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व्याख्या
प्रज्ञतः ||६६०॥
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राहए, से य संपट्टिए संपत्ते अप्पणा य, एवं संपत्तेणवि चत्तारि आलावगा भाणियब्वा जहेव असंपत्तेणं । निग्गंथेण बहिया वियारभूमि वा विहारभूमिं वा निक्खतेणं अन्नयरे अकिञ्चट्ठाणे पडिसेविए, तस्स णं एवं भवति इहेव ताव अहं एवं एत्थवि एते चेव अट्ठ आलावगा भाणियव्वा जाव नो विराहए । निग्गंथेण य गामाणुगामं दृइज्जमाणेणं अन्नयरे अचिट्ठाणे पडिसेबिए तस्स णं एवं भवति इहेव ताव अहं एत्थवि ते चैव अट्ठ आलावगा भाणियव्वा | जाव नो विराहए ॥ निग्गंधीए य गाहावइकुलं पिंडवायपडियाए अणुपविट्ठाए अन्नयरे अकिञ्चट्ठाणे पडिसेविए तीसे णं एवं भवइ, इहेब ताव अहं एयस्स ठाणस्स आलोएमि जाव तवोकम्मं पडिवज्जामि तओ पच्छा पवत्तिणीए अंतियं आलोएस्सामि जाव पडिवज्जिस्सामि, सा य संपट्टिया असंपत्ता पवत्तिणीय अमुहा सिया, साणं भंते! किं आराहिया विराहिया ?, गोयमा ! आराहिया, नो विराहिया, सा य संपट्टिया जहा निग्गंधस्स तिन्नि | गमा भणिया एवं निग्गधी एवि तिन्नि आलावगा भाणियव्वा जाव आराहिया, नो विराहिया ॥
[प्र०] ते निर्ग्रन्थ स्थविरोनी पासे जवा नीकळे अने पहोंचता वार ते स्थविरो मूक थह जाय, तो हे भगवन् ! शुं ते निर्ग्रन्थ आराधक के विराधक छे ? [अ०] हे गौतम! ते निर्ग्रन्थ आराधक छे पण विराधक नथी. हवे ते निर्ग्रन्थ स्थविरोनी पासे जाय अने त्यां पहोंचता वार ते (निर्ग्रन्थ) मूक थइ जाय तो शुं ते निर्ग्रन्थ आराधक छे के विराधक छे ? इत्यादि संप्राप्त (पहोंचेला ) निर्मन्थना चार आलापक असंप्राप्त (नहि पहोंचेला ) निर्ग्रन्थनी पेठे कहेवा. कोई निर्ग्रन्थे बहार निहारभूमि के विहारभूमि तरफ जतां कोई एक अकृत्यस्थाननुं प्रतिसेवन करें होय, पछी तेने एम थाय के 'हुं प्रथम अहीं तेनुं आलोचनादि करूं' - इत्यादि पूर्वनी
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८ शतके उद्देशः ६
॥६६०॥