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भारत और अन्य देशों का पारस्परिक संबंध
. २२७ अतिरिक्त इंद्र,
इनके
सिद्ध, विद्याधर,
आदि के
पूजा चतुरानन और स्वयंभू रूप में प्रचलित थी । यम, सूर्य, चंद्र, गंगा आदि की उपासना भी प्रचलित थी। पद्म, किन्नर, गंधर्व और अप्सराओं का वर्णन भी चंपा के लेखों में पाया जाता है । एक तरह से सारा का सारा हिंदूधर्म अपने पूर्ण रूप में वहाँ जाकर विकसित हुआ था । इससे चंपा में एक दूसरा भारत बस गया था । युगों का विचार, पंचभूतों का विचार, अवतारवाद, जीवन की क्षणभंगुरता विचार भी वहाँ प्रचलित थे। कहने में तो चंपा में ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र चारों वर्ण थे, पर क्रियात्मक दृष्टि से ब्राह्मण और क्षत्रिय दो ही भेद थे । यज्ञोपवीत पहनने की प्रथा भी विद्यमान थी । चंपा की वैवाहिक पद्धति हिंदू वैवाहिक पद्धति के सदृश थी। वे जाति और गोत्र आदि का विचार करके विवाह करते थे । सतीप्रथा भी प्रचलित थी। जो स्त्रियाँ पति के साथ सती न होती थीं वे हिंदू विधवाओं की तरह तपस्या का जीवन व्यतीत करती थीं । सिंदूर न लगाती थीं। अच्छे वस्त्र न पहनती थीं । विधवा-विवाह के भी कुछ उदाहरण मिलते हैं। कई हिंदू त्यौहारों का वर्णन भी प्राचीन लेखों में पाया जाता है। मृतक संस्कार हिंदू विधि से ही होता था । प्रथा भी प्रचलित थी । संस्कृत-साहित्य का प्रचार बहुत था चारों वेदों का ज्ञाता था । इंद्रवर्मा तृतीय षड्दर्शन, जैनदर्शन और व्याकरण का पंडित था । जयद्रवर्मदेव व्याकरण, ज्योतिष्, महायान और धर्मशास्त्र तथा शुक्रसंहिता का ज्ञाता था । एक स्थान पर योगदर्शन का उल्लेख है । रामायण और महाभारत से वे अच्छी तरह परिचित थे। पुराणों का भी उन्हें पता था । मनु, नारद और भृगु स्मृति का उल्लेख भी लेखों में पाया जाता है । इस प्रकरण को हम श्री रमेशचंद्र मजूमदार के इन शब्दों से समाप्त करते हैं "भारत के वे सुपूत जिन्होंने सुदूर प्रदेशों में जाकर अपनी पताकाएँ गाड़ी थीं और १८०० वर्ष तक अपनी मातृभूमि के गौरव को उज्ज्वल रखते हुए उसे गिरने नहीं दिया था, अततः विस्मृति की अँधेरी गोद में लुप्त हो गए। परंतु सभ्यता की वे मशालें जिन्हें उन्होंने पकड़ा हुआ था और जो सुदीर्घ काल तक अंधकार से लड़ाई का प्रकाश फैलाती रहीं, अब भी अस्पष्ट रूप में मन्दज्योति से जल रही हैं और भारतीय इतिहास पर एक उज्ज्वल प्रकाश डाल रही हैं।"
अस्थिप्रवाह की
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राजा भद्रवर्मा
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