Book Title: Vikram Pushpanjali
Author(s): Kalidas Mahakavi
Publisher: ZZZ Unknown

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Page 222
________________ २१२ नागरीप्रचारिणी पत्रिका ७१० से ७९४ तक का काल “नाराकाल" कहा जाता है। इस काल में जापान की राजधानी नारा रही। यही जापान की सर्वप्रथम स्थायी राजधानी थी। इस युग में जापान ने बहुत उन्नति की। इस उन्नति का श्रेय बौद्धधर्म को है। बौद्धधर्म अपने साथ केवल भारतीय दर्शन को ही नहीं अपितु, चीनी और भारतीय वास्तुकला को भी जापान ले गया। इस समय जापान में बड़े बड़े मंदिर और मूर्तियाँ गढ़ी गई। ७४९ ई० में संसार की महत्तम पित्तलप्रतिमा 'नारा-दाए-बुत्सु' का निर्माण हुआ। १३ फीट ऊँचा प्रसिद्ध 'तो. दाइजी' घंटा भी इसी काल में बना। इस काल की मूर्तियों पर भारतीय कला की झलक स्पष्टतया दृष्टिगोचर होती है। इसी काल में चीन और भारत में भी बौद्धकला उन्नति के शिखर पर आरूढ़ थी। इसी समय चीन में पहाड़ काटकर 'सहस्र बुद्धोंवाले गुहामंदिरों का निर्माण हो रहा था और लगभग इसी समय भारत में अजंता की दीवारों पर पत्थर तराशकर जातक कथाएँ चित्रित की जा रही थीं। इस युग में बौद्धधर्म का बहुत प्रसार हुआ। एक लेखक ने ठीक ही लिखा है-"बौद्धधर्म ने जापान में कला, वैद्यक, कविता, संस्कृति और सभ्यता को प्रविष्ट किया। सामाजिक, राजनैतिक तथा बौद्धिक प्रत्येक क्षेत्र में बौद्धधर्म ने अपना प्रभाव दिखाया। एक प्रकार से बौद्धधर्म जापान का शिक्षक था जिसकी निगरानी में जापानी राष्ट्र उन्नति कर रहा था।" ७९४ से ८८९ तक "ही-अन युग" कहाता है, क्योंकि इस काल में जापान की राजधानी ही-अन नगर रही। इन दिनों जापान में दो महापुरुष उत्पन्न हुए। इनका उद्देश्य चीनी बौद्धधर्म के आधार पर जापानी बौद्धधर्म की उन्नति करना था। आगामी शताब्दियों में जापान के सामाजिक और धार्मिक जीवन पर इन आचार्यों की शिक्षाओं का बहुत प्रभाव पड़ा। इनके नाम साइचो और कोकई थे। ८८९ से १९९२ तक जापान की शासन-शक्ति फ्यूजिवारा वंश के हाथ में रही। जिस चित्रकला के लिये जापान जगद्विख्यात है, उस कला का विकास इसी समय हुआ। इस उन्नति में भिक्षुओं ने बहुत हाथ बँटाया। ११९२ से १३३८ तक का समय 'कामाकुरा काल' कहाता है। इस समय जापान की राजधानी कामाकुरा थी। यह काल सामंत-कलह के लिये Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com

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