसरीर० एवं जहा आहारगसरीरस्स सब्वयंघेणं भणियं तहा देसबंधेणवि For Private and Personal Use Only Page #155 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra व्याख्या प्रज्ञप्तिः ।।७२५॥ www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir भाणि जाये कम्मगस्स । जस्स णं भंते! तेयासरीरस्स देमबंधे से णं भंते ! ओरालियमरीरस्स किं बंधए अबंधए !, गोयमा ! बंधए वा अबंधड़ था, जह बंधए किं देशबंधए संबंध १, गोयमा ! देसंबंधए वा सव्वबंधए वा, बेउव्वियसरीस्स किं बंधर अबंध ? एवं चैव, एवं आहारगसरीरस्सवि, कम्मगसरीरस्स किं बंधए अबंधर ?, गोयमा ! बंधर नो अबंध, जइ बंधए किं देसबंध सव्वबंधए १. गोगमा ! देमबंध मो मव्वबंध । जस्स णं भंते! कम्मगसरीरस्स देसबंधे से णं भंते ! ओरालिय सरीरस्स जहा तेयगस्स वत्तंव्वया भणिया तहा कम्मगस्सवि भाणिपव्वा जाव तेयासरीरस्मं जाव देसबंधए नो सव्वबंधए ।। ( सू ३५१ ) ॥ [प्र०] हे भगवन् ! जे जीवने वैपिशरीग्नो देशबन्ध छे ते जीव शुं औदारिक शरीरनो बन्धक छे के अबन्धक छे ? [उ०] हे गौतम ! बन्धक नथी, पण अबन्धक छे. ए प्रमाणे जेम (वैक्रियशरीरना) सर्वबंधना प्रसंगे क तेम अहीं देशबन्धना प्रसंगे पण यावत् कार्मणशरीर सुधी कहेतुं [प्र० ] हे भगवन् ! जे जीवने आहारकशरीरनो सर्वबन्ध होय ते जीव शुं औदारिकशरीरनो बन्धक छे के अबन्धक छे ? [उ०] हे गौतम! बन्धक नथी. पण अबन्धक छे. ए प्रमाणे वैक्रियशरीरने पण जाणवुं अने जेम तेजस अने कार्मण शरीरने औदारिक शरीर साथै कनुं तेम (आहारक शरीर साधे पण) कहे. [प्र०] हे भगवन् ! जे जीवने आहारक शरीग्नो देशबन्ध छे ते जीव शुं औदारिक शरीरनो बन्धक छे के अबन्धक के ? [उ०] हे गौतम! जेम आहारक शरीरना सर्वबन्ध साथै कशुं के तेम देशबन्धनी साथै पण यात्रत् कार्मणशरीर सुधी कहेतुं [प्र० ] हे भगवन् ! जे जीवने तैजसशरीरनो देशबन्ध के ते जीत्र शुं औदारिक शरीरनो बन्धक छे के अबन्धक छे ? [उ०] हे गौतम! बन्धक पण छे. अने अबन्धक पण छे. [प्र०] जो ते For Private and Personal Use Only ८ शतके उद्देशः ९ ॥७२५॥ Page #156 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir UGC जीव (औदारिक शरीरतो) बन्धक छे. तो शु देशबन्धक छे के सर्वबन्धक छे ? [उ०] हे गौतम! ते देशबन्धक पण के अने सर्वव्याख्या | बन्धक पण छे. [म.] ते जीव शु वैक्रियशरीरनो बन्धक छ के अबन्धक छ ? [उ.] पूर्वनी पेठे जाणवं, ए प्रमाणे आहारक शरीर 51८ शतके प्रज्ञप्ति माटे पण जाणवू. [प्र० ते जीव शुं कार्मण शरीरनो बन्धक छे के अबन्धक छ ? [उ०] हे गौतम ! बन्धक छे, पण अवन्धक नथी. उद्देशः ९ ॥७२६॥ [प्र०] जो ( कार्मण शरीरनो) बन्धक छ तो शुं देशबन्धक छे के सर्वबन्धक छे ? [उ०] हे गौतम ! देशबन्धक छ, पण सर्वबन्धक ॥७२६॥ 31 नथी. [प्र.] हे भगवन् ! जे जीवने कार्मणशरीरनो देशबन्ध छे ते जीव शुं औदारिकनो बन्धक छे के अबन्धक छ ? [उ०] जेम तेजसशरीरनी वक्तव्याता कही, तेम कार्मण शरीरनी पण वक्तव्यता कहेवी, यावत् तैजसशरीरनो देशबन्धक छ, पण सर्वबन्धक नथी. ।। ३५१॥ एएसि णं भंते ! सब्बजीवाणं ओरालियवेउब्वियआहारगतेयाकम्मासरीरगाणं देमबंधगाणं सब्वयंधगाणं | अबंधगाण य कपरे २ जाव विसेसाहिया वा?, गोयमा! सम्वत्थोवा जीवा आहारगसरीरस्स सव्वयंधगा १ तस्स चेव देसबंधगा संखेनगुणा २ वेउब्बियसरीरस्स सब्वबंधगा असंखेजगुणा ३ तस्स चेव देसबंधगा असं| खेजगुणा ४ तेयाकम्मगाणं दुण्हवि तुल्ला अबंधगा अणंतगुणा ५. ओरालियसरीरस्स सव्वबंधगा अणंतगुणा ६ तस्स चेव अबंधगा विसेसाहिया ७ तस्स चेव देसबंधगा असंखेनगुणा ८ तेयाकम्मगाणं देसबंधगा विसेसालहिया ९ वेउब्वियसरीरस्म अबंधगा विसेसाहिया १० आहारगसरीरस्स अबंधगा विसेसाहिया ११। सेवं भंते ! iP२॥ सूत्रं.(३५२) अट्टमसयस्स नवमो उद्देसओ संमत्तो-॥-८-९॥ 1500-500-500 For Private and Personal Use Only Page #157 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir व्याख्याप्राप्तिः ॥७२७॥ 183 | [प्र०] हे भगवन् ! औदारिक, वैकिय आहारक, तैजम ने कर्मणशरीरना देशबन्धक, सर्वबन्धक अने अबन्धक एवा सर्व जीवोमां कया जीवों कया जीयोथी यावद् विशेषाधिक छ [उ.] हे गौतम ! १ सौथी थोडा जीयो आहारक शरीरना सर्वबन्धक छे, २ तेथी। | ८ शतके तेना देशवन्धक संख्या तगुगा छ, ३ तेथी वैक्रियशरीरना सर्ववन्धक असंख्यातगुणा छे, ४ तेथी तेना देशबन्धक जीवो असंख्यात-13 उद्देशः लागुणा छे, ५ सेथी तैजस अने कार्मण शरीरना अबन्धक जीवो अनंतगुण अने परस्पर तुल्य छे. ६ तेथी औदारिक शरीरना सर्ववन्धक | ॥७२७॥ जीवों अनंत गुण छ, ७ सेथी तेना अबन्धक जीवो विशेषाधिक छ, ८ तेथी तेना देशबन्धक जीवो असंख्येयगुणा छ, ९ तेथी तैजस | अने कार्मण शरीरना देशबन्धक जीवो विशेषाधिक छ, १० तेथी वैक्रिय शरीरना अबन्धक जीवो विशेषाधिक छे, ११ तेथी आहा|रक शरीरना श्रवन्धक जीवो विशेषाधिक छे. हे भगवन् ! ते एम ज छे, हे भगवन् ! ते एम जले (एम कही भगवान् गौतम ! यावद् विहरे छे.) ॥ ३५२ ।। भगवत् सुधर्मस्वामी प्रणीत श्रीमद् भगवतीसूत्रना ८ शतकमां नवमा उद्देशानो मूलार्थ संपूर्ण थयो. *5** SHASTROCARROCCAL * For Private and Personal Use Only Page #158 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir व्याख्या प्रज्ञप्तिः ॥७२॥ दशतके उद्देशः१० ॥७२८॥ BHARASRHAGRAT उद्देशक १०. रायगिहे नगरे जाव एवं वयासी-अन्नउत्थिया णं भंते ! एवमाइक्खंति जाव एवं परूति-एवं खलु सीलं सेयं १ सुयं सेयं २ सुयं सेयं ३ सील सेयं ४, से कहमेयं भंते! एवं?, गोयमा! जन्नं ते अन्नउत्थिया एवमाइक्खंति जाव जे ते एवमाहंसु मिच्छा ते एवमाहंसु, अहं पुण गोयमा! एवमाइक्खामि जाव परूवेमि, एवं खलु | मए चत्तारि पुरिसजाया पण्णत्ता तंजहा-सीलसंपन्ने णामं एगे णो सुयसंपन्ने १ सुयसंपन्ने नाम एगे नो सीलसंपन्ने २ पगे सीलसंपन्नेवि सुयसंपन्नेवि ३ एगे णो सीलसंपन्ने नो सुयसंपन्ने ४, तत्व ण जे से पढमे पुरिसजाए | से णं पुरिसे सीलबं असुयवं, उवरए अविनायधम्मे, एस ण गोयमा! मए पुरिसे देसाराहए पण्णत्ते, तत्थ णं जे से दोचे पुरिसजाए से णं पुरिसे असीलवं सुयवं, अणुवरए विनायधम्मे, एस ण गोयमा ! मए पुरिसे देसविराहए पण्णत्ते, तत्थं णं जे से तचे पुरिसजाए से णं पुरिसे सीलबं सुयवं, उवरण विनायधम्मे, एस ण गोयमा! मए पुरिसे सम्वाराहए पन्नत्ते, तत्थ णं जे से चउत्थे पुरिसजाए से णं पुरिसे असीलवं अमुतवं, अणुवरए अविपणायधम्मे, एस णं गोयमा ! मए पुरिसे सम्वविराहए पन्नते ॥ (सूत्रं ३५३ )। [प्र.] राजगृह नंगरमां यावत् (गौतम) ए प्रमाणे बोल्या के हे भगवन् ! अन्यतीर्थिको ए प्रमाणे कहे , यावद् ए प्रमाणे प्ररूपे छे-"ए रीते खरेखर १ शील ज श्रेय के, २ श्रुत ज श्रेय छ, ३ (शीलनिरपेक्ष ज) श्रुत श्रेय थे, अथवा (श्रुतनिरपेक्ष ज)। शील श्रेय थे, सो हे भगवन् ! ए प्रमाणे केम होय शके ? [४०] हे गौतम ! ते अन्यतीथिको जे ए प्रमाणे कहे छ, यावत तओए RECASHTRAOREONAGACREA For Private and Personal Use Only Page #159 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir त उद्देश:१० ॥७२९॥ | जे ए प्रमाणे का छे ते तेओए मिथ्या क{ छे. हे गौतम ! हुं वळी आ प्रमाणे कछु, यावत् प्ररूपु छु, ए प्रमाणे में चार प्रकाव्याख्या रना पुरुषो कह्या . ते आ प्रमाणे-१ एक शीलसंपन्न हे पण श्रुतसंपन्न नथी, २ एक श्रुतसंपन्न के पण शीलसंपन्न नथी, ३ एक प्रज्ञप्तिः | शीलसंपन्न हे अने श्रुतसंपन्न पण जे, ४ एक शीलसंपन्न नथी तेम श्रुतसंपन्न पण नथी. तेमा जे प्रथम प्रकारनो पुरुष छे ते शील-दू ॥७२९॥ हवान् के पण श्रुतवान् नथी. ते उपरांत (पापादिकथी निवृत्त) छे, पण धर्मने जाणतो नथी. हे गौतम! ते पुरुषने में देशाराधक कह्यो के. तेमा जे बीजो पुरुष के ते पुरुष शीलवालो नथी, पण श्रुतवाळो छे. ते पुरुष अनुपरत (पापथी अनिवृत्त) छतां पण धर्मने जाणे ने. हे गौतम ! ते पुरुषने में देशविराधक कह्यो छे. तेमां जे त्रीजों पुरुष छे ते शीलवाळो छे अनेश्रुतवाळो पण छे. ते पुरुष (पापथी) उपरत छे, अने धर्मने जाणे ने. हे गौतम! ते पुरुषने में सर्वाराधक कह्यो छे. तेमा जे चोथो पुरुष हे ते शीलथी अने श्रुतथी रहित छे, ते पापथी उपरत नथी अने धर्मथी अज्ञात छे. हे गौतम ! एपुरुषने हुं सर्वविराधक कहुं छु. ॥ ३५३ ।। कतिविहा णं भंते ! आगहणा पण्णत्ता?, गोयमा! तिविहां आराहणा पण्णत्ता, संजहा-नाणाराहणा दंसणाराहणा चरित्ताराहणा । णाणाराहणा णं भंते ! कतिविहा पण्णत्ता, गोयमा तिविहा पण्णत्ता, तंजहाउक्कोसिया मजिसमा जहन्ना । दसणाराहणाणं भंते !०, एवं चेव तिविहावि । एवं चरित्ताराहणावि ।। जस्मण भंते! उक्कोसिया णाणाराहणा तस्म उक्कोसिया सणाराहणा जस्स उक्कोसिया दंमणाराहणा तस्स उक्कोसिया णाणाराहणा?, गोयमा! जस्म उक्कोसियाणाणाराहणा तस्स दमणाराहणा उक्कोसियावा अजहन्नउक्कोसिया वा, जस्स पुण उक्कोसिया दंसणाराहणा तस्स नाणाराहणा उक्कोसा वाजहन्ना बा अजहन्नमणुक्कोसावा, जस्स णं भंते! For Private and Personal use only Page #160 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir RA उकोसिया जाणाराहणा तस्स उक्कोसिया चरित्ताराहणा जस्सुकोसिया चरिताराहमा तस्सुकोसिया,णाणाराहव्याख्या णा, जहा उक्कोसिया णाणाराहणा य दंसणाराहणा य भणिया तहा उक्कोसिया नाणाराहणा य चरित्ताराहणा| 131८ शतके प्रज्ञप्तिः लय भाणियव्वा। दिउद्देशः१० ॥७ ॥ | [प्र०] हे भगवन् ! आराधना केटला प्रकारनी कही छे ? [उ०] हे गौतम! त्रण प्रकारनी आराधना कही छे ते आ प्रमाणे- ७३०॥ १ज्ञानाराधना, २ दर्शनाराधना अने ३ चारित्राराधना. [प्र०] इ भगवन् ! ज्ञानाराधना केटला प्रकारनी कही छे ? [उ०] हे| | गौतम! त्रण प्रकारनी कही छे, ते आ प्रमाणे-उत्कृष्ट, मध्यम अने जघन्य. [प्र०] हे भगवन् ! दर्शनाराधना केटला प्रकारनी कही | छ? [उ.] ए प्रमाणे त्रण प्रकारनी कही के. ए रीत चारित्राराधना पण त्रण प्रकारनी जाणवी. [म०] हे भगवन् ! जे जीवने उत्कृष्ट ज्ञानाराधना होय तेने उत्कृष्ट दर्शनाराधना होय ? जे जीवने उत्कृष्ट दर्शनाराधना होय ते जीवने उत्कृष्ट ज्ञानाराधना होय ? [उ०] हे गौतम! जे जीवने उत्कृष्ट ज्ञानाराधना होय तेने उत्कृष्ट अने मध्यम दर्शनाराधना होय, वळी जेने उत्कृष्ट दर्शनाराधना होय, तेने उत्कृष्ट, जघन्य अने मध्यम ज्ञानाराधना होय. [प्र.] हे भगवन् ! जे जीवने ज्ञाननी उत्कृष्ट आराधना होय तेने चा. रित्रनी उत्कृष्ट आराधना होय ? जे जीवने चारित्रनी उत्कृष्ट आराधना होय तेने ज्ञाननी उत्कृष्ट आरधना होय ? [उ.] जेम उत्कृष्ट ज्ञानाराधना अने दर्शनाराधनानो संबन्ध कह्यो तेम उत्कृष्ट ज्ञानाराधना अने उत्कृष्ट चारित्राराधनानो संबन्ध कहेवो. जस्स णं भंते ! उक्कोसिया दंसणाराहणा तस्सुक्कोसिया चरित्ताराहणा जस्सुक्कोसिया चत्ताराहणा तस्सुकोसिया सणाराहणा?, गोयमा! जस्स उक्कोसिया दंसणाराहणा तस्स चरिताराहणा उकोसा वा SECRECAACANCE + SANSAR For Private and Personal Use Only Page #161 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir 13-1 व्याख्याप्रज्ञप्ति १७३१॥ ८शतके उद्देशः१. ॥७३॥ जहन्ना वा अजहन्नमणुकोसा वा, जस्स पुण उक्कोसिया चरित्ताराहणा तस्स दसणाराहणा नियमा उकोमा ॥3. कोसियं ण भंते! णाणाराहणं आराहेत्ता कतिहिं भवग्गहणेहिं सिझंति जाव अंतं करेंति ?, गोयमा! अत्थेगइए तेणेव भवग्गहणेणं सिझंति जाव अंतं करेंति [अत्थेगतिए दोचेणं भवग्गहणेणं सिझंति जाव अंतं करेंति] अत्थेगतिए कप्पोवएसु वा कप्पातीएसु वा उववज्जंति, उक्कोसियं णं भंते! दमणाराहणं आराहेत्ता कतिहिं भवग्गणेहिं, एवं चेव, उक्कोसियपणं भंते! चरित्ताराहणं आराहेत्ता, एवं चेव, नवरं अत्थेगतिए कप्पानीयएसु उ| ववजंति। मज्झिमियं णं भंते ! णाणाराहणं आराहेत्ता कतिहिं भवग्गहणेहिं सिझंति जाव अंतं करेंति ?, गोयमा! अस्थेगतिए दोचणं भवरगहणेणं सिझंति जाव अंतं करेंति तचं पुण भवरगहणं नाइकमइ. मज्झिमियं णं भंते ! दसणाराहणं आराहेत्ता एवं चेव, एवं मज्झिमियं चरित्ताराहणंपि । जहन्नियन्नं भंते ! नाणाराहणं आराहेत्ता कतिहिं भवग्गहणेहिं सिझंति जाव अतं करेंति?, गोयमा! अत्धेगतिए तच्चेण भवग्गहणेण सिझइजाव अंतं करेह सत्तट्ठभवग्गहणाई पुण नाइकमइ, एवं दसणाराहणंपि, एवं चरित्ताराहणपि ॥ (सूत्रं ३५४) । - म०] हे भगवन् ! जेने उत्कृष्ट दर्शनाराधना होय तेने उत्कृष्ट चारित्राराधना होय? जेने उत्कृष्ट चारित्राराधना होय तेने | उत्कृष्ट दर्शनाराधना होय ? [उ०] हे गौतम! जेने उत्कृष्ट दर्शनाराधना होय तेने उत्कृष्ट, जघन्य अने मध्यम चारित्राराधना होय. तथा जेने उत्कृष्ट चारित्राराधना होय. तेने अवश्य उत्कृष्ट दर्शनाराधना होय. [प्र०] हे भगवन् ! जीव उत्कृष्ट ज्ञानराधनाने आराधी केटला भव कर्या पछी सिद्ध थाय, यावत् सर्व दुःखोनो अन्त करे? [उ.] हे गौतम ! केटलाक जीव तेज भवां सिद्ध थाय, RSHA AAAACACAKACK For Private and Personal Use Only Page #162 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir व्याख्या प्रज्ञप्तिः ॥७३२॥ ८ शतके उद्देशः१० ॥७३२॥ 5555 यावत् सर्व दुःखोनो नाश करे; केटलाक जीवोबे भवमां सिद्ध थाय, यावत सर्व दुःखोनों नाश करे अने केटलाक जीवो कल्पोपपन्न देवलोकोमां कल्पातीत देवलोकोमा उत्पन्न याय.[H०] हे भगवन् ! जीव उत्कृष्ट दर्शनाराधनाने आराधी केटला भव कर्या पछी सिद्ध थाय ? [उ०] हे गौतम ! पूर्वनी पेठे जाणवू. [प्र०] हे भगवन् ! उत्कृष्ट चारित्राराधनाने आराधी केटला भव कर्या पछी जीवो सिद्ध थाय ? [उ०] पूर्वनी पेठे जाणवू, परन्तु केटलाएक जीयो कला । देवोमां उत्पन्न थाय. [प्र०] हे भगवन ! ज्ञाननी मध्यम आराधनाने आराधी केटला भव ग्रहण कर्या पछी जीव सिद्ध काय, यावत् सर्व दुःखोनो अन्त करे ? [उ०] हे गौतम! केटलाक जीवो बे भव ग्रहण कर्या पछी सिद्ध थाय, यावत् सर्वदुःखोनो नाश करे, पण त्रीजा भवने अतिक्रमे नहीं. [प्र०] हे भगवन् ! जीव मध्यम दर्शनाराधनाने आराधी केटला भव ग्रहण कर्या पछी सिद्ध थाय ? [उ०] हे गौतम ! पूर्वनी पेठे जाणवू. ए प्रमाणे चारित्रनी मध्यम आराधनाने माटे जाणवू. ॥ ३५४ ॥ | कतिविहे णं भंते ! पोग्गलपरिणामे पण्णत्ते?, गोयमा! पंचविहे पोग्गलपरिणामे पण्णत्ते, तंजहा-वनपरिणामे १ गंधप० २ रसप० ३ फासप०४ संठाणप० ५। वनपरिणामे णं कइविहे पण्णत्ते, गोयमा ! पंचविहे प. ण्णत्ते, तंजहा-कालवनपरिणामे जाव सुकिल्लवनपरिणामे, एवं एएणं अभिलावेणं गंधपरिणामे दुविहे रसपणामे पंचविहे फासपरिणामे अट्टविहे, संठाणप. भंते ! कइविहे पण्णत्ते ?, गोयमा ! पंचविहे पण्णत्ते, तंजहा-परिम| डलसंठाणपरिणामे जाव आययसंठाणपरिणामे ॥ (सूत्रं ३५५)॥ [प्र०] हे भगवन् ! जघन्य ज्ञानाराधनाने आराधी जीव केटला भव ग्रहण कर्या पछी सिद्ध थाय, यावत् सर्वदुःखोनो अन्त ANSAR For Private and Personal Use Only Page #163 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra व्याख्याप्रज्ञप्तिः ॥७३३॥ www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir | करे ? [अ०] हे गौतम ! केटलाक जीव त्रीजा भवमां सिद्ध थाय, यावत् सर्वदुःखोनो अन्त करे, पण सात आठ भवथी वधारे भवो न करे. ए प्रमाणे दर्शनाराधना अने चारित्राराधना माटे पण जणं. [प्र० ] हे भगवन् ! पुद्गलनो परिणाम केटला प्रकारनो को छे. १ [उ०] हे गौतम! पांच प्रकारनो कह्यो छे; ते आ प्रमाणे, वर्णपरिणाम, गन्धपरिणाम रसपरिणाम, स्पर्शपरिणाम अने संस्थान परिणाम. [ प्र० ] हे भगवन् ! वर्णपरिणाम केटला प्रकारनो कह्यो छे ? [अ०] हे गौतम! पांच प्रकारनो को छे, ते आ प्रमाणे- १ काळोवर्णपरिणाम, यावत् ५ शुक्लवर्णपरिणाम. ए प्रमाणे ए अभिलापथी वे प्रकारनो गन्धपरिणाम. पांच प्रकारनो रस| परिणाम, अने आठ प्रकारनो स्पर्शपरिणाम जाणवो. [प्र० ] हे भगवान् ! संस्थानपरिणाम केटला प्रकारनो कह्यो ले ? [अ०] है | गौतम ! पांच प्रकारनो को छे, ते आ प्रमाणे- १ परिमंडल संस्थान परिणाम, यावद् ५ आयत संस्थानपरिणाम ।। ३५५ || एगे भंते! पोग्गलत्थिकायपएसे किं दवं १ दव्वदेसे २ दव्बाई ३ दव्वदेसा ४ उदाहु दव्वं च दव्वदेसे य ५ उदाहु दयं च दच्चदेसा ग ६ उदाहु दब्वाई च दव्वदेसे य ७ उदाहु दवाई न दव्वदेसाय ८ १, गोषमा ! सिय दव्वं सिग दव्वदेसे, नो दव्बाई नो दव्वदेसा नो दव्वं च दव्वदेसे ग जाव नो दव्वाहं च दध्वदेमा य ॥ दो भंते! पोग्गलत्थकाय पएसा किं. दव्वं दव्वदेसे पुच्छा तहेव, गोयमा ! सिय दव्वं १ सिय दव्वदेसे २ सिय द वाई ३ सय दव्वदेसा ४ मित्र दव्वं च दव्वदेसे य ५ नो दव्वं च दव्वदेमा य ६ सेसा पडिसे भंते ! पोग्गलत्थिकाय पएसा किं दव्वं दव्वदेसे ०? पुच्छा, गोयमा ! सिय दव्यं १ सिम दव्वदेसे २ एवं सत्त भंगा भाणियव्वा, जाव सिय दव्वाई च दव्वदेसे य नो दव्वाई दच्वदेसाय । चत्तारि भंते ! पोम्गलत्थिकायपएसा किं For Private and Personal Use Only ८ शतके उद्देशः १० ।।७३३ ॥ Page #164 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagersuri Gyanmandir दव्वं ? पुच्छा, गोयमा! सिय दव्वं १ सिय दव्वदेसे २ अझवि भंगा भाणियब्या जाव सिय दब्वाइं च दब्वदेसा| भ्याख्या द्रय ८। जहा चत्तारि भणिया एवं पंच छ सत्त जाव असंखेज्जा।अणता भंते! पोग्गलस्थिकायपएसा किं दव्वं०?,151 ८ शतके प्रज्ञप्तिः एवं चेव जाव सिय दब्वाइं च दब्वदेसा य ॥ (सूत्रं ३५६ )॥ उद्देशः१० ।।७३४|| [प्र०] हे भगवन् ! पुद्गलास्तिकायनो एक प्रदेश (परमाणु)'शु द्रव्य छे, २ द्रव्यदेश छ, ३ द्रव्यो छे, ४ द्रव्यदेशो छ, ५ ॥७३४॥ 8| अथवा द्रव्य अने द्रव्यदेश छ, ६ अथवा द्रव्य अने द्रव्यदेशो छे, ७ अथवा द्रव्यो अने द्रव्यदेश छ, ८ के द्रव्यो अने द्रव्यदेशो छे१ [उ०] हे गौतम ! ते कथंचिद् द्रव्य छ, कथंचिद् द्रव्यदेश छे, पण द्रव्यो नथी, द्रव्यदेशो नथी, द्रव्य अने द्रव्यदेश नथी, यावद् द्रव्यो अने द्रव्यदेशो नथी. [प्र०] हे भगवन् ! पुद्गलास्तिकायना बे प्रदेशो शुं द्रव्य छे के द्रव्यदेश छे ? इत्यादि पूर्वोक्त |प्रश्न. [उ०] हे गौतम! कथंचित् द्रव्य छे, २ कथंचित् द्रव्यदेश , ३ कथंचित् द्रव्यो छे, ४ कथंचित् द्रव्यदेशो छ, ५ कथंचित् | द्रव्य अने द्रव्यदेश छ, पण द्रव्य अने द्रव्यदेशो नथी, बाकीना विकल्पोनो प्रतिषेध करवो. [प्र०] हे भगवन् ! पुद्गलास्तिकायना त्रण प्रदेशो शुं द्रव्य छे, द्रव्यदेश छे ?-इत्यादि प्रश्न. [उ.] हे गौतम ! १ कथंचित् द्रव्य छे, २ कथंचित् द्रव्यदेश छे, ए प्रमाणे है सात भांगाओ कहेवा, यावत कथंचित् द्रव्यो अने द्रव्यदेश छे, पण द्रव्यो अने द्रव्यदेशो नथी. [प्र०] हे भगवन् ! पुद्गलास्तिका यना चार प्रदेशो शुं द्रव्य छे ? इत्यादि प्रश्न. [उ.] हे गौतम! १ कथंचिद् द्रव्य , २ कथंचिद् द्रव्यदेश छे-इत्यादि आठ 8 भांगा कहेवा यावत् द्रव्यो अने द्रव्यदेशो छे, जेम चार प्रदेशो कद्या तेम पांच, छ, सात यावद् असंख्येय प्रदेशो पण कहेवा. [प्र०] हे भगवन् ! पुद्गलास्तिकायना अनन्त प्रदेशो शुं द्रव्य छे ? इत्यादि प्रश्न. [उ०] पूर्व प्रमाणेज जाणवू, यावत् कथंचित् द्रव्यो CALCALCALCREGORCE For Private and Personal Use Only Page #165 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatrth.org Acharya Shri Kailaseagarsuri Gyanmandie भ्याख्याप्रज्ञप्ति ७३५॥ अने द्रव्यदेशो छे. ।। ३५६ ॥ Pा केवतिया णं भंते! लोयागासपएसा पन्नत्ता, गोयमा! असंखेज्जा लोयागासपएमा पन्नत्ता ॥ एगमेगस्स णं ८ शतके भते! जीवस्म केवइया जीवपएसा पण्णत्ता, गोयमा! जावतिया लोगागासपएसा एगमेगस्स णं जीवस्स एवतिया जीवपएसा पण्णत्ता ॥ ( सूत्रं ३५७ )॥ उद्देशः१० ॥७३५॥ | [40] हे भगवन् ! लोकाकाशना प्रदेशो केटला कह्या छे ? [उ०] हे गौतम ! असंख्य प्रदेशो कया छे. [प्र०] हे भगवन् ! एक एक जीवना केटला जीवप्रदेशो कह्या छे ? [उ०] हे गौतम ! जेटला लोकाकाशना प्रदेशो कह्या छे तेटला एक एक जीवना | प्रदेशो वह्या के. ॥ ३५७॥ कति गंभंते ! कम्मपगडीओ पण्णत्ताओ?, गोयमा! अट्ट कम्मपगडीओ पण्णत्ताओ, तंजहा-नाणावर|णिज्जं जाव अंतराइयं, नेरयाणं भंते ! कइ कम्मपगडीओ पण्णत्ताओ?, गोयमा! अह, एवं सब्बजीवाणं अट्ठ कम्मपगडीओ ठावेयवाओ जाव वेमाणियाणं | नाणावरणिजस्स णं भंते! कम्मस्म केवतिया अविभागपलिच्छेदा पण्णत्ता?, गोयमा! अणंता अविभागपरिच्छेदा पण्णत्ता, नेग्इयाणं भंते ! णाणावरणिजस्स कम्मस्स2 केवतिया अविभागपलिच्छेया पण्णत्ता, गोयमा! अणंता अविभागपलिच्छेदा पण्णत्ता, एवं सब्वजीवाणं जाव वेमाणियाण पुच्छा, गोयमा! अणंता अविभागपलिच्छेदा पण्णत्ता, एवं जहा णाणावरणिजस्स अविभागपलिच्छेदा भणिया तहा अट्ठण्हवि कम्मपगडीण भाणियब्वा जाव वेमाणियाणं, अंतराइयस्स । एगमेगस्स For Private and Personal use only Page #166 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir व्याख्या प्रज्ञप्तिः ॥७३६॥ रिच्छेदो कह्या छे. [प्र RECECSASURRORS | णं भंते ! जीवस्स एगमेगे जीवपएसे णाणावरणिजस्स कम्मरस केवइएहिं अविभागपलिछेदेहिं आवेढिए |परिवेढिए सिया?, गोयमा! सिय आवेढियपरिवेढिए सिय नो आवेढियपरिवेढिए, जइ आवेढियपरिवेढिए ६८ शतके नियमा अणतेहिं, उद्देशः१० ___ [प्र०] हे भगवन् ! कर्मप्रकृतिओ केटली कही छे ? [उ०] हे गौतम ! आठ कर्मप्रकृतिओ कही छे. ते आ प्रमाणे-ज्ञानाव- ७३६॥ |रणीय, यावद् अन्तराय. [प्र० ह भगवन् ! नैरयिकोने केटली कर्मप्रकृतिओ कही छे ? [उ.] हे गौतम ! आठ कर्मप्रकृतिओ कही छे. ए प्रमाण सर्वजीवोने यावद् वैमानिकोन आठ कर्मप्रकृतिओ कईवी. [प्र०] हे भगवन् ! ज्ञानावरणीयकर्मना केटला अविभाग परिच्छेदो कह्या छ ? [उ०] हे गौतम ! अनंत अविभागपरिच्छेदो कह्या छे. [प्र.] हे भगवन् ! नरयिकोने ज्ञानावरणीयकर्मना अविभागपरिच्छेदो केटला कह्या छ ? [उ०] हे गौतम ! अनन्त अविभागपरिच्छेदो कह्या छे. ए प्रमाणे सर्वजीवोने-जाण; यावद् [प्र०] वैमानिको संबन्वे प्रश्न. [उ०] हे गौतम ! अनन्त अविभागपरिच्छेदो कह्या छे. जेम ज्ञानावाणीय कर्मना अविभगपरिछेदो कह्या तेम आठे कर्मप्रकृतिना अविभागपरिछेदो अन्तरायकर्म पर्यन्त यावद् वैमानिकोने कहेवा. [प्र०] हे भगवन् ! एक एक जीवनो | एक एक जीवप्रदेश ज्ञानावरणीय कना केटला अविभागपरिच्छेदो (अंशोथी) आवेष्टित-परिवेष्टित के ? [उ.] हे गौतम ! कदाचित् आवेष्टित-परिवेष्टित होय, अने कदाचित् आवेष्टित-परिवेष्टित न होय. जो आवेष्टित-परिवेष्टित होय तो ते अवश्य अनंत अविभागपरिच्छेदो वडे आवेष्टित-परिवेष्टित होय. एगमेगस्स णं भंते! नेरइयस्स एगमेगे जीवपएसे णाणावरणिज्जस्स कम्मस्स केवइएहिं अविभागप HOLAGANICALCIAS . ए प्रमाणे सर्वजीवोने परिछदो है यविभागपरिच्छेदोकादो कया छे. एप्रनयिकोने ज्ञा For Private and Personal Use Only Page #167 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir व्याख्याप्रति ॥७३७॥ लिच्छेदेहिं आवेढिए परिवेढिते?, गोयमा! नियमा अणंतेहिं, जहा नेरइयस्स एवं जाव वेमाणियस्स, नवरं मणूसस्स जहा जीवस्स। एगमेगस्स णं भंते! जीवस्स एगमेगे जीवपएसे दरिसणावरणिजस्स कम्मस्स केवतिपहिं ८ शतके एवं जहेव नाणावरणिजस्स तहेव दंडगो भाणियब्वो जाव वेमाणियस्स, एवं जाव अंतराइयस्स भाणियवं, उद्देशः१. नवरं वेयणिजस्स आउयस्स णामस्स गोयस्स एएसिं चउपहवि कम्माण मणूसस्स जहा नेरइयस्स तहा भाणि- ७३७॥ यव्वं, सेसं तं चेव ॥ (सूत्रं ३५८)॥ [प्र०] हे भगवन् ! एक एक नैरयिक जीवनो एक एक जीवप्रदेश ज्ञानावरणीय कर्मना केटला अविभागपरिच्छेदो वडे आवेष्टित-परिवेष्टित होय ! [उ.] हे गौतम ! अवश्य ते अनन्त अविभागपरिच्छेदो वडे आवेष्टित-परिवेष्टित होय. जेम नैरयिको माटेत कहुं तेम यावद् वैमानिकोने कहेबुं, परन्तु मनुष्यने जीवनी पेठे कहे. [प्र०] हे भगवन् ! एक एक जीवनो एक एक जीव प्रदेश में दर्शनावरणीय कर्मना केटला अविभागपरिच्छेदो वडे आवेष्टित परिवेष्टित होय ? [उ०] जेम ज्ञानावरणीय कर्मना संबन्धे दंडक कह्यो तेम अहीं पण यावद् वैमानिकने कहेवो, यावत् अन्तरायकर्मपर्यन्त कहे. पण वेदनीय, आयुष , नाम अने गोत्र-ए चार कर्मो माटे | जेम नैरयिकोने कयु तेम मनुष्योने कहे, बाकी बधुं पूर्व प्रमाणेज जाणवू. ॥ ३५८ ॥ । जस्स णं भंते ! नाणावरणिज्जं तस्स दरिमणावरणिजं जस्स दसणावरणिज्नं तस्स नाणावरणिजी, गोयमा! | जस्स णं नाणावरणिजं तस्स दसणावरणिजं नियमा अस्थि, जस्स णं दरिसणावरणिज्नं तस्सवि नाणावरणिलं नियमा अस्थि । जस्स णं भंते !णाणावरणिज्जं तस्स वेयणिज्जं जस्स वेयणिजं तस्स णाणावरणिजं?, गोयमा! CANCSCOCCACANCERS For Private and Personal Use Only Page #168 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra व्याख्या प्रज्ञप्तिः ॥७३८|| www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir जस्स नाणावरणिजं तस्स वेयणिज्जं नियमा अस्थि, जस्स पुण बेयणिज्जं तस्स णाणावरणिज्जं सिय अस्थि सिय नत्थि । जस्स णं भंते ! नाणावरणिजं तस्स मोहणिज्जं जस्स मोहणिज्जं तस्स नाणावरणिज्जं ?, गोपमा ! | जस्स नाणावर णिज्जं तस्स मोहणिज्जं सिय अस्थि सिय नत्थि, जस्स पुण मोहणिज्जं तस्स नाणावरणिज्जं नियमा अस्थि । जस्स णं भंते! णाणावरणिज्जं तस्स आउयं एवं जहा वेयणिज्रेण समं भणियं तहा आउएणवि सम भाणियव्वं, एवं नामेणवि, एवं गोएणवि समं, अंतराइएण समं जहा दरिसणावरणिजेण समं तहेव नियमा परोपरं भाणियव्वाणि १ ॥ [प्र० ] हे भगवन् ! जे जीवने ज्ञानावरणीय कर्म छे तेने शुं दर्शनावरणीय कर्म छे, जेने दर्शनावरणीय कर्म छे तेने शुं ज्ञानावरणीय कर्म छे ? [ उ० ] हे गौतम! जेने ज्ञानावरणीय छे तेने अवश्य दर्शनावरणीय होय छे, जेने दर्शनावरणीय छे तेने पण अवश्य ज्ञानावरणीय होय छे. [प्र०] हे भगवन् ! जेने ज्ञानावरणीय हे, तेने शुं वेदनीय होय छे, जेने वेदनीय छेतेने ज्ञानावरणीय होय छे ? [ उ०] हे गौतम! जेने ज्ञानावरणीय कर्म छे तेने अवश्य वेदनीय होय छे, अने जेने वेदनीय छे तेने ज्ञानावरणीय कर्म कदाच होय अने कदाच न होय. [प्र० ] हे भगवन्! जेने ज्ञानावरणीय छे तेने शुं मोहनीय छे, जेने मोहनीय छे तेने ज्ञानावरणीय छे ? [उ० ] हे गौतम! जेने ज्ञानावरणीय छे तेने मोहनीय कर्म कदाच होय अने कदाच न होय. पण जेने मोहनीय छे तेने अवश्य ज्ञानावरणीय कर्म होय छे. [ प्र० ] हे भगवन् ! जेने ज्ञानावरणीय कर्म छे तेने शुं आयुष् कर्म छे ? - इत्यदि [ उ० ] जेम वेदनीय कर्म साथै कां तेम आयुष्नी साधे पण कहे. ए प्रमाणे नाम अने गोत्र कर्मनी साथे पण जाणवुं. जेम दर्शनावरणीय साथै For Private and Personal Use Only ८ शतके उद्देशः १० ॥७३८ ॥ Page #169 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir S व्याख्याप्रज्ञप्तिः ॥७३९॥ HOCCUSTORISANSAR | का तेम अन्तराय कर्म साथे अवश्य परस्पर कहे. जस्स ण भंते! दरिसणावरणिज्जं तस्स वेयणिजं जस्स वेयणिज तस्स दरिसणावरणिजं, जहा ८ शतके नाणावरणिज्नं उवरिमेहिं सत्तहिं कम्मेहिं समं भणियं तहा दरिसणावरणिज्जंपि उवरिमेहि छहिं कम्मेहिं | उद्देशः१. समं भाणियब्वं जाव अंतराइपण २। जस्स णं भंते! वेयणिज्जं तस्स मोहणिज्जं जस्स मोहणिजं तस्स ॥७३९॥ | वेयणिजं ?, गोयमा! जस्स वेयणिज्जं तस्स मोहणिज्जं सिय अत्थि सिय नत्थि, जस्स पुण मोहणिज्जं तस्स वेयणिज्जं नियमा अस्थि । जस्स णं भंते ! वेयणिज्जं तस्स आउयं?, एवं एथाणि परोप्परं नियमा, जहा आउएण| सम एवं नामेणवि गोएणवि समं भाणियव्वं । जस्स ण भंते! वेयणिज्ज तस्स अंतराइयं ? पुच्छा, गोयमा ! जस्सद वेयणिज्जं तस्स अंतराइयं सिय अस्थि सिय नस्थि, जस्स पुण अंतराइयं तस्स वेयणिज्जं नियमा अस्थि ३ । | [प्र०] हे भगवन् ! जेने दर्शनावरणीयकर्म छे तेने शुं वेदनीय छे, जेने वेदनीय छे तेने दर्शनावरणीय छे ? [उ०] जेम ज्ञाना| वरणीय कर्म उपग्ना सात कर्मो साथे कयुछे तेम दर्शनावरणीय कर्म पण उपरना छ कर्मो साथे कहेवं, अने ए प्रमाणे यावद् अंत राय कर्म साथे कहे. [म.] हे भगवन् ! जेने वेदनीय छे तेने शुं मोहनीय छे, जेने मोहनीय छे तेने वेदनीय छ ? [उ.] हे 3 गौतम ! जेने वेदनीय छे, तेने मोहनीय कदाच होय अने कदाच न होय. पण जेने मोहनीय छे तेने अवश्य वेदनीय छे. [प्र.]13 हे भगवन् ! जेने वेदनीय छे तेने शुं आयुष् कर्म होय ? [उ.] ए प्रमाणे ए बन्ने परस्पर अवश्य होय. जेम अयुष्नी साथे का तेम | नाम अने गोत्रनी साथे पण कहे. [प्र०] हे भगवन् ! जेने वेदनीय कर्म छे तेने शुं अन्तरय होय-इत्यादि प्रश्न. [उ०] हे गौतम है। SACARALLERS For Private and Personal Use Only Page #170 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ८ शतके व्याख्या प्रज्ञप्तिः ॥७४०॥ HORSA जेने वेदनीय छे तेने अन्तराय कर्म कदाच होय अने कदाच न होय. पण जेने अन्तराय कम छे तेने अवश्य वेदनीय कर्म होय. IP जस्स भंते ! मोहणिज्जं तस्स आउयं जस्स आउयं तस्स मोहणिजं?, गोयमा ! जस्स मोहणिज्ज तस्स | आउयं नियमा अस्थि, जस्स पुण आउयं तस्स पुण मोहणिज सिय अस्थि सिय नस्थि, एवं नाम गोयं अंतराइपं च लाउद्देश:१० भाणियव्वं १, जस्स णं भंते ! आउयं तस्स नाम.? पुच्छा, गोयमा! दोवि परोप्परं नियम, एवं गोत्तणवि समं ॥७४०॥ भाणियब्वं, जस्स ण भंते ! आउयं तस्स अंतराइयं०१, पुच्छा, गोयमा! जस्स आउयं तस्स अंतराइयं मिय अस्थि सिय नत्थि, जस्स पुण अंतराइयं तस्स आउय नियमा ५। जस्स णं भंते! नामं तस्स गोयं जस्स णं गोयं तस्स णं नाम ? पुच्छा, गोयमा! जस्स णं णाम तस्स णं नियमा गोयं जस्स णं गोयं तस्स नियमा नाम, | गोयमा! दोवि एए परोप्परं नियमा, जस्स ण भंते ! णामं तस्म अंतराइयं ? पुच्छा, गोयमा ! जस्स नाम तस्स अंतराइयं सिय अस्थि सिय नस्थि, जस्स पुण अंतराइयं तस्स नाम नियमा अस्थि ६ । जस्स णं मंते! गोयं तस्स अंतराइयं० १ पुच्छा, गोयमा! जस्स णं गोयं तस्स अंतराइयं सिय अस्थि सिय नत्थि, जस्स पुण अंतराइयं तस्स गोयं नियमा अस्थि ।। (सूत्रं ३५९)॥ [प्र०] हे भगवन् ! जेने मोहनीय छ तेने शुं आयुष होय, जेने आयुष् छे तेने शुं मोहनोय होय ? [उ०] हे गौतम ! जेने मोहनीय छ तेने अवश्य आयुष् होय, जेने आयुष्य छे तेने मोहनीय कर्म कदाच होय अने कदाच न होय. ए प्रमाणे नाम, गोत्र अने अन्तरायकर्म कहे. [प्र०] हे भगवन् ! जेने आयुष् कर्म छे तेने नाम कर्म होय ?-इत्यादि प्रश्न. [उ.] हे गौतम ! ते बन्ने || CRISTRICA For Private and Personal Use Only Page #171 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra व्याख्या प्रज्ञप्तिः ॥७४१॥ www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir परस्पर अवश्य होय, ए प्रमाणे गोत्र साधे पण कहे. [प्र०] हे भगवन् ! जेने आयुष् छे तेने अन्तराय कर्म होय । इत्यादि प्रश्न. [अ०] हे गौतम! जेने आयुष् छे तेने अन्तराय कदाच होय अने कदाच न होय, पण जेने अन्तराय कर्म छे तेने अवश्य आयुष् कर्म होय. [प्र० ] हे भगवन् ! जेने नाम कर्म छे, तेने शुं गोत्र कर्म होय, जेने गोत्र कर्म के तेने नाम कर्म होय - प्रश्न. [उ०] हे गौतम ! जेने नाम कर्म के तने अवश्य गोत्रकर्म होय; अने जेने गोत्रकर्म छे तेने अवश्य नामकर्म होय. ए बने कर्मों परस्पर अबश्य होय. [प्र० ] हे भगवन् ! जेने नाम कर्म छे तेने शुं अंतराय कर्म होय, अने जेने अंतराय कर्म छे तेने शुं नाम कर्म होय ? [[अ०] हे गौतम! जेने नामकर्म छे तेने अंतराय कदाच होय अने कदाच न होय, पण जेने अंतराय कर्म छे तेने अवश्य नामकर्म होय. [प्र०] हे भगवन् ! जेने गोत्रकर्म के तेने शुं अंतराय कर्म होय ? इत्यादि प्रश्न [उ०] हे गौतम! जेने गोत्रकर्म छे तेने अन्तराय कर्म कदाच होय अने कदाच न होय, पण जेने अन्तराय कर्म छे तेने अवश्य गोत्रकर्म होय. ।। ३५९ ।। जीणं भंते! किं पोग्गली पोग्गले ?, गोयमा ! जीवे पोग्गलीवि पोग्गलेवि, से केणणं भंते । एवं बुच्चइ जीवे पोग्गलीवि पोग्गलेवि?, गोपमा ! से जहानामए छत्तणं छत्ती दंडेण दंडी घडेगं घडी पडेणं पडी करेणं करी एवामेव गोयमा ! जीवेवि सोइंदियचक्खिदियघाणिदियजिभिदियफासिंदियाई पडुच पोग्गली, जीवं पहुच पोग्गले, से तेणट्टेणं गोगमा ! एवं वुबइ जीवे पोग्गलीवि पोग्गलेवि । नेरइए णं भंते । किं पोग्गली० १, एवं चेव, एवं जाव वैमानिए, नदरं जस्स जइ इंदियाई तस्स तवि भाणिपव्वाई | सिद्धे णं भंते! किं पोग्गली पोग्गले, गोयमा ! नो पोग्गली पोग्गले, से केणट्टेणं भंते! एवं बुच्चइ जाव पोग्गले ?, गोयमा ! जीवं पडुच्च, से For Private and Personal Use Only ८ शतके उद्देश : १० ॥७४१ ॥ Page #172 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir व्याख्या प्रज्ञप्तिः ||७४२॥ 31 शतके | उद्देश:१० ॥७४२॥ तेणद्वेणं गोयमा! एवं वुच्चइ सिद्ध नो पोग्गली, पोग्गले । सेवं भंते ! सेवं भंतेत्ति ॥ (सूत्रं ३६०)॥८-१०॥ अट्ठमसए दसमोः समत्तं अट्ठमं सयं ॥ ८ ॥ [प्र.] हे भगवन् ! शुं जीव पुद्गली छे के पुद्गल छे ? [उ०] हे गौतम ! जीव पुद्गली पण छे अने पुद्गल पण छे. [प्र०] हे भगवन् ! ए प्रमाणे शा हेतुथी कहो छो के 'जीव पुद्गली पण छे अने पुद्गल पण छ' ? [३०] हे गौतम ! जेम कोइ एक पुरुष छत्रवडे छत्री, दंडवडे दंडी. घटबडे घटी, पटवडे पटी अने करवडे करी कहेवाय छे तेम जीव पण श्रोत्रंद्रिय. चक्षुरिंद्रिय, घाणेन्द्रिय, जिह्वेन्द्रिय अने स्पर्शनेन्द्रियने आश्रयी पुद्गली कहेवाय छे, अने जीवने आश्रयी पुद्गल कहेवाय छे. माटे हे गौतम! ते हेतुथी एम कहेवाय छे के 'जीव पुद्गली पण छे अने पुद्गल पण छे.' [प्र०] हे भगवन् ! नैरयिक पुद्गली छे के पुद्गल छे ? [उ.] हे गौतम ! ते पूर्वनी पेठे जाणवू. ए प्रमाणे यावत् वैमानिकोने पण कहेवू; परन्तु तेमा जे जीवोने जेटली इन्द्रियो होय तेने तेटली कवी. [प्र०] हे भगवन् ! शुं सिद्धो पुद्गली छे के पुद्गल छे ? [उ०] हे गौतम ! पुद्गली नथी, पण पुद्गल छे. [३०] हे भगवन् ! ए प्रमाणे शा हेतुथी कहो हो के सिद्धो यावत् पुद्गल छे ? [उ०] हे गौतम ! जीवने आश्रयी (पुद्गल) कहुं छु ते हेतुथी एम कहेवाय छे के सिद्धो पुद्गली नथी, पण पुद्गल छे. हे भगवन् ! ते एमज छे, हे भगवन् ! ते एमज छ. ॥ ३६० ॥ भगवत् सुधर्म खामीप्रणीत श्रीमद् भगवती सुत्रना ८ मा शतकमां १० मा उद्देशानो मूलार्थ संपूर्ण थयो. Powcont For Private and Personal Use Only Page #173 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra व्याख्या प्रज्ञप्तिः ॥७४३॥ www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ९ शतक उद्देशक १ जंबुद्दीवे १ जोइस २ अंतरदीवा ३० असोच ३१ गंगेय ३२ । कुंडग्गामे ३३ पुरिसे ३४ नवमंमि सए चउतीसा ॥ १ ॥ ( उद्देशक संग्रह - ) १ जंबूद्वीप, २ ज्योतिष्क, ३-३० अठयावीश अन्तराद्वपो, ३१ असोचा, ३२ गांगेय, ३३ कुंडग्राम अने | ३४ पुरुष ए-ए संबन्धे नवमा शतकमां चोत्रीश उद्देशको छे. (१ जंबूद्वीप संबन्धे प्रथम उद्देशक छे, २ ज्योतिषिक देव संबन्धे बीजो उद्देशक छे, ३-३० अठ्यावीश अन्तद्वपोना श्रीजाथी आरंभी त्रीश उद्देशको छे, ३१ असोचा- 'सांभळया शिवाय - धर्मने पामे' - इत्यादि विषे एकत्रीशमो उद्देशक छे, गांगेय अनगारनाप्रश्न विषे वत्रीशमो उद्देशक छे, ब्राह्मणकुंडग्राम संबन्धे तेत्रीशमो उद्देशक छे, अने पुरुषने हणनार संबन्धे चोत्रीशमो उद्देशक छे.) ते काले तेणं समएणं मिहिलानामं नगरी होत्था, बन्नाओ, माणभद्दे चेहए वन्नओ, सामी समोसढे, परिसा निग्गया जाव भगवं गोयमे पज्जुवासमाणे एवं बयासी कहि णं भंते । जंबुद्दीवे दीवे १ किंसंठिए णं भंते! जंबुदीवे दीवे ? एवं जंबुद्दीवपन्नत्ती भाणियव्वा जाव एवामेव सपुब्बावरेणं जंबुद्दीवे २ चोइस सलिला सयसहस्सा छप्पन्नं च सहस्सा भवतीतिमवाया। सेवं भंते । सेवं भंतेत्ति (सूत्रं ३६१ ) | नवमसयस्स पढमो उद्देसो ॥ ९-१ ॥ For Private and Personal Use Only ९ शतके उद्देशः १ ॥७४३॥ Page #174 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir व्याख्या प्रज्ञप्तिः ॥७४४॥ CAM SAHARSHA ते काले-ते समये मिथिला नामे नगरी हती. वर्णन. त्यां मणिभद्र चैत्य हतुं. वर्णन. त्यां महावीरस्वामी समोसर्या. पर्षद् (वांदवाने) नीकळी. यावद् भगवान् गौतमे पर्युपासना करता आ प्रमाणे पूछयु-हे भगवन् ! जंबूद्वीप कये स्थळे छे ? हे भगवन् ! ४९ शतके जंबूद्वीप केवा आकारे रहेलो के ? [उ०] अहीं जंबूद्वीपप्रज्ञप्ति कहेवी, यावद् 'जंबूद्वीप नामे द्वीपमा पूर्व अने पश्चिम चौद लाख अने उद्देशा२ छप्पन हजार नदीओ छे' तेम कयुं . हे भगवन् ! ते एमज छे, हे भगवन् ! ते एमज छे (एम कही भगवान् गौतम यावत् | ॥७४४॥ विहरे छे.)॥ ३६१ ॥ भगवत् सुधर्मस्वामीप्रणीत श्रीमद् भगवतीसूत्रना ९ मा शतकमा प्रथम उद्देशानो मूलार्थ संपुर्ण थयो. उद्देशक २ रायगिहे जाव एवं वयासी-जम्बुद्दीवे णं भंते! दीवे केवइया चंदा पभासिसु वा पभाति वा पभासिस्संति वा. एवं जहा जीवाभिगमे जाव-'एग च सयसहस्सं तेत्तीसं खलु भवे सहस्साई। नव य सया पन्नासा तारागणकोडिकोडीणं ॥६१॥' सोभं सोभिंसु सोभिंति मोभिस्संति ।। (सूत्रं ३६२)॥ [प्र०] राजगृह नगरमां यावत् (गौतम स्वामीए) ए प्रमाणे प्रश्न कर्यो के-हे भगवन् ! जंबूद्वीप नामना द्वीपमां केटला चंद्रोए प्रकाश कर्यो, केटला प्रकाश करे छे अने केटला प्रकाश करशे ? [उ०] ए प्रमाणे जेम जीवाभिगम सूत्रमा कांछे तेम जाणवं, | यावत् 'एक लाख, तेत्रीश हजार, नवमो ने पचास कोडाकोडी ताराना समूहे शोभा करी, शोभा करे छे अने शोभा करशे' त्यां सुधी जाणवू. ॥ ३६२ ॥ ERA For Private and Personal Use Only Page #175 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir &ा व्याख्याप्राप्ति ॥७१५॥ लवणे णं भंते! समुद्दे केवतिया चंदा पभासिंसु वा पभासिंति वा पभासिस्संति वा ३ एवं जहा जीवाभिगमे जाव ताराओ॥ धायइसंडे कालोदे पुक्खरवरे अभितरपुक्खरद्धे मणुस्सखेत्ते, एएसु सब्वेसु जहा जीवाभिगमे का९सके |जाब-'एगससीपरिवारो तारागणकोडाकोडीणं।' पुक्खरद्धे णं भंते ! समुद्दे केवइया चंदा पभासिंसु वा!, एवं उद्देशान सब्वेसु दीवसमुद्देसु जोतिसियाणं भाणियब्बंजाव सयंभूरमणे जाव सोभं सोभिंसु वा सोभंति वा सोभिस्संति |७४५॥ | वा । सेवं भंते ! सेवं भंतेत्ति( सूत्रं ३६३ ) नवममए बीओ उद्देसो समत्तो॥९-२॥ ६ [म.] हे भगवन् ! लवण समुद्रमा केटला चंद्रोए प्रकाश कर्यो, केटला प्रकाश करे छे अने केटला प्रकाश करशे ? [उ.] |ए प्रमाणे जेम जीवाभिगम सूत्रमा कां छे तेम तारानी हकीकत सूधी सर्व जाणवू. धातकिखंड, कालोदधि, पुष्करवर द्वीप, अभ्यंतर पुष्कराध अने मनुष्यक्षेत्रमां-ए सर्व स्थळे जीवाभिगम सूत्रमा कह्या प्रमाणे यावत् "एक चंद्रनो परिवार कोटाकोटि तारागणो होय छे" त्यां सूधी सर्व जाणवू [प्र०] हे भगवन् ! पुष्करोद समुद्रमा केटला चंद्रोए प्रकाश कर्यो ?-इत्यादि [उ०] ए रीते [ जीवाभिगम सूत्रमा कह्या प्रमाणे ] सर्व द्वीप अने समुद्रोमां ज्योतिष्कोनी हकीकत यावत् 'स्वयंभूरमणसमद्रमा छे. यावत् शोभ्या, शोभे छे अने शोभशे' त्यां सुधी कहेवी. हे भगवन् ! ते एमज छे, हे भगवन् ! ते एमज छे, [एम कही यावद् भगवान् | | गौतम विहरे छे.] ॥ ३६३॥ भगवत् सुधर्मखामीप्रणीत श्रीमद् भगवतीमत्रना ९ मा शतकमां बीजा उद्देशानो मूलार्थ संपुर्ण थयो. For Private and Personal Use Only Page #176 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir उद्देशक ३ व्याख्या रायगिहे जाव एवं वयासी-कहि णं भंते! दाहिणिल्लाणं एगोरुयमणुस्साणं एगोरुयदीचे णाम दीवे पन्नत्ते ?,४९ शतके प्रज्ञप्तिः गोयमा! जंबुद्दीवे दीवे मंदरस्स पब्वयस्स दाहिणेणं चुल्लहिमवंतस्स वासहरपव्वयस्स पुरच्छिमिल्लाओ चरिमं. उद्देशा३ ॥७४६॥ ताओ लवणसमुई उत्तरपुरच्छिमेणं तिन्नि जोयणसयाई ओगाहित्ता एत्थ णं दाहिणिल्लाणं एगोरुयमणुस्साणं || ॥७४६॥ एगोरुयदीवे नामं दीवे मण्णत्ते, तं गोयमा! तिनि जोयणसयाई आयामविक्खंभेणं णवएकोणवन्ने जोयणसए दकिंचिविसेसूणे परिक्खेवेणं पन्नत्ते, से णं एगाए पउमवरवेइयाए एगेण य वणसंडेणं सव्वओ समंता सपरिक्खि त्ते, दोपहवि पमाणं वन्नओ य, एवं एएणं कमेणं जहा जीवाभिगमे जाव सुदंतदीवेजाव देवलोगपरिग्गहिया णं ते |मणुया पण्णत्ता समणाउसो।। एवं अट्ठावीसपि अंतरदीवा मएणं २ आयामविखंभेणं भाणियब्वा, नवरं दीवे |२ उद्देसओ, एवं सब्वेवि अट्ठावीसं उद्देसगा भाणियव्वा । सेवं भंते! सेवं भंते ! त्ति (सूत्रं ३६४) नवमस्स | तईयाइआ तीसंताउद्देसा संमत्ता ॥ ३०॥ | [प्र०] राजगृह नगरमां [ भगवान् गौतमे] यावत् ए प्रमाणे पूछयु-हे भगवन् ! दक्षिण दिशाना एकोरुक मनुष्योनो एको. रुक नामे द्वीप क्या कह्यो छे? [उ०] हे गौतम! जंबूद्वीप नामना द्वीपमा आवेला मंदरपर्वत (मेरुपर्वत) नी दक्षिणे चुल्ल (क्षुद्र)। हिमवंत नामे वर्षधर पर्वतना पूर्वना छेडाथी ईशान कोणमांत्रणसो योजन लवणसमुद्रमां गया पछी ए स्थळे दक्षिण दिशाना एको रुक मनुष्योनो एकोरुक नामे द्वीप कह्यो छे. हे गौतम! ते द्वीपनी लवाइ अने पहोळाय त्रणसो योजन छे, अने तेनो परिक्षेप (परि. KARNAAGICAL For Private and Personal Use Only Page #177 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailaseagarsuri Gyanmandie प्रबप्तिः ले धि) नवसो ओगण पचास योजनथी काइक न्यून छे. ते द्वीप एक पद्मवरवेदिका अने एक वनखंडथी चारे बाजु विटाएल छे. ए| व्याख्या- बन्नेनुं प्रमाण तथा वर्णन ए प्रमाणे ए क्रम बडे जेम जीवाभिगमसूत्रमा कयुं छे तेम यावत् 'शुद्धदंत द्वीप छे, यावद् हे आयुष्मान् 18| श्रमण ! ए द्वीपना पनुष्यो मरीने देवगतिमां उपजे छे, त्यांसुधी जाणवू ए प्रमाणे पोते पोतानी लंबाइ अने पहोलाइथी अठ्यावीश ॥७४७॥ अंतीपो कहेवा; परन्तु एक एक द्वीपे एक एक उद्देशक जाणवो. ए प्रमाणे बधा मळीने अठयावीश उद्देशको कहेवा. हे भगवन् ! PIते एमज छे, हे भगवन् ! ते एमज छे. [एमकही भगवान् गौतम यावद् विहरे छे. ॥ ३६४ ।। भगवत् सुर्धमस्वामीप्रणीत श्रीमद् भगवतीसूत्रना ९ मा शतकमां त्रीजा उद्देशानो मूलार्थ संपूर्ण थयो. | ९ शतके उद्देश ॥७४७॥ उद्देशक ४ रायगिहे जाव एवं वयासी-असोचा णं भंते ! केवलिस्स वा केवलिसावगस्स वा केवलिसावियाए वा केवलिउवासगस्स वा केवलिउवासियाएवा तप्पविक्वयस्स वा तप्पक्षियसावगस्स वा तप्पक्खियसावियाए वा नप्पक्खियउवासगस्स वा तप्पक्खियउवासियाए वा केवलिपन्नत्तं धम्म लभेजा सवणयाए ?, गोयमा! असोचा णं केवलिस्स वा जाव तप्पक्खियउवासियाए वा अत्थेगतिए केवलिपन्नत्तं धम्म लभेजा सवणयाए अत्यंगतिए IM केवलिपन्नत्तं धम्मं नो लभेजासवणयाए॥ से केणटेणं भंते! एवं बुचइ-असोचा ण जाव नो लभेजा सवणयाए, KAUCTICALCCCCCC365 For Private and Personal use only Page #178 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra व्याख्या प्रज्ञप्तिः ॥७४८ ॥ www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir गोयमा ! जस्स णं नाणावरणिजाणं कम्माणं खओवसमे कडे भवइ से णं असोच्चाकेवलिस्स वा जाव तप्पक्खियवासिया वा केवलिपन्नत्तं धम्मं लभेज सवणयाए, जस्म णं नाणावरणिजाणं कम्माणं खओवसमे नो कडे भवइ से णं असोचा णं केवलिस्स वा जाव तप्पक्विडवासियाए केवलिपन्नत्तं धम्मं नो लभेज सवणयाए, से तेणद्वेणं गोयमा ! एवं बुच्चइ-तं चैव जाव नो लभेज्ज सवणयाए ॥ [प्र० ] राजगृह नगरमां यावत् [ भगवान् गौतमे] आ प्रमाणे पूछयुं - हे भगवन् ! केवलि पासेथी, केवलिना श्रावक पासेथी, केवलिनी श्राविका पासेथी, केवलिना उपासक पासेथ, केवलिनी उपासिका पासेथी, केवलिना पाक्षिक (खयंबुद्ध) पासेथी, केवलिना पाक्षिक श्रावक पासेथी, केवलिना पाक्षिकनी श्राविका पासेथी, केवलिना पक्षना उपासक पासेथी अने केवलिना पाक्षिकनी उपासिका पाथी सांभळ्या विना जीवने केवलज्ञानीए कडेला धर्मना श्रवणनो-ज्ञाननो लाभ थाय ? [उ०] हे गौतम ! केअलि पासेथी यावत् तेवा पाक्षिकनी उपासिका पासेथी सांभळ्या विना पण कोइ जीवने के लिए कहेला धर्मश्रवरणनो लाभ थाय अने कोड़ जीवने लाभ न थाय. [ प्र० ] हे भगवन् ! ए प्रमाणे शा हेतुथी कहो छो सांभळ्या विना यावत् [ धर्म] श्रवणनो लाभ न थाय ? [उ०] हे गौतम! जे जीवे ज्ञानावरणीय कर्मनो क्षयोपशम करेलो छे ते जीवने केवलि पासेथी यावत् तेना पाक्षिकनी उपासिका पासेंथी सांभळ्या विना पण के लिए कहेला धर्मश्रवणनो लाभ थाय, अने जे जीवे ज्ञानावरणीय कर्मनो क्षयोपशम कर्यो नथी जे जीवने केवलि पाथी यावत् तेना पाक्षिकनी उपासिका पासेथी सांभळया विना के लिए कहेल धर्मने सांभळवानो लाभ न थाय. हे गौतम! ते हेतुथी एम कहूं छे के, तेने यावत् 'श्रवणनो लाभ न थाय. ' For Private and Personal Use Only ९ शतके उद्देशः४ ॥७४८ ॥ Page #179 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra व्याख्याप्रज्ञप्तिः ॥७४९॥ www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir असोचा णं भंते! केवलिस्स वा जाव तप्पक्खियउवासियाए वा केवलं बोहिं बुज्झेज्जा, गोयमा ! असोचा | णं केवलिस्स वा जाव अत्थेगतिए केवलं बोहिं बुज्झेज्जा अत्थेगतिए केवलं बोहिं णो वुज्झेज्जा ॥ से केणद्वेणं भंते! जाव नो बुज्झेज्जा ?, गोयमा ! जस्स णं दरिसणावरणिजाणं कम्माणं खओवसमे कडे भवइ से णं असोचा केवलिस्स वा जाब केवलं बोहिं बुज्झेज्जा. जस्स णं दरिमणावरणिज्जाणं कम्मेणं खओवसमे णो कडे भवइ से असोच्चाकेवलिस्स वा जाव केवलं बोहि णो वुज्झेज्जा, तेणद्वेणं जाव णो बुज्झेज्जा ॥ [प्र० ] हे भगवन् ! केवली पासेथां के यावत् तेना पक्षनी उपासिका पासेथी [ धर्म] सांभळयाविना कोइ जीव शुद्ध बोधिसम्यग्दर्शनने अनुभवे ? [अ०] हे गौतम ! केवली पासेथी यावत् सांभळ्या विना पण कोइ जीव शुद्ध सम्यग्दर्शनने अनुभवे, अने कोइ जीव शुद्ध सम्यग्दर्शनने न अनुभवें. [प्र० ] हे भगवन् ! ए प्रमाणे शा हेतुथी कहो छो के, यावत् [शुद्ध सम्यग्दर्शनने] न अनुभवे ? [उ०] हे गौतम! जे जीवे दर्शनावरणीय (दर्शनमोहनीय) कर्मनो क्षयोपशम कर्यो छे ते जीव केवली पासेथी यावत् सांभळया विना शुद्ध सम्यग्दर्शनने अनुभवे; अने जे जीव दर्शनावरणीय कर्मनो क्षयोपशम कर्यो नथी, ते जीव केवली पासेथी यावत् सांभळया विना शुद्ध सम्यग्दर्शनने न अनुभवे. माटे हे गौतम! ते हेतुथी एम कयुं छे के - यावत् 'सांभळया विना शुद्ध सम्यक्त्वने अनुभवे नहि. ' असोचा णं भंते! केवलिस्स वा जाव तप्पक्खियउवासियाए वा केवलं मुंडे भवित्ता आगाराओ अणगारिय पव्वज्जा ?, गोयमा ! असोचा णं केवलिस्स वा जाव उवासियाए वा अत्थेगतिए केबलं मुंडे भवित्ता अगाराओ For Private and Personal Use Only ९ शतके उद्देशः४ ॥७४९ ॥ Page #180 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir व्याख्या प्रज्ञप्तिः ॥७५०॥ ९ शतके उद्देश ॥७५०॥ अणगारियं पव्वइज्जा अत्थेगतिए केवलं मुंडे भवित्ता अगाराओ अणगारियं नो पब्वएज्जा, से केण?णं जाव नो पव्वएज्जा?, गोयमा! जस्स णं धम्मंतराइयाणं कम्माणं खओवसमे कडे भवति से णं असोचाकेवलिस्स वा जाव केवलं मुंडे भवित्ता अगाराओ अणगारियं पव्वएज्जा, जस्म णं धम्मतराइयाणं कम्माणं खओवसमे नो कडे भवति से णं असोच्चाकेवलिस्स वा जाव मुंडे भवित्ता जाव णो पव्वएज्जा, से तेण?णं गोयमा! जाव नो पव्वएज्जा । असोचा णं भंते ! केवलिस्स वा जाव उवासियाए वा केवलं बंभचेरवास आवसेज्जा ?. गोयमा ! असोचा णं केवलिस्स वा जाव उवासियाए वा अत्थेगतिए केवलं बंभचेरवास आवसेज्जा, अत्थेगतिए केवलं बंभचेरवासं नो आवसेज्जा, से केणटेणं भंते ! एवं वुच्चद जाव नो आवसेज्जा ?, गोयमा! जस्स णं चरित्तावरणिज्जाणं कम्माणं खओवसमे कडे भवद से णं असोचाकेवलिस्स वा जाव केवलं बंभचेरवासं आवसेज्जा, जस्स णं चरित्तावरणिज्जाणं कम्माणं ग्वओवसमे नो कडे भवइ से णं असोचाकेवलिस्स वा जाव नो आवसेज्जा, से तेणटेणं जाव नो आवसेजा। [म.] हे भगवन् ! केवली पासेथी के यावत् तेना पक्षनी उपासिका पासेथी सांभळ्या विना पण कोइ जीव मुंड-दीक्षित थइने अगारवास-गृहवास-त्यजी शुद्ध अनगारिकपणाने-प्रव्रज्याने स्वीकारे? [उ०] हे गौतम : केवली पासेथी यावत् तेना पक्षनी उपासिकापासेथी सांभळया विना कोइ जीव मुंड थइने गृहवास त्यजी शुद्ध अनगारिकपणाने स्वीकारे, अने कोइ जीव मुंड थइ | | गृहवास त्यजी अनगारिकपणाने न स्वीकारे. [प्र०] हे भगवन् ! एम शा हेतुथी कहो छो के, 'यावत् न स्वीकारे' ? [उ०] हे PROCCOLOCACACANCELECT For Private and Personal Use Only Page #181 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir व्याख्या । ९ शतके उद्देश ॥५१॥ प्राप्तिः ॥७५१॥ ACCASIX है गौतम ! जे जीवे धर्मांतरायिक-चारित्र धर्ममा अन्तरायभूत-चारित्रावरणीय कर्मोनो क्षयोपशम कयों छे ते जीव केवली पासेथी | यावत् सांभळया विना पण मुंड थइने अगारवास त्यजी शुद्ध अनगारिकपणाने स्वीकारे, अने जे जीवे धर्मांतरायिक कर्मोनो क्षयो| पशम कर्यो नथी ते जीव केवली पासेथी यावत् सांभळ्या विना यावत् मुंड थइने यावद् न स्वीकारे. माटे हे गौतम ! ते हेतुथी एम कहुं छे के ‘यावत् न स्वीकारे.' [प्र०] हे भगवन् ! केवली पासेथी, यावत् तेना पक्षनी उपासिका पासेथी सांभळया विना कोड | जीव शुद्ध ब्रह्मचर्यवासने धारण करे ? [उ०] हे गौतम ! केवली पासेथी, यावत् तेना पक्षनी उपसिका पासेथी सांभळ्या विना पण ६ कोइ जीव शुद्ध ब्रह्मचर्यवासने धारण करे, अने कोइ जीव शुद्ध ब्रह्मचर्यवासने धारण न करे. [प्र.] हे भगवन् ! एम शा हेतुथी कहो छो के-'यावत् ब्रह्मचर्यवासने धारण न करे "१ [उ०] हे गौतम! जे जीवे चारित्रावरणीय कर्मोनो क्षयोपशम कर्यों के ते जीव केवली पासेथी यावत सांभळ्या विना पण शुद्ध ब्रह्मचर्यवासने धारण करे, अने जे जीवे चारित्रावरणीय कर्मोनोक्षयोपशम नथी कर्यो ते जीव केवली पासेथी यावत् सांभळ्या विना शुद्ध ब्रह्मचर्यवासने धारण न करे. माटे हे गौतम! ते हेतुथी एम कयु छ के 'यावत् ब्रह्मचर्यवासने धारण न करे.' | असोचा णं भंते ! केवलिस्स वा जाव केवलेणं संजमेणं संजमेजा?, गोयमा! असोचा णं केवलिस्स जाव उवासिगाए वा जाव अत्थेगतिए केवलेणं मंजमेणं संजमेज्जा अस्थेगतिए केवलेणं संजमेणं नो संजमेज्जा, से केणहेणं जाव नो संजमेज्जा,गोयमा! जस्स णं जयणावरणिज्जाणं कम्माणं खओवसमे कडे भवइ से णं असोचाणं केवलिस्स वा जाव केवलेणं संजमेणं संजमेज्जा जस्स णं जयणावरणिज्जाणं कम्माणं खओवसमे नो कडे भवह For Private and Personal Use Only Page #182 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra व्याख्या प्रज्ञसिः ॥७५२॥ www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir सेणं असोचा केवलिस्स वा जाव नो संजमेज्जा, से तेणद्वेणं गोयमा ! जाव अत्थेगतिए नो संजमेज्जा । [प्र० ] हे भगवन्! केवली पासेथी यावत् सांभळ्या विना कोइ जीव शुद्ध संयमवडे संमयतना करे? [30] हे गौतम! केवली पाथी यावत् तेना पक्षनी उपासिका पासेथी सांभळ्या विना पण कोइ जीव शुद्ध संयमवडे संयमयतना करे, अने कोइ जीव न करे. [प्र० ] हे भगवन् ! ए प्रमाणे शा हेतुथी कहो छ। के यावत् संयमयतना न करे [अ०] हे गौतम! जे जीवे यतनावरणीय कर्मोनो क्षयोपशम कर्यो छे ते जीव केवली पासेथी यावत् सांभळ्या विना पण शुद्ध संयमवडे संयमयतना करें, अने जे जीवे यत नांवरणीय कर्मोंनो क्षयोपशम नथी कर्यो ते जीव केवली पासेथी यावत् सांभळ्या विना शुद्ध संयमवडे संयमयतना न करे, माटे हे गौतम ! ते हेतुथी एम कछु छे के, यावत् 'कोइ संयंम न करे. ' असोचा णं भंते! केवलिस्स वा जाव उवासियाए वा केवलेणं संवरेण संवरेज्जा ?, गोयमा असोचाणं केवलिस्स | जाव अत्थेगतिए केवलेण संवरेण संवरेजा अन्थेगतिए केवलेण जाव नो संवरेजा, से केणद्वेणं जाव नो संवरेज्जा?, गोयमा जस्स णं अज्झवसाणावर णिज्जाणं कम्माणं खओवसमे कडे भवइ से णं असोचाकेवलिस्स वा जाव केवलेणं संवरेणं संवरेजा, जस्स णं अज्झवसाणावरणिजाणं कम्माणं खओवसमे णो कडे भवइ से णं असोचाकेवलिस्स वा जाव नो संवरेज्जा, से तेणट्टेणं जाव नो संवरेज्जा । असोचा णं भंते! केवलिस्स जाव केवलं आभिणिबोहियनाणं उप्पाडेजा ?, गोयमा ! असोचाणं केवलिस्स वा जाव उवासियाए वा अत्थेगतिए केवलं आभिणिबोहियनाणं उपाडेजा अत्थेगइए केवलं आभिणिवोहियनाणं नो उप्पाडेजा, से केणट्टेणं जाव नो उप्पाडेजा ?, गोपमा ! For Private and Personal Use Only ९ शतके उद्देशः४ ॥७५२॥ Page #183 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir हैजस्स णं आभिणिबोहियनाणावरणिज्जाणं कम्माणं खओवममें कडे भवइ से णं असोचाकेवलिस्स वा जाव केवलं आभिणियोहियनाणं उप्पाडेजा, जस्सणं आभिणियोहियनाणावरणिज्जाणं कम्माणं खओवसमे नो कडे भवइ सेI lead व्याख्याप्राप्तिः दणं असोचाकेवलिस्स वा जाव केवलं आभिणियोहियनाणं नो उप्पाडेजा से तेण?णं जाव नो उप्पाडेजा, उद्देश [प्र०] हे भगवन् ! केवली पासेथी के यावत् तेना पक्षनी उपासिका पासेथी सांभळ्या विना कोइ जीव शुद्ध संवरवडे संवर॥७५३॥ ॥७५३॥ आस्रवनो रोध--करे? [उ०] हे गौतम ! केवली पासेथी यावत् सांभळ्या विना पण कोइ जीव शुद्ध संवरवडे आस्रवने रोके, अने कोइ जीव शुद्ध संवरवडे आस्रवने न रोके. [40] हे भगवान् ! ए प्रमाणे शा हेतुथी कहो छो के-'यावत् संवर न करे ? [उ०] हे गौतम ! जे जीवे अध्यवसानावरणीय (भावचारित्रावरणीय ) कर्मोनो क्षयोपशम कर्यो छे ते जीव केवली पासेथी यावत् सांभळ्या विना पण शुद्ध संवरवंड संवर-आसवनो रोध-करी शके, अने जे जीवे अध्यवसानावरणीय कर्मोनो क्षयोपशम नथी कर्यो ते जीव केवली पासेथी सांभळ्या विना संवर न करी शके; माटे हे गौतम ! ते हेतुथी एम कडं ले के--यावत् 'संवर न करें'. [प्र०] हे भगवन् ! केवली प्रासेथी यावत् सांभळ्या विना कोइ जीव शुद्ध आमिनिबोधिक ज्ञान उत्पन्न करे ? [उ०] हे गौतम! केवली पासेथी के यावत् तेनी उपासिका पासेथी सांभळ्या विना पण कोइ जीव शुद्ध आभिनिवोधिक ज्ञान उपजावी शके, अने कोइ जीव शुद्ध आभिनिबोधिक ज्ञान न उपजावी शके. [प्र०] हे भगवन् ! एम शा हेतुथी कहो छो के-'यावत् न उपजावी शके १ [उ०] हे गौतम! जे जीवे आमिनिबोधिक ज्ञानावरणीय कर्मोनो क्षयोपशम कर्यों के ते जीव केवली पासेथी यावत् सांभळ्या विना पण शुद्ध आमिनिबोधिकज्ञान उपजावी शके, अने जे जीवे आभिनिवोधिक ज्ञानावरणीय कर्मोनो क्षयोपशम कर्यो नथी ते जीव केवली FASRCISCLA ॐACCURRॐ For Private and Personal Use Only Page #184 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra घ्याख्या प्रज्ञप्तिः ॥७५४॥ www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir पासेश्री यावत् सांभळ्या विना शुद्ध आभिनिबोधिकज्ञान न उपजावी शके. माटे हे गौतम् ! ते हेतुथी एम कनुं छे के - 'यावत् न उपजावी शके.' असोच्चा णं भंते! केवलि०जाव केवलं सुयनाणं उप्पाडेज्जा एवं जहा आभिणिवोहियनाणस्स वत्तव्वया भणिया तहा सुयमाणस्सवि भाणियव्वा, नवरं सुयनाणावर णिज्जाणं कम्माणं खओवसमे भाणियब्वे । एवं चेव केवलं ओहिनाणं भाणियव्वं, नवरं ओहिणाणावरणिजाणं कम्माणं स्वओवसमे भाणियव्वे, एवं केवलं मणपजवनाणं उप्पाडेजा, नवरं मणपज्जवणाणावरणियाणं कम्माणं खओवसमे भाणियव्वे, असोचा णं भंते! केवलिस्स वा जाव तप्पक्खियउवासियाए वा केवलनाणं उप्पाडेजा, एवं चेव नवरं केवलनाणावरणिजाणं कम्माणं खए भायिव्वे, सेसं तं चैव से तेणट्टेणं गोगमा ! एवं बुचड़ जाव केवलनाणं नो उप्पाडेजा । [प्र०] हे भगवन् ! केवली पासथी यावत् सांभळ्या विना कोइ जीव शुद्ध श्रुतज्ञान उत्पन्न करी शके १ [उ०] ए प्रमाणे जेम आभिनिबोधिकज्ञाननी हकीकत कही, तेम श्रुतज्ञाननी पण जाणत्री; परन्तु अहीं श्रुतज्ञानावरणीय कर्मोनो क्षयोपशम कहेवा. ए प्रमाणे शुद्ध अवधिज्ञाननी पण हकीकत कहेवी, पण त्यां अवधिज्ञानावरणीया कर्मोनो क्षयोपशम कहेवो; ए रीते शुद्ध मनःपर्यवज्ञान पण उत्पन्न करे, परन्तु मनः पर्यवज्ञानावरणीय कर्मोनो क्षयोपशम कहवो. [प्र०] हे भगवन् ! केवली पासेथी के यावत् तेना पक्षनी उपासिका पाथी (सांभळ्या विना कोइ जीव ) केवलज्ञानने उत्पन्न करी शके ? [अ०] पूर्वनी पेठे जाणवुं, परन्तु अहीं 'केवलज्ञानावरणीय कर्मोनो क्षय' कहेवो बाकी बधुं पूर्वनी पेठे जाणवुं. माटे हे गौतम! ते हेतुथी एम कछु छे के 'यावत् केवलज्ञानने पण For Private and Personal Use Only ९ शतके उद्देशः४ ॥७५४॥ Page #185 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir का ९ शतके * उद्देश ॥७५५॥ ★ उत्पन्न करी शके.' का असोचा णं भंते ! केवलिस्स वा जाव तप्पक्खियउवासियाए वा केवलिपन्नत्तं धम्मं लभेजा सवणयाए व्याख्या | केवलं बोहिं बुज्झेज्जा केवलं मुंडे भवित्ता आगाराओ अणगारियं पव्वएज्जा केवलं बंभचेरवासं आवसेज्जा केवलेणं प्रज्ञप्तिः संजमेण संजमेजा केवलेण संवरेणं संवरेजा केवलं आमिणिबोहियनाणं उप्पाडेजा जाव केवलं मणपज्जवनाणं ॥७५५॥ का उप्पाडेजा केवलनाणं उप्पाडेजा?, गोयमा! असोचाणं केवलिस्स वा जाव उवासियाए वा अत्थेगतिए केवलि पन्नत्तं धम्म लभेजा सवणयाए अत्थेगतिए केवलिपन्नत्तं धम्मं नो लभेजा सवणयाए अत्थेगतिए केवलं बोहिं | बुज्झेजा अत्थेगतिए केवलं बोहिं णो बुज्झज्जा अत्थेगतिए केवलं मुंडे भवित्ता आगाराओ अणगारियं पव्वएज्जा PI अत्थेगतिए जाव नो पव्वएजा अत्थेगतिए केवलं बंभचेरवामं आवसेज्जा अत्थेगतिए केवलं बंभचेरवासं नो आ वसेजा अत्थेगतिए केवलेणं संजमेणं संजमेजा अत्थेगतिए केवलेणं संजमेणं नो संजमेज्जा एवं संवरेणवि, अत्थेगतिए केवलं आभिणिबोहियनाणं उप्पाडेजा अत्थेगतिए जाव नो उप्पाडेजा, एवं जाव मणपज्जवनाणं, अ| त्थंगतिए केदलनाणं उप्पाडेजा अत्थेगतिए केवलनाणं नो उप्पाडेजा। से केणटेणं भंते ! एवं वुच्चइ असोचाणं तं चेव जाव अत्यंगतिए केवलनाणं नो उप्पाडेजा, गोयमा ! जस्म णं नाणावरणिज्जाणं कम्माणं खओवसमे दानो कडे भवइ १ जस्स णं दरिसणावरणिजाणं कम्माणं खओवसमे नो कडे भवइ २ जस्स णं धम्मंतराइयाणं कम्माणं खओवसमे नो कडे भवइ ३ एवं चरित्तावरणिज्जाणं ४ जयणावरणिज्जाणं ५ अज्झवसाणावरणिज्जाणं ANNA For Private and Personal Use Only Page #186 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra घ्याख्या प्रज्ञप्तिः 1104811 www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ६ आभिणियोयनाणावरणिजाणं ७ जाव मणपज्जवनाणावर णिज्जाणं कम्माणं खओवसमे नो कडे भवइ १० जस्स णं केवलनाणावरणिजाणं जाव खए नो कडे भवइ ११ से णं असोञ्चाकेवलिस्स वा जाव केवलिपन्नत्तं धम्मं नो लभेज्जा सवणयाए केवलं बोहिं नो बुज्झेज्जा जाव केवलनाणं नो उप्पाडेजा, जस्स णं नाणावरणिजा वा कम्माणं खओवसमे कडे भवति जस्स णं दरिसणावरणिजाणं कम्माणं खओवसमे कडे भवइ जस्स णं धम्मंतरण. इयाणं एवं जाव जस्स णं केवलनाणावरणिज्जाणं कम्माणं खए कडे भवइ से णं असोच्चाकेवलिस्स वा जाव केवलिपन्नंत्त धम्मं लभेज्जा सवणयाए केवलं बोहिं बुज्झेज्जा जाव केवलणाणां उप्पाडेज्जा ॥ ( सूत्रं ३६५ ) ॥ [प्र० ] हे भगवन् ! केवली पासेथी के यावत् तेना पक्षनी उपासिका पासेथी सांभळया विना पण शुं कोइ जीव केवलज्ञानीए कहेला धर्मने श्रवण करे जाणे, शुद्ध सम्यक्त्वनो अनुभव करे. मुंड थड़ने अगारवास त्यजी शुद्ध अनगारिकपणाने स्वीकारे, शुद्ध ब्रह्मचर्यवासने धारण करे, शुद्ध संयमवडे संयमयतना - करे, शुद्ध संवरवडे संवर- आस्रवनो रोध-करे, शुद्ध आभिनिबोधिकज्ञान उत्पन्न करे, यावत् शुद्ध मनः पर्यवज्ञान उत्पन्न करे अने शुद्ध केवलज्ञान उत्पन्न करे ? [अ०] हे गौतम ! केवली पासेथी यावत् तेनी उपासिका पासेथी सांभळ्या विना पण कोइ जीव केवलज्ञानीए कहेला धर्मने जाणे अने कोइ जीव के लिए कहेला धर्मने न जाणे, कोई जीव शुद्ध सम्यक्त्वनो अनुभव करे अने कोइ जीव शुद्ध सम्यक्त्वनो अनुभव न करे; कोइ जीव मुंड थइने आगारवास त्यजी शुद्ध अनगारपणु स्वीकारे अने कोइ जीव न स्वीकारे; कोइ जीव शुद्ध ब्रह्मचर्यवासने धारण करे अने कोइ जीव शुद्ध ब्रह्मचर्यवासने धरण न करे; कोइ जीव शुद्ध संयम वडे संयमयतना करे अने कोइ जीव शुद्ध संयमवडे संयम न करे; ए प्रमाणे संवरने विषे पण For Private and Personal Use Only ९ शतके उद्देशः४ ।।७५६॥ Page #187 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir जाण; कोइ जीव शुद्ध आभिनिबोधिकज्ञानने उत्पन्न करे अने कोइ जीव यावद् न उत्पन्न करे; ए प्रमाणे यावत् मनःपर्यवव्याख्या- ज्ञान सुधी जाणवू, कोइ जीव केवलज्ञान उपजावे अने कोइ जीव केवलज्ञान न उपजावे. [प्र०] हे भगवन् ! ए प्रमाणे शा हेतुथी P९शके प्राप्ति कहो छो के-'धर्मने सांभळ्या शिवाय ते प्रमाणे यावत् कोइ जीव केवलज्ञान न उत्पन्न करे ? [उ०] हे गौतम ! १ जे जीवे 81 | उद्देश ७५७॥ ताज्ञानावरणीय कर्मोनो क्षयोपशम नथी कर्यो, २ जेणे दर्शनावरणीय कर्मोनो क्षयोपशम नथी कर्यो, ३ जेणे धर्मांतरायिक कर्मोनो ॥७५७७ क्षयोपशम नथी कर्यो, ४ प प्रमाणे चारित्रावरणीय कर्मोनो क्षयोपशम नथी कों, ५ यतनावरणीय कर्मोनो क्षयोपशम नथी कों, | ६ अध्यवसानावरणीय कर्मोनो क्षयोपशम नथी कर्यो, ७ आमिनिवोधिकज्ञानावरणीय कर्मोनो क्षयोपशम नथी कर्यो, यावत् 181 १० मनःपर्यवज्ञानावरणीय कर्मोनो क्षयोपशम नथी कों, अने ११ जेणे केवलज्ञानावरणीय कर्मोनो क्षय नथी कर्यो ते जीव केवलज्ञानी पासेथी यावत् सांभळ्या विना केवलज्ञानीए कहेला धर्मने सांभळ्वाने प्राप्त न करे, अर्थात् न जाणे, शुद्ध सम्यक्त्वनो अनुभव न करे, यावत् केवलज्ञानने न उत्पन्न करे, तथा जे जीवे ज्ञानावरणीय कर्मोनो क्षयोपशम कर्यों छे, जेणे दर्शनावरणीय है कर्मोनो क्षयोपशम कर्यो छे. जेणे धर्मांतरायिक कोनो क्षयोपशम कर्यो छे, ए प्रमाणे यावत् जेणे केवलज्ञानावरणीय कर्मोनो क्षय कयों छे ते जीव केवली पासेथी यावत् सांभळ्या विना पण केवलिए कहेल धर्मने जाणे, शुद्ध सम्यक्त्वनो अनुभव करे अने यावत् र 5 केवलज्ञानने उत्पन्न करे. ॥ ३६५ ॥ द्रा तस्सणं भंते! छटुंछडेणं अनिक्वित्तेणं तवोकम्मेण उड्डे बाहाओ पगिजिझय पगिझिय सूराभिमुहस्स आयावहैणभूमीए आयावेमाणस्स पगतिभद्दयाए पगइउवसंतयाए पगतिपयणुकोहमाणमायालोभयाए मिउमद्दवसंपन्नया For Private and Personal Use Only Page #188 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra Acharya Shri Kailassagarsuri Gyarmandie www.kobatirth.org VI ए अल्लीणयाए भद्दया विणीययाए अन्नया कयाइ सुभेणं अज्झवसाणेणंसुभेणं परिणामेणं लेस्साहिं विसुझव्याख्या 18 माणीहिं २ तयावरणिज्जाणं कम्माणं खओवसमेणं ईहापोहमग्गणगवेसणं करेमाणस्स विन्भंगे नामं अन्नाणे समु- ४९ शतके प्रचप्तिः दिपज्जइ. से णं तेणं विन्भंगणनाणेणं समुप्पन्नेणं जहन्नेणं अंगुलस्स असंखेजहभागं उक्कोसेणं असंखेजाइं जोय- उद्देश ॥७५८॥ |णसहस्साई जाणइ पासए, से णं तेणं विभंगनाणेणं समुप्पन्नेणं जीवेवि जाणइ अजीवेवि जाणइ पासंहत्थे ॥७५८॥ सारंभे सपरिग्गहे संकिलिस्समाणेवि जाणइ विसुज्झमाणेवि जाणइ, से णं पुवामेव मम्मत्तं पडिवाइ, संमत्तं पडिवज्जित्ता ममणधम्म रोएति समणधम्म रोएत्ता चरितं पडिवज्जइ चरित्तं पडिवजिता लिंग पडिवज्जइ, त|स्स णं तेहिं मिच्छत्तपज्जवेहिं परिहायमाणेहिं २ सम्मइंसणपज्जवेहिं परिवड्डमाणेहिं २ से विभंगे अन्नाणे सम्मत्तपरिग्गहिए खिप्पामेव ओही परावत्तह (सूत्रं ३६६)॥ ते जीवने निरंतर छट्ठ छट्ठना तप करवापूर्वक सूर्यनी सामे उंचा हाथ राखी राखीने आतापना भूमिमां आतापना लेता, प्रक. तिना भद्रपणाथी, प्रकृतिना उपशांतपणाथी, स्वभावथी क्रोध, मान, माया अने लोभ घणा ओछा थयेला होवथी, अत्यंत मार्दवनम्रताने प्राप्त थयेला होवाथी, आलीनपणाथी, भद्रपणाथी अने विनीतपणाथी अन्य कोइ दिवसे शुभ अध्यवसायब्रडे, शुभ परिणा| मवडे, विशुद्ध लेश्याओवडे तदावरणीय (विभंगज्ञानावरणीय) कर्मोना क्षयोपशमथी, ईहा, अपोह, मार्गणा अने गवेषणा करता | विभंग नामे अज्ञान उत्पन्न थाय छे. ते उत्पन्न थएल विभंगज्ञान वडे जघन्यथी अंगुलनो असंख्यातमो भाग अने उत्कृष्ट असंख्येय हजार योजनोने जाणे छे अने जुए छे उत्पन्न थएला विभंगज्ञान वडे ते जीवोने पण जाणे छे अने अजीबोने पण जाणे छे; पाखंडी AMARC+GACARE For Private and Personal Use Only Page #189 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir प्राप्तिः FASSAGARSAN ९ शतके | उद्देश ॥७५९॥ ४.आरंभवाळा, परिग्रहवाळा अने संक्लेशने प्राप्त थयेला जीवोने पण जाणे छे अने विशुद्ध जीवोनो पण जाणे छे; ते विभंगज्ञानी पहेव्याख्या- लांज सम्यक्त्वने प्राप्त करे छे, प्राप्त करी श्रमणधर्म उपर रुचि करे छे, रुचि करी चारित्रने स्वीकारे छे. चारित्रने स्वीकारी लिंग | वेषने स्वीकारे छे; पछी ते विभंगज्ञानीना मिथ्यात्वपर्यायो क्षीण थता थता अने सम्यग्दर्शन पर्यायो वधता वधता ते विभंग ॥७५९॥ अज्ञान सम्यक्त्व युक्त थाय छे, अने शीघ्र अवधिरूपे परावर्तन पामे छे. ।। ३६६ ॥ ना से णं भंते ! कतिलेस्सासु होज्जा ?, गोयमा तिसु विसुद्धलेस्सासु होज्जा, तंजहा-तेउलेस्साए पम्हलेस्माए |सुक्कलेस्साए । से णं भंते ! कतिसु णाणेसु होजा ?, गोयमा! तिसु आभिणिबोहियनाणसुयनाणओहिनाणेसु होजा। से णं भंते! किं सजोगी होज्जा अजोगी होजा?, गोयमा! सजोगी होजा, नो अजोगी होना, जह सजोगी होजा किं मणजोगी होजा वइजोगी होज्जा कायजोगी होजा?, गोयमा! मणजोगी वा होजा | वइजोगी वा होजा कायजोगी वा होज्जा । से णं भंते! किं सागारोवउत्ते होजा अणागारोव उत्ते होज्जा?, गोयदमा! सागरोवउत्ते वा होज्जा अणागारोवउत्ते वा होज्जा । से णं भंते ! कयरंमि संघयणे होज्जा ?, गोयमा! वइरोसभनारायसंघयणे होजा । से णं भंते ! कपरंभि संठाणे होजा?, गोयमा! छण्हं संठाणाणं अन्नयरे |संठाणे होजा । से पां भंते ! कयरंभि उच्चत्ते होला ?, गोयमा! जहनेणं सत्तरयण उक्कोसेणं पंचधणुसतिए होजा । से णं भंते ! कयरंभि आउए होज्जा ?, गोयमा! जहन्नेणं सातिरेगट्टवासाउए उक्कोसेणं पुवकोडिआउए होज्जा । से णं भंते ! किं सवेदए होज्जा अबेदए होज्जा ?, गोयमा ! सवेदए होज्जा नो अवेदए होज्जा, E For Private and Personal Use Only Page #190 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir व्याख्या प्राप्तिः ९ शतके उद्देश ॥७६०॥ ॥७६०॥ SACANCELEBA जइ सवेदए होज्जा किं इत्थीवेयए होज्जा पुरिसवेदए होज्जा नपुंसगवेदए होज्जा पुरिसनपुंसगवेदए होज्जा ?, | गोयमा! नो इत्थिवेदए होजा पुरिसवेदए वा होजा नो नपुंसगवेदए होज्जा ?, पुरिसनपुंसगवेदए वा होला। | [प्र.] हे भगवन् ! ते अवधिज्ञानी जीव केटली लेश्याओमां होय? [उ०] हे गौतम ! त्रण विशुद्ध लेश्याओमां होय. ते आ प्रमाणे-तेजोलेश्या, पद्मलेश्या अने शुक्ललेश्या. [प्र०] हे भगवन् ! ते (अवधिज्ञानी) जीव केटला ज्ञानोमां होय ? [उ०] हे गौतम! | आभिनिबोधिकज्ञान, श्रुतज्ञान अने अवधिज्ञान-ए त्रण ज्ञानोमा होय. [प्र०] हे भगवन् ! ते (अवधिज्ञानी) सयोगी (मनोयोगादिऐ सहित) होय के अयोगी होय ? [उ०] हे गौतम ! ते सयोगी होय पण अयोगी न होय. [प्र०] हे भगवन् ! जो ते सयोगी होय, तो शुं मनयोगी होय, वचनयोगी होय के काययोगी होय ? [उ०] हे गौतम ! ते मनयोगी होय, वचनयोगी होय अने काययोगी पण होय. [प्र०] हे भगवन् ! शुं ते साकार-ज्ञानउपयोगवाळो होय के अनाकार-दर्शनउपयोगवाळो होय ? [उ०] हे गौतम ! ते साकारउ पगवालो पण होय अने अनाकारउपयोगवाळो पण होय. [प्र.] हे भगवन् ! ते कया संघयणमां होय ? [उ.] हे गौतम ! ते | वज्र ऋषभनाराचसंघयणवाळो होय. [प्र०] हे भगवन् ! ते कया संस्थानमा होय ? [उ.] हे गौतम ! तेने छ संस्थानमांनु कोइ पण एक संस्थान होय. [प्र.] हे भगवन् ! ते केटली उंचाइवाळो होय ? [उ०] हे गौतम ! ते जघन्यथी सात हाथ अने उत्कृष्टथी पांचसो धनुषनी उंचाइवाळो होय. [4] हे भगवन् ! ते केटला आयुषवाळो होय ? [उ०] हे गौतम ! ते जघन्यथी काइक वधारे है आठ वर्ष, अने उत्कृष्टथी पूर्वकोटिआयुषवाळो होय. प्र०] हे भगवन् ! शुं ते वेदसहित होय के वेदरहित होय ? [३०] हे गौतम! ते वेदसहित होय पण वेदरहित न होय. [म.] हे भगवन् ! जो ते वेदसहित होय तो झुं१ स्त्रीवेदवाळो होय, २ पुरुषवेदवाळो कार ज्ञानउपयोगण होय. [vo I होय? [] मान्यथी सात ACASCARSACRECCA For Private and Personal Use Only Page #191 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir है। होय, ३ नपुंसकवेदवाळो होय के ४ पुरुषनपुंसकवेदवाळो होय ? [३०] हे गौतम ! स्त्रीवेदवाळो ,न होय, पण पुरुषवेदवाळो होय व्याख्यानपुंसकवेदवाळो न होय, पण पुरुषनपुंसकवेदवाळो होय. ९ शतके प्रज्ञप्ति । सेणं भते! किं सकसाई होजा अकसाई होजा?,गोयमा ! सकसाई होजा नो अकसाई होजा, जइ सक- उद्देशः ॥७६२॥ साई होजा से णं भंते! कतिसु कसाएसु होजा, गोयमा! चउसु संजलणकोहमाणमायालोमेसु होज्जा । तस्स ॥७६१, गाणं भंते ! केवतिया अज्झवसाणा पन्नत्ता?, गोयमा ! असंखेजा अज्झवसाणा पन्नत्ता, ते णं भंते! पसत्था अप्प सत्था ?, गोयमा! पसत्था नो अप्पसस्था, से णं भंते तेहिं पसत्थेहि अज्झबमाणेहिं वट्टमाणेहि अणतेहि नेर |इयभवग्गहणेहिंतो अप्पाणं विसंजोएइ अणंतेहिं तिरिक्खजोणिय जाब विसजोएइ अणंतेहिं मणुस्सभवग्गहहिंतो अप्पाणं विसंजोएइ अणतेहिं देवभवग्गहणेहिंतो अप्पाणं विसंजोएइ, जाओवि यसे इमाओ नेरइयतिरि-1 क्खजोणियमणुस्सदेवगतिनामाओ चत्तारि उत्तरपयडीओ, तासिं च णं उबग्गहिए अणंताणुबंधी कोहमाणमायालोमे खवेइ, अणं० २ अपच्चक्खाणकसाए कोहमाणमायालोमे खवेइ अप्प०२ पञ्चवाणावरणकोहमाणमाया लोभे खवेइ पच्च०२ संजलणकोहमाणमायालोमे खवेइ संज. २ पंचविहं नाणाव. नवविहं दरिसणाव. पंचविहमंतराइयं तालमत्थकडं च णं मोहणिज्ज कटु कम्मरयविकरणकर अपुवकरणं अणुपविट्ठस्स अणंते अणुत्तरे निवाघाए निरावरणे कसिणे पडिपुन्ने केवलवरनाणदंसणे समुप्पन्ने (सूत्रं ३६७)। [प्र०] हे भगवन् ! शुं ते (अवधिज्ञानी) सकषायी होय के अकषायी होय ? [उ०] हे गौतम ! ते सकषायी होय, पण कषाय-12 For Private and Personal Use Only Page #192 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatrth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir रहित न होय. [प्र०] हे भगवन् ! जो ते कषायवाळो होय तो तेने केटला कषायो होय ? [उ०] हे गौतम ! तेने संज्वलनक्रोध, व्याख्या-15 मान, माया अने लोभ-ए चार कषाय होय. [प्र०] हे भगवन् ! तेने केटला अध्यवसायो कह्या छे ? [उ.] हे गौतम ! तेने असं- 81९ शतके प्रज्ञप्तिः ख्याता अध्यवसायो कह्यां छे. [प्र०] हे भगवन् ! ते अध्यवसायो प्रशस्त होय के अप्रशस्त होय ? [उ०] हे गौतम! प्रशस्त अध्यव- उद्देशम्भ ॥७६२॥ सायो होय, पण अप्रशस्त न होय. [प्र०] हे भगवन् ! ते (अवधिज्ञानी) वृद्धि पामता प्रशस्त अध्यवसायोवडे अनंत नारकना भवोथी ॥७६२॥ पोताना आत्माने विमुक्त करे, अनंत तिथंचोना भवथी आत्माने विमुक्त करे, अनं तमनुष्यभवोथी आत्माने विमुक्त करे, अने अनंत देवभवोथी आत्माने विमुक्त करे. तथा तेनी जे आ नरकगति, तिथंचगति, मनुष्यगति अने देवगति नामे चार उत्तर प्रकृतिओ छ, तेनी अने बीजी प्रकृतिओना आधारभूत अनंतानुबंधी क्रोध, मान, माया अने लोभनो क्षय करे, तेनो क्षय करीने अप्रत्याख्यान कषायरूप क्रोध, मान, माया अने लोभनो क्षय करे, क्षय करीने प्रत्याख्यानावरण क्रोध, मान, माया अने लोभनो क्षय करे, तेनो क्षय करी संज्वलन क्रोध, मान, माया अने लोभनो क्षय करे, पछी पांच प्रकारे ज्ञानावरणीय कर्म, नव प्रकारे दर्शनावरणीय कर्म, पांच प्रकारे अंतराय कर्म, तथा मोहनीय कर्मने छे दायेल मस्तकवाळा ताडवृक्षना समान (क्षीण) करीने कर्म रजने विखेरी नांखनार अपूर्व करणमा प्रवेश करेला एवा तेने अनंत, अनुत्तर, व्याघातरहित, आवरणरहित, सर्व पदार्थने ग्रहण करनार, प्रतिपूर्ण श्रेष्ठ ए, केवलझान अने केवलदर्शन उत्पन्न थाय छे. ॥ ३६७॥ से णं भंते ! केवलिपन्नत्त धम्म आघवेज वा पन्नवेज वा परवेज वा?, नो तिणढे समढे, णण्णत्थ एगणाएण वा एगवागरणेण वा, से णं भंते! पवावेज वा मुंडावेज वा?, णो तिणडे समढे, उवदेसं पुण करेजा, से | For Private and Personal use only Page #193 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir व्याख्याप्राप्ति ॥७६॥ SHRISTMASALACCU भंते ! सिज्झति जाव अंतं करेति ?, हंता सिज्झति जाव अंतं करेति ॥ (सूत्रं ३६८)। [प्र०] हे भगवन् ! ते (केवलज्ञानी) केवलिए कहेल धर्मने कहे, जणावे अने प्ररूपे ? [उ.] हे गौतम ! ते अर्थ योग्य नथी, ९ शतके परन्तु एक न्याय-उदाहरण अने एक (प्रश्नना) उत्तर शिवाय. (अर्थात् ते अश्रुत्वा केवली एक उदाहरण या एक प्रश्नन। उत्तर | उद्देशा शिवाय धर्मनो उपदेश न करे.) [प्र०] हे भगवन् ! ते (केवली) कोइने प्रव्रज्या आपे, मुंडे-दीक्षा आपे ? [उ०] हे गौतम ! ए अर्थद ॥७६३० योग्य नथी, पण मात्र ('अमुकनी पासे प्रव्रज्या ग्रहण करो' एवो) उपदेश करे. [प्र०] हे भगवन् ! ते (अश्रुत्वा केवलज्ञानी) सिद्ध थाय, यावत् सर्व दुःखोनो अंत करे ? [उ०] हा, सिद्ध थाय, यावत् सर्व दुःखोनो अन्त करे. ॥ ३६८ ।। से णं भंते! किं उड्डे होज्जा अहो होजा तिरिय होजा?, गोयमा ! उड्डे वा होजा अहे वा होजा तिरियं वा होजा, उड्ढे होजमाणे सद्दावइवियडावइगंधावइमालवंतपरियाएसु वट्टवेयढपव्वएसु होजा, साहरणं पडुच्च मोमणसवणे वा पडंगवणे वा होजा, अहे होजमाणे गड्डाए वा दरीए वा होजा, साहरणं पडुच्च पायाले वा भवणे वा होजा, तिरियं होजमाणे पन्नरससु कम्मभूमीसु होजा, साहरणं पडुच्च अड्डाइजे दीवसमुद्दे तदेकदेसभाए होजा, ते णं भंते! एगसमएणं केवतिया होजा?, गोयमा! जहन्नेणं एको वा दो वा तिन्नि वा उक्कोसेणं दस, से तेणटेणं है गोयमा! एवं वुच्चइ असोचा णं केवलिस्स वा जाव अत्यंगतिए केवलिपन्नत्तं धम्म लभेज्ज सवणयाए अत्धेगतिए असोचा णं केवलि जाव नो लभेज्ज सवणयाए जाव अत्थे केवलगतिए नाणं उप्पाडेज्जा अत्थेगतिए केव|लनाणं नो उप्पाडेज्जा ॥ (सूत्रं ३६९)॥ CRICALCALCONS For Private and Personal Use Only Page #194 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir १२ व्याख्याप्रज्ञप्तिः ॥७६४॥ [प्र०] हे भगवन् ! ते (अश्रुत्वा केवलज्ञानी) ऊर्ध्वलोकमां होय, अधोलोकमां होय के तिर्यग् लोकमां होय ? [उ.] हे गौतम! | ते ऊर्ध्वलोकमां पग होय, अधोलोकमां पण होय अने तिर्यग् लोकमां पण होय. जो ते ऊर्ध्वलोकमां होय तो शब्दापाति, विकटा- 31९ शतके पाति, गंधापाति, अने माल्यवंत नामे वृत्तवैताढ्य पर्वतोमा होय. तथा संहरणने आश्रयी सौमनस्यवनमां के पांडुकवनमा होय. जो उद्देश ते अधोलोकमां होय तो गर्ता-अधोलोकग्रामादिमां के गुफामां होय, तथा संहरणने आश्रयी पातालकलशमां के भवनमां (भवनवासिर ॥७६४॥ | देवोना रहेठाणमां) होय, जो ते तिर्यग्लोकमां होय तो ते पंदर कर्मभूमिमां होय, अने संहरणने आश्रयी अढी द्वीप अने समुद्रोना| एक भागमां होय. (म०] हे भगवन् ! ते (अश्रुत्वा केवलज्ञानी) एक समये केटला होय ? [उ०) हे गौतम ! जघन्यथी एक, बे, त्रण अने उत्कृष्टथी दस होय. माटे हे गौतम ! ते हेतुथी एम कडं छे के, केवली पासेथी यावत् सांभळया विना कोइ जीवने केवलिए कहेल धर्म-श्रवणनो लाभ थाय अने केवली पासेथी सांभळया सिवाय कोइ जीवने केवलिप्रणीत धर्म श्रवणनो लाभ न थाय, | यावत् कोइ जीव केवलज्ञानने उत्पन्न करे अने कोइ जीव केवलज्ञानने न उत्पन्न करे. ॥ ३६९ ॥ | सोचाणं भंते ! केवलिस्स वा जाव तपक्खियउवासियाए वा केवलिपन्नत्तं धम्म लभेज्जा सवणयाए?, गो. | यमा! सोचाणं केवलिस्स वा जाव अत्थेगतिए केवलिपन्नत्तं धम्म एवं जा चेव असोच्चाए वत्तव्वया सा चेव | सोच्चाएवि भाणियव्वा, नवरं अभिलावो सोचेति, सेसं तं चेव निरवसेसं जाव जस्स णं मणपज्जवनाणावरणिज्जाणं कम्माणं खओवसमे कडे भवइ जस्स णं केवलनाणावरणिज्जाणं कम्माणं खए कडे भवइ से णं सोचाकेवलिस्स वा जाव उवासियाए वा केवलिपन्नत्तं धम्मं लब्भइ सवणयाए केवलं बोहिं बुज्झेज्जा जाव केवलनाणं SARASWACAKACHAKRSCIALA For Private and Personal Use Only Page #195 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagersuri Gyanmandi व्याख्याप्राप्तिः ॥७६५॥ ९ शतके उद्देशम्। ॥७६५० उप्पाडेज्जा, तस्स णं अट्ठमंअट्टमेणं अनिक्खित्तणं तवोकम्मेणं अप्पाणं भावेमाणस्स पगइभद्दयाए तहेव जाव गवेसणं करेमाणस्स ओहिणाणे समुप्पज्जइ, से णं तेणं ओहिनाणेणं समुप्पन्नण जहन्नेणं अंगुलस्स असंखेज्जइभागं उकोसेणं असंखेज्जाइं अलोए लोयप्पमाणमेत्ताई खण्डाई जाणइ पासइ॥ से णं भंते ! कतिसु लेस्सासु | होज्जा?, गोयमा! छसु लेस्सासु होज्जा, तंजहा--कण्हलेसाए जाव सुक्कलेसाए। [प्र.] हे भगवन् ! केवली पासेथी यावत् तेना पक्षनी उपासिका पासेथी (धर्म) सांभळीने कोइ जीव केवलिप्ररूपित धर्म प्राप्त करे [उ०] हे गौतम! केवलज्ञानी पासेथी यावत् सांभळीने कोइ जीव केवलिप्ररूपित धर्मने प्राप्त करे अने कोइ जीव न करे. ए प्रमाणे यावत् 'असोचा'नी जे वक्तव्यता छ तेज वक्तव्यता ‘सोचा'ने पण कहेवी. परन्तु अहीं 'सोचा' एवो पाठ कहेवो. बाकी सर्व पूर्वे कह्या प्रमाणे जाणवू. यावत् जे जीवे मनःपर्यवज्ञानावरणीय कर्मोनो क्षयोपशम कर्यो छे, अने जे जीवे केवलज्ञानावरणीय कर्मोनो क्षय कर्यो छे ते जीवने केवली पासेथी यावत् तेनी उपासिका पासेथी केवलीए कहेल धर्मनो लाभ थाय, अने ते शुद्ध सम्यक्त्वनो अनुभव करे, यावद केवलज्ञानने प्राप्त करे. (केवलज्ञानी वगेरे पासेथी धर्म सांभळीने सम्यग्दर्शनादि जेने प्राप्त थयेल छे एवा) तेने निरन्तर अट्ठम तप करवा वडे आत्माने भावित करता, प्रकृतिनी भद्रताथी तेमज यावत् मार्गनी गवेषणा करता अवधिज्ञान उत्पन्न थाय छे. अने ते उत्पन्न थएल अवधिज्ञान वडे जघन्यथी अंगुलनो असंख्यातमो भाग, अने उत्कृष्टथी अलोकने विषे लोकप्रमाण असंख्य खंडोने जाणे के अने जुए के. [प्र०] हे भगवन् ! ते (अवधिज्ञानी) जीव केटली लेश्याओमां वर्ततो होय! [उ०] हे गौतम ! ते छ ए लेश्यामां वर्ततो होय छे, ते आ प्रमाणे-कृष्णलेश्या, यावत् शुक्ललेश्या. RAKA For Private and Personal Use Only Page #196 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagersuri Gyanmandir C सके व्याख्याप्रज्ञप्तिः ॥७६६॥ RECACH ___से णं भंते ! कतिसु णाणेसु होजा?, गोयमा! तिसु वा चउसु वा होजा, तिसु होजमाणे तिसु आभिणियो-I हियनाणसुयनाणओहिनाणेसु होजा, चउसु होजमाणे आभि. सुय० ओहि मणप० होजा । से ण भंते ! किं सयोगी होज्जा अयोगी होज्जा, एवं जोगोवओगो संघयणं संठाणं उच्चत्तं आउयं च,एयाणि सव्वाणि जहा असोचाए तहेव भाणियब्वाणि ।से णं भंते! किं सवेदए०१,पुच्छा,गोयमा!सवेदए होजा अवेदए वा, जइ अवेदए होजा उद्देश किं उवसंतवेयए होजा खीणवेयए होजा?, गोयमा!नो उवसंतवेयए होज्जा,खीणवेदए होजा, जह सवेदए होजा | ॥७६॥ किं इत्थीवेदए होज्जा पुरिसवेदए होज्जा नपुंसगवेदए वा होज्जा पुरिसनपुंसगवेदए होज्जा ?, पुच्छा, गोयमा! इत्थीवेदए वा होज्जा पुरिसवेदए वा होज्जा पुरिसनपुंसगवेदए वा होज्जा । से णं भंते ! किं सकसाई होज्जा अकसाई वा होज्जा ?, गोषमा! सकसाई वा होज्जा अकसाई वा होज्जा, जइ अकसाई होज्जा किं उवसंतकमाई होज्जा खीणकसाई होज्जा?, गोयमा! नो उवसंतकसाई होज्जा, खीणकसाई होज्जा, जइ सकसाई होज्जा | से णं भंते ! कतिसु कसाएसु होज्जा?, गोयमा! चउसु वा तिसु वा दोसु वा एकंमि वा होजा, चउसु होजमाणे | चउसु संजलणकोहमाणमायालोमेसु होजा, तिसु होजमाणे तिसुसंजलणमाणमायालोमेसु होजा, दोसु होज|माणे दोसु संजलणमायालोमेसु होजा, एगमि होजमाणे एगंमि संजलणे लोभे होजा। | [प्र०] हे भगवन् ! ते (अवधिज्ञानी) केटलां ज्ञानमां वर्ततो होय ! [उ०] हे गौतम! ते त्रण के चार ज्ञानमां होय. जो त्रण | ज्ञानमां होय तो आमिनिबोधिक ज्ञान, श्रुतज्ञान अने अवधिज्ञानमा होय, जो चार ज्ञानमा होय तो ते आभिनिबोधिकज्ञान, श्रुत-18 AR ARRANGERICA For Private and Personal Use Only Page #197 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir व्याख्याप्राप्तिः ७६७॥ CHAR ज्ञान, अवधिज्ञान अने मनःपर्यवज्ञानमा होय. [प्र०] हे भगवन् ! ते (अवधिज्ञानी) सयोगी होय के अयोगी होय ? [उ.] पूर्वे कह्या प्रमाणे योग, उपयोग, संघयण, संस्थान, उंचाइ, अने आयुष् ए बधा जेम 'असोचा' ने कह्या (सू०१२-२०) तेम अहीं कहेवां. [प्र०] हे भगवन् ! ते (अवधिज्ञानी) शुं वेदसहित होय-इत्यादि प्रश्न. [उ.] हे गौतम ! वेदसहित होय के वेदरहित पण |९ शतके | होय. [प्र०] हे भगवन् ! जो वेदरहित होय तो झुं ते उपशांतवेदवाळो होय के क्षीणवेदवाळो होय ? [उ०] हे गौतम ! उपशांतवे-16 उद्देशन दवाळो न होय, पण श्रीणवेदवाळो होय. [प्र०] हे भगवन् ! जो वेदसहित होय तो शुं ते स्त्रीवेदवाळो होय, पुरुषवेदवाळो होय, ७९७ 5 नपुंसकवेदवाळो होय के पुरुषनपुंसकवेदवाळो होय [उ०] हे गौतम ! ते स्त्रीवेदवाळो होय, पुरुषवेदवालो होय के पुरुषनपुंसकवेदवाळो पण होय. प्र०] हे भगवन् ! ते (अवधिज्ञानी) शुंसकपायी होय के अकषायी होय ? [उ०] हे गौतम! ते सकषायी होय के अक| पायी पण होय. [म.] हे भगवन् ! जो ते अकषायी होय तो शुं उपशांतकषायी होय के क्षीणकषायी होय ? [उ.] हे गौतम ! उपशांतकषायी न होय, पण क्षीणकषायी होय. [प्र०] हे भगवन् ! जो सकषायी होय तो ते केटला कषायोमा होय ? [उ.] हे गौतम! ते चार कषायोमा, त्रण कपायोमां, वे कषायोमां के एक कषायोमा होय. जो चार कषायोमां होय तो संज्वलन क्रोध, मान, माया, अने लोभमा होय. जो त्रण कषायमा होय तो संज्वलन मान, माया अने लोभमां होय. जो वे कषायोमां होय तो ज्वलन माया अने लोभमा होय. अने जो एक कषायमा होय तो एक संज्वलन लोभमा होय. तस्स णं भंते! केवतिया अज्झवसाणा पण्णत्ता,गोयमा! असंखेजा, एवं जहा असोचाए तहेव जाव केवलवरनाणदंसणे समुपजह, से णं भंते! केवलिपन्नत्ते धम्मं आघवेज वा पन्नवेज वा परवेज वा ?, हंता आघवेज्ज वा For Private and Personal Use Only Page #198 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra व्याख्याप्रज्ञप्तिः ॥७६८|| www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir पन्नवेज्ज वा परूवेज्ज वा, से णं भंते! पव्वावेज वा मुंडावेज्ज वा?, हंता गोयमा ! पव्वावेज वा मुंडावेज्ज वा, तस्स णं भंते! सिस्सावि पव्वावेज्ज वा मुंडावेज्ज वा?, हंता पव्वावेज्ज वा मुंडावेज वा, तस्स णं भंते! पसिस्सावि पव्वावेज वा मुंडावेज वा?, हंता पव्वावेज वा मुंडावेज वा । से णं भंते! सिज्झति बुज्झति जाव अंतं करेई, हंता सिज्झइ वा जाव अंतं करेइ, तस्स णं भंते! सिस्सावि सिज्झति जान अंतं करेन्ति ?, हंता सिज्झति जाव अंत करेन्ति, तस्स णं भंते! पसिस्सावि सिज्झति जाव अंतं करेन्ति, एवं चेव जाव अंतं करेन्ति । से णं भंते! किं उङ्कं होज्जा जहेब असोचाए जाव तदेकदेसभाए होज्जा । ते णं भंते! एगसमएणं केवतिया होज्जा ?, गोयमा ! जहनेणं एक्को वा दो वा तिन्नि वा उक्कोसेणं अट्ठमयं १०८, से तेणट्टेणं गोयमा ! एवं बुच्चइ-सोचाणं केवलिस्स वा जाव केवल वासियाए वा जाव अत्थेगतिए केवलनाणं उप्पाडेज्जा अत्थेगतिए नो केवलनाणं उप्पाडेज्जा । सेवं भंते ! २त्ति ॥ (सूत्रं ३७०) नवमसयस्स इगलीसइमो उद्देसो ॥ ९-३१ ॥ [प्र०] हे भगवन् ! तेने केटलां अध्यवसायो कह्या के ? [उच्] हे गौतम! तेने असंख्यात अध्यवसायो कलां छे. ए प्रमाणे जेम 'असोच्चा' ने कछु (सू. २५) तेम यावत् 'तेने श्रेष्ठ केवलज्ञान अने केवलदर्शन उत्पन्न थाय छे' त्यांसुधी कहेतुं [प्र०] हे भगवन् ! ते ( सोच्चा केवलज्ञानी) के लिए कहेला धर्मने कहे, जणावे, प्ररूपे ? [उ०] हा, गौतम ! ते (केवलिप्रज्ञप्त धर्मने) कहे, जणावे अने प्ररूपे [प्र०] हे भगवन् ! ते कोइने प्रत्रज्या आपे, दीक्षा आपे १ [उ०] हा, गौतम ! तेप्रत्रज्या आपे-दीक्षा आपे. [प्र० ] हे भगवन् ! तेना ( सोचा केवलिना ) शिष्यो पण प्रव्रज्या आपे, दीक्षा आपे ? [उ०] हा, गौतम ! तेना शिष्यो पण प्रव्रज्या आपे-दीक्षा For Private and Personal Use Only ९ शतके उद्देश ४ ॥७६८॥ Page #199 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir व्याख्याप्राप्ति ॥७६९॥ ९ शतके उद्देश उप ॥ है आपे. [प्र०] हे भगवन् ! तेना प्रशिष्यो पण प्रव्रज्या आपे, दीक्षा आपे ? [उ.] हा, गौतम ! प्रव्रज्या आपे, दीक्षा आपे. [प्र०] माहे भगवन् ! ते (सोचा केवली) सिद्ध थाय, बुद्ध थाय, यावत् सर्व दुःखनो अन्त करे ? [उ०] हा गौतम ! ते सिद्ध थाय, यावत् ६ सर्व दुःखोनो नाश करे. [प्र.] हे भगवन् ! तेना शिष्यो पण सिद्ध थाय, यावत् सर्व दुःखोनो अंत करे ? [उ०] हा, गौतम ! सिद्ध | थाय, यावत् सर्व दुःखोनो नाश करे. [प्र०] हे भगवन् ! तेना प्रशिष्यो पण सिद्ध थाय, यावत् सर्व दुःखोनो अन्त करे ? [उ०] पाए प्रमाणे यावत सर्व दुःखोनो अन्त करे. प्रि०] हे भगवन ! तें (सोचा केवली) शं ऊर्ध्वलोकमां होय-इत्यादि प्रश्न. [उ. जेम 'असोचा' केवली संबंधे का (मू. ३१) ते प्रमाणे जाणवू, यावत् (अढी द्वीव समुद्र के) तेना एक भागमा होय. [H०] हे भगवन् ! है। ते (सोच्चा केवली) एक समयमा केटला होय ? [उ०] हे गौतम! ते एक समयमा जघन्यथी एक, बे के त्रण होय, अने उत्कृष्टथी एक सो आठ होय. माटे हे गौतम! ते हेतुथी एम कर्तुं छे के, 'केवली पासेथी यावत् केवलिनी उपासिकापासेथी सांभळीने यावत् कोइ जीव केवलज्ञानने उपजावे अने कोइ जीव केवलज्ञानने न उपजावे.' हे भगवन् ! ते एमज छे, हे भगवन् ! ते एमज छे. (एम कही भगवान् गौतम यावद् विहरे छे.) । ३७० ॥ भगवत् सुधर्म स्वामी प्रणीत श्रीमद् भगवतीस्त्रना ९ मा शतकमां चोथा उद्देशानो मूलार्थ संपूर्ण थयो. **** K For Private and Personal Use Only Page #200 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir उद्देशक ५ ९ शतके व्याख्याप्रज्ञप्तिः |७७०॥ ||७७०॥ OCTOR+ तेणं कालेणं तेणं समएण वाणियगामे नगरे होत्था वन्नओ, दूतिपलासे चेइए, सामी समोसढे, परिसा निग्गया, धम्मो कहिओ, परिसा पडिगया, तेणं कालेणं तेणं समएणं पासावचिजे गंगेए नाम अणगारे जेणेव ममणे भगवं महावीरे तेणेव उवागच्छद तेणेव उवागच्छइत्तासमणस्स भगवओ महावीरस्स अदूरसामंते ठिच्चा समण भगवं महावीरं एवं वयासी-संतरं भंते ! नेरइया उववजंति निरंतरं नेरइया उववजंति ?, गंगेया! संतरंपि नेरइया उववजंति निरंतरंपि नेरइया उववज्जति. संतरं भंते! असुरकुमारा उवववंति, निरंतरं असुरकुमारा उववजंति , गंगेया! संतरंपि असुरकुमारा उववजंति निरंतरंपि असुरकुमारा उववजंति, एवं जाव थणियकुमारा, संतरं भंते ! पुढविकाइया उववज्जंनि निरंतरं पुढविकाइया उववजंति ?, गंगेया ! नो संतरं पुढविकाइया उववजंति, निरंतरं पुढविकाइया उवववंति, एवं जाव वणस्सइकाइया, बेइंदिया जाव वेमाणिया एते जहा णेरइया । (सूत्रं ३७१)॥ ते काले, अने ते समये वाणिज्यग्राम नामे नगर हतुं. वर्णन तिपलाश नामे चैत्य हतुं. श्रीमहावीर स्वामी समवसर्या. पर्षद् वांदवा निकळी. धर्मोपदेश कर्यो. पर्षद् विसर्जित थइ. ते काले-ते समये श्रीपार्श्वप्रभुना शिष्य गांगेय नामे अनगार ज्यां श्रमण भगवन् महावीर विराजमान हता त्यां आव्या, आवीने श्रमण भगवंत महावीरनी पासे थोडे दूर बेसीने तेणे श्रमण भगवंत महावीरने 4% For Private and Personal Use Only Page #201 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir का व्याख्याप्राप्ति ॥७७१॥ ए प्रमाणे कयु-[प्र०] हे भगवन् ! नैरयिको सांतर (अन्तरसहित) उत्पन्न थय छे के निरंतर (अन्तर शिवाय) उत्पन्न थाय छे ? [उ०] हे गांगेय ! नैरयिको सांतर पण उत्पन्न थय छे अने निरंतर पण उत्पन्न थाय छे. [प्र.] हे भगवन् ! असुरकुमारो सांतर उत्पन्न थाय छे के निरंतर उत्पन्न थाय हे ? [उ०] हे गांगेय ! अमुरकुमारो सांतर पण उत्पन्न थाय छे, अने निरंतर पण उत्पन्न ९ शतके थाय हे. ए प्रमाणे यावत् स्तनितकुमारो सुधी जण. [प्र०] हे भगवन् ! पृथिवीकायिक जीवो सान्तर उत्पन्न थाय छे! [उ०] हे | Pउद्देशा५ गांगेय ! पृथिवीकायिक जीवो सन्तर उत्पन्न थता नथी, पण निरंतर उत्पन्न थय छे. ए प्रमाणे यावद् वनस्पतिकायिक जीवो सुधी ७७१॥ |जाणवं. वे इन्द्रिय जीवोथी मांडी यावद् वैमानिको नरयिकोनी पेठे (सू० २) जाणवा. ॥ ३७१ ॥ संतरं भंते! नेरइया उववहति निरंतरं नेरइया उववदृति !, गंगेया! संतरंपि नेरइया उववति | निरंतरंपि नेरइया उबवति, एवं जाव थणियकुमारा, संतरं भंते ! पुढविकाइया उववदंति ? पुच्छा, गंगेया! णो ६. संतरं पुढविक्काइया उव्वति,निरंतरं पुढविक्काइया उव्वदंति एवं जाव वणस्सइकाइया नो संतरं, निरंतरं उव्वदृति, है|संतरं भंते ! बेइंदिया उब्बति निरंतरं दिया उव्वदंति ?, गंगेया ! संतरंपि बेइंदिया उव्वद॒ति निरंतरंपि बेई| दिया उब्वटुंति, एवं जाव वाणमंतरा, संतरं भंते ! जोइसिया चयंति? पुच्छा, गंगेया! संतरंपि जोइसिया चयंति निरंतरंपि जोइंसिया चयति एवं जाव वेमाणियावि (सूत्रं ३७२)॥ [प्र०] हे भगवन् ! नैरयिको सांतर च्यवे छे के निरंतर च्यवे हे ? [उ०] हे गांगेय ! नैरयिको सांतर पण च्यवे छे अने निरंतर पण च्यवे छे. ए प्रमाणे यावत् स्तनितकुमार मुधी जाणवू [प्र०] हे भगवान् ! पृथिवीकायिक जीवो सांतर च्यवे छे ? -इत्यादि । AALA 0964 For Private and Personal Use Only Page #202 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir व्याख्याप्रज्ञप्तिः ॥७७२॥ ९ शतके उद्देशा५ ॥७७२॥ |प्रश्न. [उ०] हे गांगेय ! पृथिवीकायिक जीवो निरंतर च्यवे छे पण सांतर च्यवता नथी. ए प्रमाणे यावत् वनस्पतिकायिक जीवो सान्तर च्यवता नथी, पण निरन्तर च्यवे छे. [40] हे भगवन् ! बेइन्द्रिय जीवो सांतर च्यवे छे के निरंतर च्यवे छ ? [उ.] हे गांगेय ! बेइन्द्रिय जीवो सांतर पण च्यवे के अने निरंतर पण च्यवे के. ए प्रमाणे यावद् वानव्यन्तर सुधी जाणवू. [प्र०] हे भग| वन् ! ज्योतिषिक देवो सांतर च्यवे छे ?-इत्यादि प्रश्न. [उ०] हे गांगेय ! ज्योतिषिक देवो सांतर पण च्यवे छे अने निरंतर पण | च्यवे हे. ए प्रमाणे यावद् वैमानिक देवो सुधी जाणवू. ॥ ३७२ ।। कविहे णं भंते! पवेसणए पन्नत्ती, गंगेया! चउविहे पवेसणए पन्नत्ते, तंजहानेरइयपवेसणए तिरियजो|णियपवेसणए मणुस्सपवेसणए देवपवेसणए । नेरइयपवेसणए णं भंते ! कहविहे पन्नत्ते?, गंगेया! सत्तविहे पन्नत्ते, तंजहा-रयणप्पभापुढविनेरइयपवेसणए जाव अहेसत्तमापुढविनेरइयपवेसणए । एगे णं भंते ! नेरइए | नेरइयपवेसणएणं पविसमाणे किं रयणप्पभाए होजा सकरप्पभाए होजा जाव अहेसत्तमाए होजा?, गंगेया! रयणप्पभाए वा होजा जाव अहेसत्तमाए वा होजा। दो भंते ! नेरइया नेरइयपवेसणएणं पविममाणा किं रयण. प्पभाए होज्जा जाव अहेसत्तमाए होजा?, गंगेया! रयणप्पभाए वा होजा जाव अहेसत्तमाए वा होज्जा, अहवा एगे रयणप्पभाए एगे सकरप्पभाए होज्जा अहवा एगे रयणप्पभाए एगे वालुयप्पभाए होजा जाव एगे रयणप्प. भाए एगे अहेसत्तमाए होजा, अहवा एगे सक्करप्पभाए एगे वालुयप्पभाए होजा जाव अहवा एगे सक्करप्पभाए एगे अहेसत्तमाए होजा, अहवा एगे वालुयप्पभाए एगे पंकप्पभाए होजा एवं जाव अहवा एगे बालुयप्पभाए For Private and Personal Use Only Page #203 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir प्रतिः ९ शतके उद्देशान ॥७७३॥ ४ाएगे अहेसत्तमाए होजा, एवं एक्केक्का पुढवी छडेयव्वा जाव अहवा एगे तमाए एगे अहेसत्तमाए होजा ॥ व्याख्या [प्र.] हे भगवन् ! प्रवेशनक (उत्पत्ति) केटला प्रकारे कहेल छ ? [उ०] हे गांगेय ! प्रवेशनक चार प्रकारे कह्यां छे. ते आ | प्रमाणे-१ नैरयिकप्रवेशनक, २ तियचयोनिकप्रवेशनक, ३ मनुष्यप्रवेशनक अने ४ देवप्रवेशनक. [प्र०] हे भगवन् ! नैरयिकप्रवे ॥७७३॥ शनक केटला प्रकारे कयुछे ? [उ.] हे गांगेय ! सात प्रकारे का छे. ते आ प्रमाणे-१ रत्नप्रभापृथिवीनैरयिकप्रवेशनक, यावद् ७ अधःसप्तमपृथिवीनैरयिकप्रवेशनक. [प्र०] हे भगवन् ! एक नारक जीव नैरयिकप्रवेशनकद्वारा प्रवेश करतो शुं १ रत्नप्रभापृथिवीमां होय, २ शर्कराप्रभापृथिवीमां होय के यावद् ७ अधःसप्तमपृथिवीमां होय ? [उ.] हे गांगेय ! ते १ रत्नप्रभापृथिवीमां पण होय, यावद् ७ अधःसप्तमपृथिवीमां पण होय. [प्र.] हे भगवन् ! बे नारको नैरयिकप्रवेशनकद्वारा प्रवेश करता शुं रत्नप्रभापृथिवीमां उत्पन्न थाय के यावद् अधःसप्तमपृथिवीमा उत्पन्न थाय ? [उ०] हे गांगेय! ते बन्ने १ रन्तप्रभापृथिवीमां होय, के यावद् ७ अधः| सप्तमनरकपृथिवीमां होय. १ अथवा एक रत्नप्रभापृथिवीमां होय अने एक शर्कराप्रभापृथिवीमां होय. २ अथवा एक रत्नप्रभापृथिवीमां होय अने एक वालुकाप्रभापृथिवीमा होय. यावत् ६ एक रत्नप्रभामां होय अने एक अधःसप्तमनरकपृथिवीमां होय. (३ एक रत्नप्रभापृथिवीमां होय अने एक पंकप्रभापृथिवीमा होय. ४ अथवा एक रत्नप्रभापृथिवीमां होय अने एक धूमप्रभापृथिवीमा होय. ५ अथवा एक रत्नप्रभापृथिवीमां होय अने एक तमःप्रभापृथिवीमां होय. ६ अथवा एक रत्नप्रभापृथिवीमा होय अने एक तमातमःप्रभापृथिवीमा होय. ए रीते रत्नप्रभा साथे छ विकल्प थाय छे.) १ अथवा एक शर्कराप्रभापृथिवीमां होय अने एक वालुकाप्रभारथिवीमा | होय. यावत् ५ अथवा एक शर्कराप्रभामां होय अने एक अधःसप्तम नरकपृथिवीमां होय. (२ एक शर्कराप्रभापृथिवीमां होय अने SCACCIENCATION S For Private and Personal Use Only Page #204 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra व्याख्या प्रज्ञप्तिः ॥७७४॥ www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir एक पंकप्रभा पृथिवीमां होय ३ अथवा एक शर्कराप्रभापृथिवीमां होय अने एक धूमप्रभापृथिवीमां होय, ४ अथवा एक शर्कराप्रभाटथिवीमां होय अने एक तमःप्रभापृथिवीमां होय, ५ अथवा एक शर्कराप्रभापृथिवीमां होय अने एक तमःतमापृथिवीमां होय ए प्रमा पांच विकल्प शर्कराप्रभा साथे थाय छे.) १ अथवा एक वालुकाप्रभामां होय अने एक पंकप्रभामां होय. (२ अथवा एक वालुकाप्रभामां होम अने एक धूमप्रभामां होय, ३ अथवा एक वालुकाप्रभामां होय अने एक तमःप्रभामां होय.) ए प्रमाणे यावत् ४ अथवा एक वालुकाप्रभामां होय अने एक अधः सप्तम नरकपृथिवीमां होय. ए प्रमाणे आगलआगलनी एक एक पृथिवी छोडी देवी, यावत् | एक तमामां होय अने एक अधः सप्तम नरकमां होय. (एटले वालुकाममा साथे चार विकल्प थाय छे. १ अथवा एक पंकप्रभामां होय अने एक धूमप्रभामां होय. २ अथवा एक पंकप्रभामां होय अने एक तमःप्रभामां होय, ३ अथवा एक पंकप्रभामां होय अने एक तमःतमामां होय. ए रीते पंकप्रभा साथै त्रण विकल्प थाय छे. १ अथवा एक धूमप्रभामां होय अने एक तमःप्रभामां होय, २ अथवा एक धूमप्रभामां होय अने एक तमःतमामां होय. ए प्रमाणे धूमप्रभा साथै वे विकल्प थाय छे. १ अथवा एक तमःप्रभामां होय अने एक तमतमाप्रभामां होय. ए रीते तमःप्रभा साथै एक विकल्प थाय छे) तिन्नि भंते!नेरया नेरइयपवेसणएणं पविसमाणा किं रयणप्पभाए होज्जा जाव अहेसत्तमाए होजा?, गंगेयारियणभाए वा होजा जाव अहेसत्तमाए वा होज्जा, अहवा एगे रयणप्पभाए दो सक्करप्प भाए होज्जा जाव अहवाएंगे रयणप्पभाए दो अहेमतमाए होजा६ अहवा दो रयणप्पभाए एगे सकरप्पभाए होजा जाव अहवा दो रयणप्पभाए एगे असत्तमाए होज्जा १२ अहवा एगे सक्करप्पभाए दो वालुयप्पभाए होजा जाव अहवा एगे सक्करप्पभाए दो आहे For Private and Personal Use Only ९ शतके उद्देशः ५ | ॥७७४॥ Page #205 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ९ शतके उद्देश: ॥७७५॥ सत्तमाए होज्जा १७ अहवा दो सकरप्पभाए एगे वालुयप्पभाए होजा जाब अहवा दो सकरप्पभाए एगे अहेसव्याख्या- त्तमाए होज्जा २२ एवं जहा सक्करप्पभाए वत्तब्वया भणिया तहा सव्वपुढवीणं भाणियव्वा जाव अहवा दो त माए एगे अहेमत्तमाए होजा, ४-४-३-३-२-२-१-१ (४२) ॥७७५॥ । [प्र०] हे भगवन् ! नैरयिकप्रवेशनकवडे प्रवेश करता त्रण नैरयिको शुं रत्नप्रभामां होय के यावत् अधःसप्तम पृथिवीमां होय ? [उ०] हे गांगेय ! ते त्रण नैरयिको १ रत्नप्रभामां पण होय अने यावत् ७ अधःसप्तम पृथिवीमां पण होय. १ अथवा एक रत्नप्र भामा अने बे शर्कराप्रभामां होय. यावत् ६ एक रत्नप्रभामां होय अने वे अधःसप्तम नरकमा होय. (ए प्रमाणे १-२ ना रत्नप्रभानी है।साथे अनुक्रमे बी जी नरकपृथिवीओनो संयोग करता छ विकल्प थाय.) १ अथवा बे रत्नप्रभामां अने एक शर्कराप्रभामा होय. यावत् |६ वे रत्नप्रभामां होय अने एक अधःसप्तम नरकपृथिवीमा होय (ए प्रमाणे २-१ ना वीजा छ विकल्पो थाय) १ अथवा एक शर्क राप्रभामां अने बे वालुकाप्रभामा होय. यावत् ५ अथवा एक शर्कराप्रभामां अने बे अधःसप्तम नरकमा होय. (ए रीते १-२ ना पांच विकल्प थाय.) १ अथवा बेशर्कराप्रभामां अने एक वालुकाप्रभामां होय, यावत् ५ अथवा वे शर्कराप्रभामां अने एक अधःसप्तम पृथिवीमा होय. (ए प्रमाणे २-१ ना पांच विकल्प थाय.) जेम शर्कराप्रभानी वक्तव्यताकही म साते पृथिवीओनी कहेवी. (ते आ प्रमाणे-१ एक वालुकाप्रभामां अने बे पंकप्रभामां होय. ए प्रमाणे यावत् ४ एक वालुकाप्रभामां अने बे तमतमापृथिवीमां होय. एवी रीते १-२ ना चार विकल्प थाय. १ अथवा वे बालुकाप्रभामां होय अने एक पंकप्रभामां होय ए प्रमाणे यावत् ४ चे वालुकाप्रभामां होय अने एक तमतमामां होय. ए प्रमाणे २-१ ना चार विकल्प थाय.१ अथवा एक पंकप्रभामां होय अने वे धूमप्रभामां ASHOBHA For Private and Personal Use Only Page #206 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir व्याख्याप्रज्ञप्तिः ॥७७६॥ ९ शतके उद्देश:५ ॥७७६॥ %ES AAAAAAC* होय. ए प्रमाणे यावत् ३ एक पंकप्रभामां होय अने बे तमःतमाप्रभामां होय. ए रीते १-२ ना त्रण विकल्प थाय. १ अथवा बे पंकप्रभामां होय अने एक धूमप्रभामा होय. ए प्रमाणे यावत् ३ वे पंकप्रभामां होय अने एक तमतमामां होय. ए रीते २-१ ना त्रण विकल्प थाय. १ अथवा एक धूमप्रभामा होय अने बे तमःप्रभामां होय. २ अथवा एक धूमप्रभामां होय अने बे तमतमाप्रभामा होय. एम १-२ ना बे विकल्पो थाय. १ अथवा बे धूमप्रभामां होय अने एक तमःप्रभामां होय. २ अथवा वे धूमप्रभामां होय अने एक तमतमामां होय. एम२-१ ना बे विकल्प थाय. १ अथवा एक तमःप्रभामां होय अने बे तमातमाप्रभामां होय.) यावत् १ अथवा वे तमःप्रभामा होय अने (एक तमतमाप्रभामा होय. एम १-२,२-१ ना बे विकल्प थाय.) अहवा एगे रयणप्पभाए एगे सकरप्पभाए एगे वालुयप्पभाए होज्जा १ अहवा एगे रयणप्पभाए एगे सक्करप्पभाए एगे पंकप्पभाए होज्जा २ जाव अहवा एगे रयणप्पभाए एगे सक्करप्पभाए एगे अहेसत्तमाए होजा ५ अहवा एगे रयणप्पभाए एगे वालुयप्पभाए एगे पंकप्पभाए होजा ६ अहवा एगे रयणप्पभाए एगे वालुयप्पभाए एगे धूमप्पभाए होजा ७ एवं जाव अहवा एगे रयणप्पभाए एगे वालुय० एगे अहेसत्तमाए होजा ९, अहवा एगे रयणप्पभाए एगे पंकप्पभाए एगे धूमप्पभाए होज्जा१० जाव अहवा एगे रयणप्पभाए एगे पंकप्पभाए एगे अहेसत्समाए होजा १२ अहवा एगे रयणप्पभाए एगे धूमप्पभाएएगे तमाए होजा १३ अहवा एगे रयणप्पभाए एगे धूमप्पभाए एगे अहेसत्तमाए होजा १४ अहवा एगे रयणप्पभाए एगे तमाए एगे अहेसत्तमाए होजा १५ अहवा एगे सकरप्पभाए एगे वालुयप्पभाए एगे पंकप्पभाए होज्जा १६ अहवा एगे सक्करप्पभाए एगे वालुयप्पभाए एगे For Private and Personal Use Only Page #207 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir व्याख्याप्राप्ति ॥७७७॥ ९ शतके उद्देशः५ ॥७७७॥ CACACACACK धूमप्पभाए होज्जा १७ जाव अहवा एगे सक्करप्पभाए एगे वालुयप्पभाए एगे अहेसत्तमाए होजा १९ अहवा एगे सक्करप्पभाए एगे पंकप्पभाए एगे धूमप्पभाए होन्जा २० जाव अहवा एगे सकर० एगे पंक०एगे अहेसत्तमाए होजा २२ अहवा एगे सकरप्पभाए एगे धूमप्पभाए एगे तमाए होज्जा २३ अहवा एगे सकरप्पभाए एगे धूमप्प. एगे अहेसत्तमाए होजा ४ अहवा एगे सकरप्पभाए एगे तमाए एगे अहेमत्तमाए होज्जा - ५ अहवाएगे वालुयप्पभाए एगे पंकप्पभाए एगे धूमप्पभाए होजा २६ अहवा एगे बालुयप्पभाए एगे पंकप्पभाएँ एगे तमाए होजा २७ अहवा एगे बालुयप्पभाए एगे पंकप्पभाए एगे अहेसत्तमाए होज्जा २८ अहवा एगे वालुयप्पभाए एगे धूमप्पभाए एग तमाए होजा २९ अहवा एगे वालुयप्पभाए एगे धूमप्पभाए एगे अहेमत्तमाए होजा ३० अहवा एगे वालुयप्पभाए एगे तमाए एगे अहेसत्तमाए होज्जा ३१ अहवा एगे पंकप्पभाए एगे धूमप्पभाए एगे तमाए होजा ३२ अहवा एगे पंकप्पभाए एगे धूमप्पभाए एगे अहेमत्तमाए होजा ३३ अहवा एगे पंकप्पभाए एगे तमाए एगे अहेसत्तमाए होजा ३४ अहवा एगे धूमप्पभाए एगे तमाए एगे अहेसत्तमाए होजा ३५ १ अथवा एक रत्नप्रभामा एक शर्कराप्रभामां अने एक वालुकाप्रभामा होय. २ अथवा एक रत्नप्रभामां एक शर्कराप्रभामां 3 अने एक पंकप्रभामां होय, यावत् ५ अथवा एक रत्नप्रभामां एक शर्कराप्रभामां अने एक अधःसप्तम पृथिवीमा होय. (: एक रत्न प्रभामां एक शर्कराप्रभामां अने एक धूमप्रभामां होय. ४ अथवा एक रत्नप्रभामां एक शर्कराप्रभामां अने एक तमःप्रभामां होय. ५ अथवा एक रत्नप्रभामां एक शर्कराप्रभामां अने एक तमःतमाप्रभामां होय. ए प्रमाणे रत्नप्रभा साथे पांच विकल्प थाय.) १ अथवा CANCHARACANCCACACCORE For Private and Personal use only Page #208 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir RECSAL व्याख्याप्रज्ञप्तिः ॥७७८॥ ९ शतके उद्देशा५ ॥७७८॥ CALCULAR एक रत्नप्रभामा एक वालुकाप्रभामां अने एक पंकप्रभामां होय. २ अथवा एक रत्नप्रभाभां एक वालुकाप्रभामां अने एक धूमप्रभामां होय. ए प्रमाणे यावत् ४ अथवा एक रत्नप्रभामा एक वालुकाप्रभामां अने एक अधःसप्तम पृथिवीमां होय (३ एक रत्नप्रभामां एक वालुकाप्रभामां अने एक तमाप्रभामा होय. ४ अथवा एक रत्नप्रभामा एक वालुकाप्रभामां अने एक तमातमःप्रभामां होय. ए प्रमाणे शर्कराप्रभाने छोडीने चार विकल्प थाय.) १ अथवा एक रत्नप्रभामां एक पंकप्रभामा अने एक धूमप्रभामां होय. यावत् ३ अथवा एक रत्नप्रभामां एक पंकप्रभामां अने एक अधःसप्तम पृथिवीमा होय. (२ अथवा एक रत्नप्रभामां एक पंकप्रभामां अने एक तमःप्रभामा होय. ३ अथवा एक रत्नप्रभामां एक पंकप्रभामां अने एक तमःतमःप्रभामां होय. ए रीते वालुकाप्रभा छोडीने त्रण विकल्प थाय) १ अथवा एक रत्नप्रभामां एक धूमप्रभामां अने एक तम प्रभामां होय. २ अथवा एक रत्नप्रभामां एक धूमप्रभामां अने एक अधःसप्तम पृथिवीमां होय. एम पंकप्रभाने छोडीने वे विकल्प थाय.)१ अथवा एक रत्नप्रभामा एक तमःप्रभामां अने एक अधःसप्तम पृथिवीमां होय. (ए एक विकल्प धूमप्रभा छोडीने थाय. ए प्रमाणे रत्न ना ५-४-३-२-मळीने पंदर विकल्प थाय छे.) १ एक शकेराप्रभामा एक वालुकाप्रभामां अने एक पंकप्रभामा होय.२ अथवा एक शर्कराप्रभामा एक वालुकाप्रभामां अने एक धूमप्रभामां होय. यावत् ४ अथवा एक शर्कराप्रभामां एक वालुकाप्रभामां अने एक अधःसप्तम नरकमां होय. (३ एक शर्कराप्रभामां एक वालुकाप्रभामां अने एक तमःप्रभामा होय. ४ अथवा एक शर्कराप्रभामा एक वालुकाप्रभामां अने एक तमातमःप्रभामां होय. एम शर्कराप्रभा साथे चार विकल्प थाय.) १ अथवा एक शर्कराप्रभामां एक पंकप्रभामां अने एक धूमप्रभामां होय. यावत् ३ अथवा एक शर्कराप्रभामां एक पंकप्रभामा अने एक अधःसप्तम नरकमां होय. (२ एक शर्कराप्रभामां एक पंकप्रभामां अने एक For Private and Personal Use Only Page #209 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir व्याख्या ९ शतके प्राप्ति | उद्देशा५ ॥७७९॥ ॥७७९॥ FARRORSCAMACLASCAMOLX है तमःप्रभामां होय. ३ अथवा एक शर्कराप्रभामां एक पंकप्रभामां अने एक तमःतमःप्रभामां होय. एम वालुकाप्रभाने छोडीने त्रण विकल्प थाय.) १ अथवा एक शर्कराप्रभामा एक धूमप्रभामां अने एक तमःप्रभामा होय. २ अथवा एक शर्कराप्रभामां एक धूम६ प्रभामां अने एक अधःसप्तम नरकमां होय. (एम पंकप्रभाने छोडीने बे विकल्प थाय.) १ अथवा एक शर्कराप्रभामां एक तमःप्रभामां र अने एक अधःसप्तम नरकमां होय. (ए रीते धूमप्रभाने छोडीने एक विकल्प थाय.) ए प्रमाणे शर्करा० ना ४-३-२-१ मळीने | दश विकल्पो थाय . १ अथवा एक वालुकाप्रभामां एक पंकप्रभामां अने एक धूमप्रभामां होय. २ अथवा एक वालुकाप्रभामां 8| एक पंकप्रभामां अने एक तमःप्रभामां होय. ३ अथवा एक वालुकाप्रभामां एक पंकप्रभामां अने एक अधःसप्तम नरकमां होय. (ए रीते वालुका० साथे त्रण विकल्प थया.) १ अथवा एक वालुकाप्रभामां एक धूमप्रभामां अने एक तमामां होय. २ अथवा एक वालुकाप्रभामा एक धूमप्रभामां अने एक अधःसप्तम नरकमां होय. (पंक० छोडीने बे विकल्प.)१ अथवा एक वालुकाप्रभामां एक तमामां अने एक अधःसप्तम नरकमां होय. (ए एक विकल्प मळी वालुका. साथे छ किकल्प थया.) १ अथवा एक पंकप्रभामां एक धूमप्रभामां अने एक तमःप्रभामां होय. २ अथवा एक पंकप्रभामा एक धूमप्रभामां अने एक अधःसप्तम नरकमां होय. ३ अथवा एक पंकप्रभामां एक तमःप्रभामां अने एक अधःसप्तम नरकमां होय. (एम पंक० साथे त्रण विकल्प थया.) १ अथवा एक धूमप्रभामां एक तमःप्रभामा अने एक अधःसप्तम नरकमां होय. ((धूम साथे एक विकल्प थयो. १५-१०-६-- १-ए बधा मळीने त्रिकसंयोगी पांत्रीस विकल्प थया. ए प्रमाणे त्रण नैरयिकोने आश्रयी एक संयोगी , द्विकसंयोगी ४२, अने त्रिकसंयोगी ३५ मळीने कुल ८४ विकल्प थाय छे.) NAGAR For Private and Personal Use Only Page #210 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagersuri Gyanmandir NER ९ शतके उद्देश:५ ॥७८०॥ चत्तारि भंते ! नेरइया नेरइयपवेसणएण पविसमाणा किं रयणप्पभाए होजा? पुच्छा, गंगेया! रयणप्पभाए वा होजा जाव अहेसत्तमाए वा होजा ७, अहवा एगे रयणप्पभाए तिन्नि सकरप्पभाए व्याख्या होजा अहवा एगे रयणप्पभाए तिन्नि बालुयप्पभाए होजा एवं जाव अहवा एगे रयणप्पभाए तिन्नि प्रज्ञप्तिः अहेसत्तमाए होजा ६ अहवा दो रयणप्पभाए दो सकरप्पभाए होजा एवं जाव अहवा एगे रयणप्पभाए ॥७८०॥ | दो अहेसत्तभाए होजा १२, अहवा तिन्नि रयणप्पभाए एगे सक्करप्पभाए होजा, एवं जाव अहवा तिन्नि रयण. बाप्पभाए एगे अहेसत्तमाए होज्जा १८, अहवा एगे सकरप्पभाए तिन्नि वालुयप्पभाए होजा, एवं जहेब रयणप्प भाए उवरिमाहिं समं चारियं तहा सकरप्पभावि उपरिमाहिं समं चारेयव्वं ५, एवं एककाए समं चारियव्वं जाव | अहवा तिन्नि तमाए एगे अहेसत्तमाए होज्जा १२-६-३-(६३) [प्र०] हे भगवन् ! नैरयिकप्रवेशनकवडे प्रवेश करता चार नैरयिको शुं रत्नभामां होय ?-इत्यादि प्रश्न [उ०] हे गांगेय ! ते चारे १ रत्नप्रभामां पण होय, अने यावत् ७ अधःसप्तम पृथिवीमां पण होय. (ए प्रमाणे एकसंयोगी सात विकल्प थया.) १ अथवा एक रत्नप्रभामां अने त्रण शर्कराप्रभामां होय २ अथवा एक रत्नप्रभामां अने त्रण वालुकाप्रभामां होय. ए प्रमाणे यावत् ६ अथवा एक रत्नप्रभामां अने त्रण अधःसप्तम पृथिवीमा होय. (एम ?-३ ना छ विकल्प थया.) १ अथवा बे रत्नप्रभामां अने बे शर्कराप्रभामा होय. ए प्रमाणे यावत् ६ अथवा वे रत्नप्रभामां अने वे अधःसप्तम पृथिवीमा होय. (ए प्रमाणे बीजी रीते २-२ ना | छ विकल्प थया.) १ अथवा त्रण रत्नप्रभामां अने एक शर्कराप्रभामा होय. ए प्रमाणे यायत् ६ अथवा त्रण रत्नप्रभामा अने एक ASACANSAR CASSACACANCAUSACACK For Private and Personal Use Only Page #211 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir प्रामिः ९ शतके | उद्देश ॥७८१॥ A अधःसप्तम पृथिवीमां होय. (ए त्रीजी रीते) ३-१ ना छ विकल्प थया. ए प्रमाणे रत्नप्रभानी साथे अढार विकल्प थाय छे.)१ व्याख्या अथवा एक शर्कराप्रभामां अने त्रण वालुकाप्रभामां होय. ए प्रमाणे जेम रत्नप्रभानो उपरनी नरकपृथिवीओ साथे संचार (योग) कों| | तेम शर्कराप्रभानो पण उपरनी नरकपृथिवीओ साथे संचार करवो. एवी रीते एक एक नरक पृथिवीओ साथे योग करवो. यावत् | ७८१॥ | अथवा त्रण तमामां अने एक अधःसप्तम नरकमां होय. । अहवा एगे रयणप्पभाए एगे सकरप्पभाए दो वालु यप्पभाए होजा अहवा एगे रयणप्पभाए एगे सकर दो |पंक होजा एवं जाव एगे रयणप्पभाए एगे सक्कर दो अहसत्तमाए होजा ५ अहवा एगे रयण दो सकर० एगे वालुयप्पभाए होजा एवं जाव अहवा एगे रयण. दो सक्कर० एगे अहेसत्तमाए होजा १० अहवा दो रयण. एगे सक्कर० एगे वालुयप्पभाए होजा, एवं जाव अहवा दो रयण० एगे सकर० एगे अहेसत्तमाए होजा १५ अहवा पणे | रयण पणे वालुय० दो पंकप्पभार होजा एवं जाव अहवा एगे रयणपभाए एगे वालुय दो अहेसत्तमाए होज्जा ४ एवं एएणं गमएणं जहा तिण्हं तियजोगो तहा भाणियव्वो जाव अहवा दो धूमप्पभाए एगे तमाए एगे अहे. सत्तमाए होजा १०५ | १ अथवा एक रत्नप्रभामां एक शर्कराप्रभामां अने बे वालुकाप्रभामां होय. २ अथवा एक रत्नप्रभा एक शर्कराप्रभामां अने दाने पंकप्रभामा होय. ए प्रमाणे यावत् ५ एक रत्नप्रभामां एक शर्कराप्रभामां अने बे अधःसप्तम नरकपृथिवीमां होय. (ए रीते १ १-२ ना पांच विकल्प थया.) १ अथवा एक रत्नप्रभामां वे शर्कराप्रभामां अने एक वालुकाप्रभामा होय. ए प्रमाणे यावत् ५ एक FREHAUHANKAR SCANCIECACCESS For Private and Personal Use Only Page #212 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir व्याख्याप्रज्ञप्तिः // 782 // ९शतके उद्देश:५ // 782 // REAMSUBSRIS रत्नप्रभामां वे शर्कराप्रभामां अने एक अधःसप्तम नरकपृथिवीमा होय. (एम 1-2-1 ना पांच विकल्प थया.) अथवा बे रत्नप्रभामां एक शर्कप्रभामां अने एक वालुकाप्रभामां होय ए प्रमाणे यावत् 5 बे रत्नप्रभामा एक शर्कराप्रभामां अने एक अधःसप्तम नरकप्पथिवीमा होय. (ए रीते 2-1-1 ना पांच विकल्प थया, अने त्रणे विकल्पना मळीने पंदर विकल्पो थया.) 1 अथवा एक रत्नप्रभाभां एक वालुकाप्रभामां अने बे पंकप्रभामां होय. ए प्रमाणे यावत् 4 एक रत्नप्रभामां एक वालुकाप्रभामां अने बे अधःसप्तम पृथिवीमां होय. ए प्रमाणे ए पाठवडे जेम त्रण नैरयिकनो त्रिकसंयोग कह्यो तेम चार नैरयिकोनो पण त्रिकसंयोग कहेवो. यावत् अथवा 105 बे धूमप्रभामां एक तमःप्रभामां अने एक अधःसप्तम नरकमां होय. ___अहवा एगे रयणप्पभाए एगे सक्करप्पभाए एगे वालुयप्पभाए एगे पंकप्पभाए होज्जा 1 अहवा एगे रयणप्पभाए एगे सक्कर० एगे वालुय० एगे धूमप्पभाए होजा 2 अहवा एगे रयण० एगे सक्कर०एगे वालुय०एगे तमाए होन्जा 3 अहवा एगे रयणप्पभाए एगे सकरप्पभाए एगे वालुयप्पभाए एगे अहेसत्तमाए होज्जा 4 अहवा एगे रयण एगे सक्कर० एगे पंक० एगे धूमप्पभाए 5 अहवा एगे रयण० एगे सकर० एगे पंकप्पभा० एगे तमाए होज्जा 6 अहवा एगे रयण० एगे सक्कर० एगे पंक० एगे अहेसत्तमाए होजा 7 अहवा एगे रयणप्पभाए एगे सक्कर० एगे त धूम० एगे तमाए होजा 8 अहवा एगे रयण० एगे सक्कर० एगे धूम० एगे अहेसत्तमाए होज्जा 9 अहवा एगे रयण. एगे सक्करप्पभाए एगे तमाए एगे अहेसत्तमाए होजा 10 अहवा एगे रयण. एगे वालुय० एगे पंक० एगे धूमप्प| भाए होना 11 अहवा एगे रयण० एगे बालुय० एगे पंक० एगे तमाए होजा 12 अहवा एगे रयण एगे वालुय. FIRSARKACKAGARATIKA For Private and Personal Use Only Page #213 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir *** व्याख्याप्राप्ति // 783 // ** एगे पंक० एगे अहेसत्तमाए होजा 13 अहवा एगे रयण०एगे वालुया०एगे धूम एगे तमाए होजा 14 अहवा एगे रयणप्पभाए एगे वालुय एगे धूम एगे अहेसत्तमाए होजा 15 अहवा एगे रयण.एगे वालुय०एगे तमाए पगे 9 शतके अहेसत्तमाए होजा 16 अहवा एगे रयण. एगे पंक० एगे धूम०एगे तमाए होजा 17 अहवा एगे रयण एगे पंक०81 उद्देश |एगे धूम एगे अहेसत्तमाए होज्जा 18 अहवा एगे रयण एगे पंक० एगे तमाए एगे अहेसत्तमाए होज्जा 19/ // 783 // अहवा एगे रयण एगे धूम० एगे तमाए एगे अहेसत्तमाए होज्जा 20 अहवा एगे सक्कर एगे वालुय० एगे पंकएगे धूमप्पभाए होज्जा 21 एवं जहा रयणप्पभाए उवरिमाओ पुढवीओ चारियाओ तहा सक्करप्पभाएवि उवरि| माओ चारियव्वाओ जाव अहवा एगे सकर० एगे धूम० एगे तमाए एगे अहेसत्तमाए होज्जा 30 अहवा एगे | वालुय. एगे पंक एगे धूम० एगे तमाए होज्जा 31 अहवा एगे वालुय० एगे पंक० एगे धूमप्पभाए एगे अहेसत्तमाए होज्जा 32 अहवा एगे बालुय० एगे पंक० एगे तमाए एगे अहेसत्तमाए होज्जा 33 अहवा एगे वालुय० एगे धूम० एगे तमाए एगे अहेसत्तमाए होज्जा 34 अहवा एगे पंक० एगे धूम० एगे तमाए एगे अहसत्तमाए होज्जा 35 // 1 अथवा एक रत्नप्रभामां एक शर्कराप्रभामा एक वालुकाप्रभामां अने एक पंकप्रभामां होय 2 अथवा एक रत्नप्रभामां एक शर्कराप्रभामां एक वालुकाप्रभामां अने एक धूमप्रभामां होय. 3 अथवा एक रत्नप्रभामां एक शर्कराप्रभामां एक वालुकाप्रभामां अने एक तमःप्रभामां होय. 4 अथवा एक रत्नप्रभामा एक शर्कराप्रभामां एक बालुकाप्रभामां अने एक अधःसप्तम नरकपृथिवीमां होय, * * * * * For Private and Personal Use Only Page #214 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir न्याख्याप्रबप्तिः // 784 // (चार विकल्प थया.) 1 अथवा एक रत्नप्रभामां एक शर्कराप्रभामां एक पंकप्रभामां अने एक धूमप्रभामां होय.२ अथवा एक रत्नप्रभामां एक शर्कराप्रभामा एक पंकप्रभामां अने एक तमःप्रमामां होय. 3 अथवा एक रत्नप्रभामां एक शर्कराप्रभामां एक पंक-18 प्रभामा अने एक अधःसप्तम नरकमां होय. (त्रण विकल्प थया.) 1 अथवा एक रत्नप्रभामां एक शर्कराप्रभामां एक धूमप्रभामां अने 9 शतके एक तमःप्रभामां होय 2 अथवा एक रत्नप्रभामां एक शर्कराप्रभामा एक धूमप्रभामा भने एक अधःसप्तम पृथिवीमा होय. 3 अथवा उद्देशा५ एक रत्नप्रभामां एक शर्कराप्रभामां एक तमःप्रभामां अने एक अधःसप्तम पृथिवीमा होय. (ए त्रण विकल्प थया.) 1 अथवा एक | // 784 // रत्नप्रभामां एक वालुकाप्रभामां एक पंकप्रभामां अने एक धूमप्रभामां होय. 2 अथवा एक रत्नप्रभामा एक बालुकाप्रभामां एक पंकप्रभामां अने एक तमःप्रभामा होय.३ अथवा एक रत्नप्रभामां एक वालुकाप्रभामां एक पंकप्रभामा अने एक अधःसप्तम नरकमां* होय. (त्रण विकल्प थया.) 1 अथवा एक रत्नप्रभामां एक वालुकाप्रभामा एक धूमप्रभमां अने एक तमःप्रभामां होय. 2 अथवा एक रत्नप्रभामां एक वालुकाप्रभामां एक धूमग्रभामां अने एक अधःसप्तम पृथिवीमा होय. (वे विकल्प थया.) 1 अथवा एक रत्नप्रभामां एक बालुकाप्रभामां एक तमःप्रभामां अने एक अधःसप्तम पृथिवीमां होय. (एक विकल्प थयो.) 1 अथवा एक रत्नप्रभामां एक पंकप्रभामां एक धूमप्रभामां अने एक तमःप्रभामा होय. 2 अथवा एक रत्नप्रभामां एक पंकप्रभामां एक धूमप्रभामां अने एक अधःसप्तम पृथिवीमा होय. (वे विकल्प थया.) 1 अथवा एक रत्नप्रभामां एक पंकप्रभामां एक तमःप्रभामां अने एक अधःसप्तम #नरकमां होय. (एक विकल्प थयो.) 1 अथवा एक रत्नप्रभामा एक धूमप्रभामा एक तमःप्रभामां अने एक अधःसप्तम नरकमां होय. (एक विकल्प थयो. ए प्रमाणे बधा मळीने रत्नप्रभाना संयोगवाळा ४-३-३-३-२-१-२-१-१-वीश विकल्प थया.) 1 अथवा For Private and Personal Use Only Page #215 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir * एक शर्कराप्रभामां एक वालुकाप्रभामां एक पंकप्रभामां अने एक धूमप्रभामा होय. ए प्रमाणे जेम रत्नप्रभापृथिवीनो बीजी उपरनी पृथिवीबो साथे संचार (योग) कयों, तेम शर्कराप्रभा पृथिवीनो पण बीजी बधी उपरनी पृथिवीओ साथे योग करवो; यावत् 10 F9 शतके अथवा एक शर्कराप्रभामां एक धूमप्रभामां एक तमामां अने एक अधःसप्तम नरकमां होय. (शर्कराना संयोगवाळा दश विकल्प थया.) प्राप्ति | उद्देशान 1 अथवा एक वालुकाप्रभामां एक पंकप्रभामां एक धूमप्रभामां अने एक तमःप्रभामां होय. 2 अथवा एक वालुकाप्रभामां 785 // | // 785 // एक पंकप्रभामां एक धूमप्रभामा अने एक अधःसप्तम पृथिवीमां होय. 3 अथवा एक वालुकाप्रभामां एक पंकप्रभामां एक तमःप्रभामां अने एक अधःसप्तम पृथिवीमा होय. 4 अथवा एक वालुकाप्रभामा एक धूमप्रभामा एक तमामां अने एक अधःसप्तम नरकमां होय. (ए प्रमाणे वालकाप्रभाना संयोगवाळा चार विकल्प थया.) 1 अथवा एक पंकप्रभामां एक धूमप्रभामां एक तमःभमां अने एक अधःसप्तम नरकमां होय. (ए प्रमाणे 20-10-4-1 मळीने चतुःसंयोगी पांत्रीश विक्ल्प थया. अने सर्व मळीने चर नैरयिकने आश्रयी एकसंयोगी 7, द्विकसंयोगी 63, त्रिकसंयोगी 105 अने चतुःसंयोगी 35 वधा मळीने बसो दस विकल्पो थाय छे.) पंच भंते ! नेरइया नेरइयप्पवेसणएणं पविसमाणा किं रयणप्पभाए होज्जा ? पुच्छा, गंगेया ! रयणप्पभाए 5 वा होज्जा जाव अहेसत्तमाए वा होज्जा अहवा एगे रयण चत्तारि सकरप्पभाए होज्जा जाव अहवा एगे रयण. चित्तारि अहेसत्तमाए होज्जा अहवा दो रयण तिन्नि सक्करप्पभाए होज्जा एवं जाव अहवा दो रयणप्पभाए तिन्नि अहेसत्तमाए होज्जा अहवा तिन्नि रयण दो सकरप्पभाए होज्जा एवं जाव अहेसत्तमाए होज्जा अहवा चत्तारि AARAKAASKARE For Private and Personal Use Only Page #216 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra wwww.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyarmandie रयण एगे सक्करप्पभाए होज्जा एवं जाव अहवा चत्तारि रयण. एगे अहेसत्तमाए होज्जा अहवा एगे सक्कर चत्तारि वालुयप्पभाए होज्जा एवं जहा रयणप्पभाए सम उवरिमपुडधीओ चारियाओ तहा सक्करप्पभाएवि समं व्याख्या ९शतके चारेयव्याओ जाव अहवा चचारि सकरप्पभाए एगे अहेसत्तमाए होज्जा एवं एकेकाए समं चारेयवाओ जाव प्रज्ञप्तिः उद्देशा अहवा चत्तारि तमाए एगे अहेसत्तमाए होज्जा अहवा एगे रयण. एगे सक्कर तिन्नि क्लुयप्पभाए होज्जा // 786 // 1 [प्र०] हे भगवन् ! पांच नैरयिको नैरयिकप्रवेशनवडे प्रवेश करता शुं रत्नप्रभामां होय-इत्यादि प्रश्न. [उ.] हे गांगेय! | // 78 // दू१ रत्नप्रभामां पण होय, अने यावत् 7 अधःसप्तम पृथिवीमां पण होय. (ए प्रमाणे एक संयोगी सात विकल्प थया.) अथवा एक रत्नप्रभामां अने चार शर्कराप्रभामा होय. यावत् 6 अथवा एक रत्नप्रभामा अने चार अधःसप्तम नरकमां होय. (ए प्रमाणे 'एकाद अने चार' विकल्पना रत्नप्रभा साथे बीजी पृथ्वीओनो योग करता छ भांगा थाय.) 1 अथवा बे रत्नप्रभामां अने त्रण शर्कराप्रभामां होय. ए प्रमाणे यावत् 6 अथवा बे रत्नप्रभामां अने त्रण अधःसप्तम पृथिवीमां होय. (ए रीते 'बे ने त्रण' विकल्पना छ भांगा थया.) 1 अथवा प्रण रत्नप्रभामां अने बे शर्कराप्रभामा होय. ए प्रमाणे यावत् 6 त्रण रत्नप्रभामां अने बे अधःसप्तम पृथिवीमां होय. (ए रीते 'त्रण ने बे' विकल्पना छ भांगा थया.) 1 अथवा चार रत्नप्रभामां अने एक शर्कराप्रभामां होय. ए प्रमाणे यावत् 6 अथवा चार रत्नप्रभामां अने एक अधःसप्तम पृथिवीमां पण होय. (एम 'चार ने एक' विकल्पना छ, अने बधा मळीने रत्नप्रभाना संयोगहैवाळा चोवीश विकल्प थया.) 1 अथवा एक शर्कराप्रभामां अने चार वालुकाप्रभामां होय. ए प्रमाणे जेम रत्नपभानी साथे बीजी उपरनी नरक पृथिवीओनो योग कयों, तेम शर्कराप्रभानी साथे उपरनी नरक पृथिवीओनो संयोग करवो. यावद 20 अथवा चार For Private and Personal Use Only Page #217 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir व्याख्याप्राप्ति // 787 // 9 शतके उद्देशा // 787 // शर्कराप्रभामां अने एक अधःसप्तम पृथिवीमा होय. ए प्रमाणे (वालुकाप्रभा वगेरे) एक एक पृथिवीनी साथे योग करवो. यावत् WIअथवा चार तमामां अने एक अधःसप्तम पृथिवीमां होय. अथवा एक रत्नप्रभामां एक शर्कराप्रभामा अने त्रण वालुकाप्रभामा होय. ए प्रमाणे यावत् 5 अथवा एक रत्नप्रभामां एक शर्कराप्रभामां अने त्रण अधःसप्तम पृथिवीमा होय. (ए प्रमाणे 'एक एक ने त्रण' विकल्पने आश्रयी पांच भांगा थया.) एवं जाव अहवा एगे रयण. एगे सकर० तिन्नि अहेसत्तमाए होज्जा अहवा एगे रयण दो सक्कर दो वालुयप्पभाए होज्जा एवं जाव अहवा एगे रयण दो सक्कर दो अहेसत्तमाए होज्जा अहवा दो रयणप्पभाए द्रा एगेसकरप्पभाए दो वालुयप्पभाए होज्जा एवं जाव अहवा दो रयणप्पभाए |एवं पंच गे एगेसकरप्पभा| ए दो अहेसत्तमाए होज्जा अहवा एगे रयण तिन्नि सक्कर० एगे वालुयप्पभाए होज्जा एवं जाव अहवा एगे रयण तिन्नि सक्कर० एगे अहसेत्तमाए होज्जा अहवा 4 / दो रयण दो सक्कर० एगे वालुयप्पभाए होज्जा एवं जाव अहेसत्त-|२३| माए अहवा |तिन्नि रयण. एगे सकर० एगे वालुयप्पभाए होज्जा एवं जाव अहवा एगे सक्कर०एगे अहेसत्तमाए होना अहवाएगे रयण एगे वालुय तिन्नि पंकप्पभाए होजा, एवं पएणं कमेणं जहा चउण्हं तियासंजोगो भणितो तहा पंचण्हवि तियासंजोगो भाणियब्वो, नवरं तत्थ एगो संचारिजइ, +GARCANA र सा भागाः 84 24 रवप्रभा 20 शर्कराप्रभा 16 वालुकाप्रभा 12 पंकप्रभा 14 // 8 धूमप्रभा तिन्नि रयण. For Private and Personal Use Only Page #218 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org व्याख्याप्राप्तिः ||788 // OLESCESS अथवा एक रत्नप्रभामां वे शर्कराप्रभामां अने बे वालुकाप्रभामा होय. ए प्रमाणे यावत् 5 अथवा एक रत्नप्रभामां वे शर्कराप्रभामां अने वे अधःसप्तम नरकमां होय. ('एक बे में ना विकल्पने आश्रयी ए पांच भंग थया.) 1 अथवा वे रत्नप्रभामां एक शर्कराप्रभामां अने चे वालुकाप्रभामां होय. ए प्रमाणे यावद् 5 अथवा चे रत्नप्रभामा एक शर्कराप्रभामां अनेचे अधःसप्तम नरकमां 9 शतके होय. ('बे एक वें विकल्पने आश्रयी ए पांच भंग थया.) 1 अथवा एक रत्नप्रभामां शर्कराप्रभामांत्रण अने एक वालुकाप्रभामां उद्देशन होय. ए प्रमाणे यावत् 5 अथवा एक रत्नप्रभामांत्रण शर्कराप्रभामां अने एक अधःसप्तममा होय. ('एक त्रण एक' ने आश्रयी पांच // 7887 मंग थया.) 1 अथवा वे रत्नप्रभामां बे शर्कराप्रभामा अने एक वालुकाप्रभामां होय. ए प्रमाणे यावत् 5 वे रत्नप्रभामां बेशर्कराप्रभामां अने एक अधःसप्तममां होय. ('बे वे एक ने) आश्रयी पांच भंग थया.)१ अथवा त्रण रत्नप्रभामां एक शकराप्रभामां अने12 एक वालुकाप्रभामां होय. ए प्रमाणे यावत् 5 अथवा त्रण रत्नप्रभामां एक शर्कराप्रभामां अने एक अधःसप्तममा होय. (ए 'त्रण | एक एक'नी अपेक्षाए पांच भंग थया.) (30).1 अथवा एक रत्नप्रभामा एक वालुकाप्रभामां अने त्रण पंकप्रभामां होय. ए प्रमाणे एक्रमथी जेम चार नैरयिकोनो त्रिकसंयोग कह्यो तेम पांच नैरयिकोनो पण त्रिकसंयोग कहेवो, परन्तुत्यां एकनो संचार कराय छ, इह दोन्नि, सेसं तं | त्रिकसंयोगे | चेव जाव अहवा तिन्नि धूमप्पभाए एगेतमाए एगे अहेसत्तमाए होज्जा अहवा एगे रयण०एगे सकर | 90 रख एगे वालुय० दो पंकप्पभाए होजा, एवं जाव अहवा एगे रयण० एगे सकर 6. शरा एगे वालुय. दो अहे-11 वालुकप्रभा सत्तमाए होजा 4 अहवा एगे रयण. एगे सकर दो बालुय. एगे पंकप्प. भाए होजा एवं जाव|१८ पंकप्रभा | अहेसत्तमाए 8, अहवा एगे रयण दो सक्करप्पभाए एगे वालुय. एगे |6 धूमप्रभा पंकप्पभाए होजा एवं | एवं 210 | जाव अहवा एगे रयण दो सक्कर० एगे अहेसत्तमाए होजा 12 अहवा दो PRECASTCAREKANAKACEBCA For Private and Personal Use Only Page #219 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir व्याख्या-1 प्राप्ति // 789 // 9 शतके उद्देशा मा॥७८९॥ SAKHARATALARY रयण० एगे सकर० एगे वालुय. एगे पंकप्पभाए होजा एवं जाव अहवा दो रयण० एगे सकर० एगे वालुय० एगे अहेसत्तमाए होज्जा 16 अहवा एगे रयण० एगे सक्कर० एगे पंक० दो धूमप्पभाए होजा एवं जहा चउण्हं चउकसंजोगो भणिओ तहा पंचण्हवि चउक्कसंजोगो भाणियचो, नवरं अब्भहियं एगो संचारेयव्यो, एवं जाव अहवा दो पंक० एगे धूम. एगे तमाए एगे अहेसत्तमाए होजा॥ अहीं बेनो संचार करवो. बाकी सर्व पूर्वोक्त जाणवू यावत अथवा त्रण धूमप्रभामा एक तमामां अने एक अधःसप्तम नरकमा होय. (210). अथवा एक रत्नप्रभामां एक शकेराप्रभामा एक वालुकाप्रभामां अने बे पंकप्रभामा होय. ए प्रमाणे यावत् 4 अथवा एक रत्नप्रभामां एक शकराप्रभामां एक वालुकाप्रभामां अने बे अधःसप्तम पृथिवीमां होय. (ए चार विकल्प थया.)१ अथवा एक रत्नप्रभामां एक शर्कराप्रभामां वे वालुकाप्रभामां अने एक पंकप्रभामा होय. ए प्रमाणे यावत् 4 एक रत्नप्रभामां एक शर्कराप्रभामां बे वालुकाप्रभामां अने एक अधःसप्तम नरकपृथिवीमां होय. ( भंग.)१ अथवा एक रत्नप्रभामां बे शर्कराप्रभामा एक वालुकाप्रभामां अने एक पंकप्रभामा होय. ए प्रमाणे यावत् 4 अथवा एक रत्नप्रभामां बेशर्कराप्रभामां एक वालुकाप्रभामां अने एक अधःसप्तम नरकपृथिवीमा होय. (4 भंग.) ? अथवा बे रत्नप्रभामां एक शर्कराप्रभामा एक वालुकाप्रभामां अने एक पंकप्रभामां होय. ए प्रमाणे यावत् 4 अथवा बे रत्नप्रभामां एक शर्कराप्रभामा एक बालुकाप्रभामां अने एक अधःसप्तम नरकपृथिवीमां होय. (4 भंग) 1 अथवा | एक रत्नप्रभामा एक शर्कराप्रभामा एक पंकप्रभामां अने बे धूमप्रभामा होय. ए प्रमाणे जेम चार नैरयिकोनो चतुःसंयोग कह्यो, तेम पांच नैरयिकोनो पण चतुःसंयोग कहेवो. परन्तु अहीं एकनो अधिक संचार (योग) करवो. ए प्रमाणे यावत् अथवा बे पंकप्रभामां एक For Private and Personal Use Only Page #220 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyarmandir ॐ * धूमप्रभामां एक तमामां अने एक अधःसप्तम नरकपृथिवीमां होय, ___ अहवा एगे रयण• एगे सक्कर०एगे वालुय०एगे पंक० एगे धूमप्पभाए होज्जा अहवा एगे रयण० एगेसकर व्याख्या|एगे वालुय०एगे पंक०एगेतमाए होज्जा 2 अहवा एगे रयण जाव एगे पंक०एगे अहेसत्तमाए होजा 3 अहवा एगे ||9 शतके प्रज्ञप्तिः कारयण०एग सक्कर०एगेवालयप्पभाए एगे धूमप्पभाए एगेतमाए होजा४अहवा एगे रयण०एगे सकर०एगेवालय०एगेश उर्दशा // 79 // 18 धूमाए एगे अहेसत्तमाए होजा५ अहवा एगे ग्यणएगे सकर०एगे वालुय०एगे तमाए एगे अहेसत्तमाए होजा 6 // 79 // अहवा एगे रयण एगे सकर०एगे पंक० एगे धूमागे तमाए होज्जा 7 अहवा एगे रयणएगे सक्कर एगे पंक०एगे धूम० एगे अहेसत्तमाए होज्जा 8 अहवा एगे रयण० एगे सक्कर० एगे पंक० एगे तम० एगे अहेसत्तमाए होजा 9 अहवा एगे रयण एगे सक्कर० एगे धूम० एगे तम० एगे अहेसत्तमाए होजा 10 अहवा एगे रयण एगे वालुय० एगे पंक० एगे धूम एगे तमाए होजा 11 अहवा एगे रयण एगे वालुय० एगे पंक० एगे धूम० एगे अहेसत्तमाए होज्जा 12 अहवा एगे रयण• एगे वालुय० एगे पंक० पगे धूम पगे अहेसत्तमाए होजा 13 अहवा एगे रयण एगे वालुय०एगे धूम० एगे तम० एगे अहेसत्तमाए होजा 14 अहवा एगे रयण० एगे पंक० जाव एगे अहेसत्तमाए होजा 15 अहवा एगे सक्कर० एगे वालुय. जाव एगे तमाए होज्जा 16 अहवा एगे सक्कर जाव एगे पंक. एगे धूम० एगे अहेसत्तमाए होज्जा 17 अहवा एगे सकर जाव एगे पंक० एगे तमाए एगे अहेसत्तमाए होज्जा 18 अहवा एगे सकर एगे वालय० एगे धूम० एगे तमाए एगे अहेसत्तमाए होज्जा 19 अहवा एगे सकर० एगे पंक. जाव * * * For Private and Personal Use Only Page #221 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir . व्याख्यान प्रज्ञाप्तिः उद्देश // 79 // MONTRACT एगे अहेसत्तमाए होजा 20 अहवा एगे वालय जाव एगे अहे सत्तमाए होजा 21 // अथवा 1 एक रत्नप्रभामां एक शर्कराप्रभामां एक बालुकाप्रभामा एक पंकप्रभामां अने एक धूमप्रभामा होय. 2 अथवा एक 9 शतके रनप्रभामां एक शकराप्रभामां एक वालुकामभाभां एक पंकप्रभामां अने एक तमःप्रभामां होय, 3 अथवा एक रत्नप्रभामां यावत् एका पंकप्रभामां अने एक अधःसप्तम पृथिवीमां होय, 4 अथवा एक रत्नप्रभामा एक शर्कराप्रभामा एक बालुकाप्रभामां एक धूमप्रभामां अने एक तमःप्रभामां होय. 5 अथवा एक रत्नप्रभामां एक शर्कराप्रभामां एक वालुकाप्रभामां एक धूमप्रभामां अने एक अधःसप्तम भा॥७९॥ नरकमां होय. 6 अथवा एक रत्नप्रभामां एक शर्कराप्रभामां एक वालुकाप्रभामां एक तमःप्रभामां अने एक अधःसप्तम नरकमां होय. 7 अथवा एक रत्नप्रभामां एक शर्कराप्रभामां एक पंकप्रभामां एक धूमप्रभामां अने एक तमःप्रभामां होय. 8 अथवा एक रत्नप्रभामां एक शर्कराप्रभामां एक पंकप्रभामां एक धूमप्रभामां अने एक अधःसप्तम नरकमां होय. 9 अथवा एक रत्नप्रभामा एक शर्कराप्रभामां एक पंकप्रभामां एक तमःप्रभामां अने एक तमातम प्रभामा होय. 10 अथवा एक रत्नप्रभामां एक शर्कराप्रभामां एक धूमप्रभामां | एक तमःप्रभामां अने एक अधःसप्तम नरकमां होय. 11 अथवा एक रत्नप्रभामां एक वालुकाप्रभामां एक पंकप्रभामा एक धूमप्रभामां अने एक तमामां होय.१२ अथवा एक रत्नप्रभामा एक वालुकाप्रभामां एक पंकप्रभामां एक धूमप्रभामां अने एक अधःसप्तम नर-1* कमां होघ. 13 अथवा एक रत्नप्रभामा एक वालुकाप्रभामा एक पंकप्रभामां एक तमःप्रभामां अने एक अधःसप्तममां होय.१४ अथवा एक रत्नप्रभामा एक वालुकाप्रभामां एक धूमप्रभामां एक तमःप्रभामां अने एक अधःसप्तममा होय.१५ अथवा एक रत्नप्रभामां एक पंकप्रभामां यावत् एक अधःसप्तममा होय. 16 अथवा एक शर्कराप्रभामा एक वालुकाप्रभामां यावत् एक तमामा होय. For Private and Personal Use Only Page #222 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyarmandir 17 अथवा एक शर्कराप्रभामा यावत् एक पंकप्रभामा एक धूमप्रभामां अने एक अधःसप्तममा होय. 18 अथवा एक शर्कराप्रभामा यावद् एक पंकप्रभामां एक तमामां अने एक अधःसप्तममा होय. 19 अथवा एक शर्कराप्रभामा एक वालुकाप्रभामां एक धूमप्रभामां व्याख्याएक तमामां अने एक अधःसप्तममां होय. 2. अथवा एक शर्कराप्रभामां एक पंकप्रभामां यावत् एक अधःसप्तममा होय. 21 अथवा है ९सके प्रज्ञप्तिः एक वालुकाप्रभामां यावत् एक अधःसप्तममा होय. उद्देशान // 792 // छन्भंते ! नेरइया नेरयप्पवेसणएणं पविसमाणा किं रयणप्पभाए होजा? पुच्छा, गंगेया! रयणप्पभाए वा | // 792 // होजा जाव अहेसत्तमाए वा होजा 7 अहवा एगे रयण. पंच सक्करप्पभाए वा होजा अहवा एगे रयण पंच वालुयप्पभाए वा होजा जाव अहवा एगे रयण पंच अहेसत्तमाए होज्जा अहवा दो रयण चत्तारि सकरप्प|भाए होजा जाव अहवा दो रयण चत्तारि अहेसत्तमाए होजा अहवा तिन्नि रयण तिन्नि सक्कर० एवं एएणं | कमेणं जहा पंचण्हं दुयासंजोगो तहा छण्हवि भाणियव्चो नवरं एको अभहिओ संचारेयब्वो जाव अहवा पंच तमाए एगे अहेसत्तमाए होजा, अहवा एगे रयण०एगे सकर चत्तारि वालुयप्पभाए होजा अहवा एगे रयण. एगे सकर० चत्तारि पंकप्पभाए होजा एवं जाव अहवा एगे रयण एगे सकर. चत्तारि अहेसत्तमाए होजा अहवा लाएगे रयण दो सक्कर तिन्नि बालुयप्पभाए होजा, एवं एएणं कमेणं जहा पंचण्हं तियासंजोगो भणिओ तहा छण्हवि भाणियब्बो नवरं एको अहिओ उच्चारेयम्बो, सेसं तं चेव 34, चउकसंजोगोवि तहेव, पंचगसंजोगोवि 4 तहेव, नवरं एक्को अन्भहिओ संचारेयब्बो जाव पच्छिमो भंगो अहवा दो वालुय. एगे पंक०एगे धूम.एगे तमाम AACHAR For Private and Personal Use Only Page #223 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir व्याख्या प्राप्ति 9 शतके उद्देश // 793 // I793 // AAAAAAAAL एगे अहेसत्तमाए होजा अहवा एगे रयण एगे सकर. जाव एगे तमाए होजा 1 अहवा एगे रयण जाव एगे धूम. एगे अहेसत्तमाए होजा 2 अहवा एगे रयण जाव एगे पंक० एगे तमाए एगे अहेसत्तमाए | सर्वमीलने 924 भङ्गाः / एक०७ विकसंयोगा: 10 होज्जा 3 अहवा एगे रयण जाव एगे वालुय० एगे धूम. जाव एगेअहेसत्तमाए होजा 4] त्रिकसंयोगाः 305 अहवा एगे रयण० एगे सकर० एगे पंक० जाव एगे अहेसत्तमाए होजा 5 अहवा एगे रय- चतुष्कसंयोगाः 350 पंचकसंयोगाः 105 ण. एगे वालय जाब एगे अहेसत्तमाए होजा 6 अहवा एगे सकरप्पभाए एगे वालय | पटकसयोगाः प्पभाए जाव एगे अहेसत्तमाए होजा 7 // [प्र०] हे भगवन् ! छ नैरयिको नैरयिकप्रवेशनकवडे प्रवेश करता शुं रत्नप्रभामां होय ?-इत्यादि प्रश्न. [उ०] हे गांगेय ! तेओ 1 रत्नप्रभामां पण होय. 7 यावत् अधःसप्तम पृथिवीमां पण होय. (एक संयोगी सात विकल्प थया.)१ अथवा एक रत्नप्रभामां अने पांच शर्कराप्रभामां होय. 2 अथवा एक रत्नप्रभामां अने पांच वालुकाप्रभामां पण होय. यावत् 6 अथवा एक रत्नप्रभामां | अने पांच अधःसप्तम पृथिवीमां होय. 1 अथवा बे रत्नप्रभामां अने चार शर्कराप्रभामां होय. यावद् 6 अथवा बे रत्नप्रभामां अने चार अधःमप्तम पृथिवीमा होय. 1 अथवा त्रण रत्नप्रभामां अने त्रण शर्कराप्रभामा होय. ए प्रमाणे ए क्रमवडे जेम पांच नरयिकोनो द्विकसंयोग कह्यो तेम छ नैरयिकोनो पण कहेवो. परन्तु अहीं एक अधिक गणवो . यावत् 105 अथवा पांच तमामां अने एक अधःसप्तम नरकमां होय. 1 एक रत्नप्रभामां एक शर्कराप्रभामां अने चार वालुकाप्रभामां होय. 2 अथवा एक रत्नप्रभामां एक शर्कराप्रभामां अने चार पंकप्रभामा होय. ए प्रमाणे यावत् 5 अथवा एक रत्नप्रभामां एक शर्कराप्रभामां अने चार अधःसप्तम पृथिवीमां HALCCCCCCCC For Private and Personal Use Only Page #224 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir 9 शतके व्याख्याप्रवाप्तिः // 794 // उद्देशा // 794 // CAMERICANADALA होय. 1 अथवा एक रत्नप्रभामां वे शर्कराप्रभामां अने त्रण वालुकाप्रभामां होय. ए प्रमाणे ए क्रमथी जेम पांच नैरयिकोनो त्रिकसंयोग कयो तेम छ नैरयिकोनो पण त्रिकसंयोग कहेवो. परन्तु विशेष ए के के तेमा एक नैरयिक अधिक कहेवो, अने बाकी बधुं पूर्ववत् जाणवू. ते प्रमाणे छ नारकोनो चतुःसंयोग अने पंचसंयोग पण जाणवो. परन्तु तेमां एक नैरयिक अधिक गणवो. यावत केल्लो भंगअथवा बे वालुकाप्रभामां एक पंकप्रभामां एक धूमप्रभामा एक तमःप्रभामां अने एक तमातमःप्रभामा होय. 1 अथवा एक रत्नप्रभामां एक शकराप्रभामां यावत् एक तमामां होय, 2 अथवा एक रत्नप्रभामां यावत् एक धूमप्रभामां अने एक अधःसप्तम नरकमां होय. 3 अथवा एक रत्नप्रभामां यावत् एक पंकप्रभामां एक तमामां अने एक अधःसप्तममां होय. 4 अथवा एक रत्नप्रभामां यावत् एक | वालुकाप्रभामां एक धूमप्रभामां यावत एक अधःसप्तम नरकमां होय. 5 अथवा एक रत्नप्रभामा एक शर्कराप्रभामां एक पंकप्रभामा | यावत् एक अधःसप्तम नरकमां होय, 6 अथवा एक रत्नप्रभामां एक वालुकाप्रभामां यावत एक अधःसप्तम नरकमां होय, 7 अथवा एक शकराप्रभामा एक बालकाप्रभामां यावत् एक अधःसप्तम नरकमा होय. हासप्तप्रवेशे संयोगाः / सत्त भंते ! नेरइया नेरइयपवेसणएणं पविसमाणा पुच्छा, गंगेया ! रयणप्पभाए वा होज्जा एक. 7 भङ्गाः जाव अहेसत्तमाए वा होजा 7, अहवाएगेरयणप्पभाए छ सक्करप्पभाए होजा एवं एएणं कमेणं द्विकसयोगाः 126 | जहा छण्हं दुयासंजोगो तहा सत्तण्हवि भाणियव्वं नवरं एगो अभहिओ संचारिजइ, सेसंतं चेव, तियासंजोगो चउक्कसंजोगो पंचसंजोगो छक्कसंजोगो य छण्हं जहा तहा सत्तण्हवि भापंचकसंयोगाः 315 पटकसंयोगाः 42 |णियव्वं, नवरं एकेको अन्भहिओसंचारेयव्योजाव छक्कगसंजोगो अहवा दो सक्कर०एगे वालुय० सप्तकसंयोगः१ 'जाव एगे अहेसत्तमाए होजा अहवा एगे रयण• एगे सक्कर० जाव एगे अहेसत्तमाए होजा // For Private and Personal Use Only Page #225 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.arg Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir F 9 शतके व्याख्याप्राप्ति // 79 // 795 // ACRORISTMAITRCRACAD [प्र०] हे भगवन् ! सात नैरयिको नैरयिकप्रवेशनकवडे प्रवेश करता (शुं रत्नप्रभामां होय ?) इत्यादि संबन्धे प्रश्न. [उ.] हे गांगेय ! (ते साते नैरयिको) रत्नप्रभामां पण होय अने यावद् अधःसप्तम नरकपृथिवीमां पण होय. (एक संयोगी सात विकल्प थया.) अथवा एक रत्नप्रभामां अने छ शर्कराप्रभामां होय, ए प्रमाणे ए क्रमथी जेम छ नैरयिकोनो द्विकसंयोग कह्यो तेम सात नैरयिकोनो पण जाणवो. पण विशेष ए छे के एक नरयिकनो अधिक संचार करवो, बाकी बधुं पूर्व प्रमाणे जाणवू. जेम छ नैरयिकोनो त्रिकसंयोग, |चतुःसंयोग, पंचसंयोग अने पसंयोग कह्यो तेम सात नैरयिकोनो पण जाणवो; परन्तु विशेष एछे के एक एक नैरयिकनो अधिक संचार | करवो, यावत् षट्कसयोग-'अथवा बे शर्कराप्रभामा एक वालुकाप्रभामां यावत् एक अधःसप्तम नरकमां होय' त्यांसुधी जाणवू (सप्त| संयोगी एक विकल्प-) अथवा एक रत्नप्रभामां एक शर्कराप्रभामां यावत् एक अधःसप्तम नरकमां होय. 'अट्ठ भंते! नेरतिया |अष्टानां जीवाना नेरहयपवेसणएणं पविसमाणा पुच्छा, गंगेया! रयणप्पभाए वा होजा 1 जाव अहेमत्तमाए वा होज्जामा 3.02 अहवा एगे रयण. सत्त सक्करप्पभाए होजा एवं दुयासंजोगो जाव छक्कसंजोगो य जहा सत्तण्हं द्विक० 147 | भणिओ तहा अट्टण्हवि भाणियब्बो नवरं एकेको अन्भहिओ संचारेयवो सेसं तं चेव जाव छ-चतु. 1225 | कसंजोगस्स अहवा तिन्नि सक्कर० एगे वालुय० जाव एगे अहेमत्तमाए होजा अहवा एगे रयण. | जाव एगे तमाए दो अहेसत्तमाए होजा अहवा एगे रयण जाव दो | तमाए एगे अहेसत्तमाए सप्त होजा एवं संचारेयव्वं जाव अहवा दो रयण. एगे सक्कर जाव एगे अहेसत्तमाए होजा॥ निक.७३५ / . . . . ॐ4545 For Private and Personal Use Only Page #226 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsari Gyarmandir उद्देश // 79 // [प्र०] हे भगवन् ! आठ नैरयिको नैरयिकप्रवेशनकवडे प्रवेश करता शुं रत्नप्रभामां होय ?-इत्यादि प्रश्न. [उ०] हे गांगेय ! 41 रत्नप्रभामां पण होय; यावद् 7 अधःसप्तम पृथिवीमां पण होय. अथवा 1 'एक रत्नप्रभामां अने सात शर्कराप्रभामां होय.' व्याख्या + ए प्रमाणे जेम सात नैरयिकोनो द्विकसंयोग, त्रिकसंयोग, चतुष्कसंयोग, पंचसंयोग अने षद्कसंयोग कह्यो तेम आठ नैरयिकोनो पण प्रज्ञप्तिः कहेवो. परन्तु विशेष ए के एक एक नैरयिकनो अधिक संचार करवो. बाकी वर्षा छ सयोग सुधी पूर्व प्रमाणे जाणवू. (छेल्लो विकल्प-) // 796 // | अथवा त्रण शर्कराप्रभामा एक बालुकाप्रभामां यावत् एक अधःसप्तम नरकमां होय. 1 अथवा एक रत्नप्रभामां यावत् एक तमामां अने बे अधःसप्तम पृथिवीमां होय. 2 अथवा एक रत्नप्रभामां यावत् वे तमामां अने एक अधःसप्तम पृथिवीमा होय. ए प्रमाणे सर्वत्र संचार करवो. यावत् 7 अथवा वे रत्नप्रभामां एक शर्कराप्रभामां यावद् एक अधःसप्तम पृथिवीमां होय. (ए प्रमाणे 7, 147, 730, 1225, 735, 147 अने 7. ए बधा मळीने आठ जीवने आश्रयी 3003 विकल्पो थाय छे.) असंयोगाः . नव भंते ! नेरतिया नेरतियपवेसणएणं पविसमाणा किं पुच्छा, गंगेया! रयणप्पभाए वा होजा विकस० 164 त्रिकसं 980 || जाव अहेसत्तमाए वा होजा अहवा एगे रयण अट्ट सक्करप्पभाए होजा एवं दुयासंजोगो जाव सः चतुष्कसं० 1960 त्तगसंजोगे य जहा अट्ठण्हं भणिय तहा नवण्हपि भाणियव्वं नवरं एक्कको अभहिओ संचारेयव्वो पंचकर सेसं तं चेव पच्छिमो आलावगो अहवा तिन्नि रयण० एगे सक्कर० एगे वालुय जाब एगे अहेसत्त- सप्तकसं० 28 माए वा होजा॥ SCANARRASSAGARAA 5%25ARSA षटकर्स०३९२ 5005 For Private and Personal Use Only Page #227 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir व्याख्या प्रशासि |9 शतके उद्देश मा॥७९॥ // 797 // [प्र०] हे भगवन् ! नव नैरयिको नैरयिकप्रवेशनकवडे प्रवेश करता शुंरत्नप्रभामा होय-इत्यादि प्रश्न. [उ.] हे गांगेय ते नव नैरयिको 1 रत्नप्रभामा होय, अने ए प्रमाणे यावद् 7 अधःसप्तम पृथिवीमां पण होय. अथवा 'एक रत्नप्रभामां अने आठ शर्कराप्रभामां पण होय' इत्यादि आठ नैरयिकोनो जेम द्विकसंयोग त्रिकसंयोग, चतुष्कसंयोग, पंचकसंयोग, पद्कसंयोग,) यावत् सप्तकसंयोग कह्यो तेम नव नैरयिकोनो पण कहेवो. परन्तु विशेष ए छे के एक एक नैरयिकनो अधिक संचार करवो. बाकी बधुं पूर्व प्रमाणे जाणवू. तेनो छेल्लो भांगो-अथवा त्रण रत्नप्रभामां एक शर्कराप्रभामां एक वालुकाप्रभामां यावत् एक अधःसप्तम नरकमां होय. दस भंते ! नेरइया नेरइयपवेसणएणं पविसमाणा पुच्छा, गंगेया! रयणप्पभाए होजा जाव अहेसत्तमाए वा होज्जा 7 अहवा एगे रयणप्पभाए नव सकरप्पभाए होजा एवं दुयासंजोगो जाव सत्तसंजोगो य जहा नवण्हं नवरं एकेको अभहिओ संचारेयव्वो सेसं तं चेव अपच्छिमआलावगो अहवा चत्तारि रयण. एगे सकरप्पभाए जाव एगे अहेसत्तमाए होज्जा // [प्र०] हे भगवन् ! दश नैरयिकोनैरयिकप्रवेशनकवडे प्रवेश करता शुं 1 रत्नप्रभामां होय के यावद् 7 अधःसप्तम पृथिवीमां होय ? [उ०Jहे गांगेय ! ते दश नैरयिको 1 रत्नप्रभामां पण होय, अने ए प्रमाणे यावत् 7 अधःसप्तम पृथिवीमां पण होय. अथवा एक रत्नप्रभामां अने नव शर्कराप्रभामां होय-इत्यादि द्विकसंयोग (तथा त्रिकसंयोग, चतुष्कसंयोग पंचकसंयोग, षट्कसंयोग) यावत् सप्तकसंयोग जेम नव नारकनो कह्यो तेम दस नैरयिकोनो पण जाणवो. परन्तु विशेष ए छे के एक एक नैरयिकनो अधिक संचार करवो. बाकी बधुं पूर्व प्रमाणे जाणवू. तेनो छेल्लो भंग-अथवा चार रत्नप्रभामा एक शर्कराप्रभामां-यावत् एक अधःसप्तमनरकमां होय. For Private and Personal Use Only Page #228 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ९क्स व्याख्याप्राप्तिः // 798 // उद्देश // 798 // संखेज्जा भंते! नेरइया नेरदयप्पवेसणएणं पविसमाणा पुच्छा, गंगेया रयणप्पभए वा होजा जाव अहेसत्तमाए | वा होज्जा 7 अहवा एगे रयण संखेजा सक्करप्पभाए होजा एवं जाव अहवा एगे रयण संखेजा अहंसत्तमाए होजा अहवा दो रयण. मज्जा सकरप्पभाए वा होजा एवं जाव अहवा दो रयण संखेजा अहेसत्तमाए होजा अहवा तिन्नि रयण संखेजा सकरप्पभाए होजा एवं एएणं कमेणं एकेको संचारेयब्बो जाव आहवा दस रयण संखेजा सक्करप्पभाए होज्जा एवं जाव अहवा दस रयण संखेजा अहेसत्तमाए होजा अहवा संखेज्जा रयण संखेजा सक|रप्पभाए होजा जाव अहवा संखेजा रयणप्पभाए संखेजा अहेसत्तमाए होजा अहवा एगे सकर० संखेजा वालुयप्पभाए होजा एवं जहा रयणप्पभाए उवरिमपुढवीएहिं समं संचारिया एवं सकरप्पभाएवि उवरिमपुढवीएहिं समं चारेयब्वा, एवं एकेका पुढवी उवरिमपुढवीएहिं समं चारेयब्बा जाब अहवा संखेजा तमाए संखोजा अहेसत्तमाए होजा अहवा एगे रयण पग सकर० संखेजा वालुयप्पभाए होज्जा अहवा एगे रयण० एगे सकर० संखेजा पंकप्पभाए होजा जाव अहवा एगे रयण एगेसकर० संखेज्जा अहेसत्तमाए होजा अहवा एगेरयण. दोसकर संखेजा वालुयप्पभाए होज्जा अहवा एगे रयण दो सक्कर० संखेजा अहेसत्तमाए होजा अहवा एगे रयण तिन्नि सकर संखेजा वालुयप्पभाए होजा, एवं एएणं कमेणं एकेको संचारेयवो अहवा एगेरयण संखेजा सक्कर०संखोजा वालु. यप्पभाए होजा जाव अहवा एगे रयण संखेजा वालुय संखेजा अहेसत्तमाए होज्जा अहवा दोरयण संखेजा सकर |संखेजा वालुयप्पभाए होजा जाव अहवा दोरयण संखेजा सकर० संखेजा अहेसत्तमाए होजा अहवा तिन्नि C+ CHASHASHA For Private and Personal Use Only Page #229 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsari Gyarmandir व्याख्याप्रातिः 1799 // K रयण संखेजा सकर० संखेजा वालुयप्पभाए होजा, एवं एएणं कमेणं एक्कको रयणप्पभाए संचारेंयब्वो जाव अहवा संखेजा रयण संखेजा सकर० सखेजा बालुयप्पभाए होजा जाब अहवा संखेजारयण संखेजा सकर संखेज्जा अहेसत्तमाए होजा अहवा एगे रयण एगे वालुय० संखेजा पंकप्पभाए होजा जाव अहवा एगे रयण. 9 शतके |एगे वालुय० संखेजा अहेसत्तमाए होजा अहवा एगे रयण दो वालुय. संखेजा पंकप्पभाए होजा, एवं एएणं उद्देशा | कमेणं तियासंजोगो चउक्कसंजोगो जाव सत्तगसंजोगो य जहा दसण्हं तहेव भाणियब्बो पच्छिमो आलावगो 4799 6 सत्तसंजोगस्स अहवा संखेजा रयण मखेजा सकर० जाव संग्वेजा अहेसत्तमाए होजा॥ [प्र०] हे भगवन् ! संख्याता नैरयिको नैरयिकप्रवेशनकवडे प्रवेश करता शुं रत्नप्रभामा होय ? इत्यादि प्रश्न. [उ०] हे गांगेय! | संख्याता नैरयिको 1 रत्नप्रभामां पण होय अने यावद् 7 अधःसप्तम पृथिवीमां पण होय. (एक संयोगी सात विकल्प थया.) 1 अथवा एक रत्नप्रभामां होय अने संख्याता शर्कराप्रभामां होय, ए प्रमाणे यावत् 6 एक रत्नप्रभामा होय अने संख्याता अधःसप्तम पृथिवीमा पण होय. (छ विकल्प थया.) 1 अथवा वे रत्नप्रभामां अने संख्याता शर्कराप्रभामा होय. ए प्रमाणे यावत् 6 वे रत्नप्रभामा अने संख्याता अधःसप्तम पृथिवीमां पण होय. (छ विकल्प थया.)१ अथवा त्रण रत्नप्रभामा अने संख्याता शर्कराप्रभामां होय. ए प्रमाणे एकमथी एक एक नैरयिकनो अधिक संचार करवो. यावत् 1 अथवा दस रत्नप्रभामां अने संख्याता शर्कराप्रभामां I होय. ए प्रमाणे यावद् 6 अथवा दस रनप्रभामां अने संख्याता अवासप्तम पृथिवीमां होय. 1 अथवा संख्याता रसप्रभामां अने संख्याता शर्कराप्रभामा होय. ए प्रमाणे गवद् 6 अथवा संख्याता रत्नप्रभामा अने संख्याता अधःसप्तम पृथिवीमा होय. 1 अथवा AR+STERS For Private and Personal Use Only Page #230 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir व्याख्याप्राप्तिः // 8.0 // उद्देशान // 8 // एक शर्कराप्रभामां अने संख्याता वालुकामां होय. ए प्रमाणे जेम रत्नप्रभापृथिवीनो बीजी पृथिवी साथे योग को तेम शर्कराप्रभा पृथिवीनो पण उपरनी बधी पृथिवीओ साथे योग करवो. ए प्रकारे एक एक पृथिवीनो उपरनी पृथिवीओ साथे योग करवो. यावद् अथवा संख्याता तमःप्रभामां अने संख्याता अधःसप्तम नरकमा पण होय. (ए प्रमाणे द्विकसयोगी विकल्पो थया.) 1 अथवा एक रत्नप्रभामां एक शर्कराप्रभामां अने संख्याता वालुकाप्रभामां होय. 2 अथवा एक रत्नप्रभामां एक शर्कराप्रभामां अने संख्याता पंकप्रभामां होय. ए प्रमाणे यावत् अथवा एक रत्नप्रभामां एक शर्कराप्रभामां अने संख्याता अधःसप्तम पृथिवीमा होय. अथवा एक रत्नप्रभामां के शर्कराप्रभामां अने संख्याता वालुकाप्रभामां होय. अथवा एक रत्नप्रभामां बे शर्कराप्रभामां अने संख्याता अधःसप्तमपृथिवीमां होय. अथवा एक रत्नप्रभामांत्रण शर्कराप्रभामां अने संख्याता वालुकामभामां होय. ए प्रमाणे एक्रमथी एक एक नैरयिकनो संचार करवो. अथवा एक रत्नप्रभामां संख्याता शर्कराप्रभामां अने संख्याता वालुकाप्रभामां होय. यावद् अथवा एक रत्नप्रभामा संख्याता वालुकाप्रभामां अने संख्याता अधःसक्षमपृथिवीमां होय. अथवा बे रत्नप्रभामां संख्याता शर्कराप्रभामां अने संख्याता वालुकाप्रभामा होय. यावद् अथवा बे रत्नप्रभामा संख्याता शर्कराप्रभामां अने संख्याता अधःसप्तमपृथिवीमां होय. अथवा त्रण रत्नप्रभामां संख्याता शर्कराप्रभामां अने संख्याता वालुकाप्रभामा होय. ए प्रमाणे ए क्रमथी रत्नप्रभामां एक एकनो संचार करवो. यावत् अथवा संख्याता रत्नप्रभामां संख्याता शर्कराप्रभामां अने संख्याता वालुकाप्रभामां होय. यावद् अथवा संख्याता रत्नप्रभामां संख्याता शर्कराप्रभामां अने संख्याता अधःसप्तमपृथिवीमां होय, अथवा एक रत्नप्रभामां एक वालुकाप्रभामां अने संख्याता पंकप्रभामां होय, यावद् अथवा एक रत्नप्रभामां एक वालुकाप्रभामां अने संख्याता अधःसप्तमपृथिवीमां होय. अथवा एक रत्नप्रभामां वे वालुकाप्रभामां For Private and Personal Use Only Page #231 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir व्याख्या प्राप्तिः 9 शतके उद्देशा // 801 // // 8.1 // BACANOSITORS अने संख्याता पंकप्रभामा होय. ए प्रमाणे ए क्रमथी त्रिकसंयोग, चतुष्कसंयोग, यावत सप्तकसंयोग जेम दस नैरयिकोनो कह्यो तेम कहेवो. तेनो छेल्लो आलापक-अथवा संख्याता रत्नप्रभामां संख्याता शर्कराप्रभामां अने यावत् संख्याता अधःसप्तमपृथिवीमा होय. ___असंखेजा भंते ! नेरइया नेरहयपवेसणएणं पुच्छा, गंगेया! रयणप्पभाए वा होजा जाव अहेसत्तमाए होजा, | अहवा एगे रयण असंखेजा सकरप्पभाए होज्जा, एवं दुयासंजोगो जाव सत्तगसंजोगो य जहा संखिजाणं भणिओ तहा असंखजाणवि भाणियब्वो, नवरं असंखजाओ अभहिओ भाणियब्बो, सेसं तं चेव जाव सतगसंजोगस्स पच्छिमो आलावगो अहवा असंखजा रयण असंखेजा सक्कर० जाव असंखज्जा अहेसत्तमाए होजा [प्र०] हे भगवन् ! असंख्यात नैरयिको नैरयिकप्रवेशनकवडे प्रवेश करता शुं रत्नप्रभामां होय ?-इत्यादि प्रश्न. [उ०] हे गांगेय ! 1 रत्नप्रभामां पण होय अने यावत् 7 अधःसप्तम पृथिवीमां पण होय. 1 अथवा एक रत्नप्रभामां अने असंख्याता शर्करा प्रभामा होय. ए प्रमाणे जेम संख्याता नैरयिकोनो द्विकसंयोग, यावत् सप्तकसंयोग कह्यो तेम असंख्यातानो पण कहेवो. पण विशेष ए के अहिं 'असंख्याता' पद कहे. बाकी बधुं तेज प्रमाणे जाणवं, यावत् छेल्लो आलापक-अथवा असंख्याता रत्नप्रभामां असंख्याता रत्नप्रभामां असंख्याता शकेराप्रभामां यावद् असंख्याता अधःसप्तमपृथिवीमां पण होय. उकोसेणं भंते! नेरइया नेरतियपवेसणएणं पुच्छा, गंगेया ! सव्वेवि ताव रयणप्पभाए होजा अहवा रयणप्पभाए य सकरप्पभाए य होज्जा अहवा रयणप्पभाए य वालुयप्पभाए य होज्जा जाव अहवा रयणप्पभाए य अहेसत्तमाए होज्जा अहवा रयणप्पभाए य सकरप्पभाए य वालुयप्पभाए य होज्जा एवं जाव अहवा 5496555555 For Private and Personal Use Only Page #232 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir व्याख्या प्रज्ञप्तिः 9 शतके उद्देशा // 8.2 // // 802 // रयण सक्करप्पभाए य अहेसत्तमाए य होज्जा 5 अहवा रयण वालुय० पंकप्पभाए य होज्जा जाव अहवा रयण. वालुय० अहेसत्तमाए होज्जा 4 अहवा रयण पंकप्पभाए धूमाए होज्जा एवं रयणप्पभं अमुयंतेसु जहा तिण्हं तियासंजोगो भणिओ तहा भाणियव्वं जाव अहवा रयण समाए य अहेसत्तमाए य होज्जा 15 अहवा रयणप्पभाए सकरप्पभाए वालुय. पंकप्पभाए य होज्जा अहवा रयणप्पभाए सक्करप्पभाए वालुय० धूमप्पभाए य होज्जा जाव अहवा रयणप्पभाए सक्करप्पभाए वालुय य अहेसत्तमाए य होज्जा 4 अहवा रयण सक्कर. पंक. धूमप्पभाए य होज्जा एवं रयणप्पभं अमुयंतेसुजहा चउण्हं चउक्कसंजोगोभणितोतहा भाणियव्वं जाव अहवा रयण धूम तमाए अहेसत्तमाए होज्जा अहवा रयण सक्कर०वालुय०पंक०धूमप्पभाए य होज्जा 1 अहवा रयणप्पभाए जाव पंक. तमाए य होज्जा 2 अहवा रयण. जाव पंक० अहेसत्तमाए य होज्जा अहवा रयण. सक्कर० वालुय. धूम तमाए य होज्जा 4 एवं रयणप्पभं अमुयंतेसु जहा पंचण्हं पश्चकसंजोगो तहा भाणियव्वं जाव अहवा रयण पंकप्पभा० जाव अहेसत्तमाए होज्जा अहवा रयण सक्कर. जाव धूमप्पभाए तमाए य होज्जा 1 अहवा रयण जाव धूम० अहेसत्तमाए य होज्जा 2 अहवा रयण. सकर० जाव पंक० तमाए य अहेसत्तमाए य होज्जा 3 अहवा रयण. सक्कर. वालुय. धूमप्पभाए तमाए अहेसत्तमाए होज्जा 4 अहवा रयण सक्कर० पंक० जाव अहेसत्तमाए य होज्जा 5 अहवारयण वालुयजाव अहेसत्तमाए होज्जा 6 अहवा रयणप्पभाए य सक्कर० जाव अहेसत्तमाए य होज्जा 7 // GACASEACCHAPAGALASACS For Private and Personal Use Only Page #233 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir व्याख्याप्राप्ति // 803 // शतके उद्देशा // 803 // ॐिCACCUMACHARASHTRASx [प्र.] हे भगवन् ! नैरयिकप्रवेशनकवडे प्रवेश करता नैरयिको उत्कृष्टपदे शुं रत्नप्रभामां होय ?-इत्यादि प्रश्न. [उ०] हे गांगेय!१ सर्व नैरयिको उत्कृष्टपदे रत्नप्रभामां होय. (द्विकसयोगी छ विकल्प-)१ अथवा रत्नप्रभामां अने शर्कराभामां होय.२ अथवा रत्नप्रभा अने वालुकाप्रभामां होय. ए प्रमाणे यावद् अथवा 6 रत्नप्रभा अने अधःसप्तमपृथिवीमां पण होय, (त्रिकसंयोगी 15 चिकल्प-)१ अथवा रत्नप्रभा शर्कराप्रभा अने वालुकाप्रभामां होय. ए प्रमाणे यावद् 5 रत्नप्रभा शर्कराप्रभा अने अधःसप्तमपृ|थिवीमां होय. 6 अथवा रत्नप्रभा वालुकाप्रभा अने पंकप्रभामां पण होय. यावद् 10 अथवा रत्नप्रभा वालुकाप्रभा अने अधासप्तमपृथिवीमां होय. 11 अथवा रत्नप्रभा पंकप्रभा अने धूमप्रभामां होय. ए प्रमाणे जेम रत्नप्रभाने मुक्या शिवाय त्रण नैरयिकोनो त्रिकसंयोग कहो तेम अहीं कहे . यावद् 15 अथवा रत्नप्रभा, तमःप्रभा तमातमःप्रभामां पण होय.(चतुःसंयोगी २.विकल्प)१ अथवा रत्नप्रभा शर्कराप्रभा वालुकाप्रभा अने पंकप्रभामां होय. 2 अथवा रत्नप्रभा शर्कराप्रभा वालुकाप्रभा अने धूमप्रभामां होय. यावत् 4 अथवा रत्नप्रभा शर्कराप्रभा वालुकाप्रभा अने अधःसप्तमपृथिवीमां पण होय. 5 अथवा रत्नप्रभा शर्कराप्रथा पंकप्रभा अने धूमप्रभामा होय. ए प्रमाणे रत्नप्रभाने मूक्या शिवाय जेम चार नैरयिकोनो चतुष्कसंयोग कह्यो छे तेम अहीं कहेवो. यावद् 20 अथवा रत्नप्रभा धूमप्रभा तमःप्रभा अने तमःतम प्रभामा होय. (पंचसंयोगी 15 विकल्प) 1 अथवा रत्नप्रभा शर्कराप्रभा वालुकाप्रभा पंकप्रभा अने धूमप्रभामां होय. 2 अथवा रत्नप्रभा यावत् पंकप्रभा अने तमप्रभामां होय. 3 अथवा रत्नप्रभा यावत् पंकप्रभा अने अधःसप्तमपृथिवीमां होय. 4 अथवा रत्नप्रभा शर्कराप्रभा वालुकाप्रभा धूमप्रभा अने तमःप्रभामां होय. ए प्रमाणे रत्नभनाने छोड्या शिवाय जेम पांच नैरयिकोनो पंचसंयोग कह्यो तेम कहेवो. यावद् 15 अथवा रत्नप्रभा पंकप्रभा यावद् अधःसप्तमपृथिवीमां होय. (षट्कसंयोगी छ R-64588445 For Private and Personal Use Only Page #234 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyarmandir C विकल्प-) 1 अथवा रत्नप्रभा शर्कराप्रभा यावत् धूमप्रभा अने तमःप्रभामा होय. 2 अथवा रत्नप्रभा यावद् धूमप्रभा अने अधःसप्तमपृथिवीमां होय. 3 अथवा रत्नप्रभा शर्कराप्रभा यावत् पंकप्रभा तमःप्रभा अने अधःसप्तम पृथिवीमां होय. 4 अथवा रत्नप्रभा शर्कराप्रभा वालुकाप्रभा धूमप्रभा तमःप्रभा अने तमःतमःप्रभामा होय. 5 अथवा रत्नप्रभा शर्कराप्रभा पंकप्रभा यावद् अधःसप्तमपृथिवीमा होय. 6 अथवा रत्नप्रभा वालुकाप्रभा यावद् अधःसप्तमपृथिवीमां होय. (सप्तसंयोगी 1 विकल्प-) अथवा रत्नप्रभा शर्कराप्रभा, | यावत् अवासप्तमपृथिवीमां होय. (ए रीते उत्कृष्ट पदना 1-6-15-20-15-6-1 मळी 64 विकल्पो थाय छे.) व्याख्याप्रज्ञप्तिः 804 // 9 शतके 5 उद्देशान 16080 . . 15 त्रिकयोगे पञ्च दशभका: 24 चतुष्कसंयोगे विंशतिर्भङ्गाः rror-.-.. . . . . . memurry rrrrrrrrrwwwwww ...द्विकयोगे पाः एवं 20 पञ्चकसंयोगे पञ्चदश भनाः एयस्स णं भंते! रयणप्पभापुढविनेरइयपवेसणगस्स सकरप्पभापुढवि० जाव अहेसत्तमापुढविनेरइयपवेसणगस्स य क - यरे 2 जाव विसेसाहिया वा?, गंगेया! सम्वत्थोवे अहेसत्तमापुढविनेरइयपवेसणए तमापुढविनेरइयपवेसणए असंखज्जगुणे एवं पडिलोमगं जाव रयणप्पभापुढविनेरहयपवेसणए असंखज्जगुणे // (सूत्रं 373) // षड्योगे भाका 12 %ES For Private and Personal Use Only Page #235 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir * ** ** [प्र०] हे भगवन् ! रसप्रभापृथिवीनैरयिकप्रवेशनक, शर्कराप्रभापृथिवीनरयिकप्रवेशनक, यावद् अधःसप्तमपृथिवीनैरयिकप्रवेशनव्याख्या IPI कमां कया प्रवेशनको कया प्रवेशनकोथी यावद् विशेषाधिक छे ? [उ०] हे गांगेय! सौथी अल्प अधःसप्तमपृथिवीनरयिकप्रवेशनक प्राप्ति छे, तेना करतां तमापृथिवीनैरयिकप्रवेशनक असंख्येयगुण छे. ए प्रमाणे विपरितक्रमथी यावत् रत्नप्रभापृथिवीनैरयिकप्रवेशनक // 805 // असंख्यातगुण छ. // 373 // तिरिक्खजोणियपवेसणए णं भंते ! कतिविहे पन्नत्ते ?, गंगेया! पंचविहे पन्नत्ते, तंजहा-एगिदियतिरिक्ख Pl05 जोणियपवेसणए जाव पंचेंदियतिरिक्खजोणियपवेसणए / एगे भंते ! तिरिक्वजोणिए तिरिक्खजोणियपवेसणएणं पविसमाणे किं एगिदिएसु होज्जा जाव पंचिंदिएसु होज्जा!, गंगेया! एगिदिएसु वा होज्जा जाव पंचिंदिएसु वा होज्जा / दो भंते ! तिरिक्खजोणिया पुच्छा, योस्तिरश्नोईिक- | गंगेया! एगिदिएसु वा होज्जा जाव पंचिं योगे. भनाः दियएसु वा होज्जा, अहवा एगे एगिदिएसु होज्जा ए गे बेइंदिपसु होज्जा एवं जहा नेरइयपवे. सणए तहा तिरिक्खजोणियपवेसणएवि भाणियब्वे | :3 25 एवं 1434 भङ्गाः जाव असंखेजा। उक्कोसा भंते ! तिरिक्ख| जोणिया पुच्छा, गंगेया! सब्वेवि ताव एगिदिएसु| " | होज्जा अहवा एगिदिएसु वा बेइंदिरसुवा | होज्जा, एवं जहा नेरतिया चारिया तहा तिरिक्वजो- | 23 55 _|णियावि चारेयव्या, एगिदियं अमुश्चंतेमु | दुयासंजोगो तियासंजोगो चउक्कसंजोगो पंचसंजोगो य उवउज्जिऊण भाणियब्वो जाव अहवा एगिदिएसु वा | वेइंदिय जाव पंचिंदिएसु वा होज्जा // एयस्स णं भंते ! एगिदियतिरिक्खजोणियपवेसणगस्स जाव पंचिंदि RRORISASARASHTRA For Private and Personal Use Only Page #236 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्क Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir व्याख्याप्राप्तिः // 806 // उदेश यतिरिक्खजोणियपवेसणयस्स य कयरे 2 जाव विसेसाहिया वा, गंगेवा ! सव्वत्थोवा पंचिंदियतिरिक्खजोणियपवेसणए चउर दियतिरिक्वजोणिय विसेमाहिए तेइंदियः विसेसाहिए बेइंदिय विसेसाहिए एगिदियतिरि-15 स्व विसेसाहिए / / (सूत्रं 374) // है 9 शतके [प्र०] हे भगवन् ! तिर्यचयोनिकप्रवेशनक केटला प्रकारे कह्यु छ ? [उ०] हे गांगेय ! पांच प्रकारे का छे. ते आ प्रमाणे -एकेन्द्रियतिर्यंचयोनिकप्रवेशनक, यावत् पंचेन्द्रियतिर्यंचयोनिकप्रवेशनक. [प्र०] हे भगवन् ! एक तिर्यचयोनिक जीव तिर्यचयोनि 1604 #कप्रवेशनकवडे प्रवेश करतो शुं एकेन्द्रियोमा होय के यावत पंचेन्द्रियोमा होय ? [उ०] हे गांगेय ! 1 एक तिर्यचयोनिक जीव 8| एकेन्द्रियमा होय अने यावत् 5 पंचेन्द्रियमा पण होय. [प्र०) हे भगवन् ! बे तिर्यचयोनिक जीवो संबन्धे प्रश्न. [उ०] हे गांगेय! 1 एकेन्द्रियोमा पण होय अने यावत् 5 पंचेन्द्रियोमां पण होय. अथवा एकएकेन्द्रियमा अने एक बेइन्द्रियमां पण होय. ए प्रमाणे जेम नैरयिकप्रवेशनकमां कयुं तेम तियंचयोनिकप्रवेशनकमां यावत् असंख्येय तिर्यचयोनिको मुधी कहे. [प्र०] हे भगवन् ! तिर्यचयोनिको उत्कृष्टपणे (शुं एकेन्द्रियोमा होय के यावत् पंचेन्द्रियोमा होय. 1) ए प्रश्न. [उ.] हे गांगेय ! ते बधा एकेन्द्रियोमा होय. अथवा एकेन्द्रियो अने बेइन्द्रियोमा पण होय. ए प्रमाणे जेम नैरयिकोनो संचार कर्यो तेम तियंचयोनिकोनो पण संचार करवो. एकेन्द्रियोने मुक्या सिवाय द्विकसंयोग, त्रिकसंयोग, चतुष्कसंयोग अने पंचकसंयोग उपयोगपूर्वक कहेवो. यावत् अथवा एकेन्द्रिः / योमा बेइन्द्रियोमा यावत् पंचेन्द्रियोमां पण होय. [H0] हे भगवन् ! एकेन्द्रियतियंचयोनिकप्रवेशनक, यावत् पंचेन्द्रियतियंचयोनिकप्रवेशनकमां कयुं प्रवेशनक कोनाथी यावद् विशेषाधिक छे ? [उ०] हे गांगेय ! पंवेन्द्रियतिर्यंचयोनिकप्रवेशनक सौथी अल्प छे, 12 HA CASS For Private and Personal Use Only Page #237 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir व्याख्याप्राप्ति // 807 // ANUMEROE+ | तेथी चउरिन्द्रियतियचयोनिकप्रवेशनक विशेषाधिक छे, तेना करतां त्रीन्द्रियतियचयोनिकप्रवेशनक..विशेषाधिक छे, तेना करता है बेइन्द्रियतियंचयोनिकप्रवेशनक विशेषाधिक छे, अने तेना करतां एकेन्द्रियतियंचयोनिकप्रवेशनक विशेषाधिक छे. [प्र०] हे भग-1 ९शसके | वन् ! मनुष्यप्रवेशनक केटला प्रकारे का छे ? [उ०] हे गांगेय ! बे प्रकारे का छे, ते आ प्रमाणे-संमूछिममनुष्यप्रवेशनक अने | उद्देश | गर्भजमनुष्यप्रवेशनक. / ' 374 // मणुस्सपवेसणए णं भंते ! कतिविहे पन्नत्ते ?, गंगेया! दुविहे पन्नत्ते, तंजहा-समुच्छिममणुस्सपवेसणए ग // 807 // भवतियमणुस्सपवेसणए य / एगे भंते! मणुस्से मणुस्सपवेसणएणं पविसमाणे किं समुच्छिममणुस्सेसु होज्जा गम्भवतियमणुस्सेसु होजा?, गंगेया! संमुच्छिममणुस्सेसु वा होजा गब्भवतियमणुस्सेसु वा होज्जा / दो भंते ! मणुस्सा पुच्छा, गंगेया! संमुच्छिममणुस्सेसु वा होज्जा गम्भवतियमणुस्से सु वा होज्जा अहवा एगे संमुच्छिममणुस्सेसु वा होज्जा एगे गन्भवतियमणुस्सेसु वा होज्जा, एवं एएणं कमेणं जहा नेरइयपवेसणए |तहा मणुस्सपवेसणएवि भाणियब्बो जाव दस / संखेज्जा भंते ! मणुस्सा पुच्छा, गंगेया! संमुच्छिममणुस्सेसु वा होज्जा गम्भवक्कंतियमणुस्सेसु वा होज्जा अहवा एगे समुच्छिममणुस्सेसु होज्जा संखज्जा गम्भवतियमगुस्सेसु वा होज्जा अहवा दो संमुच्छिममणुस्सेसु होज्जा संखेज्जा गब्भवक्कंतियमणुस्सेसु होज्जा एवं एक्ककं उस्सारितेसु जाव अहवा संखेजा संमुच्छिममणुस्सेंसु होजा संखजा गम्भवकंतियमणुस्सेसु होजा॥ [प्र०] हे भगवन् ! मनुष्यप्रवेशनकवडे प्रवेश करतो एक मनुष्य शुं संमृच्छिम मनुष्योमां होय के गर्भज मनुष्योमा होय! CARRAM For Private and Personal Use Only Page #238 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir व्याख्याप्राप्तिः 808 // उदेश BI[उ.] हे गांगेय ! ते संमूच्छिम मनुष्योमा पण होय अने गर्भजमनुष्योमा पण होय. [प्र०] हे भगवन् ! वे मनुष्यो मनुष्यप्रवेश-17 नकवडे प्रवेश करता-इत्यादि प्रश्न. [उ.] हे गांगेय ! बे मनुष्यो समूच्छिम मनुष्योमां पण होय अने गर्भज मनुष्योमां पण होय.15 |9 शतके अथवा एक संमूञ्छिम मनुष्यमां होय अने एक गर्भजमनुष्यमा होय. ए प्रमाणे ए क्रमथी जेम नैरयिकप्रवेशनक कडं तेम मनुष्यप्रवेशनक पण यावद् दश मनुष्यो सुधी कहे. [प्र०] हे भगवन् ! संख्याता मनुष्यो मनुष्यप्रवेशनकवडे प्रवेश करता इत्यादि प्रश्न. 18001 [उ०] हे गांगेय! तेओ संमृच्छिम मनुष्यमां पण होय अने गर्भज मनुष्यमां पण होय. अथवा एक संमूछिम मनुष्योमा होय अने | संख्याता गर्भज मनुष्योमा होय. अथवा चे संमूञ्छिम मनुष्योमा होय अने संख्याता गर्मज मनुष्योमा होय. ए प्रमाणे एक एक | वधारता यावद् अथवा संख्याता संमूर्लिछम मनुष्योमा अने संख्याता गर्भज मनुष्योमा होय. | असंखेज्जा भंते! मणुस्सा पुच्छा,गंगेया! सब्वेवि ताव समुच्छिममणुस्सेसु होजा अहवा असंखेज्जा संमुछिममणुस्सेसु एगे गम्भवतियमणुस्सेसु होजा अहवा असंखेवा समुच्छिममणुस्सेसु दो गम्भवऋतियमणु| स्सेसु होज्जा एवं जाव असंखेज्जा संमुच्छिममणुस्सेसु होजा संखेज्जा गम्भवतियमणुस्सेसु वा होजा // उक्कोसा भंते! मणुस्सा पुच्छा, गंगेया! सब्वेवि ताव संमुच्छिममणुस्सेम होजा अहवा समुच्छिममणुस्सेसु य गम्भवकतियमणुस्सेसु वा होज्जा / एयस्स णं भंते! समुच्छिममणुस्सपवेसणगस्स गन्भवतियमणुस्सपवेसणगस्स य कयरे 2 जाब विसेसाहिया?, गंगेया ! सव्वत्थोवा गन्भवतियमणुस्सपवेसणए समुच्छिममणुस्सपवेसणए असंखेगुजणे // (सूत्रं 375) // 55*555 + A R For Private and Personal Use Only Page #239 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir उद्देशा का॥८.९॥ [प्र०] हे भगवन् ! असंख्याता मनुष्यो संबन्धे प्रश्न. [उ०] हे गांगेय! ते बधा संमृञ्छिम मनुष्योमा होय. अथवा असंख्याता संमूञ्छिम मनुष्योमा होय अने एक गर्भज मनुष्योमा होय. अथवा असंख्याता संमृच्छिम मनुष्योमा होय अने वे गर्भज मनुष्योमा व्याख्याप्राप्ति होय. ए प्रमाणे यावत् असंख्याता संमूछिम मनुष्योमा होय अने संख्याता गर्भज मनुष्योमा होय. [प्र०] हे भगवन् ! मनुष्यो 809 // उत्कृष्टपणे (कया प्रवेशनकमां होय !) ए संबन्धे प्रश्न. [उ०] हे गांगेय ! ते बधाय संमृच्छिम मनुष्योमा होय. अथवा संछिम मनुष्यो अने गर्भज मनुष्योमां पण होय. [प्र.] हे भगवन् ! संमूच्छिममनुष्यप्रवेशनक अने गर्भजमनुष्यप्रवेशनकमां कयुं प्रवेशनक कोनाथी यावद् विशेषाधिक छे ? [उ.] हे गांगेय ! सौथी अल्प गर्भजमनुष्य प्रवेशनक छे, अने संमूछिम मनुष्यप्रवेशनक असंख्यगुण छे. // 375 // देवपवेसणए णं भंते ! कतिविहे पन्नत्ते?, गंगेया! चउविहे पन्नत्ते, तंजहा-भवणवासिदेवपवेसणए जाव |4| वेमाणियदेवपवेसणए। एगे भंते! देवपवेसणएण पविसमाणे किं भवणवासीसु होजा वाणमंतरजोइसियवेमाणिएसु होजा, गंगेया! भवणवासीसु वा होज्जा वाणमंतरजोइसियवेमाणिएसु वा होज्जा / दो भंते ! देवा देवपवेसणए पुच्छा, गंगेया! भवणवासीसु वा होजा वाणमंतरजोइसियवेमाणिएसु वा होजा अहवा एगे भवणवासीसु एगे वाणमंतरजोइसियवेमाणिएसु होज्जा एवं जहा तिरिक्खजोणियपवेसणए तहा देवपवेसणएवि भाणियब्वे जाव असंखेजत्ति। उक्कोसा भंते! पुच्छा,गंगेया! सब्वेवि ताव जोइसिइसु होज्जा अहवाजोइसियभवणवासीसु य होजा अहवाजोइसियवाणमंतरेसु य होज्जा अहवा जोइसियवेमाणिएमय होना अहवा जोइसिएसु य भवणवासीसु FACAMANGRESS KAKKARAKAKKAKKA For Private and Personal Use Only Page #240 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir 9 शतके उद्देश // 81 5य वाणमंतरेसु य होजा अहवा जोइसिएसुयभवणवासिसु य वेमाणिएसु य होजा अहवा जोइसिएसु वाणमंत | रेसु बेमाणिएसु य होजा अहवा जोइसिएमु य भवणवासीसु य वाणमंतरेसु य वेमाणिएसु य होजा / एयस्स व्याख्या |णं भंते! भवणवासिदेवपवेसणगस्स वाणमंतरदेवपवेसणगस्स जोइसियदेवपवेसणगस्स वेमाणियदेवपवेसणग-1 प्राप्तिः शास्स य कयरे 2 जाव विसेसाहिया वा?, गंगेया! सव्वत्थोवे वेमाणियदेवपवेसणए भवणवासिदेवपवेसणए अ॥८१०॥ 6 संखज्जगुणे वाणमंतरदेवपवेसणए असंखज्जगुणे जोइसियदेवपवेसणए संखेज्जगुणे // (सूत्रं 376 ) // है [प्र०] हे भगवन् ! देवप्रवेशनक केटला प्रकारे कयु छ ? [उ०] हे गांगेय ! चार प्रकारे कयुं छे. ते आ प्रमाणे -1 भव नवासिदेवप्रवेशनक, यावद् 4 वैमानिकदेवप्रवेशनक. [प्र०] हे भगवन् ! एक देव देवप्रवेशनकद्वारा प्रवेश करतो शुं भवनवासिमां टू होय, वानव्यंतरमा होय, ज्योतिषिकमां होय के वैमानिकमां होय ! [उ०] हे गांगेय ! 1 भवनवासिमां होय, 2 वानव्यंतर, 3 ज्यो-13 | तिष्क अने 4 वैमानिकमां पण होय. [प्र०] हे भगवन् ! बे देवो देवप्रवेशनकवडे प्रवेश करता-इत्यादि प्रश्न. [उ०] हे गांगेय! ते बे देवो 1 भवनवासिमां होय, 2 वानव्यंतर, 3 ज्योतिष्क अने 4 वैमानिकमां पण होय. अथवा एक भवनवासिमां होय अने एक द वानव्यतरमां होय. ए प्रमाणे जेम तियंचयोनिकप्रवेशनक कयुं के तेम देवप्रवेशनक पण यावद् असंख्याता देवोसुधी जाणवू. [प्र०]] है। हे भगवन् ! देवो उत्कृष्टपणे (कया प्रवेशनकमां होय ?)-इत्यादि प्रश्न. [उ०] हे गांगेय ! ते बघा ज्योतिषिकमां होय. अथवा ज्यो कतिष्क अने भवनवासिमां होय. अथवा ज्योतिष्क अने वानव्यतरमा होय. अथवा ज्योतिष्क अने वैमानिकमां होय. अथवा ज्योति क, भवनवासी अने वानव्यतरमा होय. अथवा ज्योतिष्क, भवनवासी अने वैमानिकमा होय. अथवा ज्योतिष्क, वानव्यंतर अने For Private and Personal Use Only Page #241 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir व्याख्याप्राप्तिः // 1 // ९शतके उद्देशा // 811 // FARKASARDASTAKA वैमानिकमां होय. अथवा ज्योतिष्क, भवनवासी, वानव्यंतर अने वैमानिकमां होय. [प्र.] हे भगवन् ! भवनवासिदेवप्रवेशनक, वानव्यंतरदेवप्रवेशनक, ज्योतिष्कदेवप्रवेशनक अने वैमानिकदेवप्रवेशनकमां कयुं प्रवेशनक कया प्रवेशनकथी यावद् विशेषाधिक छ ? [उ०] हे गांगेय ! वैमानिकदेवप्रवेशनक सौथी अल्प छे, तेना करतां असंख्येयगुण भवनवासिदेवप्रवेनशक छे, तेथी असंख्येयगुण वानव्यंतरदेवप्रवेशनक छे, अने तेनाथी ज्योतिष्कदेवप्रवेशनक संख्यातगुण छे. // 376 / / एयरस ण भंते ! नेरइयपवेसणगस्स तिरिक्ख० मणुस्स. देवपवेसणगस्स कयरे कयरे जाव विसेसाहिए ६|वा?, गंगेया ! सब्वत्थोवे मणुस्सपवेसणए नेरइयपवेसणए असंखेज्जगुणे देवपवेसणए असंखेज्जगुणे तिरिक्खजोणियपवेसणए असंखज्जगुणे / / (सूत्र 377) // [प्र०] हे भगवन् ! नैरयिकप्रवेशनक, तिर्यंचयोनिकप्रवेशनक, मनुष्यप्रवेशनक अने देवप्रवेशनकमां कयुं प्रवेशनक कया प्रवे|शनकथी यावद् विशेषाधिक छे ? [उ०] हे गांगेय! सौथी अल्प मनुष्यप्रवेशनक छे, तेथी नैरयिकप्रवेशनक असंख्यात गुण छे, | तेना करतां असंख्यातगुण देवप्रवेशनक छे अने तेनाथी असंख्यातगुण तिर्यचयोनिकप्रवेशनक छे. // 377 // संतरं भंते! नेरइया उववजंति निरंतरं नेरइया उववअंति संतरं असुरकुमारा उववजंति निरंतरं असुरकु| मारा जाव संतरं वेमाणिया उववज्जंति निरंतरं वेमाणिया उववनंति संतरं नेरइया उववदृति निरंतरं नेरतिया | उववढंति जाव संतरं वाणमंतरा उववदंति निरंतरं वाणमंतरा उववदंति संतरं जोइसिया चयंति निरंतरं जोइ. |सिया चयंति संतरं वेमाणिया चयंति निरंतरं वेमाणिया चयंति', गंगेया! संतरंपि नेरतिया उववजंति निरंतरंपि For Private and Personal Use Only Page #242 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir व्याख्याप्राप्तिः // 812 // 9 शतके उद्देशा५ // 812 // नेरतिया उववजंति जाव संतरंपि थणियकुमारा उववज्जति निरंतरंपिथणियकुमारा उववज्जति नो संतरपि पुढवि. काइया उववज्जति निरंतरं पुढविक्काइया उववज्जति एवं जाव वणस्सइकाइया सेसा जहा नेरइया जाच संतरंपि वेमाणिया उववज्जंति निरंतरंपि वेमाणिया उववज्जति, संतरंपि नेरइया उववहति निरंतरंपि नेरहया उववदंति एवं जाव थणियकुमारा नो संतरं पुढविकाइया उववहति निरंतरं पुढविक्काइया उववटुंति एवं जाव वणस्सइकाइया | सेसा जहा नेरइया, नवरं जोइसियवेमाणिया चयंति अभिलावो, जाव संतरंपि बेमाणिया चयंति निरंतरंपि वेमाणिया चयंति // [4] हे भगवन् ! नैरयिको सान्तर (अन्तरसहित) उत्पन्न थाय छे के निरंतर (अन्तररहित) उत्पन्न थाय छे ? असुरकुमारो सान्तर ऊत्पन्न थाय छे के निरन्तर उत्पन्न थाय छे ? यावत् वैमानिक देवो सान्तर उत्पन्न थाय छे के निरन्तर उत्पन्न थाय छे ? नैरयिको सान्तर उद्भूर्ते छ-नीकळे छे के निरन्तर उद्वर्ते छे? यावत् वानव्यंतरो सांतर उद्वर्ते छे के निरन्तर उद्वर्ते छे ? ज्योतिष्को सान्तर च्यवे छे के निरन्तर च्यवे छे ? अने वैमानिको सान्तर च्यवे छ के निरन्तर च्यवे छे ? [उ.] हे गांगेय ! नैरयिको सान्तर उत्पन्न थाय छे अने निरन्तर पण उत्पन्न थाय छे. यावत् स्तनितकुमारो सान्तर अने निरन्तर उत्पन्न थाय छे. पृथिवीकायिको सन्तर उत्पन्न थता नथी पण निरन्तर पण उत्पन्न थाय छे. एप्रमाणे यावत् वनस्पतिकायिको पण निरन्तर उत्पन्न थाय छे. तथा बाकीना बधा जीवो नैरयिकोनी पेठे सान्तर अने निरन्तर उत्पन्न थाय छे. यावद् वैमानिको पण सान्तर अने निरन्तर उत्पन्न थाय छे. नैरयिको सान्तर अने निरन्तर उद्बतें छे. ए प्रमाणे यावद् स्तनितकुमारो जणवा. पृथिवीकायिको सान्तर उद्वर्तता नथी पण निरन्तर For Private and Personal Use Only Page #243 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir 9 शतके व्याख्याप्रातिः // 813 // उद्देशा५ 1 // है|उद्वर्ते छे. ए प्रमाणे यावद् वनस्पतिकायिको पण जाणवा. बाकीना बधा जीवो नैरयिकोनी पेठे सान्तर अने निरन्तर उद्वर्ते छे. पण विशेष ए छे के 'ज्योतिषिको अने वैमानिको च्यवे छ' एम पाठ कहेवो. ए प्रमाणे यावद् वैमानिको सान्तर अने निरन्तर च्यवे छे. हा संनो भंते ! नेरतिया उववखंति असतो भंते ! नेरइया उवदज्जंति ?, गंगेया ! संतो नेरइया उववजंति नो असंतो नेरइया उववज्जंति, एवं जाव वेमाणिया, संतो भंते ! नेरतिया उववदंति असंतो नेरइया उववदंति !, गंगेया! संतो नेरइया उववहति नो असंतो नेरइया उववहृति, एवं जाव वेमाणिया नवरं जोइसियवेमाणिएस चयंति भाणियध्वं / सओ भंते! नेरइया उववजंति असतो भंते! नेरइया उववनंति सतो असुरकुमारा उववनंति जाव सतो वेमाणिया उववजंति असतो वेमाणिया उववजंति मतो नेरतिया उववति असतो नेरइया उववहृति सतो असुरकुमारा उववदंति जाव सतो वेमाणिया चयंति असतो वेमाणिया चयंति ?, गंगेया! सतो नेरइया | उववज्जति नो असओ नेरइया उववजंति सओ असुरकुमारा उववज्जति नो असतो असुरकुमारा उववज्जति जाव सओ वेमाणिया उववज्जति नो असतो वेमाणिया उववज्जति सतो नेरतिया उववदृति नो असतो नेरइया उववदृति जाव सतो वेमाणिया चयंति नो असतो वेमाणिया०, से केण?ण भंते ! एवं वुच्चइ सतो नेरइया उव वहति नो असतो नेरइया उववज्जंति जाव सओ वेमाणिया चयंति नो असओ वेमाणिया चयंति, से नूर्ण भंते ! द गंगेया! पासेणं अरहया पुरिसादाणीएणं सासए लोए बुइए अणादीए अणवयग्गे जहा पंचमसए जाव जे लोकह से लोए, से तेणटेणं गंगेया! एवं बुच्चइ जाच सतो वेमाणिया चयंति नो असतो वेमाणिया चगति // ANANCIAAS For Private and Personal Use Only Page #244 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir 18] [प्र०] हे भगवन् ! सद्-विद्यमान नैरयिको उत्पन्न थाय छे के असद्-अविद्यमान नैरयिको उत्पन्न थाय छे ? [उ०] हे गांगेय! सद्-विद्यमान नैरयिको उत्पन्न थाय छे, पण असद् नैरयिको उत्पन्न थता नथी. ए प्रमाणे यावद् वैमानिक पर्यन्त जाणवू. [प्र०] व्याख्याहे भगवन् ! विद्यमान नैरयिको उद्वर्ते छे के अविद्यमान नैरयिको उद्वर्ते छ ? [उ०] हे गांगेय! विद्यमान नैरयिको उद्वत छ पण & 9 शतके प्रज्ञप्तिः अविद्यमान नैरयिको उद्वर्तता नथी. ए प्रमाणे यावद् वैमानिको सुधी जाण. विशेष ए छे के ज्योतिष्क अने वैमानिकोमा 'च्यवे छ। उद्देशा५ // 814 // हवो पाठ कहेवो. [30] हे भगवन् ! सद् नैरयिको उत्पन्न-थाय छे के असद् नैरयिको उत्पन्न थाय छे ? सद् असुरकुमारो उत्पन्न | 118140 चाय छे के असद् असुरकुमारो उत्पन्न थाय छे ? ए प्रमाणे यावत् सद् वैमानिको उत्पन्न थाय छे के असद् वैमानिको उत्पन्न थाय 52 ? सद् नैरयिको उद्वर्ते छे के असद् नैरयिको उद्वर्ते छे ? सद् अमुग्कुमरो उद्वर्ते छ के असद् असुरकुमारो उद्वर्ते छे ? ए प्रमाणे यावत् सद् वैमानिको च्यवे छे के असद् वैमानिको च्यवे छे ? [उ०] हे गांगेय ! सद् नैरयिको उत्पन्न थाय छे पण असद् नैरयिको उत्पन्न थता नथी. सद् असुरकुमारो उत्पन्न थाय छे पण असद् अमुरकुमारो उत्पन्न यता नथी. ए प्रमाणे यावद् सद् वैमानिको उत्पन्न थाय छे पण असद् वैमानिको उत्पन्न यता नथी. सद् नैरयिको उद्वर्तेछे पण असद् नैरयिको उद्वर्तता नथी. यावद् सद् वैमा-1 निको च्यवे छे पण असद् वैमानिको च्यवता नथी. [प्र.] हे भगवन् ! एम शा हेतुथी कहो छो के सद् नैरयिको उत्पन्न थाय छे पण असद् नैरयिको उत्पन्न थता नथी. ए प्रमाणे यावद् सद् वैमानिको च्यवे छे पण असद् वैमानिको च्यवता नथी? हे भगवन् ! Paa ते निश्चित छ ? [उ०] हे गांगेय ! खरेखर पुरुषादानीय अर्हत् श्रीपार्श्वनाथे "लोकने शाश्वत, अनादि अने अनन्त कह्यो छे-" | इत्यादि पांचमा शतकमां कह्या प्रमाणे जाणवू. यावत् जे अवलोकी शकाय-जाणी शकाय ते लोक, ते हेतुथी हे गांगेय एम का For Private and Personal Use Only Page #245 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir व्याख्या // 815 // RCMCARROTES छे के, सद् वैमानिको च्यवे छे पण असद् वैमानिको च्यवता नथी. / सयं भंते! एवं जाणइ उदाहु असयं असोचा एते एवं जाणइ उदाहु सोचा सतो नेरइया उववअंति नो असतो | नेरइया उववज्जंति जाब सओ वेमाणिया चयंति नो असओ वेमाणिया चयति ?, गंगेया! सयं एते एवं जाणा 9 शतके | मि नो असयं, असोचा एते एवं जाणामि, नो सोचा, सतो नेरइया उववज्जति नो असओ नेरइया उववज्जति उद्देश | जाव सतो वेमाणिया चयति. नो असतो वेमाणिया चयंति, से केणतुणं भंते! एवं वुच्चइ तं चेव जाव नो असतो भा८१५॥ वेमाणिया चयंति?, गंगेया! केवली ण पुरच्छिमेणं मियंपि जाणइ अमियंपि जाणइ दाहिणेणं एवं जहा सगडइसए जाव निव्वुडे नाणे केवलिस्स, से तेणटेणं गंगेया ! एवं वुच्चइ तं चेव जाव नो असतो वेमाणिया चयंति // [प्र.] हे भगवन् ! आप स्वयं आ प्रमाणे जाणो छो, के अस्वयं जाणो छो? सांभळ्या शिवाय ए प्रमाणे जाणो छो अथवा | सांभळीने जाणो छो के 'सद् नैरयिको उत्पन्न थाय के पण असद् नैरयिको उत्पन्न थता नथी, यावत् सद् वैमानिको च्यवे छे, पण असद् वैमानिको च्यवता नथी' ? [उ०] हे गांगेय ! हुं ए बधुं स्वयं जाणुं छु, पण अस्वयं (बीजानी सहायथी) जाणतो नथी. वळी | सांभळ्या विना आ प्रमाणे जाणुं छु, पण सांभळीने जाणतो नथी के 'सद् नैरयिको उत्पन्न थाय छे, पण असद् नैरयिको उत्पन्न थता नथी, यावत् सद् वैमानिको च्यवे छे, पण असद् वैमानिको च्यवता नथी.' [प्र०] हे भगवन् ! एम शा हेतुथी कहो छो के, 'हु स्वयं जणुं छु-इत्यादि पूर्वोक्त यावत् असद् वैमानिको च्यवता नथीं' 1 [उ०] हे गांगेय ! केवलज्ञानी पूर्वमा मित (मर्यादित) पण जाणे, अने अमित (अमर्यादित) पण जाणे, तथा दक्षिणमां पण ए प्रमाणे जाणे. ए प्रमाणे जेम शब्द उद्देशकमां कडं छे तेम ARSANSAR For Private and Personal Use Only Page #246 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.arg Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir 9 शतके उद्देशा५ // 816 Paa जाणवू, यावत् केवलिनुं ज्ञान निरावरण होय छे,' माटे हे गांगेय ! ते हेतुथी एम कहुं छु के 'हुं स्वयं जाणुं छु-इत्यादि यावद् असद् 4 वैमामिको च्यवता नथी.' व्याख्या सयं भंते ! नेरइया नेरइएसु उववजन्ति असयं नेरइया नेरइएसु उववज्नति ?, गंगेया! सयं नेरइया नेरइप्रज्ञप्तिः एसु उववज्जति नो असयं नेरइया नेरइएसु उववज्जंति ?. से केणढणं भंते ! एवं बुच्चइ जाव उववजंति ?, गंगेया // 816 // 18|कम्मोदएणं कम्मगुरुयत्ताए कम्मभारियत्ताए कम्मगुरुसंभारियत्ताए असुभाणं कम्माणं उदएणं असुभाणं क |म्माणं विवागणं असुभाणं कम्माणं फलविवागणं सयं नेरइया नेरइएसु उववजंति, नो असयं नेरइया नेरइएसु |उववज्जंति, से तेणटेणं गंगेया! जाव उवववति // सयं भंते ! असुरकुमारा पुच्छा, गंगेया! सयं असुरकुमारा जाव उववजंति नो असयं असुरकुमारा जाव उववजंति, से केणटेणं तं चेव जाव उववजंति ?, गंगेया! कम्मोदपणं कम्मोवसमेणं कम्मविगतीए कम्मविसोहीए कम्मविसुद्धीए मुभाणं कम्माणं उदएणं सुभाणं कम्माणं विवागेर्ण सुभाण कम्माणं फलविवागणं सयं असुरकुमारा असुरकुमारत्ताए जाव उववजंति, नो असर्ग असुरकुमारा असुरकुमारत्ताए उववज्जति, से तेणटेणं जाव उववजंति, एवं जाव थणियकुमारा // [प्र०] हे भगवन् ! नैरयिको नैरयिकमां स्वयं उत्पन्न थाय के के अस्वयं उत्पन्न धाय छे.? [उ.] हे गांगेय नैरयिको नैरयिकमां स्वयं उत्पन्न थाय छे, पण अस्वयं उत्पन्न थता नथी. [प्र०] हे भगवन् ! एम शा हेतुथी कहो छो के 'स्वयं यावद् उत्पन्न थाय छे' 1 [उ०] हे गांगेय ! कर्मना उदयथी, कर्मना गुरुपणाथी, कर्मना भारेपणाथी, कर्मना अत्यन्त भारेपणाथी, अशुभ कर्मोना ASALAMREKADCART For Private and Personal Use Only Page #247 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir 9 शतके व्याख्याप्राप्ति // 817 // उद्देशा // 817 // | उदयथी, अशुभ कर्मोना विपाकथी अने अशुभ कर्मोना फल-विपाकथी नैरयिको नैरयिकोमा स्वयं उत्पन्न थाय छे, पण नैरयिको नैरयिकोमा अस्वयं उत्पन्न थता नथी; ते हेतुथी हे गांगेय ! एम कहेवाय छे के यावत् 'तेओ स्वयं उत्पन्न थाय हे.' [प्र.] हे भगवन् ! असुरकुमारो स्वयं (असुरकुमारपणे उत्पन्न थाय छे ?) इत्यादि प्रश्न. [उ.] हे गांगेय ! असुरकुमारो स्वयं उत्पन्न थाय छ, | पण अस्वयं उत्पन्न थता नथी.[प्र.] हे भगवन् ! एम शा हेतुथी कहो छो के तेओ 'स्वयं यावद् उत्पन्न थाय छे' 1 [उ०] हे गांगेय ! कर्मना उदयथी, (अशुभ) कर्मना उपशमथी, अशुभ कर्मना अभावथी, कर्मनी विशोधिथी, कर्मनी विशुद्धिथी, शुभ कर्मोना उदयथी, शुभ कर्मोना विपाकथी अने शुभ कर्मोना फल-विपाकथी असुरकुमारो असुरकुमारपणे स्वयं उत्पन्न थाय छे, पण असुरकुमारो असुरकुमारपणे अस्वयं उत्पन्न थता नथी. माटे हे गांगेय ! ते हेतुथी एम कहेवाय ले के, यावत् 'उत्पन्न थाय . ए प्रमाणे यावत् स्तनितकुमारो सुधी जाणवू. ___ सयं भंते! पुढविक्काइया० पुच्छा, गंगेया ! सयं पुढविकाइया जाव उववजति नो असयं पुच्छा जाव उववज्जंति, से केणटेणं भंते ! एवं वुच्चइ जाव उववजति !, गंगेया! कम्मोदएणं कम्मगुरुयत्ताए कम्मभारियत्ताए कम्मगुरुसंभारियत्ताए सुभासुभाणं कम्माणं उदएणं सुभासुभाणं कम्माणं विवागणं सुभासुभाणं कम्माणं फलविवागणं सयं पुढवि काइया जाव उववज्जति नो असयं पुढविकाइया जाव उववज्जति, से तेणटेणं जाव उववज्जति, एवं जाव मणुस्सा, पणमंतरजोइसिया वेमाणिया जहा असुरकुमारा, से तेणतुणं गंगेया! एवं वुच्चइ सयं वेमाणिया जाव उववज्जति नो असयं जाव उववज्जति / / (सूत्रं 378) // For Private and Personal Use Only Page #248 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.arg Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir व्याख्याप्रजाप्तिः 818 // 9 शतके उद्देशान // 1 // [प्र०] हे भगवन् ! पृथिवीकायिको स्वयं उत्पन्न थाय छे ?-इत्यादि प्रश्न. [उ०] हे गांगेय ! पृथिवीकायिको स्वयं उत्पन्न | थाय छे पण अस्वयं उत्पन्न थाता नथी. [प्र०] हे भगवन् ! एम शा हेतुथी कहो छो के 'पृथिवीकायिको स्वयंउत्पन्न थाय छे ? [[उ०] हे गांगेय ! कर्मना उदयथी, कर्मना गुरुपणाथी, कर्मना भारथी, कर्मना अत्यन्त भारथी, शुभ अने अशुभ कर्मोना उदयथी, | शुभ अने अशुभ कर्मोना विषाकथी अने शुभाशुभ कर्मोना फलविपाकथी पृथिवीकायिको स्वयं उत्पन्न थाय छे, पण यावद् अस्वयं उत्पन्न थता नथी. माटे हे गांगेय! ते हेतुथी एम कहुं छु के-यावत् 'पृथीवीकायिको स्वयं उत्पन्न थाय छे.' ए प्रमाणे यावत् मनुयो सुधी जणवू. जेम असुरकुमारोने का तेम वानव्यंतर, ज्योतिषिक अने वैमानिको संबन्धे कहे. माटे हे गांगेय! ते हेतुथी एम कहुं छु के-यावत् 'वैमानिको स्वयं उत्पन्न थाय छे, पण अस्वयं उत्पन्न थता नथी.' // 378 / / ट्रा तप्पभिई च णं से गंगेये अणगारे समणं भगवं महावीरं पञ्चभिजाणइ सबन्नु सव्वदरिसी, तए णं से गंगेये अणगारे समणं भगवं महावीरं तिक्खुत्तो आयाहिणपयाहिणं करेइ करेत्ता वंदइ नमंसह वंदित्ता नमंसित्ता एवं वयासी इच्छामि णं भंते ! तुझं अंतियं चाउल्लामाओ धम्माओ पंचमहव्वइयं एवं जहा कालासवेसियपुत्तो / तहेव भाणियब्वं जाव सब्वदुक्खप्पहीणे // सेवं भंते ! सेवं भंते! // (सूत्रं 379) // गंगेयो समत्तो // 9 // 32 // त्यार पछी श्रीगांगेय अनगार श्रमण भगवन् महावीरने सर्वज्ञ अने सर्वदर्शी जाणे छे. त्यारबाद ते गांगेय अनगार श्रमण भगवंत महावीरने त्रण वार आदक्षिणा प्रदक्षिणा करे छे, करीने वांदे छे, नमे छे; वांदीने, नमीने तेणे एम कछु के-हे भगवन् / तमारी पासे चार महाव्रत धर्मथी पांच महाव्रतधर्मने ग्रहण करवा इच्छु छु. ए प्रमाणे बधुं कालासवेसिक पुत्रनी पेठे यावत् ते 'सर्व LEARNORNERASHAK For Private and Personal Use Only Page #249 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir शतके उद्देशा // 819 // TRI दुःखथी मुक्त थया' त्यां सुधी कहे. हे भगवन् ! ते ए प्रमाणे छे. // 379 // व्याख्याप्रजाति भगवत् सुधर्मस्वामीप्रणीत श्रीमद् भगवतीसूत्रना 9 मा शतकमां पांचमा उद्देशानो मूलार्थ संपूर्ण थयो. 819 // उद्देशक 6. तेणं कालेणं तेणं समएणं माहणकुंडग्गामे नयरे होत्था, वन्नओ, बहुसालए चेतिए, वन्नओ, तत्थ णं माहणकुंडग्गामे नयरे उसमदत्ते नामं माहणे परिचसति अड्डे दित्ते वित्ते जाव अपरिभूए रिउवेदजजुवेदसामवेदअथव्वणवेद जहा खंदओ जाव अन्नेसु य बहुसु बंभन्नएसु नएसु सुपरिनिट्ठिए समणोवासए अभिगयजीवाजीवे उव-18 लद्धपुण्णपावे जाव अप्पाणं भावेमाणे विहरति, तस्सणं उसभदत्तमाहणस्स देवाणंदा नाम माहणी होत्था, सुकुमालपाणिपाया जाव पियदसणा सुरूवासमणोवासिया अभिगयजीवाजीवा उवलद्धपुन्नपावा जाव विहरइ / तेणं कालेणं तेणं समएणं सामी समोसढे, परिसा जाव पजुवासति, तए णं से उसभदत्ते माहणे इमीसे कहाए लढे | समाणे हट जाव हियए जेणेव देवाणंदा माहणी तेणेव उवागच्छति 2 देवाणंदं माहणिं एवं बयासी-एवं खलु 8| देवाणुप्पिए! समणे भगवं महावीरे आदिगरे जाव सम्वन्नू सम्बदरिसी आगासगएणं चक्केणं जाव सुहंसुहेणं | विहरमाणे जाव बहुसालए चेइए अहापडिरूवं जावविहरति, सं महाफलं खलु देवाणुप्पिए! जाव तहारूवाणं अरिहंताणं भगवंताणं नामगोयस्सविसवणयाए,किमंग पुण अभिगमणवंदणनमंसणपडिपुच्छणपज्जुवासणयाए? ABHARASHRASE For Private and Personal Use Only Page #250 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir क 9 शतके स उद्देशा एगस्सवि आयरियस्स धम्मियस्स मुवयणस्स सवणयाए, किमंग पुण विउलस्स अट्ठस्स गहणयाए,तं गच्छामो णं देवाणुप्पिए ! समणं भगवं महावीरं वंदामो नमसामोजाव पज्जुवासामो, एयण्णं इहभवे य परभवे य हिव्याख्या-1 याए सुहाए खमाए निस्सेसाए आणुगामियत्ताए भविस्सह / तए णं सा देवाणंदा माहणी उसभदत्तणं माहणेणं प्राप्तिः एवं वुत्ता समाणी हट्ठजाव हियया करयलजावकहु उसभदत्तस्स माहणस्स एयमढे विणएणं पडिसुणेइ, 820 // | ते काले, ते समये ब्राह्मणकुंडग्राम नामे नगर हतुं. वर्णन. बहुशालक नामे चैत्य हतुं. वर्णन. ते ब्राह्मणकुंडग्राम नामे नगरमा है ऋषभदत्त नामे ब्राह्मण रहेतो हतो. ते आढ्य-धनिक, तेजस्वी, प्रसिद्ध अने यावत् अपरिभूत-कोइथी पराभव न पामे तेवो हतो. Pावळी ते ऋग्वेद, यजुर्वेद, सामवेद अने अथर्वणवेदमा निपुण अने स्कंदक तापसनी पेठे यावत् बाह्मणोना बीजा घणा नयोमा कुशल हतो. ते श्रमणोनो उपासक, जीवाजीव तत्वने जाणनार, पुण्य-पापने ओळखनार अने यावत् आत्माने भावित करतो विहरतो हतो. ₹ाते ऋषभदत्त ब्राह्मणने देवानंदा नामे ब्राह्मणी स्त्री हती. तेना हाथ पग सुकुमाल हता, यावत् तेनुं दर्शन प्रिय हतुं अने तेनुं रूप सुन्दर हतुं. वळी श्रमणोनी उपासिका (देवानंदा) जीवाजीव अने पुण्यपापने जाणती विहरती हती. ते काले, ते समये महावीरस्वामी | समोसा. पर्षत् यावत् पर्युपासना करे छे. त्यारपछी ते ऋषभदत्त ब्राह्मण श्रमण भगवान् महावीरना आगमननी आवात जाणीने खुश थयो, यावत् उल्लसित हृदयवाळो थयो, अने ज्यां देवानंदा ब्राह्मणी हती त्यां आव्यो. त्यां आवीने तेणे देवानंदा ब्राह्मणीने आ प्रमाणे | कयु के-'हे देवानुप्रिये ! ए प्रमाणे अहीं तीर्थनी आदि करनार यावत् सर्वज्ञ अने सर्वदर्शी श्रमण भगवान् महावीर आकाशमां रहेला चक्रवडे यावत् मुखपूर्वक विहार करता बहुशालक नामे चैत्यमा योग्य अवग्रहने ग्रहण करीने यावत् विहरे छे. हे देवानुप्रिये ! यावत् | - ॐ For Private and Personal Use Only Page #251 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir व्याख्याप्राप्ति // 821 // 9 शतके उद्देश // 821 // तेवा प्रकारना अर्हत् भगवंतना नाम-गोत्रना पण श्रवणथी मोटु फल प्रप्त थाय छे, तो वळी तेओना अभिगमन (सामा जर्बु), वंदन, नमन, प्रतिप्रच्छन अने पर्युपासन करवाथी फल थाय तेमां शुं कहेवू ? तथा एक पण आर्य अने धार्मिक सुवचनना श्रवणथी मोटुं| फल थाय छे. तो वळी विपुल अर्थने ग्रहण करवावडे महाफल थाय तेमां शुं कहे ? माटे हे देवानुप्रिये ! आपणे जइए अने श्रमण | भगवंत महावीरने वन्दन-नमन करीए, यावत् तेमनी पर्युपासना करीए. ए आपणने आ भवमां तथा परभवमां हित, सुख, संगतता, निःश्रेयस अने शुभ अनुबंधने माटे थशे. ज्यारे तेऋषभदत्त ब्राह्मणे देवानंदा ब्राह्मणीने ए प्रमाणेकडं त्यारे ते खुश थइ, अने यावत् उल्लसितहृदयवाळी थईने पोताना करतलने यावत् मस्तके अंजलिरूपे करी ऋषभदत्त ब्राह्मणना ए कथनने विनयपूर्वक स्वीकारे छे. तए णं से उमभदत्ते माहणे कोटुंबियपुरिसे सहावेइ कोडुंबियपुरिसे सहावेत्ता एवं वयासी-खिप्पामेव भो देवाणुः प्पिया!लहुकरणजुत्तजोइयसमखुरवालिहाणसमलिहियसिंगेहिं जंबूणयामयकलावजुत्त परिविसिद्धेहिं रययामयाघंटासुत्तरज्जुयपवरकंचणनत्थपग्गहोग्गहियाहिं नीलुप्पलकयामेलएहिं पवरगोणजुवाणएहिं नाणामणिरयणघंटियजालपरिगयं सुजायजुगजोत्तरज्जुयजुगपसत्थसुविरचियनिम्मियं पवरलक्खणोववेयं [ग्रन्थाग्रम् 6000] धम्मियं जाणप्पवरं जुत्तामेव उवट्ठवेह 2 मम एयमाणत्तियं पञ्चप्पिणह, तए णं ते कोडंबियपुरिसा उसभदत्तेणं माहणेणं एवं वुत्ता समाणा हह जाव हियया करयल० एवं सामी! तहत्ति आणाए विणएणं वयणं जाव पडिसुणेत्ता खिपामेव लहुकरणजुत्त जाव धम्मियं जाणप्पवरं जुत्तामेव उवट्ठवेत्ता जाव तमाणत्तियं पञ्चप्पिणंति, त्यारबाद ते ऋषभदन ब्राह्मण पोताना कौटुंबिक पुरुषोने बोलावे छे, बोलावीने तेओने तेणे आ प्रमाणे का के-हे देवानुप्रियो! 64CACAAACACAASARAM For Private and Personal Use Only Page #252 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir 9 शतके व्याख्याप्राप्तिः // 822 // उरेशा / / 822 // 35555 जलदी चालवावाळा, प्रशस्त अने सदृशरूपवाळा, समान खरी अने पुच्छवाळा, समान उगेल सिंगडावाळा, सोनाना कलाप-आम| रणोथी युक्त, चालवामां उत्तम, रूपानी घंटडीओथी युक्त, सुवर्णमय सुतरनी नाथवडे बांधेला, नील कमळना शिरपेचवाळा बे उत्तम | युवान वळदोथी युक्त अनेक प्रकारनी मणिमय घंटडीओना समूहथी व्याप्त, उत्तम काष्ठमय धोंसरु अने जोतरनी वे दोरीओ उत्तम रीते जेमां गोठवेली छे एवा; प्रवरलक्षणयुक्त, धार्मिक, श्रेष्ठ यान-रथने तैयार करी हाजर करो अने आ मारी आज्ञा पाछी आपों. | ज्यारे ते ऋषभदत्त ब्राह्मणे ते कौटुंबिक पुरुषोने एम कात्यारे तेओए खुश थइ यवद् आनंदितहृदयवाळा थइ, मस्तके करतलने जोडी एम कयु के- 'हे स्वामिन् ! ए प्रमाणे आपनी आज्ञा मान्य छे. एम कही विनयपूर्वक वचनने स्वीकारी जलदी चालवावाळा बे बळदोथी जोडेला, यावत् धार्मिक अने प्रवर यानने (रथने) शीघ्र हाजर करीने यावत् आज्ञाने पाछी आपे छे. तए णं से उसभदत्ते माहणे ण्हाए जाव अप्पमहग्घाभरणालंकियसरीरे साओ गिहाओ पडिनिक्खमति साओ गिहाओ पडिनिकम्वमित्ता जेणेव बाहिरिया उवट्ठाणसाला जेणेव धम्मिए जाणप्पवरे तेणेव उवागच्छद तेणेव उवागच्छित्ता धम्मियं जाणप्पवर दुरुढे / तए णं सा देवाणंदा माहणी अतो अंतेउरंसि पहाया कयबलिकम्मा कयकोउयमंगलपायच्छित्ता, किं च वरपादपत्तनेउरमणिमेहलाहारविरइयउचियकडगखुड्डायएकावलीकंठसुत्तउरत्थगेवेजसोणिसुत्तगनाणामणिरयणभूसणविराइयंगी चीणंसुयवस्थपवरपरिहिया दुगुल्लसुकुमालउत्तरिजा सव्वोउ यसुरभिकुसुमवरियसिरया वरचंदणवंदिया वराभरणभूसियंगी कालागुरुधूवधूविया सिरिसमाणवेसा है जाव अप्पमहग्याभरणालंकियसरीरा बहहिं खुजाहिं चिलाइयाहिं वामणियाहिं बडहियाहिं बब्बरियाहिं ईसिग PROCHINGAMALAKालय For Private and Personal Use Only Page #253 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir व्याख्या- प्राप्ति // 823 // 9 शतके उद्देशा // 823 // CSCARSASARAL णियाहिं जोण्हियाहिं चारुगणियाहिं पल्लवियाहि ल्हासियाहिं लउसियाहिं आरबीहिं दमिलीहिं सिंघलीहिं पुलिंदीहिं पुक्खलीहिं मुरुंडीहिं सबरीहिं पारसीहिं नाणादेसीहि विदेसपरिपंडियाहिं इंगितचिंतितपत्थियवियाणियाहिं स देसनेवस्थगहियवेसाहिं कुसलाहिं विणीयाहि य चेडियाचकवालवरिमधरथेरकंचुइजमहत्तरगवंदप रिक्वित्ता अंतेउराओ निग्गच्छति अंतेउराओ निगच्छित्ता जेणेव बाहिरिया उचट्ठाणसाला जेणेव धम्मिए जाणप्पवरे तेणेव उवागच्छइ तेणेव उवागच्छित्ता जाव धम्मियं जाणप्पवरं दुरूढा / / त्यारवाद ते ऋषभदत्त ब्राह्मण स्नान करी यावत् अल्प अने महामूल्यवाळां आभरणोथी पोताना शरीरने अलंकृत करी पोताना घरथी बहार निकळे के. बहार निकळीने जे ठेकाणे बहारनीउपस्थान शाला छे, अने ज्यां धार्मिक यानप्रवर छे त्यां आवीने ते स्थ उपर चढ़े छे. त्यारवाद ते देवानंदा ब्राह्मणी अंदर अंतःपुरमा स्नान करी, बलिकर्म-पूजा करी, कौतुक-(मषीतिलेक) मंगल अने प्रायश्चित्त करी, पगमा पहेरेला सुंदर नू पुर, मणिनो कंदोरो, हार, पहेरेला उचित कडां, वीटीओ, विचित्रमणिमय एकावली (एक-18 सरंवाळा) हार. कंठसूत्र, छातीमा रहेला अवेयक (लांबा हार), कटीसूत्र, अने विचित्रमणि तथा रत्नोना आभूषणथी शरीरने सुशोभित करी, उत्तम चीनांशुक वस्त्रने पहेरी, उपर सुकुमाल रेशमी वस्त्रने ओढी, बधी ऋतुना सुगंधी पुष्पोथी पोताना केशने गुंथी, कपाळमा चंदन लगावी, उत्तम आभूषणथी शरीरने शणगारी, कालागरुना धूपबडे सुगंधित थइ, लक्ष्मीसमानवेशवळी, यावत् अल्प अने बहुमूल्यवाळां आभरणोथी शरीरने अलंकृत करी, घणी कुब्ज दासीओ, चिलातदेशनी दासीओ, यावत् अनेक देश विदेशथी आवीने एकठी थयेली, पोताना देशना पहेरवेश जेवा वेशने धारण करनारी, इंगितवडे-आकृतिवडे-चिन्तित अने इष्ट अर्थने जाणनारी, CERICAGAIRCRACK For Private and Personal Use Only Page #254 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsari Gyarmandir PIकुशल अने विनयवाळी दासीओना परिवारसहित, तेमज पोताना देशनी दासीओ, खोजाओ, वृद्ध कंचुकिओ अने मान्य पुरुषोना व्याख्या18| वृन्द साथे ते देवानंदा पोताना अंत:पुरथी निकळे छे. निकळीने ज्या बहारनी उपस्थान शाळ छे अने ज्यां धार्मिक यान प्रवर (श्रेष्ठ | 189 शतके प्रवाप्तिः रथ) उभो छे त्यां आवे छे. उद्देश६ // 824 // तए णं से उसभदत्ते माहणे देवाणंदाए माहणीए सद्धिं धम्मियं जाणप्पवरं दुरूढे समाणे णियगपरियाल-12 * // 24 // संपरिबुडे माहणकुंडग्गाम नगरं मज्झमज्झेणं निग्गच्छद निग्गच्छइत्ता जेणेव बहुसालए चेइए तेणेव उवागच्छइ तेणेव उवागच्छहत्ता छत्तादीए तित्थकरातिसए पासइ छ०२ धम्मियं जाणप्पवरं ठवेह २त्ता धम्मियाओ जाणप्पवराओ पच्चोरुहइ ध०२ समणं भगवं महावीरं पंचविहेणं अभिगमेणं अभिगच्छति, तंजहा-सचित्ताण दवाणं विउसरणयाए एवं जहा वितियसए जाव तिविहाए पज्जुवासणयाए पज्जुवासति, तए णं सा देवाणंदा माहणी धम्मियाओ जाणप्पवराओ पच्चोरुभति, धम्मियाओ जाणप्पवराओ पच्चोरुभित्ता बहहिं खुजाहिं जाव महत्तरगवंदपरिक्खित्ता समणं भगवं महावीरं पंचविहेणं अभिगमेणं अभिगच्छइ, तंजहा-सचित्ताणं दब्वाणं विउसर|णयाए अचित्ताण दव्वाण अविमोयणयाए विणयोणयाए गायलट्ठीए चक्खुफासे अंजलिपग्गहेणं मणस्स एगत्ती-13 भावकरणेणं, जेणेव समणे भगवं महावीरे तेणेव उवागच्छद तेणेव उवागच्छित्ता समणं भगवं महावीरं तिकखुत्तो आयाहिणं पयाहिणं करेइ २त्ता वंदह नमसइ बंदित्ता नमंसित्ता उसभदत्तं माहणं पुरओ कटु ठिया चेव | सपरिवारा सुस्समाणी णमंसमाणी अभिमुहा विणएणं पंजलिउडा जाव पज्जुवासइ // (सूत्रं 380) / SOCTERNAMA BRECARRACKNOKARTIK For Private and Personal Use Only Page #255 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir व्याख्याप्राति // 825 // आवीने यावत् ते धार्मिक उत्तम स्थ उपर चढे छे. त्यारवाद ते ऋषभदत्त ब्राह्मण देवानंदा ब्राह्मणीनी साथे धार्मिक अने श्रेष्ठ | यान (रथ) उपर चढीने पोताना परिवारनी साथे ब्राह्मणकुंडग्राम नामे नगरना मध्यभागमाथी निकळे छे. निकळीने जे स्थळे बहु अके शालक चैत्य छे त्यां अवे छे. त्यां आवी तीर्थकरना छत्रादिक अतिशयोने जुए छ; जोईने धार्मिक श्रेष्ठ रथने उभो राखे छे. उभो 81 राखौ तेना उपरथी नीचे उतरे छे. उतरीने श्रमण भगवंत महावीरनी पासे पांच प्रकारना अभिगमवडे जाय छे. ते आ प्रमाणे- // 825 // 'सचिच द्रव्योनो त्याग करवों-इत्यादि बीजा शतकमां कह्या प्रमाणे यावत् त्रण प्रकारनी उपासनावडे उपासे छे. ते देवानंदा ब्राह्मणी पण धार्मिक यानप्रवरथी नीचे उतरे छे, उतरीने घणी कुब्जदासीओना यावत् मान्य पुरुषना समूहथी परिवृत थईने श्रमण भगवंत | महावीरनी पासे पांच प्रकारना अभिगमवडे जाय . ते आ प्रमाणे-१ सचित्त द्रव्यनो (फलादिनो) त्याग करवो. 2 अचित | द्रव्यनो (आभरणादिनो) त्याग नहि करवो, 3 विनयथी शरीरने अवनत करवू, 4 भगवंतने चक्षुथी जोतां अंजलि करवी. अने 5 मननी एकाग्रता करवी. ए पांच अभिगम वडे ज्यां श्रमण भगवान् महावीर छे त्वां आवे छे. त्यां आवीने श्रमण भगवंत महावीरने त्रण वार प्रदक्षिणा करे छे. करीने वांदे छे, नमे छे. वांदी अने नमी ऋषभदत्त ब्राह्मणने आगळ करी पोताना परिवारसहित उभी रहीने शुश्रूषा करती, नमती अभिमुख रहीने विनयवडे हाथ जोडी यावत् उपासना करे छे / / 380 // तएशंसा देवाणंदा माहणी आगयपण्हाया पप्फुय-लोयणा संवरियवलयबाहा कंचुयपरिक्खित्तिया धाराहयकलंबगंपिय समूमवियरोमकूवा समण भगवं महावीरं अणिमिसाए दिट्ठीए देहमाणी चिट्ठति // भंतेत्ति भगवं गोयमे समण भगवं महाषीरं बंदति नमंसति वंदित्ता नमंसित्ता एवं वयासी-किण्णं भंते! एसा देवाणंदा SACANC7 For Private and Personal Use Only Page #256 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir 9 शतके व्याख्याप्रज्ञप्तिः // 826 // उदेश // 826 // माहणी आगयपण्हवा तं चेव जाव रोमकूवा देवाणुप्पिए अणिमिसाए दिहीए देहमाणी चिट्ठा 1, गोयमादि समणे भगवं महावीरे भगवं गोयम एवं वयासी-एवं खलु गोयमा! देवाणंदा माहणी मम अम्मा, अहन्नं देवाणदाए माहणीए अत्तए, तए णं सा देवाणंदा माहणी तेण पुवपुत्तसिणहाणुराएणं आगयपण्हया जाव समूसवि. यरोमकूवा मम अणि मिसाए दिट्ठीए देहमाणी 2 चिट्ठह // (सूत्रं 381) / | त्याबाद ते देवानंदा ब्राह्मणीने पानो चढयो-तेना स्तनमांथी धनी धारा छूटी, तेना लोचनो आनंदाश्रुथी मिनां थयां, तेनी हर्षथी एकदम फुलती भुजाओने तेना कडाओए रोकी, (हर्षथी शरीर प्रफुल्लिव थतां) तेनो कंचुक विस्तीर्ण थयो, मेघनी धाराथी विकसित थयेला कदंबपुष्पनी पेठे तेना रोमकूप उमा थया, अने ते श्रमण भगवंत महावीरने अनिमिष दृष्टिथी जोती जोती उभी रही. [प्र.] त्यारे 'भगवन् ! एम कही भगवान् गौतम श्रमण भगवंत महावीरने वांदे छ, नमे छे. बांदीने-नमीने तेणे आ प्रमाणे कयुंहे भगवन् ! आ देवानंदा ब्राह्मणीने पानो केम चढ्यो, अर्थात् तेना स्तनमांथी दूधनी धारा केम वछूटी इत्यादि पूर्व कह्या प्रमाणे यावत् तेने रोमांच केम थयो ? अने देवानुप्रिय तरफ अनिमिष नजरे जोती जोती केम उभी छे ? [उ.] 'हे गौतम ! एम कही| श्रमण भगवान् महावीरे भगवंत गौतमने आ प्रमाणे कड्यु-हे गौतम ! ए प्रमाणे खरेखर आ देवानंदा ब्राह्मणी मारी माता छे, हुं देवानंदा ब्राह्मणीनो पुत्र छु. माटे ते देवानंदा ब्राह्मणीने पूर्वना पुत्रस्नेहानुरागथी पानो चढयो, अने सेना रोमकूप उभा थया, अने | मारी सासु अनिमिष नजरथी जोती उभी छे. // 381 / / तए णं समणे भगवं महावीरे उसभदत्तस्स माहणस्स देवाणंदाए माहणीए तीसे य महतिम 5*** ASSEGGIES For Private and Personal Use Only Page #257 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.arg Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir हालियाए इसिपरिसाए जाव परिसा पडिगया / तए णं से उसमदत्त माहणे समणस्स भगवओ महावीरस्स व्याख्या- अंतियं धम्म सोचा निसम्म हद्वतुढे उहाए उद्वेइ उट्ठाए उद्वेत्ता समण भगवं महावीरं तिक्खुत्तो जाव नमंसित्ता | PI 9 शतके प्रशासि 13 एवं वदासी-एवमेयं भंते ! तहमेयं ! भंते ! जहा खंदओ जाव से जहेयं तुज्झे वदहत्तिक? उत्तरपुरच्छिमं दिसी- उद्देशा // 827 // भावं भवक्कमह उत्तरपु०२त्ता सयमेव आभरणमल्लालंकारं ओमुयइ सयमे०२त्ता मयमेव पंचमुट्टियं लोयं करेति // 827 // सयमे०२त्ता जेणेव समणे भगवं महावीरे तेणेव उवागच्छह 2 समण भगवं महावीरं तिक्खुत्तो आयाहिणं पया-12 हिणं जाव नमंसित्ता एवं वयासी-आलित्ते णं भंते ! लोए पलित्ते णं भंते ! लोए आलित्तपलित्ते ण भंते ! लोए| जराए मरणेण य, एवं एएणं कमेणं इमं जहा खंदओ तहेव पवइओ जाव सामाइयमाइयाई एक्कारस अंगाई अहिजइ जाव बहहिं चउत्थछट्ठट्ठमदसमजाव विचित्तेहिं तवोकम्मेहिं अप्पाणं भावेमाणे बहूई वासाई सामन्नपरियागं पाउणइ 2 मासियाए संलेहणाए अत्ताणं झूसेति मास० 2 सहि भत्ताई अणसणाए छेदेति सढि 2 त्ता जस्सहाए कीरति नग्गभावे जाव तमढें आराहइ जाव तमहूँ आराहेत्ता जाव सव्वदुक्खप्पहीणे। त्यारवाद श्रमण भगवान् महावीरे ऋषभदत्त ब्राह्मण, देवानंदा ब्राह्मणी अने अत्यंत मोटी ऋषि पर्षदने धर्म कहो. यावत् पर्षद पाछी गइ. त्यारपछी ते ऋषभदत्त ब्राह्मण श्रमण भगवंत महावीरनी पासे धर्मने सांभळी, हृदयमा धारण करी खुश थयो, तुष्ट थयो अने तेणे उभा थइने श्रमण भगवंत महावीरने त्रण वार प्रदक्षिणा करी, यावत् नमस्कार करी आ प्रमाणे का-'हे भगवन् ! ते ए है प्रमाणे के, हे भगवन् ! ते ए प्रमाणे छे.'-इत्यादि स्कंदक तापसना प्रकरणमां कह्या प्रमाणे यावत् 'जे तमे कहो छो ते एमज MARCLICRACT FAC+CHAR For Private and Personal Use Only Page #258 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir व्याख्या प्रज्ञप्तिः 9 शतके उदेशा // 828 // 828 // RECASCAMERA एम कही ते (ऋषभदत्त ब्राह्मण) ईशान दिशा तरफ जाय छे, त्यां जइने पीतानी मेळे आभरण, माला अने अलंकारने उतारे छे, उतारीने पोतानी मेळे पंचमुष्टिक लोच करे छे. लोच करीने ज्यां श्रमण भगवंत महावीर छे त्यां आवे छे, आवीने श्रमण भगवंत महावीरने त्रणवार प्रदक्षिणा करी यावत् नमी तेणे आ प्रमाणे का के-'हे भगवन् ! जरा अने मरणथी आ लोक चोतरफ प्रज्वलित | थयेलो छे, हे भगवन् ! आ लोक अत्यन्त प्रज्वलित थयेलो छे, हे भगवन् ! लोक चोतरफ अने अत्यन्त प्रज्वलित थयेळो छे. ए प्रमाणे ए क्रमथी स्कंदकतापसनी पेठे तेणे प्रव्रज्या लीधी, यावत् सामायिकादि अगीयार अंगोनुं अध्ययन करे छे, यावद् घणा उप| वास, छट्ठ, अट्ठम अने दशम यावद् विचित्र तपकर्म वडे आत्माने भावित करतो ते घाण वरस सुधी साधुपणाना पर्यायने पाळे छे. पाळीने मासिकी संलेखना वडे आत्माने वासित करीने साठ भक्तोने अनशन करवावडे व्यतीत करीने जेने माटे नग्नभाव-निर्ग्रन्थपणानो स्वीकार को हतो, यावत् ते निर्वाणरूप अर्थने आराधे छे, ते अर्थने आराधी त्यार बाद यावत् सर्वदुःखथी मुक्त थाय छे. 15 / तए णं सा देवाणंदा माहणी समणस्स भगवओ महावीरस्स अंतियं धम्मं सोचा निमम्म हट्ठतुट्ठा समणं भगवं महावीरं तिक्खुत्तो आयाहिणपयाहिणं जाव नमंसित्ता एवं वयासी-एवमेयं भंते ! तहमेयं भंते ! एवं जहा | उसभदत्तो तहेव जाव धम्माइक्खियं / तए णं समणे भगवं महावीरे देवाणदं माहणि सयमेव पधावेति सय०२ सयमेव अज्जचंदणाए अजाए सीसिणित्ताए दलयइ ॥तए ण सा अजचंदणा अजा देवाणंद माहणिं सयमेव पव्वावेति सयमेव मुंडावेति सयमेव सेहावेति एवं जहेव उसमदत्तो तहेब अजचंदणाए अजाए इमं एयारूवं धम्मियं | उबदेसं सम्मं संपडिवजह तमाणाए तह गच्छइ जाव संजमेण संजमति,तए णं सा देवाणंदा अन्जा अज्जचंदणाए SAACANAGAR For Private and Personal Use Only Page #259 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir अजाए अंतियं सामाइयमाइयाई एक्कारस अंगाई अहिजइ सेसं तं चेव जाव सव्वदुक्खप्पहीणा ॥(सूत्रं 382) / ___हवे ते देवानंदा ब्राह्मणी श्रमण भगवंत महावीरनी पासे धर्मने सांभळी, हृदयमा अवधारी आनन्दित अने संतुष्ट थइ, अने का९सके श्रमण भगवंत महावीरने त्रणवार प्रदक्षिणा करी यावत् नमस्कार करी आ प्रमाणे बोली-'हे भगवन् ! ते एमज छे, हे भगवन् ! ते उद्देशा 829 // एमज छ,'-ए प्रमाणे ऋषभदत्तनी जेम यावत् तेणे भगवंत कथित धर्म कहो. त्यारबाद श्रमण भगवान महावीर पोते देवानंदा ब्राह्म- // 829 |णीने दीक्षा आपे छे, दीक्षा आपीने पोते आर्यचंदना नामे आर्याने शिष्यापणे सोपे छे. त्यारवाद ते आर्यचंदना आर्यां पोतेज ते || | देवानंदा ब्राह्मणीने दीक्षा आपे छे, ग्वयमेव मुंडे छे, स्वयमेव शिक्षा आपे छे ए प्रमाणे देवानंदा ऋषभदत्त ब्राह्मणनी पेठे आर्यचंहैदनाना आ आवा प्रकारना धार्मिक उपदेशने सम्यक् प्रकारे स्वीकार करे छे, अने तेनी आज्ञा प्रमाणे वर्ते छे, यावत् संयमवडे प्रवर्ते Pछे. त्यारपछी देवानंदा आर्या आर्यचंदना आर्यानी पासे सामायिकादि अगीयार अंगोनुं अध्ययन करे छे. बाकीर्नु पूर्व प्रमाणे जाणवू,12 4. यावत् ते (देवानंदा) सर्वदुःखथी मुक्त थाय छे. // 382 // | तस्स णं माहणकुंडग्गामस्स नगरस्स पञ्चत्थिमेणं एत्थ णं वत्तियकुंडग्गामे नाम नगरे होत्था, वन्नओ, तत्व मं खत्तियकुंडग्गामे नयरे जमालीनाम खत्तियकुमारे परिवसति अढे दित्ते जाव अपरिभूए उपि पासायवरगए फुडमाणेहिं मुइंगमत्वएहिं बत्तीसतिबद्धेहिं नाडएहिं णाणाविहवरतरुणीसंपउत्तेहिं उवनचिजमाणे उवनबिजमाणे उबगिज्जमाणे 2 उवलालिज्जमाणे उव. 2 पाउसवासारत्तसरदहेमंतवसंतगिम्हपज्जंते छप्पि उऊ जहाविभवेणं माणमाणे 2 कालं गालेमाणे इट्टे सफरिसरसरूवगंधे पंचविहे माणुस्सए कामभोगे पचणुन्भवमाणे विहरह। KHATRE NALISAMACHAR For Private and Personal Use Only Page #260 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kalassagarsuri Gyanmandir तए णं खत्तियकुंडग्गामे नगरे सिंघाडगतियचउक्कचच्चरजाव बहुजणसद्देइ वा जहा उववाइए जाव एवं पनवेइ व्याख्या- एवं परूवेइ-एवं खलु देवाणुप्पिया! समणे भगवं महावीरे आइगरे जाव सम्बन्नू सव्वदरिसी माहणकुंडग्गामस्स 519 शतके प्रचप्तिः | नगरस्स बहिया बहुसालए चेइए अहापडिरूवं जाव विहरह, तं महप्फलं खलु देवाणुप्पिया! तहारूवाणं अर उद्देशा // 30 // हंताणं भगवंताणं जहा उववाइए जाव एगाभिमुहे खत्तियकुंडग्गामं नगरं मज्झंमज्झेणं निग्गच्छंति निग्गच्छित्ता // 830 // जेणेव माहणकुंडग्गामे नगरे जेणेव बहुसालए चेइए एवं जहा उववाइए जाव तिविहाए पज्जुवासणाए पज्जुवासंति / तए णं तस्स जमालिस्स खत्तियकुमारस्स तं महया जणसई वा जाव जणसन्निवायं वा सुणमाणस्स वा पासमाणस्स वा अयमेयारूवे अज्झथिए जाव समुप्पजित्था-किन्नं अज्ज खत्तियकुंडग्गामे नगरे इंदमहेइ वा खंदमहेइ वा मुगुंदमहेह वा णागमहेइ वा जखमहेह वा भूयमहेइ वा कूवमहेइ वा तडागमहेइ वा नईमहेइ वा | दहमहेइ वा पव्वयमहेइ वा रुक्खमहेइ वा चेइयमहेइ वा धूभमहेइ वा जणं एए बहवे उग्गा भोगा राइन्ना इक्खागा णाया कोरब्बा खत्तिया खत्तियपुत्ता भडा भडपुत्ता जहा उववाइए जाव सत्थवाहप्पभिइए ण्हाया क|यबलिकम्मा जहा उववाइए जाव निग्गच्छंति ?, एवं संपेहेइ एवं संपेहित्ता कंचुइज्जपुरिस सद्दावेति कंचु० 2 एवं | वयासी-किण्णं देवाणुप्पिया! अन्ज खत्तियकुंडग्गामे नगरे इंदमहेइ वा जाव निग्गच्छति ?, तए णं से कंचुइन्ज पुरिसे जमालिणा खत्तियकुमारेणं एवं वुत्ते समाणे हहतुट्टे समणस्स भगवओ महावीरस्स आगमणगहियवि15 णिच्छए करयल• जमालि खत्तियकुमारं जएणं विजएणं बद्धावेइ बद्धावेत्ता एवं वयासी-णो खलु देवाणुप्पिया! 81 SAISISSA SAAAASS CARRACCIALANKARI For Private and Personal Use Only Page #261 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir व्याख्याप्राप्ति // 831 // | उद्देशा FACHARACK है| अज्ज खत्तियकुंडग्गामे नयरे इंदमहेइ वा जाव निग्गच्छइ, एवं खलु देवाणुप्पिया! अज्ज समणे भगवं महावीरे है। जाव सब्वन्नू सव्वदरिसी माहणकुंडगामस्स नयरस्स बहिया बहुसालए चेहए अहापडिरूवं उग्गहं जाव विह-IP९कसके | रति, तए णं एए बहवे उग्गा भोगा जाव अप्पेगइया बंदणवत्तियं जाव निग्गच्छंति / तए णं से जमाली खत्तियकुमारे कंचुइज्जपुरिसस्स अंतिए एयमढे सोचा निसम्म हहतुट्ठ० कोडुंबियपुरिसे सद्दावेइ कोडुंबियपुरिसे सद्दा 831 // | बइत्ता एवं वयासी-खिप्पामेव भो देवाणुप्पिया! चाउग्घंट आसरहं जुत्तामेव उवट्ठवेह उवट्ठवेत्ता मम एयमाण-| त्तियं पचप्पिणह, तए णं ते कोडुंबियपुरिसा जमालिणा खत्तियकुमारेणं एवं वुत्ता समाणा जाव पचप्पिणंति, | हवे ते ब्राह्मणकुंडग्राम नगरनी पश्चिम दिशाए ए स्थळे क्षत्रियकुंडग्राम नामे नगर हतुं. वर्णन. ते क्षत्रियकुंडग्राम नामे नगरमां जमालि नामनो क्षत्रियकुमार रहेतो हतो. ते आय-धनिक, तेजस्वी अने यावद् जेनो पराभव न थइ शके एवो (समर्थ) हतो. ते 5 पोताना उत्तम प्रासाद उपर जेमां मृदंगो वागे छे एवा, अने अनेक प्रकारनी सुंदर युवतिओवडे भजवाता बत्रीश प्रकारना नाटकोबडे (नृत्यने अनुसारे) हस्तपादादि अवयवोने नचावतो 2, स्तुति करातो 2, अत्यन्त खुश करातो 2 प्रावृष्, वर्षा, शरद, हेमंत, वसंत, अने ग्रीष्म पर्यन्त ए छए ऋतुओमां पोताना वैभव प्रमाणे सुखनो अनुभव करतो 2, समयने गाळतो, मनुष्यसंवन्धी पांच प्रकारना | इष्ट शब्द, स्पर्श, रस, रूप अने गन्धरूप कामभोगोने अनुभवतो विहरे छे. त्यारवाद क्षत्रियकुंडग्राम नामना नगरमां शृंगाटक, त्रिक, चतुष्क अने चत्वरमां यावत् घणा माणसोनो कोलाहल थतो हतो-इत्यादि औपपातिक सूत्रमा कह्या प्रमाणे कहेवू यावत् घणां | माणसो परसपर ए प्रमाणे जणावे छे, यावत् ए प्रमाणे प्ररूपे छे के-हे देवानुप्रियो ! ए प्रमाणे खरेखर तीर्थनी आदिना करनारा, PRAKASSEX For Private and Personal Use Only Page #262 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir 9 शतके उदेश // 832 // यावत् सर्वज्ञ अने सर्वदर्शी श्रमण भगवन् महावीर आ ब्राह्मणकुंडग्राम नामे नगरनी बहार बहुशाल नामना चैत्यमा यथायोग्य अवव्याख्या- | ग्रहने ग्रहण करी यावत् विहरे छे, तो हे देवानुप्रियो ! तेवा प्रकारना अर्हत भगवंतना नामगोत्रना श्रवणमात्रथी पण मोटुं फल थाय | प्रज्ञप्तिः छे-इत्यादि औपपातिक सूत्रने अनुसारे वर्णन करवू. यावत् ते जनसमूह एक दिशा तरफ जाय छ, अने क्षत्रियकुंडग्राम नामे // 32 // | नगरना मध्यभागमांथी बहार निकळे छे, निकळीने ज्यं ब्राह्मणकुंडग्राम नामे नगर छे, अने ज्यां बहुशालक चैत्य छे त्यां आवे छे. | ए प्रमाणे बधुं औपपातिक सूत्रने अनुसारे कहे, यावत् त्रण प्रकारनी पर्युपासना करे छे. त्यार पछी ते घणा मनुष्यना शब्दने यावत् | जनाना कोलाहलने सांभळीने अने अवधारीने क्षत्रियकुमार जमालिना मनमा आवा प्रकारनो आ विचार यावत् उत्पन्न थयो-'शुं| आजे क्षत्रियकुंडग्राम नगरमा इन्द्रनो उत्सव छ, स्कन्दनो उत्सव छे, वासुदेवनो उत्सव छे, नागनो उत्सव छ, यक्षनो उत्सव छे. भूतनो उत्सव छे, कूवानो उत्सव छ, तळावनो उत्सव छे, नदीनो उत्सव छे, द्रहनो उत्सव छ, पर्वतनो उत्सव छे वृक्षनो उत्सव छे चैत्यनो उत्सव छे या स्तूपनो उत्सव छे, के जेथी ए बधा उग्रकुलना, भोगकुलना, राजकुलना, इक्ष्वाकुकुलना, ज्ञातकुलना अने कुरुवंशना क्षत्रियो, क्षत्रियपुत्रो, भटो, अने भटपुत्रो, इत्यादिऔपपातिकसूत्रने अनुसारे कहेवू, यावत् सार्थवाह प्रमुख स्नान करी, बलिकर्म (पूजा) करी इत्यादि औपपातिकमूत्रमा वर्णन कर्या प्रमाणे यावत् बहार निकळे छ ? एम विचार करे छे. विचार करीने जमालि कंचुकिने बोलावे छे, बोलावीने तेने आ प्रमाणे का-'हे देवानुप्रिय ! शुं आजे क्षत्रियकुंडग्राम नामना नगरमा इन्द्रनो उत्सव छ PIके यावत् आ बधा नगर बहार निकळे छ ? ज्यारे ते जमालि नामना क्षत्रियकुमारे ते कंचुकि पुरुषने ए प्रमाणे कात्यारे ते हर्षित || अने संतुष्ट थयो, अने ते श्रमण भगवन् महावीरना आगमननो निश्चय करीने हाथ जोडी जमालि नामे क्षत्रियकुमारने जय अने विजय SSCRICA RECRUGARCANE For Private and Personal Use Only Page #263 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyarmandir व्याख्याप्राप्ति 1833 // सके उद्देशा | 1183 // + 3RECॐॐॐॐॐॐ बडे वधावे छे. वधावीने तेणे आ प्रमाणे कयु-'हे देवानुप्रिय! आजे क्षत्रियकुंडग्राम नामे नगरमा इन्द्रनो उत्सव छे-इत्यादि तेथी यावत् बधा नीकळे छे, एम नथी, पण हे देवानुप्रिय ! ए प्रमाणे श्रमण भगवान् महावीर यावत् सर्वज्ञ, सर्वदर्शी ब्राह्मणकुंडग्राम नामे नगरनी बहार बहुशाल नामे चैत्यमां यथायोग्य अवग्रह ग्रहण करीने यावत् विहरे छे. तेथी ए उग्रकुलना, भोगकुलना क्षत्रियो-इत्यदि यावत् केटलाक वांदवा माटे नीकळे छे. त्यारपछी ते जमालि क्षत्रियकुमार कंचुकि पुरुष पासेथी ए वातने सांभळी, हृदयमां अवधारी Paa हर्षित अने अने संतुष्ट थई, कौटुंबिक पुरुषोने बोलावे छे, बोलावीने तेणे आ प्रमाणे का क-'हे देवानुप्रियो ! तमे शीघ्र चारघंटावाळा अश्वरथमे जोडीने हाजर करो अने हाजर करीने आ मारी आज्ञा पाछी आपो'. त्यारबाद जमालि क्षत्रियकुमारे ए प्रमाणे कथु एटले ते कौटुंबिक पुरुषो ते प्रमाणे अमल करी यावत् तेनी आज्ञा पाछी आपे छे. तए णं जमाली स्वत्तियकुमारे जेणेव मजणघरे तेणेव उवागच्छइ तेणव उवागच्छित्ता पहाए कयवलिकम्मे जहा उवबाइए परिसावन ओ तहा भाणियब्वं जाव चंदणाकिन्नगायसरीरे सव्वालंकारविभूसिएमजणघराओपडिनिक्षमइ मजणघराओ पडिनिक्वमित्ता जेणेच बाहिरिया उवट्ठाणसाला जेणेव चाउग्घंटे आसरहे तेणेव उवागच्छह तेणेव उवागच्छिन्ता चाउग्घंटं आसरहं दुरूहेइ चाउ० 2 ता सकोरंटमल्लदामेणं छरोणं धरिजमाणेणं महया भडचडकरपहकरवंदपरिक्खित्ते खत्तियकुंडग्गामं नगरं मज्झमझेणं निग्गच्छद निग्गच्छित्ता जेणेव माहणकुंडग्गामे नगरे जेणेव बहुसालए चेइए तेणेव उवागच्छह तेणेव उवाच्छित्ता तुरए निगिण्हेइ तुरए 2 त्ता रहं ठवेह रहं ठवेत्ता रहाओ पच्चोरुहति रहा. 2 सा पुप्फतंबोलाउहमादीयं वाहणाओ य विसज्जेइ २त्ता एग CALCCEKANA For Private and Personal Use Only Page #264 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir 1519 शतके | उद्देशा // 8340 साडियं उत्तरासंग करेह उत्तरासंगं करेत्ता आयंते चोक्खे परमसुइन्भूए अंजलिमउलियहत्थे जेणेव समणे व्याख्या- भगवं महावीरे तेणेव उवागच्छइ तेणेव उवागच्छित्ता समर्ण भगवं महावीरं तिक्खुनो आयाहिणपयाहिणं प्रज्ञप्तिः करेइ 2 तिक्खुत्तो 2 जाव तिविहाए पज्जुवासणाए पज्जुवासइ। तए णं समणे भगवं महावीरे जमालिस्स खत्ति८३४॥ यकुमारस्स तीसे य मह तिमहालियाए इसिजावधम्मकहा जाव परिसा पडिगया, त्यारपछी ते जमालि क्षत्रियकुमार ज्यां स्नानगृह छे त्यां आवे छे, त्यां आवीने स्नान करी, तेणे बलिकर्म (पूजा) कर्यु-इत्यादि यावत् जेम औपपातिकसूत्रमा पर्षदनुं वर्णन कयु छे तेम अहिं जाणवू, यावत् चंदनथी जेना शरीरे विलेपन करायेलं छे एवो ते जमालि सर्व अलंकारथी विभूषित थई स्नानगृहथी बहार निकळे छे. बहार निकळीने ज्या बहार उपस्थानशाला छे, अने ज्यां चारघंटावाळो अश्वरथ उभो के त्यां आवे छे. त्यां आविने ते चारघंटावाला अश्वरथ उपर चढे के. चढीने माथा उपर धारण कराता कोरंटपुष्पनी माळावाळा छत्रसहित, महान् योद्धाओना समूहथी विंटायेलो ते क्षत्रियकुंडग्राम नामे नगरना मध्यभागथी बहार निकळे छे. निकळीने ज्यां ब्राह्मणकुंडग्राम नगर आवेलुं छे, अने ज्यां बहुशाल नामे चैत्य छे त्यां आवे छे. त्यां आवीने घोडाओने रोके छे, अने स्थने उभो राखे छे. रथने उभो राखी, रथथी नीचे उतरे छे. उतरीने पुष्प, तांबूल, आयुधादि तथा उपानहनो (पगरखानो) त्याग करे के त्याग करीने एक सळंगवस्त्रनुं उत्तरासंग करे छे. करीने कोगळो करी चोक्खा अने परम पवित्र थईने अंजलिवडे वे हाथ जोडीने ज्यां श्रमण भगवन् महावीर छे त्यां आवे छे, त्यां आवीने श्रमण भगवंत महावीरने त्रण वार प्रदक्षिणा करी यावत् त्रिविध पर्युपास5नाथी उपासे छे. त्यारपछी श्रमण भगवंत महावीर जमालि नामे क्षत्रियकुमारने अने ते अत्यन्त मोटी ऋषि पर्षदाने यावत् धर्मोपदेश SSCCURIOSIGNOSISA GACAKALKACCAKACKALA For Private and Personal Use Only Page #265 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir शतके उदेश // 835 // करे छे. यावत् ते पर्षद् (धर्मोपदेश श्रवण करीने) पाछी गई. व्याख्या ना तए णं से जमाली खत्तियकुमारे समणस्स अगवओ महावीरस्स अंतिए धम्मं सोचा निसम्म हट्ठ जाव उट्ठाए | प्राप्ति 18| उद्वेइ उट्ठाए उद्वेत्ता समणं भगवं महावीरं तिक्खुत्तो जाव नमंसित्ता एवं बयासी-सहहामि णं भंते ! निग्गंध 8 // 835 // पावयणं पत्तयामि णं भंते ! निग्गंथं पावयणं रोएमि णं भंते ! निग्गंथं पावयणं अन्भुढेमि भंते! निग्गंथं पाव यणं एवमेयं भंते ! तहमेयं भंते ! अ वितहमेयं भंते! असंदिद्धमेयं भंते !जाव से जहेयं तुझे वदह, जं नवरं देवाणुप्पिया! अम्मापिपरो आपुच्छामि, तए णं अहं देवाणुप्पियाणं अतिय मुंडे भवित्ता अगाराओ अणगारियं पब-18 यामि, / अहासुहं देवणुप्पिया!मा पडिबन्धं // 383 // | त्यारबाद ते जमालि नामे क्षत्रियकुमार श्रमण भगवान् महावीरनी पासेथी धर्म ने सांभळी, हृदयमा अवधारीने हर्पित अने संतु|ष्टहृदयवाळो थयो, अने यावत् उभो थइने श्रमण भगवंत महावीरनी त्रण वार प्रदक्षिणा करी, वंदन-नमस्कार करी तेणे आ प्रमाणे कडु- हे भगवन् ! हुं निग्रंथना प्रवचननी श्रद्धा करूं छु, हे भगवन् ! हुं निग्रंथना प्रवचन उपर विश्वास करूं छु, हे भगवन् ! हुं निग्रंथना प्रवचन उपर रुचि करूं छु, अने हे भगवन् ! निग्रंथना प्रवचनानुसारे वर्तवाने तैयार थयो छु. वळी हे भगवन् ! जे तमे उपदेशो छो ते निग्रन्थ प्रवचन एम ज छे, हे भगवन् ! तेमज के. हे भगवन् ! सत्य छे, हे भगवन् ! असंदिग्ध (निश्चित) छे, परन्तु हे देवानुप्रिय ! मारा माता पितानी रजा मागीने हुँ आप देवानुप्रियनी पासे मुंड-दीक्षित थइ गृहवासनो त्याग करी अनगारिकपणाने स्वीकारवा इच्छु छु.' हे देवानुप्रिय ! जेम मुख उपजे तेम करो, प्रतिबंध न करो.'॥ 383 // (अनुसंधान भाग चोथामां ) RAMANARASILA For Private and Personal Use Only Page #266 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir व्याख्याप्राप्तिः // 86 // 9 शतके उमेशा // 836 // PEBBLAEDE ESPOLABDEEE // इति श्रीमद् भगवतीसूत्रे मूलार्थसह तृतीयो भागः समाप्तः // RRCHANICAKESARKARIES For Private and Personal Use Only