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व्याख्या
प्रज्ञप्तिः
॥६३५॥
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ज्ञानवाळा अने केटलाक चार ज्ञानवाळा हे. जेओ त्रण ज्ञानवाळा हे तेओ आभिनिबोधिक, श्रुतज्ञानी अवधिज्ञानी छे; जेओ चार ज्ञानवाळा छे तेओ आभिनिबोधिकज्ञानी, यावत् मनःपर्यायज्ञानी छे. जेओ अज्ञानी छे तेओ अवश्य त्रण अज्ञानवाळा छे. ते आ प्रमाणे - मतिअज्ञानी, श्रुतअज्ञानी, अने विभंगज्ञानी. केवलदर्शन अनाकारोपयोगवाळा जीवो केवलज्ञानलब्धिवाळा पेठे (सू०७५.) | एक केवलज्ञानयुक्त जाणवा.
योगी णं भंते! जीवा किं नाणी जहा सकाइया, एवं मणजोगी वड़जोगी कायजोगीवि, अजोगी जहा सिद्धा ।। सलेस्सा णं ते! जहासकाइया, कण्डलेस्सा णं भंते! जहा सइंदिया, एवं जाव पम्ह लेस्सा, सुक्कलेस्सा जहा सलेस्सा, अलेस्सा जहा सिद्धा || सकसाई णं भंते ! जहा सइंदिया, एवं जाव लोहकमाई, अकसाईणं भंते! पंच नाणाई | भयणाः ॥ सवेदगा णं भंते! जहा सइंदिया, एवं इत्थिवेदगावि, एवं पुरिसवेयगा एवं नपुंसकवे०, अवेदगा जहा अकसाई | आहारगा णं भंते ! जीवा जहा सकसाई, नवरं केवलनाणंपि, अणाहारगा णं भंते ! जीवा किं नाणी अन्नाणी ?, मणपजवनाणवजाई नाणाई अन्नाणाणि य तिन्नि भयणाए || ( मृत्रं ३२० ) ॥
[प्र० ] हे भगवन् ! सयोगी जीवो शुं ज्ञानी छे के अज्ञानी छे ? [उ०] तेओ सकायिकनी पेठे (सू० ३८.) जाणवा. ए प्रमाणे मनयोगी, वचनयोगी अने काययोगी पण जाणवा. अयोगी-योगरहित जीवो सिद्धोनी पेठे ( सू० ३०.) जाणवा. [प्र०] हे भगवन् ! लेश्यावाळा जीवो शुं ज्ञानी छे के अज्ञानी छे ? [उ०] हे गौतम! तेओ सकायिकनी पेठे ( सू० ३८. ) जाणवा. [ प्र० ] कृष्णलेश्यावाळा जीवो शुं ज्ञानी छे के अज्ञानी छे ? [उ०] तेओ सेन्द्रिय जीवोनी पेठे ( सू० ३५.) जाणवा. ए प्रमाणे यावत्
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८ शतके उद्देशः २ | ||६३५॥