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याख्याप्रज्ञप्तिः ॥६२२॥
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त्रण अज्ञान भजनाए . [प्र०] हे भगवन् ! अपर्याप्त नरयिको शुं ज्ञानी छे के अज्ञानी छ ? उ०] हे गौतम ! तेओने अवश्य त्रण ज्ञान छे अने भजनाए त्रण अज्ञान छे, ए प्रमाणे यावत् स्तनितकुमार देवो जाणवा. जेम एकेन्द्रियो संबन्धे (सू० ३६.) का ।
८ शतके तेम अपर्याप्त पृथिवीकायिकथी आरंभी वनस्पतिकायिक पर्यन्त कहे.
उद्देशः२ बेंदियाणं पुच्छा, दो नाणा दो अन्नाणा णियमा, एवं जाव पंचिंदियतिरिक्खजोणियाणं । अपज्जत्तगाणं P॥२२॥ भंते! मणुत्सा किं नाणी अन्नाणी,तिन्नि नाणाई भयणाए,दो अन्नाणाई नियमा,वाणमंतरा जहा नेरइया,अपज्जत्तगा जोइसियवेमाणिया णं तिन्नि नाणा, तिन्नि अन्नाणा नियमा । नोपज्जत्तगानोअपज्जत्तगा णं भंते ! जीवा किं नाणी?, जहा सिद्धा५॥ निरयभवत्था णं भंते ! जीवा किं नाणी अन्नाणी ?, जहा निरयगतिया। तिरियभवत्था णं भंते ! जीवा किं नाणी अन्नाणी ?, तिन्नि नाणा, तिन्नि अन्नाणा भयणाए। मणुस्सभवस्था णं. जहा सकाइया । देवभवत्था णं भंते ! जहा निरयभवत्था । अभवत्था जहा सिद्धा६॥ भवसिद्धिया णं भंते ! जीवा किं नाणी.?, जहा सकाइया, । अभवसिद्धियाणं पुच्छा, गोयमा! नो नाणी, अन्नाणी, तिन्नि
अन्नाणाई भयणाए। नोभवसिद्धियानोअभवसिद्धिया णं भंते ! जीवा० जहा सिद्धा ७॥ सन्नीणं पुच्छा जहा | सइंदिया, असन्नी जहा इंदिया, नोसन्नीनोअसन्नी जहा सिद्धा ८॥ (सूत्रं ३१८)॥
[प्र.] अपर्याप्त बेइन्द्रिय जीवो ज्ञानी के अज्ञानी ? [उ.] तेओने वे ज्ञान अने वे अज्ञान अवश्य होय छे. ए प्रमाणे यावत्, पंचेन्द्रिय तिर्यंचयोनिक सुधी जाणवू. [प्र०] हे भगवन् ! अपर्याप्त मनुष्य शुं ज्ञानी होय छे के अज्ञानी होय छ ? [उ०] हे गौतम
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