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व्याख्या
प्रज्ञप्तिः
॥७१५॥
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जोवने आहारकशरीरप्रयोगवन्ध होतो नथी. ए प्रमाणे ए अभिलापथी 'अवगाहनासंस्थान' पदमां कह्या प्रमाणे यावद् ऋद्धिवास प्रमत्तसंयत सम्यग्दृष्टि पर्याप्त संख्यात वर्षंना आयुष्यवाळा कर्मभूमिमां उत्पन्न थएला गर्भज मनुष्यने आहारकशरीरप्रयोगबन्ध होय छे, पण ऋद्धिने अमाप्त प्रमत्तसंयतने यावद् आहारकशरीरप्रयोगबंध होतो नथी. [ प्र० ] हे भगवन्! आहारकशरीर प्रयोगबन्ध कया कर्मना उदयथी होय छे ? [उ०] हे गौतम! सवीर्थता, सयोगता अने सद्द्रव्यताथी यावद् लब्धिने आश्रयी आहारकशरीर प्रयोगनामकर्मना उदयथी आहारकशरीर प्रयोगबन्ध होय छे. [प्र०] हे भगवन् ! आहारकशरीरमयोगबन्ध शुं देशबन्ध छे के सर्वबन्ध छे ? [अ०] हे गौतम ! देशबन्ध पण छे अने सर्वबन्ध पण छे. [प्र०] हे भगवन् ! आहारकशरीरप्रयोगवन्ध कालथी क्यांसुधी होय ? [[अ०] हे गौतम! तेनो सर्वबंध एक समय, अने देशबंध जघन्यथी अंतर्मुहूर्त अने उत्कृष्टथी पण अंतर्मुहूर्त सुधी होय छे. [प्र० ] हे भगवन! आहारकशरीरमा प्रयोगबंधनुं अंतर कालथी केटलं होय छे ? [अ०] हे गौतम ! तेना सर्वबंधनुं अंतर जघन्यथी अंतर्मुहूर्त, अने उत्कृष्टथी कालनी अपेक्षाए अनंतकाल - अनंत उत्सर्पिणी अने अवसर्पिणी होय हे. क्षेत्रथी अनंतलोक- कांइक न्यून अर्धपुद्गल परावर्त छे. ए प्रमाणे देशबंधनुं अंतर पण जाणं. [प्र० ] हे भगवन् ! आहारकशरीरना देशबंधक सर्वबंधक अने अबंधक जीवोमां कया -जीवों कया जीवोथी यावद् विशेषाधिक के ? [उ०] हे गौतम! सौथी थोडा जीवो आहारक्रशरीरना सर्वबंधक छे, तेषी देशबंधक संख्यातगुणा छे, अने तेथी अबंधक जीवो अनंतगुणा के ॥ ३४८ ॥
तेयासरीरप्पयोगबंधे णं भंते! कतिविहे पण्णत्ते १, गोयमा ! पंचविहे पण्णत्ते, संजहा- एगिंवियते यासरीरप्पयोगबंधे बेइंदिय० तेइंदिय० जाव पंचिंदियतेयास संरूपयोगयंचे। एमिंदियते या सरीरप्पयोगयंघे णं भंते । कइ विहे
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८ शतके उद्देशः ९ ।।७१५।।