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व्याख्या- प्रज्ञप्तिः ॥६६॥
पण मनुष्यो जीवोनी पेठे कहेवा. [प्र.] हे भगवन् ! जीवो औदारिक शरीरोने आश्रयी केटली क्रियावाळा होय? [उ०] हे गौतम!
८ शतके कदाच त्रण क्रियावाला पण होय, चार क्रियावाला पण होय, पांच क्रियावाला पण होय अने क्रियारहित पण होय.[प्र०] हे भग
उद्देशः६ वन् ! नैरयिको (परकीय) औदारिक शरीरोने आश्रयी केटली क्रियावाळा होय ? [उ०] हे गौतम ! त्रण क्रियावाला पण होय, चार क्रियावाला पण होय, अने पांच क्रियावाला पण होय. ए प्रमाणे यावत् वमानिको जाणवा. पण मनुष्यो जीवोनी पेठे जाणवा.
जीवे णं भंते ! वे उब्वियसरीराओ कति किरिए?, गोयमा ! सिय तिकिरिए सिय चउकिरिए सिय अकिरिए, नेरइए णं भंते ! वेउब्बियसरीराओ कतिकिरिए ?, गोयमा! सिय तिकिरिए सिय चउकिरिण, एवं जाव वेमा|णिए, नवरं मणुस्से जहाजीवे, एवं जहा ओरालियमरीराणं चत्तारि दंडगा भणिया तहा वेउनि यसरीरेणवि चत्तारि | दंडगा भाणियब्वा, नवरं पंचमकिरिया न भन्नइ, सेस तं चेत्र, एवं जहा वेउब्वियं तहा आहारगंपि तेयगंपि कम्मगपि भाणियव्वं, एकेके चत्तारि दंडगा भाणियचा जाव वेमाणियाण भंते! कम्नगमरीरेहिंतो कइकिरिया ?, गोयमा ! तिकिरियावि चउकिरियावि, सेवं भंते ! सेवं भंते!॥ (सूत्रं ३३५)॥ अहमसयस्म छट्ठो | उद्देसओ ममत्तो।। ८-६॥ | [प्र०] हे भगवन् ! जीव (परकीय) वैक्रियशरीरने आश्रयी केटली क्रियावालो होय ? [उ०] हे गौतम ! कदाच त्रण क्रिया
वालो, कदाच चार क्रियावाळो अने कदाच अक्रिय होय. [प्र.] हे भगवन् ! नरयिक (परसंबन्धी) वैक्रिय शरीरने आश्रयीने केटली |क्रियावाळो होय ? [उ०] हे गौतम ! कदाच त्रण कियावाळो अने कदाच चार क्रियावालो होय. ए प्रमाणे यावत् वैमानिक सुधोग
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