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व्याख्याप्रज्ञप्तिः ॥७०५॥
शतके
१७०५॥
ACCॐ
रप्पयोबंधंतरंकालओकेवचिरं होइ?,गोयमा सम्वधंतर जहनेणं दो खुडाई भवग्गहणाई तिसमयऊणाई उकोसेणं अणंतं कालं अणंवा उस्सप्पिणीओसप्पिणीओ कालओखेत्तओ अणतालोगा असंखेज्जा पोग्गलपरिया, | तेणं पोग्गलपरिया आवलियाए असंखेजइभागो, देसबंधंतरं जहनेणं खुडाग्गभवग्गहण समयाहियं उक्कोसेणं अणतं कालं जाब आपलियाए असंखेजहभागो, जहा पुढविकाइयाणं एवं वणस्सइकाइयवजाणं जावमणुस्साणं, वणस्मइकाइयाणं दोनि खुड्डाई, एवं चेव उक्कोसेणं असंखिजं कालं असंग्विजाओ उस्सप्पिणिओसप्पिणीओ | कालओ खेत्तओ असंखेजा लोगा, एवं देसबंधतरंपि उक्कोसेणं पुढवीकालो॥ एएसिणं भंते! जीवाणं ओरालियमरीरस्स देसबंधगाणं सब्वबंधगाणं अबंधगाण य कयरे २ जाव विसेसाहिया वा?, गोयमा! सव्वत्थोवा जीवा ओरालियसरीरस्स सब्वबंधगा अचंधगा विसेसाहिया देसबंधगा असंखेजगुणा (पत्र ३४७)॥ 1 [प्र.] हे भगवन् ! कोइ जीव पृथिवीकायपणामां होय, त्यांथी पृथिवीकाय सिवायना बीजा जीवोमां उत्पन्न याय अने पुनः | ते पृथिवीकायमां आवे तो पृथिवीकायिक एकेन्द्रिय औदारिकशरीरपयोगबन्धन अन्तर केटलं होय ? [उ०] हे गौतम ! सर्वबन्धनुं | अन्तर जघन्यथी ए रीते त्रण समय न्यून वे क्षुल्लक भव पयन्त छे, अने उत्कृष्टयी कालनी अपेक्षाए अननकाल - अनन्त उत्मर्पिणी अने अवसर्पिणी छे, क्षेत्रथी अनन्तलोक-असंख्य पुद्गलपरावर्त छे, अने ते पुद्गलपरावर्त आवलिकाना असंख्यातमा भागना (पमय)। तुल्य छे. तथा देशबन्धन अन्तर जयन्यथी समयाधिक क्षुल्लक भव, अने उत्कृष्टथी अनन्तकाल, यावत् आवलिकाना अपंख्यातमा भागना समय तुल्य असंख्य पुद्गलपरावर्त छ. जेम पृथिवीकायिकोने ४ तेम वनस्पतिकायिक सिवाय बाकीना यावद् मनुष्य
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