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२३२ . नागरीप्रचारिणी पत्रिका
बोर्नियो-जावा के ठीक ऊपर एक बड़ा सा द्वीप है जिसे बोर्नियो कहा जाता है। इस द्वीप से प्राप्त लेखों के अनुसार चौथी सदी तक बोर्नियो में अवश्य ही हिंदूराज्य की स्थापना हो चुकी थी। यज्ञादि होने लगे थे, जिनकी स्मृति में लेख उत्कीर्ण कराए गए थे। शिव, गणेश, नंदी, अगस्त्य, ब्रह्मा, स्कंद, महाकाल की पूजा होनी श्रारंभ हो गई थी। शैव मूर्तियों की अधिकता शैवधर्म के प्राबल्य की द्योतक है। मूर्तियों पर विशुद्ध भारतीय प्रभाव है। संभव है कि ये भारत से ही ले जाई गई हों।।
सलिबस-लगभग १५ वर्ष हुए कि सॅलिबस के पश्चिम तट पर बुद्ध की एक विशाल किंतु भग्न पित्तल-प्रतिमा उपलब्ध हुई। हिंदचीन तथा पूर्वीय द्वीपसमूह में प्राप्त पित्तल-प्रतिमाओं में यह सबसे विशाल है। इसकी कला लंका की बुद्धप्रतिमाओं के सदृश है। ऐतिहासिकों की सम्मति है कि यह मूर्ति अमरावती से ही वहाँ ले जाई गई थी। आज से पंद्रह वर्ष पूर्व तक स लिबस में भारतीय संस्कृति का कोई भी चिह्न उपलब्ध न हुआ था। इसके प्रकाश में श्रा जाने से बृहत्तर भारत के इतिहास में एक नवीन अध्याय का प्रारंभ हो गया है।
ईसा की प्रथम तथा दूसरी शताब्दि में हिंदू प्रवासियों ने मलायेशिया में जिस सभ्यता की प्रथम किरण को पहुँचाया था उसका उष:काल सातवीं शताब्दि कही जा सकती है। इसके पश्चात् शैलेंद्र सम्राटों के समय उसका मध्याह्न प्रारंभ हुआ। इन प्रदेशों में प्राप्त शिलालेखों से ज्ञात होता है कि भारतीय धर्म, भाषा, साहित्य तथा संस्कृति वहाँ के स्थानीय अंश को नष्ट कर पूर्ण विजय प्राप्त कर चुकी थी। मूलवर्मा के लेख में यज्ञ, दान, ब्राह्मण-प्रतिष्ठा, तीर्थयात्रा तथा सगर आदि राजाओं का उल्लेख है। भारतीय तिथिक्रम, दूरी नापने की भारतीय विधि, चंद्रभागा और गोमती आदि नदियों के नाम और पदचिह्नपूजा वहाँ प्रचलित हो चुकी थी। शिव, विष्णु, ब्रह्मा, गणेश, नंदी, स्कंद और महाकाल की पूजा में मंदिरों का निर्माण हो चुका था। गंगा की पवित्रता का विचार प्रचलित था। लेखों की संस्कृत भाषा और राजाओं के वर्मा-युक्त नाम भारतीय प्रभाव के सूचक हैं। पाँचवीं शताब्दि तक वहाँ हिंदूधर्म का उत्कर्ष रहा। इसके बाद बौद्धधर्म का प्रसार हुआ। नालंदा का उपाध्याय धर्मपाल तथा दक्षिण भारत का भिक्षु वनबोधि चीन जाते हुए सुमात्रा ठहरे थे। उस समय यह विद्या के अतिरिक्त व्यापार का भी बड़ा केंद्र था।
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