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व्याख्याप्रज्ञप्तिः ॥६९३॥
८ शतके उद्देशः ९ ॥६९३॥
| चइए । से किं तं भायणपञ्चइए?, भा० २ जन्नं जुन्नसुराजुन्नगुलजुन्नतंदुलाणं भायणपचइएणं बंधे समुप्पजड़ ज. हनेणं अंतोमुहत्तं उक्कोसेणं संखेनं कालं, सेत्तं भायणपञ्चइए । से किं तं परिणामपञ्चइए?, परिणामपच्चइए जन्नं अब्भाणं अब्भरुक्खाणं जहा ततियसए जाव अमोहाणं परिणामपञ्चइए णं बंधे समुप्पज्जइ जहन्नेणं एक समयं उक्कोसेणं छम्मासा, सेत्तं परिणामपञ्चइए, सेत्तं साइयवीससाबंधे, सेत्त वीसमाबंधे ( सूत्रं ३४५)॥ l [प्र०] हे भगवन् ! विस्रसाबन्ध केटला प्रकारनो कह्यो छे ? [उ०] हे गौतम ! बे प्रकारनो को छे, ते आ प्रमाणे-सादिविस
साबध अने अनादि विस्रसाबन्ध. [प्र.] हे भगवन् ! अनादि विमुसाबन्ध केटला प्रकारनो कह्यो छे ? [उ०] हे गौतम! त्रण प्रकारनो कह्यो छे, ते आ प्रमाणे-धर्मास्तिकायनो अन्योन्य अनादि विस्रसाबन्ध, अधर्मास्तिकायनो अन्योन्य अनादि विस्रसाबन्ध अने आकाशास्तिकायनो पण अन्योन्य अनादि विस्रसाबन्ध. [प्र०] हे भगवन् ! धर्मास्तिकायनो अन्योन्य अनादि विस्रसाबन्ध देशबन्ध छे के सर्वबन्ध छ ? [उ०] हे गौतम ! देशबन्ध छे, पण सर्वबन्ध नथी. ए प्रमाणे अधर्मास्तिकायनो अन्योन्य अनादि विस्रसाबन्ध | जाणवो. एवी रीते आकाशास्तिकायनो अन्योन्य अनादि विरसावन्ध जाणवो. [प्र०] हे भगवन् ! धर्मास्तिकायनो अन्योन्य अनादि विस्रसाबन्ध कालथी क्यां सुधी होय ? [उ०] हे गौतम! सर्व काल सुधी होय छे. ए प्रमाणे अधर्मास्तिकाय अने आकाशास्तिका| यनो अन्योन्य अनादि विस्रसावन्ध जाणवो. [प्र०] हे भगवन् ! सादिविस्रसाबन्ध केटला प्रकारनो कह्यो छे ? [उ०] हे गौतम! |त्रण प्रकारनो कह्यो छे; ते आ प्रमाणे-१ बंधनप्रत्ययिक, २ भाजनप्रत्ययिक अने ३ परिणामप्रत्ययिक. [प्र०] हे भगवन् ! |बंधनप्रत्ययिक(सादि बन्ध केवा प्रकारे छे ? [उ०] द्विप्रदेशिक, त्रिप्रदेशिक, यावद् दशप्रदेशिक, संख्यातप्रदेशिक, असंख्यातन
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