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नागरीप्रचारिणी पत्रिका
कल्याण के लिये सदा नवीन, वह सुंदर संदेश है जो न तो योरुप के पास है और वहाँ की ईसाइयत के ही पास | इस प्रकार बौद्धधर्म का पुनरुत्थान हुआ । १८७० में बौद्धधर्म राष्ट्रधर्म के रूप में स्वीकृत किया गया। इस समय अन्य देशों में भी बौद्धधर्म फैलाने का यत्न किया गया। हवाई द्वीप में इसी काल में बौद्धधर्म फैला। अति प्राचीन काल से जापानियों का यह विश्वास है कि सूर्य्य का सर्वप्रथम उदय उनके देश में ही होता है । इसलिये ये अपने देश को 'सूर्योदय का देश' कहते हैं, परंतु जापानी लोग अपनी समस्त उन्नति का श्रेय एक दूसरे ही आध्यात्मिक सूर्योदय को देते हैं । वह है बौद्धधर्म, 'नमः श्रमितबुद्धाय' का जो संजीवनी नाद लगभग डेढ़ सहस्र वर्ष पूर्व भारत की हृदय गुहा से उठा था वह हिमालय के हिममंडित शिखरों को प्रकंपित कर, प्रशांत महासागर की ऊर्मिमालाओं को उद्वेलित करता हुआ आज जापान के वायुमंडल में गूंज रहा है 'नामु अमिता बुत्सु ।'
तिब्बत
तिब्बती कथानकों के अनुसार चौथी शताब्दि में ला-सेम-सा ( भारतीय पंडित का तिब्बती नाम) कुछ बौद्ध ग्रंथ लेकर तिब्बत पहुँचे । परंतु राजा के अपढ़ होने से पंडित और अनुवाद ग्रंथ देकर वापिस लौट आए। तोतो- र के शासनकाल में ये ग्रंथ फिर से राजा के संमुख उपस्थित किए गए, किंतु इस समय भी तिब्बत में लिखना पढ़ना प्रचलित न हुआ था । श्रतः इन ग्रंथों का अभिप्राय न जाना जा सका । ६२९ ई० में स्रोङ सेन् गंपो राजा बना। इसने ६३२ ई० में तान्निस बोता को अन्य सोलह व्यक्तियों के साथ बौद्ध ग्रंथ लाने तथा भारत की भाषा सीखने के लिये यहाँ भेजा । १८ वर्ष तक भारत में रहने के उपरांत यह दूतमंडल तिब्बत लौटा। वहाँ जाकर इसने नई भाषा का प्रचार किया जो हरहा के मौखरी शिलालेख तथा काश्मीर की तत्कालिक लिपि से बहुत मेल खाती थी। इस नई भाषा का व्याकरण चंद्रगोमिन और पाणिनीय के आधार पर तैयार किया गया था । ६४१ ई० में स्रोडसेन्गंपों ने चीनी राजकुमारी से विवाह किया । इसके संसर्ग से यह बौद्ध बन गया और बौद्ध धर्म के प्रचारार्थ यत्न करने लगा । ८वीं शताब्दि में
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