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रहित न होय. [प्र०] हे भगवन् ! जो ते कषायवाळो होय तो तेने केटला कषायो होय ? [उ०] हे गौतम ! तेने संज्वलनक्रोध, व्याख्या-15 मान, माया अने लोभ-ए चार कषाय होय. [प्र०] हे भगवन् ! तेने केटला अध्यवसायो कह्या छे ? [उ.] हे गौतम ! तेने असं- 81९ शतके प्रज्ञप्तिः ख्याता अध्यवसायो कह्यां छे. [प्र०] हे भगवन् ! ते अध्यवसायो प्रशस्त होय के अप्रशस्त होय ? [उ०] हे गौतम! प्रशस्त अध्यव- उद्देशम्भ ॥७६२॥ सायो होय, पण अप्रशस्त न होय. [प्र०] हे भगवन् ! ते (अवधिज्ञानी) वृद्धि पामता प्रशस्त अध्यवसायोवडे अनंत नारकना भवोथी
॥७६२॥ पोताना आत्माने विमुक्त करे, अनंत तिथंचोना भवथी आत्माने विमुक्त करे, अनं तमनुष्यभवोथी आत्माने विमुक्त करे, अने अनंत देवभवोथी आत्माने विमुक्त करे. तथा तेनी जे आ नरकगति, तिथंचगति, मनुष्यगति अने देवगति नामे चार उत्तर प्रकृतिओ छ, तेनी अने बीजी प्रकृतिओना आधारभूत अनंतानुबंधी क्रोध, मान, माया अने लोभनो क्षय करे, तेनो क्षय करीने अप्रत्याख्यान कषायरूप क्रोध, मान, माया अने लोभनो क्षय करे, क्षय करीने प्रत्याख्यानावरण क्रोध, मान, माया अने लोभनो क्षय करे, तेनो क्षय करी संज्वलन क्रोध, मान, माया अने लोभनो क्षय करे, पछी पांच प्रकारे ज्ञानावरणीय कर्म, नव प्रकारे दर्शनावरणीय कर्म, पांच प्रकारे अंतराय कर्म, तथा मोहनीय कर्मने छे दायेल मस्तकवाळा ताडवृक्षना समान (क्षीण) करीने कर्म रजने विखेरी नांखनार अपूर्व करणमा प्रवेश करेला एवा तेने अनंत, अनुत्तर, व्याघातरहित, आवरणरहित, सर्व पदार्थने ग्रहण करनार, प्रतिपूर्ण श्रेष्ठ ए, केवलझान अने केवलदर्शन उत्पन्न थाय छे. ॥ ३६७॥
से णं भंते ! केवलिपन्नत्त धम्म आघवेज वा पन्नवेज वा परवेज वा?, नो तिणढे समढे, णण्णत्थ एगणाएण वा एगवागरणेण वा, से णं भंते! पवावेज वा मुंडावेज वा?, णो तिणडे समढे, उवदेसं पुण करेजा, से |
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