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विष्णु का विक्रमण
( ३ ) ऋग्वेद १।१५५-१५६ (भावार्थ ) विक्रम का यह गान महान् विष्णु के पौंस्य को बढ़ाता है। पुंस्त्व के संवधन से बाद में आनेवाले पुत्र पूर्व में होनेवाले पिताओं से बढ़ जाते हैं (दधाति पुत्रोऽवरं परं पितुर्नाम)।
जीवन के लिये और लोक में अनंत विस्तार के लिये (उरुगायाय जीवसे) हम मिलकर उस विष्णु के पौस्य का बखान करते हैं (पौंस्यं गृणीमसि)।
विष्णु के विक्रमणों को जब मनुष्य पहचानता है तो उसमें भी हलचल का भाव उत्पन्न होता है। विष्णु के तीसरे चरण को कोई नहीं देख पाता। आकाश में उड़नेवाले पक्षियों की भी वहाँ गति नहीं है।
___ 'विष्णु का विक्रम गोल चक्र की तरह नित्य घूमता है। जैसे जैसे . विष्णु नापता है उसका बृहत् शरीर आकार में बढ़ता है। वह विष्णु यौवन से भरे हुए कुमार के समान है।' जनता के पुण्य श्लोक का गान करनेवाले ऋक्वा गायकों की ऋचाओं को सुनकर विष्णु का यौवन पुन: उसके पास लौट आता है। पृथिवी पर बसनेवाला वृद्धजन अपने बृहच्छरीर और भूमापन करनेवाले रूप को प्राप्त करके यशगान के द्वारा फिर से युवा कुमार बन जाता है। प्रत्येक संस्कृति का चक्र गोल पहिए की तरह बारी बारी से ऊपर-नीचे घूमता रहा है। चक्रवत् परिभ्रमण ही संसार का नियम है ।
विष्णु के निमित्त सबको अपना अपना अर्घ्य चढ़ाना है। जो विद्वान् हैं वे ज्ञान की हवि से विष्णु को समृद्ध करते हैं। संस्कृति की सेवा ही उनके द्वारा राष्ट्ररूपी विष्णु का संवर्धन है । परंतु जो हविष्मान् हैं, जिनके समीप भौतिक संपत्ति की हवि है वे उसके द्वारा विष्णु के यज्ञ को बढ़ाते हैं।
_ 'यह महान् विष्णु 'पूर्व्य' अर्थात् पुराने से भी पुराना है, परतु साथ ही यह 'नवीयस' अर्थात् नए से भी नया है। इस विष्णु की जो शोभनी
• ग्रिफिथ-Vishnu strode the realms of Earth for freedom and for life (ऋ. १६१५५४)
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