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नागरीप्रचारिणी पत्रिका बहती थी। शैलेोदा की पहचान से इन जातियों की भौगोलिक स्थिति पर बहुत कुछ प्रकाश पड़ सकता है। मत्स्यपुराण (१२०, १९१८ ) के अनुसार शैलेादा कैलाश के पश्चिम अरुण पर्वत से निकलकर पश्चिमी समुद्र में गिरती है। मार्कडेय पु० (५५, ३) में शीतोदा जो शायद शैलोदा का अपपाठ है, मेरु पर्वत से निकली दिखाई गई है। मेरु तथा मंदर की पहचान अभी ठोक ठीक नहीं हो सकी। पार्जिटर ने पश्चिमी तिब्बत में (मार्क पु०, ३५१) शैलोदा नदी को रखा है। इन सब अवतरणों को देखते हुए यह पता चलता है कि शैलेादा उत्तर में शायद कर्राकुरम और मुस्ताक के पास कहीं रही हो। कर्राकुरम में जहां से सहायक श्योक नदी दक्षिण की तरफ निकलती है, उसी के ठीक सामने उत्तर की ओर यारक द नदी उसी पर्वत के नीचे की ओर बहती है। यारकंद को 'जरफा' और चीनी में शीतो नदी कहते हैं। यह नदी कर्राकुर म के दक्षिणी पद से सटी हुई बहती है और इस पर्वत-श्रृंखला को उल्लुद से अलग करती है। संभवत: सीतो नदी ही महाभारत की शैलीदा है। यदि यह पहचान ठीक है तो कर्राकुर म पर्वत मेरु हो सकता है और कुनलुन पर्वतश्रृखला मंदर ।
खश-(सभा०, ४८१३) संस्कृत-साहित्य में खशों के बहुत उल्लेख हैं। नेपाल में गोरखे खश कहाते हैं, और इनकी भाषा खश या पर्वतिया कहलाती है। कश्मीर के दक्षिण-पश्चिम के पहाड़ी इलाके में भी खश रहते थे। राजतरंगिणी के बहुत से उद्धरणों से पता लगता है कि कष्टवार के पश्चिम में वितस्ता की घाटी तक खश रहते थे (स्टाइन, राजत०, जिल्द २, पृ० ४३०)। सिल्वा लेवी के अनुसार ( बो० ई० एफ० ई० ओ०, जिल्द ४, पृ० ५६४) खश -किसी जाति-विशेष का नाम नहीं था, बल्कि इस शब्द से उन अर्धसस्कृत जातियों का बोध होता था जो हिमालय में रहती थीं, और जिन्होंने हिंदू धर्म ग्रहण कर लिया था। पर मध्य एशिया में खश शब्द एक विशेष माने रखता है। यहाँ काशगर के लिये इस शब्द का व्यवहार हुआ है (वही, पृ० ५५७)। उपायनपर्व में खश का विशेषण एकाशन (पाठभेद एकासन ) आता है, जिससे पता चलता है कि यह खश एक जगह फिरंदर नहीं बल्कि गाँव में रहनेवाले थे।
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