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भारत और अन्य देशों का पारस्परिक संबंध २०७ गया था। मातंग द्वारा राजा ने बौद्धधर्म की दीक्षा ली। दोनों भिक्षुओं ने चीनी भाषा सीखकर बहुत से ग्रंथों का चीनी भाषा में अनुवाद किया। चीन में बौद्धधर्म का अंकुर जमते ही भारतीय पंडितों का चीन की ओर प्रवाह सा बहने लगा। दूसरी शताब्दि का अंत होने से पूर्व ही प्रार्यकाल, सुविनय, चिलुकाक्ष और महाबल चीन गए। तीसरी शताब्दि में धर्मपाल, धर्मकाल, विघ्न, तुहयांन, कल्याण और गोरक्ष चीन पहुँचे। इन पंडितों ने तीन सौ से अधिक ग्रंथों का चीनी भाषा में अनुवाद किया। इस समय तक हजारों लोग त्रिरत्न की शरण में आ चुके थे।
पाँचवीं शताब्दि के प्रारंभ में कुमारजीव चीन गया। इसने १२ वर्ष में १०० पुस्तकों का चीनी भाषा में अनुवाद किया। यह प्रतिभासंपन्न व्यक्ति था। प्रथों का अनुवाद करते हुए इसने पुराना ढर्रा त्यागकर नवीन विधि का अनुसरण किया। इसी लिये इसके द्वारा अनूदित ग्रंथ मौलिक रचना-से जान पड़ते हैं। कुमारजीव की भाषा हन्-त्साङ् से भी अच्छी समझी जाती है। जापानी विद्यार्थियों से प्रायः यह प्रश्न पूछा जाता है कि कुमारजीव और हन्-त्साङ् में से किसकी भाषा श्रेष्ठ है और इसका उत्तर यही समझा जाता है कि कुमारजीव की भाषा अधिक अच्छी है। कुमारजीव की शिष्य-मंडली भी बहुत बड़ी थी। फाहियान इन्हीं शिष्यों में से एक था।
. पाँचवीं सदी में चीनी साम्राज्य कई खंडों में बँट गया। उत्तर में तातार और दक्षिण में सुङ वंश शासन करने लगे। ये दोनों वंश बौद्धधर्म के कट्टर शत्रु थे। इस समय बौद्धमतावलंबियों पर भयंकर अत्याचार किए गए। सङ्वन्-ति ने इस प्रतिक्रिया को शांत कर फिर से बौद्धधर्म की प्रतिष्ठा की। चीनी सम्राट के इस धर्मप्रेम की कथा सुनकर भारत और मध्य एशिया के सभी राजाओं ने बधाई देने के लिये अपने दूत सम्राट के पास भेजे । इस समय समस्त देश में नवजीवन का संचार हो रहा था। बौद्ध धर्म के प्रति इस बढ़ते हुए उत्साह को देखकर भारतीय पंडितों का प्रवाह फिर से चीन की ओर बह निकला। ४३१ ई० में गुणवर्मा चीन पहुँचा। चीन जाने से पूर्व इसने जावा के राजा को बौद्धधर्म में दीक्षित किया। इसके बाद गुणभद्र चीन गया। यह महायान पंथ का इतना धुरंधर पंडित था कि लोगों ने इसका
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