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व्याख्याप्रज्ञप्तिः ॥३२१॥
८ शतके हा उद्देशः२
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॥६२१॥
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दिया। पज्जत्ता णं भंते ! पंचिंदियतिरिक्खजोणिया किं नाणी अन्नाणी ?, तिन्नि नाणा तिन्नि अन्नाणा भयणाए। मणुस्सा जहा सकाइया । वाणमंतरा जोइसिया वेमाणिया जहा नेरइया । अपज्जत्ता णं भंते ! जीवा किं नाणी. २?,तिन्नि नाणा, तिन्नि अन्नाणा भयणाए । अपज्जत्ता णं भंते! नेरतिया किं नाणी अन्नाणी?,तिन्नि नाणा नियमा, तिन्नि अन्नाणा भयणाए, एवं जाव थणियकुमारा । पुडविक्काइया जाव वणस्मइकाइया जहा एगिदिया।
[प्र०] हे भगवन् ! कायरहित जीवो शुं ज्ञानी छे के अज्ञानी छ ? [उ.] हे गौतम ! सिद्धोनी पेठे (सू०३०) तेओ जाणवा. [प्र०] हे भगवन् ! सूक्ष्म जीवो शुं ज्ञानी के के अज्ञानी छ ? [उ०] पृथिवीकायिकोनी पेठे (सू० २७.) जाणवा. [प्र.] हे भगवन् ! बादरजीवो शुं ज्ञानी छे के अज्ञानी छ ? [उ०] हे गौतम ! सकायिक जीवोनी पेठे (सू० ३८.) जाणवा. [प०] हे भगवन् ! नोमूक्ष्म नोचादर जीवो शुं ज्ञानी ले के अज्ञानी छ ? [उ०] सिद्धोनी पेठे (सू०३०.) जाणवा. [प्र०] हे भगवन् ! पर्याप्त जीवो शुं ज्ञानी छे के अज्ञानी छ ? [उ०] सकायिक जीवोनी पेठे (सू० ३८.) जाणवा. [प्र०] हे भगवन् पर्याप्त नैरयिको शुं ज्ञानी छे ? | के अज्ञानी छ ? [उ०] हे गौतम! तेओने त्रण ज्ञान अने त्रण अज्ञान अवश्य होय छे. जेम नैरयिको माटे कई तेम यावत् स्तनितकुमार देवो माटे जाणवू. पृथिवीकायिको एकेन्द्रियनी पेठे (मू० ३६.) जाणव'. ए प्रमाणे यावत् चररिदिय जीवो जाणवा: [प्र०] हे भगवन् ! पर्याप्त पंचेन्द्रिय तिर्यचयोनिको शुं ज्ञानी छे के अज्ञानी छ ? [उ०] हे गौतम! तेओने त्रण ज्ञान अने त्रण अज्ञान भजनाए होय छे, मनुष्यो सकायिकनी पेठे (सू० ३८) जाणवा. वानव्यंतरो, ज्योतिषिको अने वैमानिको नैयिकनी पेठे | (सू० २५.) जाणवा. [प्र०] हे भगवन् ! अपर्याप्त जीवो शुं ज्ञानी छे के अज्ञानी छ ? [उ०] हे गौतम ! तेओने त्रण ज्ञान अमें
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