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नागरीप्रचारिणी पत्रिका
वह अपने ज्ञातियों (कुटुंबियों), देवों और पितरों के ऋण से मुक्त हो नहीं होता ( कि मैंने अपने प्रयत्न में कोई
पछतावा
जाता है, और उसे कसर छोड़ी ) ।'
'किंतु जिस काम के परिणाम नहीं दिखाई देता, निश्चित ही है ?'
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पार नहीं लगा जा सकता, जिसका कोई फल या वहाँ वायाम से क्या लाभ - जहाँ मृत्यु का आना
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'जो यह जानकर कि मैं पार न पाऊँगा उद्यम नहीं करता, यदि उसकी हानि हो, तो देवि, उसमें उसी के दुर्बल प्राणों का दोष है । मनुष्य अपने अभिप्राय के अनुसार, देवि, इस लोक में अपने कार्यों की योजना बनाते और यत्न करते हैं; सफलता हो या न हो ( सो देखना उनका काम नहीं है ) । कम का फल निश्चित है देवि, क्या तू यहीं यह नहीं देख रही ? मेरे साथी सब डूब गए, और मैं तैर रहा हूँ, और तुझे अपने पास देख रहा हूँ! सो मैं व्यायाम करूँगा ही, जब तक मुझमें शक्ति है, जब तक मुझमें बल है, समुद्र के पार जाने को पुरुषकार करता रहूँगा ।'*
* श्री जयच ंद्र जी विद्यालंकार - कृत रूपरेखा भाग १, पृ० ३४६ में दिया हुआ अनुवाद । मूल पाली गाथाओं के लिये देखिए, फॉसबॉल कृत पाली जातक, भाग ६, महाजनक जातक ( ५३६ ), पृ० ३५-३६ ।
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