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व्याख्या
प्रज्ञप्तिः ॥ ३४५॥
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अधः सप्तम पृथिवी अने ईषत्प्राग्भारा ( सिद्धशिला) [प्र०] हे भगवन् ! आ स्त्रप्रभा पृथिवी शुं चरम - प्रान्तत्रर्ती के अचरममध्यवर्ती छे ? इत्यादि. [30] अहीं (प्रज्ञापना: सूत्रनुं ) 'चरम ' पद सधळं कहेतुं यावत् [प्र० ] हे भगवन् !"वैमानिको स्पर्श चरमवडे शुं चरम छे के अंचरम छे ? [उ० ] हे गौतम! तेओ चरम पण के अने अचरम पण छे. हे भगवन् ! तेः एमन छे, हे भगवन्! ते एमजछे. एम कही भगवान् गौतम यावत् विचरे छे. ।। ३२५ ।।
भगवत् सुधर्मस्वामीप्रणीत श्रीमद् भगवतीसूत्रना आठमा शतकमां श्रीजा उद्देशानो मूलार्थ संपूर्ण थयो: उद्देशक ४.
रायगिहे जाव एवं क्यासी-कति णं भंते । किरियाओ पन्नत्ताओ ?, गोयमा ! पंच किरियाओं पन्नत्ताओं, तंजा - काइया अहिगरणिया, एवं किरियापदं निरवसेसं भाणियव्वं जाव मायावत्तियाओं किरियाओ विसेसाहियाओ, सेवं भंते ! सेवं भंतेत्ति भगवं गोयमे० ॥ ( सूत्रं ३२६ ) ।। ८-४ ।।
[प्र० ] राजगृह नगरमां यावत् (गौतम) ए प्रमाणे बोल्या के हे भगवन् ! केटली क्रियाओ कहीं छे ? [उ०] हे गौतम! पांच क्रियाओ कही छे, ते आ प्रमाणे-कायिकी, अधिकरणिकी-ए प्रमाणे अहीं (प्रज्ञापना सूत्रनुं बावीस) सघळु क्रियापद यांवत् ' मायाप्रत्ययिक क्रियाओ विशेषाधिक छे' त्यांसुधी कहेनुं, हे भगवन ते एमज हे, हे भगवन् ! ते एमज छे (एम कही भगवान्: गौतम यावद् विहरे छे.) ॥ ३२६ ॥
भगवत् सुधर्मस्वामीप्रणीत श्रीमद् भगवतीसूत्रना आठमा शतकमा चोथा उद्देशानों मूलार्थ संपूर्ण थयो.
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.८ शतके उद्देशः ४
५६४५॥