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व्याख्या
प्रज्ञप्तिः ॥७१३ ॥
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[प्र०] हे भगवन् ! आनतदेवलोकमा देवपणे उत्पश्च भयेलो कोइ जीव त्यांथी ( व्यवी) आनत देवलोक सीवायना जीवोमां उत्पन्न थाय अने पाछो फरीने त्यां आनत देवलोकमां उत्पन्न थाय ते आनतदेव वैक्रियशरीरप्रयोगवन्धना अन्तर संबन्धे प्रश्न. [ उ० ] हे गौतम! सर्वबन्ध अन्तर जघन्यथी वर्षपृथक्त्व अधिक अढार सागरोपम, अने उत्कृष्ट अनंतकाल्द-वनस्पतिकालपर्यन्त होय. तथा देशवन्धनुं अन्तर जघन्यथी वर्षपृथक्त्व, अने उत्कृष्ट अनंतकाल - वनस्पतिकाल होय. ए प्रमाणे यावद् अच्युत देवलोक पर्यन्त जाणं परन्तु सर्वबन्धनुं अन्तर जघन्यथी जेनी जे स्थिति होय ते वर्षपृथक्त्व अधिक करवी. बाकी बधुं पूर्वनी पेठे जाणं. [प्र० ] ग्रैवेयक कल्पातीत वैक्रियशरीरप्रयोग बन्धना अन्तर संबन्धे प्रश्न. [30] हे गौतम! सर्वत्रन्धनुं अन्तर जघन्यथी वर्षपृथक्त्व अधिक बावीश सागरोपम, अने उत्कृष्टथी अनंतकाल वनस्पतिकाल सुधी होय. तथा देशवन्धनुं अन्तर जघन्यथी वर्षथक्त्व भने उत्कृष्टथी वनस्पतिकाल जाणवो. [प्र० ] हे भगवन् ! अनुत्तरौपपातिकदेव संबंधे प्रश्न. [उ०] हे गौतम! सर्वत्रन्धनुं अन्तर जघन्यथी वर्षपृथयक्त्व अधिक एकत्रीश सागरोपम, भने उत्कृष्टथी संख्पात सागरोपम है, तथा देशबन्ध अन्तर जघन्यथी वर्षपृथक्त्व, अनं उत्क पृथी संख्यात सागरोपम होय छे. [प्र०] हे भगवन ! ए वैक्रियशरीरना देशबंधक, सर्वबंधक अने अबंधक जीवोमां कया जीवो कया जीवोथी यावद् विशेषाधिक छे ? [उ०] हे गौतम! वैक्रियशरीरना सर्वबंधक जीवो सौथी थोडा छे, तथा देशबंधको असंख्यातगुणा छे, अने तेथी अबंधको अनंतगुणा छे.
आहारगसरीरप्पयोग बधे णं भंते ! कतिविहे पण्णत्ते १, गोयमा ! एगागारे पण्णत्ते । जइ एगागारे पण्णत्ते किं मणुस्साहारगसरीरप्पयोगबंधे किं अमणुस्साहारगसरीरप्पयोग बंधे ?, गोयमा ! मणुस्साहारगसरीरप्पयोगबंधे,
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शतके उद्देशः ९ ॥७१३॥