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नागरीप्रचारिणी पत्रिका
विद्यार्थी भारत रहे हैं और भारतीय विद्वान् चीन बुलाए जा रहे हैं । यह पुरातन इतिहास की पुनरावृत्ति मात्र है ।
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जापान
'ईसवी सन् के आरंभ से ही चीन में बौद्ध शिक्षाएँ प्रचलित होने लग गई थीं । चतुर्थ शताब्दि तक वहाँ बौद्धधर्म पर्याप्त शक्तिशाली बन गया था । इस समय भिक्षु लोग चीन की सीमाएँ पार कर पड़ोसी राज्यों में भी इस नवीन धर्म का प्रचार करने लगे । ३७२ ई० में सुन-दो नामक भिक्षु मूर्तियों और सूत्रग्रंथों के साथ सी-नान-फू से को- गुर्-यू पहुँचा । चीन का पड़ोसी देश कोरिया इस समय तीन राज्यों में बँटा हुआ था - को- गुरू - यू, पाकूचि और सिल्लों । इनमें सबसे प्रथम को गुर्-यू बौद्धधर्म के सौरभ से सुरभित हुआ । ३८४ ई० में मसनद नामक भिक्षु पूर्वीय चीन से पाक्चि पहुँचा । शीघ्र ही यहाँ का राजा भी बौद्ध बन गया । यहीं के राजा सिमाई ने ५५२ ई० में जापानी सम्राट् किम्याई की सेवा में धर्मप्रचारक भेजे थे। इस प्रकार कोरिया, जापान में, बौद्धधर्म के प्रचार के लिये माध्यम बना । ४२४ ई० में कुछ प्रचारक को - गूर्-यू से सिल्ला पहुँचे। इनके प्रयत्न से यहाँ का राजधर्म भी बौद्धधर्म हो गया । अन्य देशों की अपेक्षा कोरिया में बौद्धधर्म को राष्ट्रधर्म बनने में कम समय लगा ।
चीन शाक्यमुनि का अनुगामी बन चुका था। चीन का पड़ोसी कोरिया भी बुद्ध की शरण में आ चुका था। अब प्रशांत महासागर में केवल एक ही द्वीपसमूह शेष था जहाँ बौद्ध शिक्षाओं की सुगंधि अभी तक न पहुँची थी । इस द्वीपसमूह का नाम जापान था, किंतु यह भी समय के प्रभाव से न बच सका । २०२ ई० में जापानी सेनाओं ने कोरिया जीत लिया । ५२२ ई० में शिबातात्सु नामक एक भिक्षु पूर्वीय चीन से कोरिया होता हुआ जापान पहुँचा। इसने जापान के दक्षिणी तट पर फूस की एक झोपड़ी में बुद्ध मूर्ति स्थापित कर बौद्धधर्म फैलाने का यत्न किया, परंतु लोग इसका अभिप्राय न समझ सके और एक भी व्यक्ति धर्म में दीक्षित न हुआ । इस घटना के ३० वर्ष बाद ५५२ ई० में पाकक्चि के राजा सिमाई ने स्वर्णप्रतिमा, धार्मिक ग्रंथ, पवित्र झंडे और एक पत्र के साथ कुछ भिक्षुओं को जापानी सम्राट् किम्बाई की
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