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. गौतमीपुत्र श्री शातकणि की विजय-प्रशस्ति १३७ दूसरों को स्ववश में करने में प्रवीण थे; धनुर्धारियों में अद्वितीय, और शूरों में अद्वितीय थे; जो एक अद्वितीय ब्राह्मण थे; पराक्रम में जो राम, केशव, अर्जुन और भीमसेन के तुल्य थे; त्योहारों, सवों और समाजों में जो अनवरत दान करनेवाले थे; जो नाभाग, नहुष, जनमेजय, शंकर, ययाति, राम और अंबरीष के समान तेजस्वी थे, युद्धों में जिनको स्फूर्ति और शौर्य पवन, गरुड़, सिद्ध, यक्ष-राक्षसों के समान अपरिमित, अक्षय, अज्ञेय तथा श्लाघ्य थे; जिसने विद्याधर, भूत, गंधर्व, चारण, चंद्र, सूर्य, नक्षत्र और ग्रहों के समकक्ष शत्रुओं के समूह को विजित किया; युद्ध-समय जो अपने श्रेष्ठ गज के कंधे से व्योमतल में प्रविष्ट होते-से जान पड़ते थे जिसने इस प्रकार अपने वंश को विपुल ओ से संपन्न कर दिया-ऐसे भी शातकर्णि की माता महादेवी गौतमी बालश्री-जो सत्य वचन, दान, क्षमा और अहिंसा में निरत है; जो तप, दम, नियम और उपवास में तत्पर है -जो एक राजर्षिवधू को शोभा देने योग्य संपूर्ण विधियों का पालन करती है; उसके द्वारा यह देय धर्म (दान) किया जाता है; [ कैलाश के ] समान शिखरवाले इस त्रिरश्मि पर्वत के शिखर पर उसके अनुरूप ही सुदर लेण (लयन)। यह लेण महादेवी, महाराज-माता, महाराज-प्रपितामही भदावनीय भिक्षु-संघ को देती है। इस लेण के चित्रण के लिये, अपनी प्रपितामही महादेवी [बालश्री ] के प्रति सेवा-भाव को सूचित करते हुए और उसे संतुष्ट करने के लिये, उसका पौत्र [पुलुमावि ], जो दक्षिणापथ का स्वामी है, दान के पुण्य को अपने [ स्वर्गीय ] धर्मसेतु पिता को अर्पित करता हुआ इस देयधर्म ( लेण ) के लिये, पिशाचिपद्रक नामक ग्राम जो तिरहु ( त्रिरश्मि) पर्वत से दक्षिण-पश्चिम की ओर स्थित है, दान में देता है। इसका सभी प्रकार से उपभोग किया जा सकता है।
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